Opinion

क्या सेंट्रल विस्टा के लिए किए गए उपाय उसे 'विश्वस्तरीय' बनाते हैं?

कुछ ही समय पहले हुई पर्यावरण शिखर वार्ता कॉप-26 में भारत ने अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने के लिए साल 2070 का लक्ष्य दिया, जो कि बाकी सभी देशों की तुलना में 10 से 20 साल आगे है, यह चीन से भी 10 साल देर से है जिसका उत्पादन हमारे देश से कहीं ज्यादा है. भारत का यह तर्क बिल्कुल वाजिब है कि तीसरी दुनिया के देशों को जैविक इंधन के इस्तेमाल को कम करने और गरीबी को कम करने के लिए अनुदान के धन का उपयोग, और विकास के लिए ज्यादा समय दिए जाना चाहिए.

लेकिन जमीन पर बदलाव की इच्छा बिल्कुल नदारद दिखाई पड़ती है. जहां एक तरफ बड़ी चीजें और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं जैसे कि अक्षय ऊर्जा का विस्तार सतत रूप से चलता हुआ दिखाई पड़ता है, वहीं दूसरी और विकास के लक्ष्यों के आसपास की निष्ठुरता पर्यावरण के अनुकूल स्थायित्व को किनारे कर देती है. "पर्यावरण के लिए अपने दृष्टिकोण से उदाहरण प्रस्तुत करने" की इच्छा रखने वाली यूरोपियन संसद के विपरीत, भारत का प्रशासन इसकी महत्ता को खारिज करना जारी रखता है.

परिवर्तन के मोर्चे पर सबसे आगे खड़ा भारत, जहां चेन्नई, बेंगलुरु, दिल्ली व उत्तराखंड में बाढ़ के प्रकोप, चक्रवात, लू, भूस्खलन और निकलते हुए ग्लेशियरों ने तबाही मचाई है: इसके बावजूद भी पर्यावरण से जुड़ी हदों के बेपरवाह उल्लंघन और नागरिकों के द्वारा चुकाई गई कीमत के बीच के संबंध को प्रशासन पहचानने को तैयार नहीं है. इसके विपरीत उसने पर्यावरण कानूनों को और हल्का कर दिया है जिससे कि पर्यावरण को प्रदूषित और नष्ट करने वाली परियोजनाओं को दंडहीन छूट दी जा सके.

सेंट्रल विस्टा परियोजना इरादों की इस कमी का प्रदर्शन है.

इसी वजह से दिल्ली में रिकॉर्ड तोड़ प्रदूषण के दौरान निर्माण कार्यों पर पाबंदी से इसे छूट मिली हुई है. इसीलिए इसका "विश्व स्तरीय" होने का तमगा एक अर्थहीन बात है, जो नई स्मार्ट तकनीकों से आधुनिकता का वादा करती है लेकिन वास्तव में अपने आसपास के पर्यावरण पर कहर ढाती है.

आज यह अकल्पनीय है कि कोई भी विश्व स्तरीय परियोजना करीब 6000 पेड़ों के कत्ल, 18 भवनों के तोड़ने से होने वाले बड़े कार्बन पदचिह्न, 10 नई इमारतें बनाने के लिए पानी की कीमत और बढ़ी हुई क्षमता की वजह से बढ़ने वाले ट्रैफिक से नाजुक हेरिटेज इलाकों पर होने वाले असर को मंजूरी दे.

लेकिन इस परियोजना से होने वाले भीमकाय अनुसांगिक नुकसान का नमूना भर है.

लेकिन यह "विश्व स्तरीय" परियोजना बाकी दुनिया से इतना अलग कैसे हो सकती है? यह जानने के लिए इस पीढ़ियों में एक बार बनने वाली परियोजना के पीछे के विचार को जानना उपयोगी होगा. लोगों से जुड़ी राष्ट्रीय जगह होते हुए, आर्किटेक्टों ने इसके डिजाइन की कल्पना आसपास के शहरी इलाके को देखते हुए कैसे की? एक ग्रेड-1 हेरिटेज इलाके में स्थित होने की वजह से, कौन से चुनाव थे जिनका उन्हें इस पुनर्निर्माण के लिए सामना करना पड़ा.

उन तीन महत्वपूर्ण चुनावों की तरफ देखते हैं जो हर ऐसी परियोजना को करने पड़ते हैं.

  • प्रक्रिया की विध्वंसकता, अर्थात विध्वंस या पुनर्निर्माण?

क्या नवीनीकरण के लिए इतने बड़े स्तर पर ध्वंस (4.5 लाख वर्ग किलोमीटर) ठीक है, या पर्यावरण और विरासत के संरक्षण के लिए कुछ कम विध्वंसक विकल्प हो सकते हैं, जैसे कि अनुकूलता के हिसाब से पुनर्प्रयोग या पुराने और नए का कुछ मिश्रण?

  • नुकसान, मतलब कि कितना निर्माण होना चाहिए और कितने की आवश्यकता है?

नया निर्माण आवश्यकता के हिसाब से वाजिब अनुमानों के हिसाब से होना चाहिए या फिर वह एक महकाय स्तर की एक संदेश देने वाली इमारत होनी चाहिए? अगर ऐसा है तो यह स्तर कितना और किस अनुपात में होना चाहिए? सेंट्रल विस्टा परियोजना उतने ही लोगों के लिए पहले से चार गुना ज्यादा निर्माण कर रही है.

  • संसाधनों की सदा के लिए हानि, अर्थात प्राकृतिक परिस्थितियों का सम्मान या उपेक्षा?

क्या किसी इलाके के आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कि जल का स्तर या दशकों में तैयार हुए 6000 वृक्षों के संरक्षण की कोई कीमत है? अगर है, तो वह कीमत क्या है? क्या उसकी कीमत को शून्य पर आंकना तर्कसंगत है? क्या भविष्य में चुकाई जाने वाली कीमतों, जैसे सारे पानी को रोक लेने की वजह से आने वाली बाढ़ या हरियाली को खोने के विनाशकारी परिणामों के बारे में सोचा जाना चाहिए? क्या डिजाइन में, आने वाली पीढ़ियों के लिए होने वाले इस संपदा के नुकसान के बारे में भी सोचना चाहिए?

सेंट्रल विस्टा में इन सब चीजों की कोई भूमिका थी, इसका प्रमाण मिलना मुश्किल है. इसकी जगह, ऐसा लगता है कि "नए भारत" के एक वक्तव्य को साकार करने के लिए डिज़ाइन तैयार करने के लिए उपरोक्त तीनों की कीमत वाजिब थी. इस "कुशल" इंफ्रास्ट्रक्चर की कीमत, सदा के लिए दिल्ली के दिल का नुकसान कर देगी, इस बारे में सोचा भी नहीं गया.

पहला चुनाव- विध्वंस, अर्थात तोड़ने का निर्णय, क्या तोड़ना है और कितना तोड़ना है

पहला चुनाव एक ऐसा डिजाइन तैयार करना था, जिसमें आर्किटेक्ट को 18 इमारतें और 4000 से 6000 पेड़ उस जगह पर काटने पड़ें जहां की वो खासियत हैं.

इन 18 इमारतों में वे इमारतें (राष्ट्रीय संग्रहालय और आईजीएनसीए) भी थीं जिन्हें उनके अंदर रखी चीजों, आधुनिक भारतीय वास्तुकला के पहले उदाहरणों के रूप में उनका ऐतिहासिक महत्व, और देश के सबसे महत्वपूर्ण ग्रेड-1 हेरिटेज इलाके में उनका संरक्षित दर्जा, उन्हें बेशकीमती बनाता है.

ऐसा चुनाव करने के रास्ते में कई खास अड़चनें आई होंगी. ऐसे ही तोड़ देना तो पूरी तरह से गैरकानूनी होगा, और तोड़ने के लिए मंजूरियां लेने के लिए कानून के पापड़ बेलने पड़ेंगे और बहुत कीमत आएगी.

लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि इतनी अड़चनें होने के बावजूद भी यही किया गया, और पहले बताए गए कारणों में से किसी पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया.

इस काम को और कैसे किया जा सकता था?

उदाहरण के तौर पर, क्या वृक्ष और इमारतों के बीच किसी एक का ही चुनाव करना जरूरी था? क्या डिजाइन में इमारतें और पेड़ों दोनों की जगह नहीं हो सकती थी? क्या नए डिजाइन का ज्यामितीय आकार ही इकलौती वरीयता थी या भारत के लिए एक संवेदनशील और सूक्ष्म दृष्टि से फिर से डिजाइन करना बेहतर रहता? अगर उस समय भी आखरी निष्कर्ष यही होता कि ध्वंस आवश्यक है, तब भी क्या उसे 18 इमारतों या आधे से ज्यादा राजपथ पर लागू करना ज़रूरी था?

या फिर चुने हुए आर्किटेक्ट ने खुद ही अपने को देश के सबसे शक्तिशाली इलाके में पूरी तरह से खुली छूट दे दी, जिसे प्रशासन की मदद प्राप्त थी जो किसी भी परेशान करने वाले सख्त नियम और रोक को हटा सकती थी- एक ऐसी सुविधा जो आम दुनिया में संभव नहीं है.

अध्ययन करें या न करें

आर्किटेक्ट विमल पटेल ने कई बार डिजाइन निर्धारण के लिए अध्ययनों को लेकर अपनी अधीरता दिखाई है, और हाल ही में उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय संग्रहालय और आईजीएनसीए को तोड़ने और उन प्लॉटों पर सचिवालय की इमारतें बनाने का निर्णय शुरुआत में ही गूगल अर्थ पर उनको देखकर ले लिया गया था.

वे कहते हैं, "डिजाइन एक स्केच से शुरू होता है. डिजाइन करने की प्रक्रिया में आप यह समझना शुरू करते हैं कि क्या डाटा इकट्ठा किया जाना चाहिए, किन जरूरतों को पूरा किया जाना चाहिए और किन्हें नहीं. आप नए अवसर देखते हैं, नई असंभवताओं बंदिशों आदि को देखते हैं. इस वजह से आप अध्ययनों का इंतजार नहीं कर सकते, आपको डिजाइन करने की शुरुआत करनी पड़ती है और साथ ही साथ अध्ययन करे जाते हैं. हमारे पास शुरुआत में गूगल से ली हुई तस्वीरें थी, भगवान का शुक्र है कि हमारे पास गूगल की तस्वीरों से काफी सारी जानकारी आई, इतनी कि आप शुरुआत के स्केच बनाना शुरू कर सकें."

लेकिन यह स्पष्ट है कि स्केच खत्म करने तक भी गूगल से ली हुई तस्वीरें ही काफी थीं.

अक्टूबर 2019 में पेश किए गए शुरुआती डिजाइन में राष्ट्रीय संग्रहालय और आईजीएनसीए को हटाकर उनकी जगह सचिवालय की इमारतों के लिए जगह बनाने का विकल्प चुन लिया गया था. इसके बाद के महीनों में पेड़ों की गिनती उनकी परिपक्वता और साइट पर उनकी जगह, यह सब जानने के लिए कोई अध्ययन नहीं हुआ जो उन्हें बचाने के लिए डिजाइन में कुछ बदलाव ला सकता था. कुछ छोटी-मोटी चीजों को छोड़ दें तो वह शुरुआती स्केच शुरू से आखिर तक एक सा ही रहा, जिसमें पूरी तरह से परिपक्व पेड़ों को साइट पर से हटाया जाना ज़रूरी था.

पहली तस्वीर में प्रारंभिक डिजाइन योजना और नीचे नई डिजाइन योजना देखें. दोनों में ज्यादा अंतर नहीं है.

यह भी स्पष्ट है कि गूगल अर्थ की तस्वीरों में आईजीसीए, राष्ट्रीय संग्रहालय, विज्ञान भवन और उपराष्ट्रपति आवास के अंदर लहराते पेड़ों से भी किसी "अंकुश" या असंभवता" के पुनर्विचार ने जन्म नहीं लिया. डिजाइन की प्रक्रिया में वृक्ष संपदा को कोई मूल्य ही नहीं दिया गया. यह इसी प्रशासन के द्वारा 2016 में युद्ध संग्रहालय की प्रतियोगिता में चुने गए शीर्ष के दावेदारों से बिल्कुल अलग था जिसके विचार का मूल पेड़ों का संरक्षण और अपने डिजाइन उनके हिसाब से बनाना था.

हरे-भरे आईजीएनसीए प्लॉट और राजपथ
आईजीएनसीए की नजदीक से ली गई तस्वीर

योजना 10 ब्लॉक की इमारतों की ही बनी रहे जिनको सबसे विध्वंसक तरीकों से ही बनाया जा सकता था, एक ग्रेड-1 हेरिटेज इलाके में 18 इमारतों और 6000 पेड़ों का ध्वंस.

आधुनिक आर्किटेक्चर के एक मार्मिक मूल्य (पर्यावरण से तारतम्य बिठा कर चलना) पर इस प्रकार की असंवेदनशील प्रतिक्रिया, एक आधुनिक आर्किटेक्ट के लिए एक रोचक लक्षण है.

लेकिन साबरमती रिवरफ्रंट से लेकर काशी से सेंट्रल विस्टा, पटेल की महाकाय सार्वजनिक परियोजनाओं ने उनके द्वारा लंबे समय के लिए स्थिरता और कम से कम बर्बादी को नजरअंदाज कर, काशी की तरह "छोड़ो और हटाओ" जैसे समाधान जहां ध्वंस शुरुआती भूमिका अदा करता है, या फिर साबरमती रिवरफ्रंट की तरह "तुरंत इलाज" जहां एक साफ सुथरा डिजाइन भविष्य में आने वाली कमियों की कीमत पर बना, के चुनाव को स्पष्ट कर दिया.

वह अपने श्रोताओं में बैठे विद्यार्थियों के सामने इस विचार में उनके गहरे अविश्वास को लेकर खुलकर बोलते हैं. उनको मिली सार्वजनिक परियोजनाओं में उन पर दिखाया गया विश्वास उनकी बात को महत्व देता है, पर्यावरण संबंधित स्थिरता के विचार में संशय दिखाती है.

पटेल कहते हैं, "यह शब्द सस्टेनेबल, अगर आप आजकल सस्टेनेबल न कहें कि शायद आप को गोली मार दी जाए. लेकिन यह आर्किटेक्चर का विद्यालय है - हमें एक दूसरे से ईमानदारी से बात करनी चाहिए. हम यह शब्द "सस्टेनेबिलिटी" झाड़ते रहते हैं लेकिन यह बहुत ढीला शब्द है, मुझे नहीं पता इसका क्या मतलब है. कोई मेरे लिए यहां इस शब्द को परिभाषित करे. इतना ही नहीं अगर आप ध्यान से सोचें, तो इसे परिभाषित करना बहुत मुश्किल है."

विश्व प्रसिद्ध आर्किटेक्टों शायद ही कोई इस तरह सार्वजनिक तौर पर पर्यावरण के लिए अपनी उपेक्षा और इमारत के डिजाइन के लिए पेड़ों और पहले से बने ढांचे को हटाने में पूर्ण विश्वास इस तरह से दिखाए, चाहे जो भी कीमत हो.

लेकिन तब भी देश के सबसे सख्त इलाके में ग्रेड वन विरासत कानूनों को किनारे कर दिया गया, और 2 दिन के दिखावे में जनता की राय और स्थानीय निकायों से मंजूरी को निपटा दिया गया, तो यह भी वाजिब है कि यह मान लिया गया होगा कि यह नियामक भी सत्ता की ताकत से दबा दिए जाएंगे.

प्रशासन को यह कैसे पता चला कि आईजीएनसीए में मौजूद वृक्ष एक वन का दर्जा दिए जाने लायक हैं

यहां पर यह कथा एक मोड़ लेती है. एक आम नागरिक की संरक्षक भावनाओं ने अप्रत्याशित तौर पर प्रशासन की सोई हुई व्यवस्था को जगा दिया, जिसे फिर हिचकते हुए अपना काम शुरू करना पड़ा. शायद यह एक अनदेखी गुगली थी.

घटनाएं कुछ इस प्रकार हुईं.

मार्च 2021 में, गुजरात की एक कंपनी कदम एनवायरमेंटल कंसल्टेंट्स के द्वारा तैयार की गई सचिवालय इमारतों के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट ने कहा कि "उपग्रह से लिए गए चित्र के साथ त्वरित सर्वे" के आधार पर सेंट्रल विस्टा की साइट पर कई जगह लगे 4642 पेड़ों में से 3230 पेड़ों को प्रत्यारोपित किया जाएगा. इसमें किसी "मान्य वन" की बात नहीं थी जो यह दिखाता है कि कोई विस्तृत भौतिक सर्वे नहीं किया गया. दिल्ली के वन विभाग को यह काम दिया गया है कि वह इस तरह के "मान्य वनों" को पहचाने तो इसकी संभावनाएं कम हैं कि उनसे संपर्क किया गया, और न ही विभाग इस जानकारी को देने के लिए खुद आगे आया.

रिपोर्ट यह भी कहती थी कि इस इलाके से 3000 पेड़ों के हटाने (बाकी विषयों के अलावा) से इलाके की प्राकृतिक परिस्थितियों और जैव विविधता पर "नगण्य" असर पड़ेगा.

इसकी वजह से निर्माण कार्य फटाफट शुरू हो गया.

20 अप्रैल 2021 को सचिवालय इमारतों के आईजीएनसीए प्लॉट पर पहले सेट के निर्माण के लिए शुरुआती ठेके सीपीडब्ल्यूडी द्वारा जारी किए गए. कई कारणों की वजह से कई टेंडर भरने के आमंत्रण उसके बाद आए.

6 मई 2021 को दिल्ली अर्बन आर्ट कमिशन ने बिना स्थानीय निकाय की मंजूरी के इन इमारतों को राजीनामा दे दिया (जो उन्हें देने का अधिकार बिल्कुल नहीं था).

4 जून 2021 को पेड़ों को हटाने और प्रत्यारोपण करने का ठेका दिया गया.

लेकिन 7 जून को आंदोलनकारी भंवरीन कांधारी ने वन विभाग को पत्र लिखा. उन्होंने पूछा कि यह पेड़ काटने क्यों जरूरी हैं खासतौर पर जब आईजीएनसीए साइट पर इतनी बड़ी संख्या में पेड़ संभवत है एक संरक्षित हो सकते हैं जिन्हें काटने के लिए कहीं सख्त नियमों के जरिए मंजूरी मिलनी ज़रूरी है.

ऐसा लगता है कि विभाग इस संभावना से "अनभिज्ञ" था.

अगस्त 2021 में ऐसा प्रतीत होता है कि विभाग में यह खोज की कि आईजीएनसीए प्लॉट पर पेड़ों की संख्या 2300 थी, नियमों के हिसाब से एक "मान्य वन" घोषित किए जाने के लिए पर्याप्त थी. 10 अगस्त 2021 की एक रिपोर्ट वन अधिकारियों के हवाले से बताती है, "यह मंजूरी केवल केंद्र सरकार से मिल सकती है" और यह भी कहती है कि सीपीडब्ल्यूडी को "हटाए गए पेड़ों को दोबारा प्रत्यारोपण करने के लिए एक नया प्रस्ताव भेजना होगा."

क्योंकि उस समय ठेके देने की प्रक्रिया भी अटकी हुई थी, यह संभव है कि सब चीजों को रोकना पड़ा. इस सबके बीच आईजीएनसीए को खाली किया जा चुका था और उसकी बहुमूल्य चीजों को जुलाई महीने की शुरुआत में जनपद होटल में पहुंचा दिया गया था.

कांधारी ने एक साधारण सा सवाल पूछा, "एक ऐसी विशालकाय परियोजना कैसे नहीं जानती कि यह एक 'मान्य वन' होगा? इससे इस दिखावे का खुलासा होता है कि पर्यावरण प्रभाव आंकलन ठीक से किया गया है."

हतप्रभ करने वाली बात यह है कि सरकार जनवरी 2020 में जानती थी कि यह एक "मान्य वन" हो सकता है, उस समय जब गांधारी ने खुद वन विभाग को यह जानने के लिए पत्र लिखा कि नई-नई घोषित सेंट्रल विस्टा परियोजना के अंदर आने वाले "मान्य वन" की स्थिति क्या है.

और 10 मार्च 2021 को उसे पक्का पता था, जब वन संरक्षण कानून का उल्लेख कर परियोजना को मिली मंजूरी की बात करता हुआ एक पत्र जारी किया गया.

तो फिर उसको अगस्त में एक नया प्रस्ताव क्यों दाखिल करना पड़ा? क्या इसका यह मतलब है कि सरकार को सारे नियम पता थे लेकिन उसने मार्च में पर्यावरण मंजूरी पाने के लिए सही संस्था पर आवेदन नहीं किया जिससे वह आसानी से मंजूरी पा सके?

मजे की बात यह है कि आईजीएनसीए के अंदर पेड़ों का पहला विस्तृत सर्वे 4 अगस्त 2021 आया जब 13 जुलाई 2021 को सीपीडब्ल्यूडी ने एक आरटीआई का जवाब दिया.

शायद यह विस्तृत सर्वे पहले नहीं किया गया या फिर इसे न जारी करने को चतुराई माना गया. इसके अंदर मूल्यवान जानकारी थी. इसमें लिखा था कि आईजीएनसीए के अंदर मौजूद 2300 पैरों में से 1838 हटाकर प्रत्यारोपित किए जाएंगे, इनमें से 520 की मोटाई हैरान कर देने वाली 2 फीट से ज्यादा थी और इनमें से 144 की मोटाई 5 फीट से अधिक थी. दूसरे शब्दों में कहें तो यह विरासती वृक्ष करीब 60 से 70 सालों में बड़े हुए होंगे.

यह जानकारी तब बाहर आई जब ईआईए रिपोर्ट मार्च में फाइल हो चुकी थी, मंजूर कर दी गई थी और ठेके जारी हो चुके थे या दे दिए गए थे. या फिर उससे पहले पता चला पर बताया नहीं गया. दोनों ही परिस्थितियों में इससे परियोजना पर कोई फर्क नहीं पड़ा जो किसी न किसी तरह से मिलने वाली मंजूरी के लिए पहले से आश्वस्त था, भले ही थोड़ा सा विलंब हो.

यह स्पष्ट है कि अगर एक्टिविस्ट आरटीआई फाइल नहीं करते, तो पेड़ों का यह जत्था ऐसे ही या तो काट दिया जाता या हटा दिया जाता और उस नुकसान का कभी सर्वे या आकलन भी नहीं होता.

इस समय पेड़ अपने अलग प्रकार के संहार का इंतजार कर रहे हैं - प्रतिरूपण से मृत्यु. यह बार बार आजमाया गया और बुरी तरह से नाकाम रहा प्रयोग है. प्रत्यारोपित किए जाने वाले वृक्षों को 50 किलोमीटर दूर बदरपुर के एनटीपीसी इको पार्क में ले जाया जाएगा जो आम जनता के लिए नहीं खुला है. इन पेड़ों का कोई सार्वजनिक आकलन नहीं किया जा सकता.

पिछले अनुभवों के हिसाब से उनके साथ क्या होने वाला है यह विचार आंखें खोलने वाला है.

इस बात के पूरे आसार हैं कि इनकी परिणिति भी नवंबर 2020 में नई संसद के प्लॉट से हटाए गए 404 घने और परिपक्व वृक्षों की जैसी ही होगी, जिनको आनन-फानन में संसद निर्माण पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय आने से पहले ही दिसंबर के भूतपूर्व समारोह के लिए हटा दिया गया था.

इन सभी 404 वृक्षों को सेंट्रल विस्टा से 23 किलोमीटर दूर एनटीपीसी इको पार्क मेंट्रांसप्लांट किए गए. यह तब हुआ जब 16 सितंबर 2020 के नोटिफिकेशन में यह दावा किया गया था कि प्रत्यारोपण "सेंट्रल विस्टा इलाके के 8 खंडों" के अंदर ही होगा.

नवंबर 2021 को दोबारा से जारी किए गए नोटिफिकेशन, जिस पर दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव के हस्ताक्षर हैं अभी भी यह दावा किया गया है की साइट पर खड़े 404 पेड़ों का प्रत्यारोपण किया जाएगा और उनमें से 130 का प्रत्यारोपित सेंट्रल विस्टा के अंदर ही होगा.

लेकिन इस समय साइट पर कोई पेड़ है ही नहीं, सभी 404 पेड़ 11 महीने पहले ही हटा दिए गए थे!

एक्टिविस्ट कांधारी ने प्रत्यारोपित वृक्षों को जांचने की कोशिश की लेकिन उन्हें इको पार्क में जाने की इजाजत नहीं दी गई. फिर वह अलग-अलग रास्तों का इस्तेमाल कर एक ऐसी जगह पर पहुंची जहां पर वह थोड़ी दूरी से कुछ तस्वीरें ले पाईं.

सत्यता ह्रदय विदारक है.

नीचे की तस्वीरों में प्रत्यारोपण से पहले पेड़ों को लहराते हुए देखें और उसके बाद उनकी मौजूदा स्थिति में उनके सूखे को भी देखें.

इस समय आईजीएनसीए के अंदर 1838 पेड़ इसी परिणीति का इंतजार कर रहे हैं. करीब 500 अन्य वृक्ष ऐसे ही काट दिए जाएंगे. पर्यावरण मंत्रालय की स्थानीय एंपावर्ड कमिटी ने "नैतिक तौर" पर "मान्य वन" की भूमि में से 8.11 हेक्टेयर ज़मीन के परिवर्तन के प्रस्ताव को स्वीकार कर दिया है. इन वृक्षों की कटाई वन संरक्षण कानून के अंतर्गत दूसरे स्तर की सहमति का इंतजार कर रही है.

इसी बीच "कार्यकुशल और उत्पादक" स्टाइल में आईजीएनसीए प्लॉट पर निर्माण का ठेका 27 अक्टूबर 2021 को लार्सन एंड ट्यूब्रो को दे दिया गया. आईजीएनसीए के अंदर का माटी घर और लकड़ी के पैनल वाला पुराना बंगला पहले से ही तोड़ा जा चुका है जबकि उसके लिए आवश्यक वन विभाग की मंजूरी अभी तक नहीं दी गई है.

आईजीएनसीए को अपने शानदार 2300 वृक्षों के साथ पूरे शबाब में आप इस वीडियो में आखिरी बार देख सकते हैं.

यह चार हिस्सों वाली सीरीज का दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.

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