Opinion
गोलीबारी, भीड़ का आक्रोश और एक अराजक कानून: 4 दिसंबर को नागालैंड में क्या हुआ
यह नागालैंड में पिछले सप्ताहांत के घटनाक्रम का कई स्रोतों से एकत्रित एक मोटा-मोटा वर्णन है. इन घटनाओं के परिणामस्वरूप कम से कम 14 नागरिकों और भारतीय सेना की एक उत्कृष्ट यूनिट के एक सैनिक को अपनी जान गंवानी पड़ी.
4 दिसंबर की शाम को, 21 पैरा रेजिमेंट के कुछ सैनिक नागा उग्रवादियों की ताक में घात लगाकर बैठे थे. उनकी तरफ आते एक खुले पिकअप ट्रक को देखकर उन्हें लगा कि वह नागा विद्रोही संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के एक गुट से संबंधित उग्रवादी हैं, और इस कारण उन्होंने उन पर हमला किया.
सेना के जवानों ने स्वचालित हथियारों से उस पिकअप ट्रक पर गोलियों की बौछार कर दी और उसमें सवार आठ लोगों को मारने के बाद ही वह वाहन के पास पहुंचे. छह लोगों की मौके पर ही मौत हो गई थी और दो गंभीर रूप से घायल थे. उनमें से किसी के पास कोई हथियार नहीं था.
गोलियों की आवाज सुनकर आस-पास के गांव वाले पड़ताल करने घटनास्थल पर पहुंचे. उन्होंने सैनिकों को शवों के साथ देखा और पहचान लिया कि वह पास की कोयला खदानों में काम करने वाले स्थानीय लोग थे. मारे गए लोग आस-पड़ोस के इलाकों में रहने वाले गरीब किशोरवय युवा लड़के थे. इसी बात को लेकर हंगामा हुआ और सिपाहियों और ग्रामीणों के बीच मारपीट हो गई.
उन क्षेत्रों के ग्रामीणों के लिए धारदार हथियार रखना आम बात है. इस लड़ाई के परिणामस्वरूप विशेष बल के छह सैनिक घायल हो गए और एक की धारदार हथियार के वार से मौत हो गई. गुस्साई भीड़ ने फौज की तीन गाड़ियों को भी आग के हवाले कर दिया. इस हाथापाई से निकलने के लिए सैनिकों को मजबूरन भीड़ पर गोलियां चलानी पड़ीं, जिसमें सात और लोग मारे गए.
भारत और म्यांमार में कम से कम 35 अलग-अलग नागा जनजातियां हैं. उनमें से प्रत्येक की अपनी भाषा और पारंपरिक निवास क्षेत्र है. यह घटनाएं नागालैंड के मोन जिले में हुईं, जो कोनयाक नागा जनजाति का गढ़ है. मोन नगर वहां का मुख्य नगर है.
घटना की खबर जल्द ही मोन तक पहुंच गई. गोलीबारी में मारे गए नागरिकों के शवों के इंतजार में कोनयाक यूनियन के स्थानीय कार्यालय में भीड़ जमा हो गई. ऐसी खबर थी कि अंतिम संस्कार से पहले शवों को वहां लाया जा रहा है, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो आक्रोशित भीड़ यूनियन कार्यालय में तोड़फोड़ करते हुए असम राइफल्स के स्थानीय पोस्ट की ओर बढ़ चली. उन्होंने चौकी पर भी तोड़-फोड़ शुरू कर दी और इमारतों में आग लगा दी, जिसके कारण असम राइफल्स ने भीड़ पर फायरिंग की, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और छह अन्य घायल हो गए.
नागालैंड पुलिस ने अब मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए 21 पैरा रेजिमेंट के जवानों के खिलाफ हत्या के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की है.
सेना के बयान के अनुसार 'नागालैंड के तिरू क्षेत्र और मोन जिले में उग्रवादियों की संभावित गतिविधियों' के बारे में विश्वसनीय इंटेलिजेंस मिलने के बाद यह ऑपरेशन शुरू किया गया था. इसी ऑपरेशन के फलस्वरूप यह घटना हुई जिसमें हुई मौतों को टाला जा सकता था.
21 पैरा आम तौर पर नागालैंड में नहीं रहते हैं. उन्हें इस ऑपरेशन के लिए पड़ोस के असम से लाया गया था. ऑपरेशन स्पष्ट रूप से घात लगाकर हमला करने का था और चूंकि यह कार्य एक विशिष्ट सैन्य बल की टुकड़ी को सौंपा गया था इस से पता चलता है कि इसे उच्च-स्तरीय मंजूरी मिली थी.
तिरु और ओटिंग के गांवों के बीच जिस स्थान पर घटना हुई, वह असम की सीमा से 10 किमी से भी कम दूरी पर है. यह म्यांमार से दूर भारतीय सीमा के काफी अंदर है. भारतीय सेना के विशिष्ट बल आम तौर पर देश के भीतर घात लगाकर हमला नहीं करते हैं. और देश नागरिकों पर तो इस तरह के हमले कतई नहीं किए जाते.
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद सैन्य बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम, 1958 को लेकर पूरे पूर्वोत्तर भारत में जनता का गुस्सा उफान पर है. इसी कानून की वजह से यह घटना संभव हुई. आम तौर पर अफस्पा (AFSPA) के नाम से जाने जाना वाला यह कानूनी प्रावधान निस्संदेह भारत में सबसे कठोर है. यह कानून सैन्य बलों के किसी भी अधिकारी या जवान को संदेह के आधार पर किसी को भी मारने की अनुमति देता है 'यदि उसकी राय है कि लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक है'. लेकिन, जैसा इस मामले में हुआ, यदि वह संदेह बाद में गलत साबित होता है तो भी हत्या करने वाले को कोई परिणाम नहीं भुगतने होते.
लेकिन अफस्पा के अंतर्गत भी सैनिकों को गोली चलाने से पहले उचित चेतावनी देना आवश्यक है.
अफस्पा केवल नागालैंड, मणिपुर और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में लागू होता है, जिन्हें 'अशांत' घोषित किया गया है. इस घोषणा को हर छह महीने में नवीनीकृत करना होता है, और बगैर सोचे समझे ऐसा नियमित रूप से किया जाता है. नागालैंड के मामले में अफस्पा तब से लागू है जब इसे पहली बार 1958 में एक अध्यादेश के रूप में लाया गया था. 63 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन सैन्य साधनों से विवादों का कोई हल नहीं निकल पाया है. 1960 के दशक से ही भारत की अनेक सरकारों ने सैन्य शक्ति से समाधान थोपने की कोशिश को निरर्थक पाया है और नागा विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता शुरू की है.
वर्तमान में, भारत सरकार और अधिकांश नागा उग्रवादी समूहों के बीच संघर्ष विराम है. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड का इसाक स्वू और थुइंगलेंग मुइवा द्वारा स्थापित गुट, जिसे एनएससीएन (आईएम) के नाम से जाना जाता है, नागा विद्रोहियों का सबसे बड़ा समूह है. इस गुट और भारत सरकार के बीच 1997 से युद्धविराम है.
इसका प्रतिद्वंद्वी गुट है एनएससीएन (के), जिसका नाम इसके संस्थापक एसएस खापलांग के नाम पर रखा गया है. साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच एक रूपरेखा समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने से कुछ समय पहले, एनएससीएन (के) ने भारत सरकार के साथ अपना अलग युद्धविराम निरस्त कर दिया था. इसके बाद एनएससीएन (के) ने मणिपुर में भारतीय सैनिकों पर घात लगाकर हमला किया जिसमें 18 सैनिक मारे गए थे.
उस हमले के लिए निकी सुमी नाम के आतंकवादी कमांडर को जिम्मेदार ठहराया गया था और उसके ऊपर 10 लाख रुपए का इनाम रखा गया. 2017 में खापलांग के निधन के बाद सुमी ने अपना अलग गुट बना लिया.
तीन महीने पहले सितंबर 2021 में गृह मंत्रालय ने घोषणा की कि 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उग्रवाद-मुक्त और समृद्ध उत्तर-पूर्व के दृष्टिकोण को पूरा करने और शांति प्रक्रिया को महत्वपूर्ण प्रोत्साहन देने के लिए, गृह मंत्री अमित शाह के मार्गदर्शन में, भारत सरकार ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (के)-निकी समूह के साथ संघर्ष विराम का निर्णय लिया'.
2015 के हमले के बाद म्यांमार की सीमा के पार आतंकवादी शिविरों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' की गई थी जिसे 21 पैरा रेजिमेंट ने अंजाम दिया था.
इस गलत तरीके से निर्देशित हमले का निशाना था एनएससीएन (के) का युंग आंग गुट. माना जाता है कि इस गुट का नेता युंग आंग नागालैंड की सीमा से सटे म्यांमार में रहता है.
4 दिसंबर को हुई नागरिक हत्याओं के बाद इस गुट और एनएससीएन (आईएम), जो सरकार के साथ बातचीत कर रहा है, दोनों ने सेना की कार्रवाई के खिलाफ कड़े बयान जारी किए हैं.
पूर्वोत्तर भारत के हर छोटे-बड़े छात्रसंघों ने भी नागरिक हत्याओं और अफस्पा के विरोध में बयान जारी किए हैं. इसी तरह नागा जनजातियों के सभी प्रमुख प्रतिनिधि संगठनों ने हत्याओं की निंदा की है और अफस्पा को निरस्त करने या नागालैंड से हटाने की मांग की है. महिला समूहों की भी यही मांग है. यहां तक कि राजनेताओं में भी अफस्पा के खिलाफ आवाज उठ रही है. मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने ट्वीट किया कि 'अफस्पा को निरस्त किया जाना चाहिए'.
इन हत्याओं ने पुरानी बुरी यादें ताजा कर दी हैं. पूरे क्षेत्र का नागरिक समाज, जो हमेशा इस अराजक कानून से नफरत करता था, अब इसे समाप्त होते देखना चाहता है.
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
Also Read
-
Punjab’s darkest floods in 3 decades: As governance failures drown villages, stories of hope surface
-
Job cuts, production hit, forced discounts: Trump tariff’s toll on Noida’s textile dream
-
As Modi’s visit looms, tracing the missed warnings that set Manipur on fire
-
सिस्टर रूथ केस: एक नन का अंतहीन संघर्ष
-
In defence of slow storytelling: A reporter’s diary