Book Review
1232km: यह पुस्तक आपको पाठक नहीं, यात्री बनाती है
“सा” से “नी” तक सात सुर, सात सुरों का राग,
उतना ही संगीत तुझमें, जितनी तुझमें आग.....! "
निदा फ़ाज़ली के इस दोहे में संगीत के जिन सात सुरों की बात कही गई है, वे सात सुर ब्रह्मांड की हर ध्वनि का प्रतिनिधित्व करते हैं. इन्द्रधनुष के सात रंग दुनिया के हर रंगों को दर्शाते हैं. इसी तरह से विनोद कापड़ी की किताब "1232km" के सातों प्रमुख किरदार देश के उन लाखों प्रवासी मजदूरों के चेहरे हैं, जो अलग-अलग कोने से, विभिन्न शहरों से पैदल, साइकिल से पलायन करने को मजबूर हो गये, जब देश के प्रधानसेवक ने अचानक से लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी.
बचपन में जब साइकिल चलानी सीखी तो जो सबसे प्रमुख जिम्मेदारी का काम पहले-पहल मुझे दादी ने सौंपा, वो था गेहूं पिसवाने के लिए चक्की तक ले जाना. चक्की बगल वाले गाँव में थी, जिसके रास्ते में कुछ एरिया ऐसा पड़ता था जो सूनसान होता. ऐसा कई बार हुआ है कि उसी जगह पर पहुंचकर या तो बोरी साइकिल से गिरकर कहीं-कहीं से फट जाती, या उसको बांधने वाली रस्सी टूट जाती. और उस समय जो बेचारगी और बेबसी महसूस होती कि कुछ न सूझता.
इस पुस्तक को पढ़ते समय जब यह प्रसंग आया कि ये सभी प्रवासी साइकिल से 1232 किलोमीटर की यात्रा करने जा रहे हैं तो मुझे बचपन का अपना वो अनुभव याद आया. मैं ठहरकर सोचने लगा कि अपने गांव में, पड़ोस के गांव में जाने में परिस्थितिवश जब इतनी बेबसी होती थी तो ये लोग कैसे इतना लंबा सफर साइकिल से करेंगें. भूखे-प्यासे, ज़िंदगी का बोझ ढोते ये किस ताकत के सहारे ऐसा कर पायेंगें? इसका जवाब इस सत्यकथा का नायक रितेश पंडित, विनोद जी को फोन पर देता है- "यहां मरने से अच्छा तो यही है न सर कि गांव जाने की कोशिश में रास्ते में ही मर जाएं. कम से कम अफसोस तो नहीं रहेगा कि हम कोशिश नहीं किए."
यह पुस्तक आपको पाठक नहीं, यात्री बनाती है. हर वाक्य के साथ आप यह अनुभव करते चलेंगें कि भूख से विकट कोई परिस्थिति नहीं. भूखा इंसान किसी भी हद तक गिर जाता है, इसके कई उदाहरण हमें रोज़ देखने को मिलते हैं लेकिन इन मजदूरों को जब मदद करने के लिए पैसे दिये जाते हैं तो इनका कहना है कि किसी से पैसे या राशन लेकर हमें शर्म आती है. भीख ही मांगनी होती तो हम मेहनत-मजदूरी क्यों करते.
ये प्रवासी अपने परिश्रम से, अपने सहकार से और अपने व्यवहार से हम सभी को एक सीख देते चलते हैं. एक भाई पैसे नहीं होने पर साइकिल चुराने के बारे में सोचता है तो दूसरा उसे समझाता है - "हम गरीब हैं, यह हमारा अपराध हो सकता है, लेकिन हम गरीब हैं, इसलिए अपराधी नहीं हो सकते." सोचिये इतनी मजबूत नैतिकता कितने लोगों में आज बची हुई है.
इस यात्रा पर विनोद कापड़ी ने इसी नाम से एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है. यह बात अपने आप में एक अनूठापन लिये हुए है कि डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले को भी नहीं पता कि उसकी फिल्म में आगे क्या होने जा रहा है, कौन से किरदार बचेंगे, कौन से नहीं बचेंगे. कापड़ी ने अपने अंदर के निर्देशक को, अपने अंदर के इंसान पर हावी नहीं होने दिया है. वे अपने सहयोगी मानव के साथ इनकी यात्रा के निर्देशक बने. एक जगह कापड़ी लिखते हैं कि मैंने और मानव ने यह तय किया कि हमें फिल्म-निर्देशक के अलावा इनके लिए कोच या मेन्टोर की भूमिका में आना होगा. विनोद जी इन किरदारों के लिये खाने-पीने का यथासंभव इंतजाम करते चलते. कहीं भी अपनी स्टोरी को मसालेदार बनाने की कोशिश भी नहीं करते हैं. मजदूरों से तभी बात करते जब वे सहज होते. इस संयम के लिए विनोद और मानव जी साधुवाद के पात्र हैं.
लॉकडाउन के दौरान के तमाम वीडियो हमने देखे, सोशल मीडिया, स्वतंत्र यू-ट्यूब चैनलों के माध्यम से हम सब अपने-अपने घरों में बैठे इस त्रासदी को देखते रहे. अंदाजा लगाते रहे कि पलायन कर रहे लोगों पर क्या गुजर रही होगी. लेकिन इस पुस्तक को पढ़ते समय आप अंदाजा नहीं अनुभव करेंगें कि किस तरह प्रशासन क्रूरता की हद तक निष्क्रिय और सक्रिय था. कैसे कुछ लोगों ने ऐसे मुश्किल वक्त में भी बिना किसी की परवाह किये लोगों की मदद की.
पुस्तक कई अध्यायों में बंटी हुई है. इसमें एक अध्याय है "उस रात दो ही ईश्वर". इस अध्याय से गुजरते हुए आपको अपना वो हिंदुस्तान दिखेगा जिसे मिटाने की कोशिश की जा रही है. बिना किसी स्वार्थ के मदद करते हिंदू-मुस्लिम भाइयों ने, अशरफ और बंटू पाठक ने दिखाया कि किस तरह से समाज में अपने-अपने काम को ईमानदारी से करके भाईचारे को जिंदा रखा जा सकता है. "मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं" अध्याय पढ़ते हुए आप सचमुच मुस्कुरा उठेंगें. लखनऊ के प्रत्यूष पांडेय ने मानवता की जो मिसाल पेश की वह अविस्मरणीय है. होमगार्ड राजकुमार आपको यह सिखा जायेंगे कि सेवा और सहायता से बढ़कर कुछ नहीं.
ऐसी बहुत सी घटनायें इन सबके साथ हुईं जो किसी का भी हौसला तोड़ सकती हैं, झकझोर सकती हैं , जैसे- एक गांव में गांववालों द्वारा हैंडपंप ना छूने देना, यह निर्णय लेना कि नींद जरूरी है या भोजन, एक ढाबे पर सोने की जगह मिलने पर आशीष द्वारा डस्टबीन में पड़ी रोटियां खाने के लिए निकालना, रास्ते में अन्य मजदूरों द्वारा मजबूर होकर लूटपाट की कोशिश. डॉक्यूमेंट्री में विनोद आशीष से पूछते हैं, "कौन सी ताकत है जो तुम्हें चला रही है". आशीष का जवाब आता है, "मां की याद"
डॉक्यूमेंट्री में इसी जगह पर रेखा भारद्वाज की कलेजा चीरती आवाज सुनाई देती है-
"ओ रे बिदेसिया,
आइजा घर आई जा रे...!"
रितेश, रामबाबू, आशीष, कृष्णा, मुकेश, संदीप और सोनू ये सातों यात्री अपनी मिट्टी तक पहुंचने की यात्रा में जो कुछ भी सहते हैं, उन सारे अनुभवों को आप इस किताब को पढ़ते हुए, डॉक्यूमेंट्री देखते हुए महसूस करेंगें. जब रामबाबू के मोबाइल पर "मेरी जान" और "मेरी मालकिन" नाम से कॉल आती है तो आप बेसाख्ता मुस्कुराने लगेंगे, रितेश के घर पहुंचकर अपनी पत्नी के साथ सावधानीपूर्वक रोमांस करने के मंसूबों पर आप हंस पड़ेंगे, मुकेश द्वारा पढ़ाई का महत्त्व इन शब्दों में बताने पर आप विस्मित होंगे- "सर आप गरीब को कुछ मत दीजिए, न कपड़ा, न मकान, सरकार गरीब को बस शिक्षा दे. शिक्षा मिल गई तो रोटी, कपड़ा, मकान तो वो छीनकर ले लेगा.",
आप पुलिस के व्यवहार पर दांत पीसेंगे तो जगह जगह पुलिस द्वारा रोककर खाने का पैकेट दिये जाने पर आपकी आंखें भी फटेंगीं, आशीष के द्वारा अपनी बिटिया के लिए ले जा रही गुड़िया को पुलिस से पिटने के बावजूद उठाना, क्वारंटीन होने से पहले बेटा-बेटी को दस-दस रूपये देकर ये कहना कि सर इससे बच्चा लोग को यह लगेगा कि हमारे पापा के पास बहुत पैसा है. ये प्रसंग आपकी आंखें नम कर जायेगा.
एक लेखक के तौर पर विनोद पाठक को बांधने में सफल हुए हैं. दो-तीन जगहों पर टेस्ट क्रिकेट का जिक्र करके लेखक यह संकेत भी देता है कि संयम से सब संभव है. भूखे-प्यासे प्रवासियों की हर वेदना को विनोद ने अनुभूत किया है. लॉकडाउन में लखनऊ की सुबह को लेखक ने एक वाक्य में वर्णित कर दिया है- "यह लखनऊ की सुबह बिल्कुल नहीं थी, कुछ हॉकर अखबार के बंडल लेकर निकल पड़े थे, उनके चेहरों से साफ था कि न अखबार में खबर अच्छी है और न उनकी जिंदगी में."
इस पूरी यात्रा को पुस्तक रूप में प्रकाशित करके हम सबकी यात्रा बनाने के लिए राजकमल प्रकाशन समूह और उसके सम्पादक बधाई के पात्र हैं. देश और दुनिया की विभिन भाषाओं में इस पुस्तक के अनुवाद किये जा रहे हैं. डॉक्यूमेंट्री हॉटस्टार पर उपलब्ध है. दिनांक 20-11-2021 को इंडिया हैबिटेट सेंटर में इस पुस्तक का विमोचन इस यात्रा के दो प्रमुख यात्रियों रितेश पंडित और रामबाबू पंडित के हाथों होता देखना बहुत सुखद रहा. इस पुस्तक को पढ़िये, डॉक्यूमेंट्री को देखिये और अंत में गुलजार की लिखी इन पंक्तियों को अपने दिलो-दिमाग़ पर गूंजता हुआ महसूस कीजिए -
"चूल्हे की लाकड़ अजहूं हरी है,
धुआं से हमरी अंखियां भरी है.
अंसुअन गिरइजा रे
आइजा घर आइजा रे....!"
लॉकडाउन के बाद वापस आये ये मजदूर अब महानगर में छाये प्रदूषण के छंटने के इंतजार में हैं.
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