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आईसीसीआर का दावा नहीं हटाई जा रही मौलाना आजाद द्वारा गिफ्ट की गईं किताबें, लेकिन क्या यह सच है?

भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) की स्थापना स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने साल 1950 में की थी. जिसका उद्देश्य भारत और विश्व के दूसरे देशों के बीच सांस्कृतिक संबंधों और पारस्परिक समझ को बढ़ाना और उसे मजबूत करना है.

दिल्ली के आईटीओ स्थित आज़ाद भवन में आईसीसीआर का मुख्य दफ्तर है, इसके दूसरे फ्लोर पर एक लाइब्रेरी है. लाइब्रेरी की दीवारों पर अलग-अलग शायरों की तस्वीरों के साथ उनकी शायरी लगी है हालांकि यहां किताबें नजर नहीं आतीं. किताबों के लिए बनाई गई जगह खाली पड़ी है और ताले लटके हुए हैं. थोड़ा आगे बढ़ने पर गोशा-ए-आज़ाद लिखा नज़र आता है जिसके नीचे ‘प्रवेश प्रतिबंधित’ लिखा है.

गोशा-ए-आज़ाद यानी आज़ाद का कोना, यहां मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा संस्थान को उपहार में दी गईं किताबें और पांडुलिपियां रखी गई हैं. बीते दिनों खबर आई कि इन किताबों का डिजिटाइज़ेशन करके अलग-अलग संस्थानों को देने की तैयारी है.

हालांकि न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए लाइब्रेरी के लिए जिम्मेदार अधिकारी कहते हैं, ‘‘यह बिल्कुल गलत खबर है. गोशा-ए-आज़ाद हमारे लिए धरोहर है, हम उसे किसी और जगह पर नहीं देने वाले हैं. हां, ये बात जरूर है कि दूसरी किताबें जो हमने लाइब्रेरी के लिए खरीदीं या हमें उपहार में मिली हैं, वो हम अलग-अलग कॉलेज और संस्थानों को दे रहे हैं, लेकिन गोशा-ए-आज़ाद से एक भी किताब नहीं दी जा रही और न ही देने का इरादा है.’’

इस दौरान यह अधिकारी हमें गोशा-ए-आज़ाद दिखाने ले जाते हैं. गेट खोलते ही सफेद रंग के दो सोफे जैसे-तैसे रखे हुए हैं जिन्हें प्लास्टिक से ढका गया है. अधिकारी बताते हैं कि डायरेक्टर के रूम में काम चल रहा है इसलिए जगह की कमी के कारण इन्हें यहां रखा गया है.

इसके बाद अधिकारी हमें अलमारी में रखी किताबों की तरफ ले जाते हैं जहां किताबें व्यवस्थित हैं. वे कहते हैं, ‘‘आप चाहें तो किताबें गिन भी सकते हैं. करीब दस हजार किताबें और पाण्डुलिपि उन्होंने दी थीं जो कि सभी सुरक्षित हैं.’’

गोशा-ए-आजाद में किताबें तो नजर आती हैं, लेकिन देखकर लगता है कि शायद ही कोई यहां पढ़ने आता हो. बैठने और पढ़ने के लिए जगह तो बनाई गई है लेकिन कुर्सीयां मौजूद नहीं हैं. इसके पिछले हिस्से की छत भी टूटी हुई है.

हमने उनसे पूछा कि बरसात के दिनों में तो यहां से पानी टपकता होगा? इस सवाल का जवाब अधिकारी नहीं में देते हैं.

अधिकारी बार-बार कहते हैं कि गोशा-ए-आज़ाद से एक भी किताब न बाहर गई है और न ही जाएगी.

आईसीसीआर के एक कर्मचारी जो यहां कई सालों से काम करते हैं, वे न्यूज़लॉन्ड्री से कहते हैं, ‘‘अब यहां से लाइब्रेरी खत्म ही हो गई है. यहां आपको किताबें दिख रही है? नहीं न, पहले ये सब भरा रहता था. दरअसल यहां नए अधिकारी आने वाले हैं जिनके बैठने की जगह बनाने के लिए लाइब्रेरी को हटाया जा रहा है. आप एक बार नीचे(सामने इशारा करते हुए) जाकर देखिए, कैसे बदहाल हुई पड़ी है लाइब्रेरी. जहां तक रही गोशा-ए-आज़ाद से किताबें हटाने की, तो मेरे सामने कई कार्टन भरकर किताबें वहां से गई हैं. अब कहां जा रही हैं, ये मुझे नहीं पता है लेकिन मेरी आंखों के सामने गई हैं.’’

गोशा-ए-आजाद से किताबें हटाने का मामला तब सामने आया जब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की रिश्ते में पोती हुस्नारा सलीम बीते दिनों यहां पहुंचीं थीं. नेशनल हेराल्ड से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हाल ही में मैं पुस्तकालय गई थी. वहां लापरवाही से रखी किताबों को देखकर मुझे दुख हुआ. किताबों का ये संग्रह हमारी भावनाओं से जुड़ा है. अगर आईसीसीआर इसे सही तरह से नहीं रख सकता है. इसे हटाना चाहता है तो हम इसे वापस लेने के लिए तैयार हैं.’’

हुस्नारा अबुल कलाम आज़ाद की पत्नी के परिवार से हैं और कोलकाता में ‘अबुल कलाम आज़ाद फाउंडेशन फॉर एजुकेशन एंड सोशल एमिटी या माफेसा’ नाम से एक ट्रस्ट चलाती हैं. वे बताती हैं, ‘‘आईसीसीआर इन किताबों का डिजिटाइज़ेशन करवा रहा है. जिसके बाद किताबों को इधर-उधर भेजा जाएगा.’’

वहीं संस्थान के अधिकारियों का दावा है कि किताबें व्यवस्थित तरीके से रखी हुई हैं. इसपर आरा कहती हैं, ‘‘आप भी वहां गए थे न, वहां आपको धूल से भरी किताबें नहीं दिखीं? उस रूम के वातावरण से आपको पता नहीं चला की वहां किस हालत में किताबें रखी गई हैं. वहां जैसे पांडुलिपियां रखी गई हैं, वैसे ही रखी जाती हैं. वहां कोई इंसान नजर नहीं आता. जब लाइब्रेरी जाते हैं तो वहां मौजूद लोग कहते हैं यही तो किताबें है, आप देख लो. कोई कैसे देखेगा? सारी तो धूल मिट्टी से भरी हुई हैं.’’

हुस्नारा आरा न्यूज़लॉन्ड्री से कहती हैं, ‘‘आईसीसीआर मौलाना के लिए ‘ब्रेन चाईल्ड’ जैसा था लेकिन आज वहीं से उनसे जुड़ी चीजें हटाई जा रही हैं, ऐसा क्यों? आप हर चीज का रखरखाव कर सकते हैं लेकिन एक लाइब्रेरी का रखरखाव नहीं कर कर पा रहे. क्या सरकार के पास एक लाइब्रेरी की देखभाल के लिए फंड नहीं हैं?’’

हमने उनसे पूछा कि वे आगे क्या करने वाली हैं. इस जवाब मेंं आरा कहती हैं, ‘‘मैं मंत्री से बात करूंगी. मैं पीएम साहब और गृहमंत्री से भी बात करूंगी. अगर वे देखभाल नहीं कर पा रहे हैं तो हमें दे दें.’’

एक तरफ जहां लाइब्रेरी से जुड़े एक सीनियर अधिकारी कहते हैं कि मौलाना कलाम के संग्रह में से अभी तक कुछ नहीं छुआ गया और न ही छुआ जाएगा. दूसरी ओर एक और वरिष्ठ कर्मचारी जो इस पूरे प्रक्रिया से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं, वह न्यूज़लॉन्ड्री से कहते हैं, ‘‘अभी तक तो कलाम साहब के कलेक्शन से कुछ नहीं हटाया गया है और तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक वो पूरी तरह से डिजिटाइज़ नहीं हो जाता है. वो किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी को नहीं दिया जाएगा. इसे आईजीएनसीआर जैसे संस्थान को दिया जाएगा, लेकिन अभी पूरा डिजिटाइज़ नहीं हुआ ऐसे में उन किताबों के डोनेशन के बारे में कोई कागजी कार्रवाई नहीं हुई है.’’

वो आगे कहते हैं, ‘‘डिजिटाइज़ेशन का मतलब ये नहीं कि हम किताबें फेंक रहे हैं. ऐसा करके हम किताबें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. आईसीसीआर के साथ विदेश से भी लोग जुड़े हैं, वे भी इन किताबों का फायदा उठा सकेंगे.”

डिजिटाइज़ेशन जारी, बंद हुई लाइब्रेरी

आईसीसीआर में गोशा-ए-आज़ादी के अलावा एक बड़ी लाइब्रेरी भी थी, जिसे अब बंद कर दिया गया है. यहां से किताबें अलग-अलग संस्थानों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी को दी जा रही हैं.

बंद हुई लाइब्रेरी में किताबें अस्त-व्यस्त रखी नजर आती हैं. अलमारी से किताबें हटाकर मेज़ पर रख दी गई हैं. यहां के अधिकारियों की मानें तो ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि यहां कोई पढ़ने नहीं आता था. ऐसे में संस्थान ने फैसला लिया कि जो किताबें जिस कॉलेज या संस्थान के लिए जरूरी हैं हम उन्हें दे दें.

अधिकारी न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘हमारे यहां हर साल लाइब्रेरी के लिए किताबें खरीदी जाती थीं. यहां तो कोई पढ़ने आ नहीं रहा था. अब हमारे यहां जो अफ्रीका से जुड़ी किताबें थीं, उन्हें हमने अफ्रीकन सेंटर को दे दिया है. फाइन आर्ट से जुड़ी किताबें ललित कला अकादमी को दी गई हैं, ऐसे ही बौद्ध मत से जुड़ी किताबें सांची विश्विद्यालय को दी गई हैं. इसी तरह जहां, जिस किताब को पढ़ने लोग आते हैं उन्हें वे किताबें दी जा रही हैं. ऐसे में जो किताबें हमारे यहां ऐसे ही रखी रहती थीं वो पाठकों तक पहुंच रही हैं.’’

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