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महाराष्ट्र के गांवों में हर साल क्यों आती है बाढ़?

महाराष्ट्र गोवा और कर्नाटक से होकर जाने वाला कोंकण रेलवे मार्ग सबसे सुंदर ट्रेन यात्रा में से एक माना जाता है. यहां ट्रेन की पटरियां सहयाद्री की पहाड़ियों की तलहटी, लहलहाते हुए जंगलों और कलकल बहती नदियों से लगकर लहराते हुए जाती हैं.

कोंकण रेलवे का निर्माण चुनौतियों से भरा था, मानसून के दौरान मूसलाधार बरसात, भुरभुरी मिट्टी जिसकी वजह से सुरंगे कई बार रह जाती थीं और पश्चिमी घाटों के प्राचीन पर्वतों को नष्ट करने का खतरा बना रहता था. इस रेलवे मार्ग के निर्माण के दौरान 93 लोगों की जान गई.

इसके बावजूद केवल 8 सालों में यह विशाल परियोजना पूरी हुई और 31 साल बाद भी इसे भारतीय इंजीनियरिंग की एक मिसाल के रूप में देखा जाता है. कोंकण रेलवे कॉरपोरेशन लिमिटेड की वेबसाइट के अनुसार, “इस मार्ग ने परियोजना से जुड़े इंजीनियरों और इससे जुड़े अन्य लोगों के जीवन को बदल दिया."

महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले की महाड़ तहसील के स्थानीय निवासी भी शायद इस बात से सहमत हों कि कोंकण रेलवे ने उनके जीवन को बदल दिया. दूसरे मायनों में इस परियोजना का इलाके पर पर्यावरण की दृष्टि से प्रभाव विनाशकारी रहा है. रायगढ़ के सिंचाई विभाग में 25 साल काम करने के बाद पिछले साल रिटायर हुए जूनियर इंजीनियर प्रकाश भावकपोल कहते हैं, "बाढ़ के लिए कोंकण रेलवे 85 फीसदी तक जिम्मेदार है."

इस बात से विशेषज्ञ भी राजी हैं कि कोंकण रेलवे के दास गांव जिले में पुल बनाने के निर्णय ने, महाड़ के लिए बाढ़ के खतरे को बढ़ा दिया है और प्रकाश के पास इसकी पुष्टि करने वाले आंकड़े हैं. 1989 में जब महाबलेश्वर में 732 मिलीमीटर बारिश के बाद भारी बाढ़ आई थी, उस समय महाड़ में पानी का स्तर समुद्र से 8.25 मीटर ऊपर उठ गया था. 1994 में कोंकण रेलवे के निर्माण के एक साल बाद, महाबलेश्वर में 400 मिलीमीटर की बारिश के बाद महाड़ में जल का स्तर समुद्र से 8.40 मीटर बढ़ गया. 2005 में महाबलेश्वर में 500 मिलीमीटर बारिश हुई और महाड़ में पानी का स्तर समुद्र से 9.75 मीटर ऊपर पहुंच गया. वहीं इस साल 2021 में महाबलेश्वर में 596 मिलीमीटर बारिश के बाद महाड़ का पानी समुद्र के स्तर से 11.75 मीटर तक बढ़ गया.

प्रकाश कहते हैं, "अब अगर 1989 की तरह बारिश हुई, तो कुछ नहीं बचेगा."

महाड़ तहसील के लिए बाढ़ वहां की तीन नदियों सावित्री, कल और गांधारी की वजह से एक सालाना घटना है, लेकिन आने वाली बाढ़ समय के साथ-साथ और भीषण होती जा रही है. भूस्खलन भी बढ़ते जा रहे हैं. जुलाई 2021 में इलाके में 16 साल की सबसे खतरनाक बाढ़ आई, इस बाढ़ से महाराष्ट्र में 200 लोगों की मौत हुई.

कल नदी के किनारे पर बसे हुए दो गांव पूरी तरह तबाह हो गए और 22 जुलाई को नदी पर बना हुआ एक पुल ढह गया. लक्ष्मीवाडी गांव की बायाबाई वाझे जैसे स्थानीय लोगों ने अपने घर और करीब-करीब बाकी सभी कुछ खो दिया. इनके पास बाल-बाल बच निकलने की कहानियां हैं. वाझे याद करती हैं कि कैसे मिनटों में पानी सीने तक चढ़ आया और वह किसी तरह अपने परिवार और दो भैंसों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच पाईं.

वे कहती हैं, "बाढ़ में मेरा पूरा घर बह गया."

परिस्थिति विज्ञानी गुरुदास नुलकर कहते हैं कि इस साल बाढ़ के बाद महाड़ के घरों में गाद की एक मोटी परत (लगभग 1.5 फीट) पाई गई.

वे कहते हैं, "डॉ. हिमांशु कुलकर्णी के अनुमानों के अनुसार, पूरी सहयाद्री में कम से कम 5000-10000 भूस्खलन हुए हैं जिन्होंने नदी में गाद की मात्रा में काफी बढ़ोतरी की है." (डॉ. कुलकर्णी एक थिंक टैंक एडवांस सेंटर फॉर वॉटर रिसोर्स डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट के संस्थापक-निदेशक हैं)

यहां से 12 किलोमीटर दूर, महाड़ तहसील के तालिए इलाके में कोंडलकरवाडी गांव के अब बस अवशेष और दर्दनाक यादें ही बची हैं. एक भरे पूरे गांव में अब टूटे हुए टीवी, तड़के हुए फोटो फ्रेम, क्राॅकरी और मलबा ही बचा हुआ है, जो 22 जुलाई 2021 के बाद से खाली पड़ा है. इस दिन, एक भूस्खलन ने गांव का सफाया कर दिया जिसमें 86 लोगों की जान गई और कुछ लोग अब तक नहीं मिले हैं.

उस दुखद दिन की यादें आज भी बच जाने वालों को सहमा देती हैं. बच जाने वाले लोग अब उस जगह पर वापस नहीं जाना चाहते जहां उनके परिवार के लोग या मित्र, टूटे घरों के नीचे दफन हैं. पास ही के माधलेवाडी के निवासी शरद शेलार कहते हैं, "एक भय का माहौल बन गया है और लोगों को लगता है कि उन्हें रात को गांव से रोने चीखने की आवाजें सुनाई देती हैं."

22 जुलाई 2021 को, रायगढ़ जिले के भीवघर और पिंपलवाडी के बीच 14 किलोमीटर के इलाके में 100 से ज्यादा भूस्खलन हुए. जहां एक तरफ स्थानीय लोग राज्य के द्वारा सुनिश्चित की गई सहायता का इंतजार कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रशासन के द्वारा इस इलाके के खतरों की उपेक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.

22 साल पहले जुलाई 1999 में राज्य सरकार को, महाद के दासगांव में कोंकण रेलवे के द्वारा बनाए गए पुल की वजह से बाढ़ के बढ़ने के खतरे के बारे में सचेत कर दिया गया था. उस साल बाढ़ नियंत्रण कमेटी ने इस बात की पुष्टि की थी कि पुल के निर्माण के मलबे को नदी में फेंका गया, जिसने सावित्री नदी के बहाव को रोका जिसकी वजह से भारी बाढ़ आई.

कमेटी की रिपोर्ट ने यह भी कहा कि गांधारी और सावित्री नदियों के पास बड़ी संख्या में वनों की कटाई हुई थी. वनों के कटने से मिट्टी की गुणवत्ता गिरती है और वह कमजोर हो जाती है, जिसने इलाके के लिए बाढ़ और भूस्खलन के खतरे को बढ़ा दिया. 1999 में उस समय कमेटी ने इसको लेकर कई कदम उठाने की सिफारिश की थी और उनको लागू करने के लिए 200 करोड़ के बजट का अनुमान दिया था.

रायगढ़ सिंचाई विभाग (जो बाढ़ व्यवस्था के कई पहलुओं को देखता है) के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर ईई ढकतोड़े ने न्यूज़लॉन्ड्री से इस बात की पुष्टि की, कि उस रिपोर्ट की सिफारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया है. ऐसा क्यों नहीं हुआ यह वह नहीं समझा सके लेकिन उन्होंने कहा कि 2021 की बाढ़ के बाद नई मॉडल स्टडी की जा रही है.

अगस्त 2021 में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने 11,500 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की. इसमें से 1,500 करोड़ रुपए बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए निर्धारित किए गए, 3,000 करोड़ पुनर्विकास और 7,000 करोड रुपए बाढ़ का असर कम करने वाली लंबी अवधि की योजनाओं के लिए निर्धारित किए गए.

जो घर पूरी तरह तबाह हो गए उनके लिए प्रति घर 1.5 लाख रुपए, और जो घर आधे क्षतिग्रस्त हुए उनके लिए 50,000 रुपए दिए जाएंगे. वे घर जो कम से कम 25 फीसदी तक क्षतिग्रस्त हुए उन्हें 25,000 रुपए, और जो 15 फीसदी तक हुए हैं उन्हें 15,000 रुपए दिए जाएंगे. हर प्रभावित परिवार को कपड़े, बर्तन, घर के सामान आदि के नुकसान के लिए 10,000 रुपए दिए जाएंगे.

मवेशियों के नुकसान के लिए 4,000 रुपए प्रति दुधारू पशु, 30,000 रुपए मजदूरी के काम आने वाले पशु, 20,000 रुपए मजदूरी में काम आने वाले प्रति छोटे पशु और 4,000 रुपए प्रति भेड़, सूअर या बकरी के लिए दिए जाएंगे. पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई हर मछली पकड़ने की नाव के लिए 25,000 रुपए और हर नष्ट हुए जाल के लिए 5,000 रुपए प्रदान किए जाएंगे. स्थानीय निवासी और दुकानदार जिनका नुकसान हुआ है उन्हें नुकसान का 75 प्रतिशत या 50,000 रुपए दिए जाएंगे.

भूस्खलन और बाढ़ से प्रभावित हुए लोगों का कहना है कि यह राशि पर्याप्त नहीं है, इसके साथ-साथ उनके पास सहायता अभी तक नहीं पहुंची है. हालांकि इस साल की सहायता के लिए उपरोक्त कदमों में से कई अभी लागू होने बाकी हैं, लेकिन उप-न्यायाधीश के दफ्तर के अनुसार लोगों के पास फंड पहुंचने में कई महीने लगते हैं. महाद में महाराष्ट्र का विपदा प्रबंधन और सहायता का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने महाद के एक गांव दासगांव के लोगों से बात की, जो 2005 के भूस्खलनों में तबाह हो गया था और वहां करीब 100 से ज्यादा लोगों की जान गई थी. उस समय दास गांव के नागरिकों से कई वादे किए गए थे जिनमें से अधिकतर अभी तक पूरे नहीं हुए हैं. सुनिश्चित मुआवजे का इंतजार करते हुए इनमें से कई लोगों ने, अपने लिए अस्थाई निवास के तौर पर बनाए गए टीन के झोंपड़ों में 15 साल से ज्यादा गुजार दिए. उस समय सरकार ने सभी लोगों को छह महीने के अंदर एक उचित घर में निवास देने का वादा किया था.

इन प्राकृतिक आपदाओं से जिन लोगों का जीवन तबाह हुआ उनकी गुजारिशों से अलग, महाराष्ट्र में एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने कई कमेटियों के द्वारा महाद तहसील का सर्वे करने के बाद दी गई सिफारिशों को भी नजरअंदाज किया. 1994 में (कोंकण रेलवे के पूरा होने के एक साल बाद) भारी बाढ़ के बाद गठित हुई बाढ़ नियंत्रण कमेटी की 1999 की रिपोर्ट में निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे:

  • गांधारी और सावित्री नदियों के किनारे जहां वनोन्मूलन देखा गया था वहां पेड़ों को नियमित तौर पर लगाना.

  • महाद की नदियों के बहाव में बाधा डालने वाले नदियों के छोटे टापूओं को हटाना.

  • सावित्री नदी के बहाव क्षेत्र को बढ़ाना.

  • बाढ़ को रोकने के लिए नदी के किनारों पर तटबंधों का निर्माण.

  • किसी भी नदी के दोनों तरफ (8.30 मीटर की रेंज में) कोई आवासीय निर्माण न होने देना.

रायगढ़ के सुंदरराव मोरे कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर और भूगोल विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर समीर बुटाला कहते हैं, "समय के साथ साथ आने वाली बाढ़ का स्तर भी बढ़ता जा रहा है. लेकिन तब भी किसी भी सिफारिश को लागू नहीं किया जा रहा. 1993 से पहले महाद में बाढ़ का औसत स्तर 8.25 मीटर था, 1993 के बाद यह बढ़कर 9.70 मीटर हो गया और अब यह 11.72 मीटर है."

केवल तटबंध बनाने की सिफारिश एक हद तक लागू हुई है जिनमें से कई अभी निर्माणाधीन हैं. कल नदी पर पनबिजली योजना के लिए तटबंध (जल क्षमता - 9.4 करोड़ क्यूबिक मीटर; लागत- 1,300 करोड़ रुपए) बनाने का काम 2004 में शुरू हुआ था, जिसके 2016 तक समाप्त होने की अपेक्षा थी. सावड धारावली नाम का निचले स्तर का बांध, जिसकी जल क्षमता 27 लाख क्यूबिक मीटर और लागत 12.30 करोड़ रुपए है, 2004-2005 से निर्माणाधीन है.

हालांकि डॉक्टर बुटाला के अनुमानों के हिसाब से अगर सारे अनुशंसित तटबंध भी बना दिए जाएं, तब भी महाद में आने वाली बाढ़ के स्तर में 18-20 प्रतिशत की ही कमी आएगी. वे कहते हैं कि सहयाद्री की पहाड़ियों से पानी तेजी से बहने की वजह से तटबंधों के मुकाबले बांध कहीं ज्यादा असरदार और किफायती साबित होंगे. उदाहरण के तौर पर वह बताते हैं कि भावे बांध पर तटबंधों की कीमत 48.02 करोड़ रुपए आएगी और उनकी जल क्षमता 27 लाख क्यूबिक मीटर होगी.

2010 में, परिस्थितिविज्ञानी माधव गाडगिल के नेतृत्व में वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल नाम की कमेटी का गठन, पश्चिमी घाटों की हद में आने वाले इलाकों का गहन सर्वे करने के लिए किया गया जिसमें महाद भी शामिल था. 2011 में पर्यावरण और वन मंत्रालय को दी गई रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र सहित छह राज्यों में पश्चिमी घाटों का 64 प्रतिशत इलाका पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील है.

कमेटी की सिफारिश थी कि पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में कोई नए शहर ना बनाए जाएं, दलदली और जलभराव के क्षेत्र में निर्माण को रोका जाए, नए बांध रोके जाएं और खनन व पर्यटन के विस्तार पर प्रतिबंध लगाया जाए.

रिपोर्ट को केंद्र और राज्य सरकारों ने खारिज कर दिया. इसकी जगह पर एक दूसरी कमेटी का गठन हुआ जिसने इन सिफारिशों को हल्का कर दिया. कमेटी ने कहा कि पश्चिमी घाटों के क्षेत्र में केवल 37 प्रतिशत क्षेत्र ही पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील माना जाना चाहिए.

कमेटियों के गठन होने और उनकी सिफारिशों को नजरअंदाज करने के दशकों के इतिहास के बाद, जुलाई 2021 के बाद बाढ़ ग्रस्त इलाकों के अध्ययन के लिए गठित नए मॉडल के अध्ययन से आशाएं कम हैं. इस सबके बीच महाद में रहने वाले लोग प्राकृतिक आपदाओं की छाया में जी रहे हैं.

परिस्थितिविज्ञानी गुरुदास नुलकर कहते हैं, "हर बार बाढ़ आने के बाद फिर वही आश्वासन दिए जाते हैं, जैसे कॉपी पेस्ट की जा रही हों. लेकिन आज तक कुछ भी लागू नहीं किया गया."

उनका कहना है कि जुलाई 2021 में महाद जैसी त्रासदिओं से बचने के लिए भारत को अपनी शहरी विकास की नीतियों पर दोबारा से विचार करना होगा. वे कहते हैं, "यह नदी में बाढ़ की बात नहीं है. यह बात शहरों के निर्माण के तरीके से जुड़ी है. शहरी विकास, शहर का फैलाव, शहर जिस तरह से फैल रहा है, जिस तरह से मुंबई-गोवा हाईवे बनाया जा रहा है. यह सब बड़ी दिक्कतें पैदा कर रहे हैं जिनमें भूस्खलन भी शामिल हैं."

कोंकण रेलवे की तरह, पर्यावरणविद और स्थानीय कार्यकर्ताओं ने मुंबई-गोवा हाईवे पर आपत्तियां जताई हैं लेकिन इन सभी प्रयासों का शायद ही कोई असर हुआ है. लगता है कि भारत सरकार इस बात से सहमत है कि विकास के लिए पर्यावरण का नुकसान एक आवश्यक और अवश्यंभावी कीमत है. कोंकण रेलवे के मामले में, इस प्रतिष्ठित परियोजना की कीमत महाद तहसील में बाढ़ और भूस्खलनों की बढ़ती हुई भीषणता है.

कोंडलकरवाडी गांव की एक महिला
विटल जाधव ने अपनी मां और पत्नी को भुस्खलन में खो दिया
कोंडलकरवाडी गांव में खंडहर हुआ घर
कोंडलकरवाडी गांव का एक घर
भूस्खलन
तबाही के बाद अपने घर को देखती महिला
महाद गांव

हाल ही में, बाढ़ की प्रवृत्ति वाले इलाकों में परिस्थितियां इतनी गंभीर जरूर हुई हैं कि राज्य के वित्त मंत्री अजित पवार ने उन्हें विधानसभा में स्वीकार किया. फरवरी में राज्य का बजट पेश करते समय पवार ने कहा कि केंद्र के पास, राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल की एक टीम को रायगढ़ के महाद में स्थाई रूप से तैनात करने की विनती की गई है जो प्राकृतिक आपदाओं के समय "त्वरित और समय पर मदद" कर सके.

एक ऐसी ही विनती एक साल पहले रायगढ़ के कलेक्टर के द्वारा भेजी गई थी, जिसको महाराष्ट्र के आपदा प्रबन्ध प्राधिकरण के निदेशक अभय यावलकर ने भी स्वीकृति दी थी.

इसके बावजूद जुलाई 2021 में जब महाद में भूस्खलन और बाढ़ आई, तब वहां एनडीआरएफ की कोई टीम नहीं थी. जो टीम भेजी गई थी वह आपदा ग्रस्त इलाकों में भूस्खलनों की वजह से एक दिन देरी से पहुंची. इस साल अगस्त में, महाराष्ट्र सरकार ने 5 एकड़ की भूमि को महाद में एनडीआरएफ का एक स्थाई कैंप बनाने के लिए आवंटित किया.

वे लोग जिन्होंने 2021 की बाढ़ और भूस्खलनों में अपने घर, परिवार और आजीविका खोई हैं, उनके लिए राज्य के द्वारा किए गए पुनर्वास और राहत के वादे कहीं ज्यादा तात्कालिक और आवश्यक चिंताएं हैं.

पिंपलवाडी की निवासी हीराबाई शेडगे जिनकी खेती की जमीन भूस्खलन में तबाह हो गई, कहती हैं, "हम उम्मीद कर रहे थे कि राज्य सरकार हमारी मदद करेगी लेकिन कुछ नहीं हुआ." मलबा हटाने के लिए कोई मदद करने वाला न होने की वजह से, हीराबाई की जमीन महीनों तक नहीं जोती जा सकी क्योंकि वह भूस्खलन के बाद आए कंकड़ों ओर पत्थरों से पटी हुई थी.

वे बताती हैं कि स्थानीय विधायक ने उन्हें शुक्र मनाने को कहा कि भूस्खलन में उनका घर नहीं तबाह हुआ, जैसा कि कई और लोगों का हुआ था. हीराबाई कहती हैं, "मैंने कुछ नहीं कहा. हम गरीब हैं. हमें लोगों से बहस भी कैसे कर सकते हैं?"

यह स्टोरी एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा है जो कि हमारे पाठकों- अभिमन्यु हजारिका, सायन त्रिवेदी, अनिमेष चौधरी, शेखरबाबू, ओमकार, सिद्धेश साल्वी, शुभदा सावंत, वैभव वी, मावेरिक श्रेडर, नटेश अय्यर, सुहास, अभिनव चक्रवर्ती, रितेश वर्मा, अनिरुद्ध छंगानी, प्रशांत फिलिप्स, संजय खंडगले, गुरशरण सिंह, अभिमन्यु सिन्हा, गंगाधर हिरेमठ, ज्योत्सना जगताप, आशीष बोके, सनी आशीष, अबीरा दुबे, मनीष राज प्रधान, वरुण कुझिकट्टिल, जैमिन दरबारी, सृष्टि मिंज, शंकर चंद्रशेखर, आर सिद्धार्थ, मधुरिमा और एनएल सेना के अन्य सदस्यों के सहयोग से संभव हो पाया है.

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