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सुब्बाराव स्मृति शेष: गांधी की कहानी के एक और लेखक ने धर दी कलम

सिपाही का अवसान शोक की नहीं, संकल्प की घड़ी होती है. सलेम नानजुंदैया सुब्बाराव या मात्र सुब्बारावजी या देश भर के अनेकों के लिए सिर्फ भाईजी का अवसान एक ऐसे ही सिपाही का अवसान है जिससे हमारे मन भले शोक से भरे हों, कामना है कि हमारे सबके दिल संकल्पपूरित हों. वे चुकी हुई मन:स्थिति में, निराश और लाचार मन से नहीं गए, काम करते, गाते-बजाते थक कर अनंत विश्राम में लीन हो गए.

यह वह सत्य है जिसका सामान हर प्राणी को करना ही पड़ता है और आपकी उम्र जब 93 साल छू रही हो तब तो कोई भी क्षण इस सत्य का सामना करने का क्षण बन सकता है. 27 अक्तूबर 2021 की सुबह 6 बजे का समय सुब्बारावजी के लिए ऐसा ही क्षण साबित हुआ. दिल का एक दौरा पड़ा और दिल ने सांस लेना छोड़ दिया. गांधी की कहानी के एक और लेखक ने कलम धर दी.

सुब्बाराव आजादी के सिपाही थे लेकिन वे उन सिपाहियों में नहीं थे जिनकी लड़ाई 15 अगस्त 1947 को पूरी हो गई. वे आजादी के उन सिपाहियों में थे कि जिनके लिए आजादी का मतलब लगातार बदलता रहा और उसका फलक लगातार विस्तीर्ण होता गया. कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी तो कभी अंग्रेजियत की मानसिक गुलामी से मुक्ति की. फिर नया मानवीय व न्यायपूर्ण समाज बनाने की रचनात्मक लड़ाई विनोबा-जयप्रकाश ने छेड़ी तो वहां भी अपना हाफ पेंट मजबूती से डाटे सुब्बाराव हाजिर मिले.

यह कहानी 13 साल की उम्र में शुरू हुई थी जब 1942 में गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत को ‘भारत छोड़ो’ का आदेश दिया था. किसी गुलाम देश की आजादी की लड़ाई का नायक, गुलामकर्ता देश को ऐसा सख्त आदेश दे सकता है, यही बात कितनों को झकझोर गई और कितने सब कुछ भूल कर इस लड़ाई में कूद पड़े. कर्नाटक के बेंगलुरु के एक स्कूल में पढ़ रहे 13 साल की भींगती मसों वाले सुब्बाराव को दूसरा कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े हरफों में लिखना शुरू कर दिया: क्विट इंडिया! नारा एक ही था तो सजा भी एक ही थी- जेल! 13 साल के सुब्बाराव जेल भेजे गए. बाद में सरकार ने उम्र देख कर उन्हें रिहा कर दिया लेकिन हालात देख कर सुब्बाराव ने इस काम से कभी रिहाई नहीं ली. आजादी की आवाज लगाता वह किशोर जो जेल गया तो फिर जैसे लौटा ही नहीं; आवाज लगाता-लगाता अब जा कर महामौन में समा गया.

आजादी की लड़ाई लड़ने का तब एक ही मतलब हुआ करता था- कांग्रेस में शामिल हो जाना! कांग्रेसिया है तो आजादी का सिपाही है- खादी की गांधी-टोपी और खादी का बाना तो समझो, बगावत का पुतला तैयार हो गया! ऐसा ही सुब्बाराव के साथ भी हुआ. कांग्रेस से वे कांग्रेस सेवा दल में पहुंचे और तब के सेवा दल के संचालक हार्डिकर साहब की आंखें उन पर टिकीं. हार्डिकर साहब ने सुब्बाराव को एक साल कांग्रेस सेवा दल को देने के लिए मना लिया. युवकों में काम करने का अजब ही इल्म था सुब्बाराव के पास; और उसके अपने ही हथियार थे उनके पास. भजन व भक्ति-संगीत तो वे स्कूल के जमाने से गाते थे, अब समाज परिवर्तन के गाने गाने लगे. आवाज उठी तो युवाओं में उसकी प्रतिध्वनि उठी. कर्नाटकी सुब्बाराव ने दूसरी बात यह पहचानी कि देश के युवाओं तक पहुंचना हो तो देश भर की भाषाएं जानना जरूरी है. इतनी सारी भाषाओं पर ऐसा एकाधिकार इधर तो कम ही मिलता है. ऐसे में कब कांग्रेस का, सेवादल का चोला उतर गया और सुब्बाराव खालिस सर्वोदय कार्यकर्ता बन गए, किसी ने पहचाना ही नहीं.

1969 का वर्ष गांधी-शताब्दी का वर्ष था. सुब्बाराव की कल्पना थी कि गांधी-विचार और गांधी का इतिहास देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए. सवाल कैसे का था तो जवाब सुब्बाराव के पास तैयार था: सरकार छोटी-बड़ी दोनों लाइनों पर दो रेलगाड़ियां हमें दे तो मैं गांधी-दर्शन ट्रेन का आयोजन करना चाहता हूं. यह अनोखी ही कल्पना थी. पूरे साल भर ऐसी दो रेलगाड़ियां सुब्बाराव के निर्देश में भारत भर में घूमती रहीं, यथासंभव छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुंचती-रुकती रहीं और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, नागरिक, स्त्री-पुरुष इन गाड़ियों के डिब्बों में घूम-घूम कर गांधी को देखते-समझते रहे. यह एक महाभियान ही था. इसमें से एक दूसरी बात भी पैदा हुई. देश भर के युवाओं से सीधा व जीवंत संपर्क! रचनात्मक कार्यकर्ता बनाने का कठिन सपना गांधीजी का था, सुब्बाराव ने रचनात्मक मानस के युवाओं को जोड़ने का काम किया.

मध्यप्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए सुब्बाराव के मन में युवाओं की रचनात्मक वृत्ति को उभार देने की एक दूसरी पहल आकार लेने लगी और उसमें से लंबी अवधि के, बड़ी संख्या वाले श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ. सैकड़ों-हजारों की संख्या में देश भर से युवाओं को संयोजित कर शिविरों में लाना और श्रम के गीत गाते हुए खेत, बांध, सड़क, छोटे घर, बंजर को आबाद करना और भाषा के धागों से युवाओं की भिन्नता को बांधना उनका जीवन-व्रत बन गया! यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि देश-विदेश सभी जगहों पर उनके मुरीद बनते चले गए. वे चलते-फिरते प्रशिक्षण शिविर बन गए. ऐसे अनगिनत युवा शिविर चलाए सुब्बाराव ने. देश के कई अशांत क्षेत्रों को ध्यान में रख कर, वे चुनौतीपूर्ण स्थिति में शिविरों का आयोजन करने लगे.

चंबल डाकुओं का अड्डा माना जाता था. एक से एक नामी डाकू गैंग वहां से लूट मार का अपना अभियान चलाते थे और फिर इन बेहड़ों में आ कर छिप जाते थे. सरकार करोड़ों रुपए खर्च करने और खासा बड़ा पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास नहीं कर पाती थी. फिर कुछ कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रख कर कहा- हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं. यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने समझने पर मजबूर कर दिया. विनोबा का रोपा आत्मग्लानि का यह पौधा विकसित हो कर पहुंचा जयप्रकाश नारायण के पास और फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि 400 से ज्यादा डाकुओं ने जयप्रकाश के चरणों में अपनी बंदूकें डाल कर, डाकू-जीवन से मुंह मोड़ लिया.

इनमें ऐसे डाकू भी थे जिन पर सरकार ने लाखों रुपयों के इनाम घोषित कर रखे थे. इस सार्वजनिक दस्यु-समर्पण से अपराध-शास्त्र का एक नया पन्ना ही लिखा गया. जय प्रकाशज ने कहा- ये डाकू नहीं, हमारी अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था से बगावत करने वाले लेकिन भटक गए लोग हैं जिन्हें गले लगाएंगे हम तो ये रास्ते पर लौट सकेंगे. बागी समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही. चंबल के क्षेत्र में ही, जौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था जो इस दस्यु-समर्पण का एक केंद्र था.

सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली. हाफ पेंट और शर्ट पहने, हंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरे बांह की गर्म शर्ट में मिलते थे. अपने विश्वासों में अटल लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे. वे आज नहीं हैं क्योंकि कल उन्होंने विदा मांग ली. लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नए सुब्बारावों को बुला रहा है.

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)

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