Opinion
राजनीति में कहां हैं कन्हैया, कांग्रेस और बिहार?
हाल के दशकों में राजनीति विचारधारा से निकलकर मुद्दों पर आ गई है, लेकिन फिर भी भारतीय राजनीति में कन्हैया कुमार के “परिवर्तनकारी” और “जनोन्मुखी” आगमन से वामदलों को एक संभावना दिखी थी, लेकिन व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को शायद इस बात का अहसास हो गया कि वाम-विचारधारा की राजनीति से बिहार जैसे सामंती-समाज में राजनीति करना खतरनाक सिद्ध हो सकता है, और इस अनुभव में पिछले लोकसभा चुनाव का परिणाम अधिक महत्त्व का रहा जिसमें अपार लोकप्रियता और स्वीकृति के बावजूद भी वे लोकसभा चुनाव में गिरिराज सिंह के द्वारा ऐतिहासिक रूप से पराजित कर दिए गए.
माना जा रहा है कि अब कन्हैया के कांग्रेस में शामिल होने से स्वयं कन्हैया के साथ-साथ कांग्रेस का उदय तो होगा ही इसके अतिरिक्त बिहार की राजनीति में भी एक एक बड़ा बदलाव आ सकता है. पिछले कुछ दशकों से बिहार की राजनीति में अगर सही अर्थों में देखें तो मुख्य प्रभाव क्षेत्रीय दलों का ही रहा है जिसमें राजद और जदयू प्रमुख रहें हैं. इनके साथ गठबंधन किये बगैर कोई भी राजनीतिक दल सत्ता के शीर्ष तक आसानी से नहीं पहुंच सकता है. बड़े राष्ट्रीय-दल जैसे कांग्रेस, कम्युनिस्ट या फिर भाजपा के राजनीतिक धरातल को टटोलें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले कुछ दशकों से ये अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
बिहार में इन दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसे बिहार के लोकप्रिय प्रतिनिधि का दर्जा दिया जा सके. एक तरह से यह नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रहा है. भाजपा की भी कमोबेश यही स्थिति है. हाल के वर्षों में जो भी चुनावी सफलताएं इसने पाई हैं वह केंद्रीय नेतृत्व और नीतियों से अधिक प्रभावित रहा है. यहां अगर भाजपा के कैडर मतों के सन्दर्भ में भी देखें तो मंगल पांडे, अश्विनी चौबे हो या शाहनवाज हुसैन या फिर सुशील मोदी इन्हें एक सर्व-स्वीकार्य नेता मानना कठिन है. यहां तक कि ये अपने-अपने समुदायों का भी सम्पूर्ण नेतृत्व करते नहीं प्रतीत होते. गिरिराज सिंह का भूमिहार समुदायों के बीच प्रभाव तो है, लेकिन इस प्रभाव के पीछे भी भाजपा का राष्ट्रवादी अजेंडा अधिक प्रभाव दिखता है न कि मात्र गिरिराज सिंह के व्यक्तिगत प्रभाव और कार्यों का.
वाम-दलों की बात करें तो इसे एक व्यक्तिगत प्रसंग से समझा जा सकता है. हमारे एक परिचित दरभंगा के एक वामपंथी दल के प्रभावशाली नेता हैं. एक बार हम उनके साथ थे, साथ में वामदल के ही उनके वरिष्ठ मित्र भी थे जो यादव समुदाय से हैं. चुनाव का समय था. उनसे जब चुनाव पर उनके मत के बारे में मेरे संबंधी ने पूछा तो उन्होंने वाम-विचारधारा में अपना जोरदार विश्वास जताते हुए कहा, “संघर्ष में तो आपके साथ हैं, लेकिन चुनाव में इस बार लालटेन की रौशनी तेज दिख रही है”. मतलब साफ था- जनवादी आंदोलन और अन्य जन के मुद्दों पर उनके समर्थन तो मिलते रहेंगे लेकिन चुनाव में उनका वोट राजद को ही जाएगा.
इससे दो बातें तो एकदम साफ दिखती हैं- एक कि राजद और यादव समुदाय का संबंध अटूट है. और आने वाले कई वर्षों तक यादवों के नेता लालू प्रसाद ही माने जाएंगे और उनका राजनीतिक दल राजद ही बना रहेगा. और दूसरा कि वामदल की बिहार में वैसी ही स्थिति है जैसी देश या दुनिया में है. मतलब मात्र एक विपक्ष के रूप में; या फिर कह सकते हैं कि बिहार में सिविल-सोसाइटी के खालीपन को वामदल और इससे प्रभावित बुद्धिजीवी ही भर रहें हैं, लेकिन सत्ता निर्माण में इनका प्रत्यक्ष प्रभाव नगण्य है.
कन्हैया के प्रति बिहार के शिक्षित और मध्य-वर्गों में एक समर्थन का भाव कल भी था और कमोबेश आज भी दिखता है, लेकिन राजद से निकटता इनके लिए घातक रही, और यह भी एक कारण था कि शिक्षित मध्य-वर्ग ने इन्हें चुनाव में नकार दिया. और दूसरी तरफ “निचली” और “मध्य-जातियों” के लोगों के लिए भी कन्हैया को स्वीकार कर पाना आसान नहीं था. एक तो इस कारण कि कन्हैया जिस भूमिहार समुदाय से हैं उसी समुदाय से मुख्य रूप से इनका पिछले कुछ दशकों से खूनी संघर्ष चलता रहा है- जैसे एमसीसी और रणवीर सेना के बीच हुए अनगिनत खूनी संघर्ष जिसमे कई भयंकर नरसंहार हुए जैसे सेनारी, बाथानी टोला नरसंहार आदि.
चुनाव के समय कई दलित-बुद्धिजीवियों ने भी कन्हैया पर उसके जातीय संदर्भ में ही आक्रमण किया था और उन्हें भय था कि कन्हैया भले वामदल का एक लोकप्रिय चेहरा हैं लेकिन वह अपने निजी चरित्र में जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं रह पायेगा. दूसरा कारण जैसा कि ऊपर हमने बताया कि चुनाव में कन्हैया की जीत भविष्य में “निचली” और “पिछड़ी” जातियों के प्रतिनिधित्व को प्रभावित कर सकती थी. और इससे चिराग पासवान, तेजस्वी-तेजप्रताप जैसे “दलित” और “पिछड़ी” जाति के नेताओं का भविष्य खत्म होने की संभावना थी, और यही कारण था कि पिछले चुनाव में गठबंधन के बावजूद कन्हैया को हराने के लिए राजद के भीतर भाजपा से भी अधिक प्रयास किये गए, यहां तक कि उसके विरुद्ध चुनाव में उम्मीदवार भी उतार दिए गए थे. राजद के अधिकांश समर्थक गिरिराज सिंह की विजय को तो स्वीकारने को तैयार थे, लेकिन किसी कीमत पर कन्हैया की जीत के विरुद्ध थे.
अगर नितीश कुमार के वर्तमान प्रभाव और नेतृत्व को देखें तो यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों, खासकर कुर्मी आदि पर इनका आज भी काफी प्रभाव है, दलितों के भी एक वर्ग पर इनकी पकड़ से इंकार नहीं किया जा सकता. “ऊंची-जातियों” के लिए पहले की तुलना में इनकी स्वीकार्यता में तेजी से गिरावट हुई है, खासकर जबसे भाजपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है. इधर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के कई नीतियों से भी बिहार का मध्यम वर्ग और “ऊंची-जातियां” नाखुश हैं, लेकिन उनके पास कोई मजबूत विकल्प नहीं है.
राजद में तेजस्वी और तेजप्रताप के नेतृत्व की अपरिपक्वता के कारण उसके भीतर भी असंतोष है और यादवों को अगर हटा दें तो मुस्लिम और अन्य दलित-जातियां भी राजनीतिक नेतृत्व के अभाव को अनुभव कर रही हैं. कांग्रेस का जो पारंपरिक वोट बैक रहा है वह “ऊंची-जातियां”, दलित और मुस्लिम रहा है, ऐसे में अगर कांग्रेस कन्हैया को बिहार में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में घोषित करती है तो यह कांग्रेस का बिहार में एक लाभदायक राजनीतिक निर्णय साबित हो सकता है.
कन्हैया की स्वीकार्यता के लिए कुछ अहम कारण और परिस्थितियां हैं जो सहायक हो सकते हैं जैसे पहला: एक “ईमानदार” और “जनवादी” छवि. कन्हैया अपने आगे के राजनीतिक जीवन में कितना जनवादी या ईमानदार छवि बनाये रख पाएंगे यह कहना तो कठिन है, लेकिन वर्तमान में उनके राजनीतिक जीवन को साफ-सुथरा ही माना जा सकता है. उनपर किसी तरह के व्यक्तिगत या सार्वजानिक जीवन में भ्रष्टाचार के आरोप विरोधी भी उनपर नहीं लगाते हैं.
दूसरा: कांग्रेस का पुराना वोट बैंक फॉर्मूला- कांग्रेस आज भी “ऊंची-जातियों” के लिए एक राजनीतिक विकल्प के रूप में देखी जाती है. कतिपय कारणों से “ऊंची-जातियां’ भाजपा की तरफ तो मुड़ी हैं, लेकिन कांग्रेस अपनी नीतियों से पुनः इन्हें अपनी तरफ खींच सकती है. तीसरा: “ऊंची-जातियों” का समर्थन- बिहार में जाति और चुनाव के बीच गहरा संबंध है, हालांकि भाजपा ने इस परंपरा को काफी हद तक तोड़ा है, फिर भी जातीय नेता अपने-अपने समुदायों को अपने प्रभाव-क्षेत्र से बाहर आसानी से नहीं जाने देते.
ऐसे में “ऊंची-जातियां” भी कन्हैया को स्वीकारने में कोई परहेज नहीं करेंगी. चौथा: युवा और शिक्षित नेतृत्व- वैसे तो युवा नेता तेजस्वी, तेजप्रताप और चिराग भी हैं, लेकिन इनके बारे में यही धारणा है कि उनका राजनीतिक जीवन इन्हें उत्तराधिकार में मिला है, इसमें इनका कोई व्यक्तिगत योगदान नहीं है. जबकि इसके उलट कन्हैया राजनीतिक संघर्षों और उथल-पुथल के बीच से निकल कर आए हैं इसलिए इनके नेतृत्व और सामर्थ्य पर विचारधारा में भिन्नता के बावजूद प्रश्न नहीं लगाया जा सकता.
पांचवा: राजद के प्रति ‘ऊंची-जातियों” का पारंपरिक विरोध- बिहार में ऊंची जातियों का द्वन्द ये है कि ये किसी भी राजनीतिक दल को अपना समर्थन दे सकते हैं, लेकिन राजद इनका हमेशा अंतिम विकल्प ही होता है, क्योंकि इन्हें लगता है कि बिहार में इनके जातीय संरचना और वर्चस्व को सबसे अधिक राजद ने ही नुकसान पहुंचाया है.
छठा: जदयू की वर्तमान विफलता और उससे उपजा असंतोष- पहले कार्यकाल में नीतीश के प्रति जो विभिन्न जातियों का समर्थन था वह तत्कालीन राजद सत्ता के विरोध का परिणाम था. लोग किसी भी हालत में राजद को बाहर करने को बेचैन थे, और नीतीश उस समय एक मजबूत विकल्प भी थे. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि अपने प्रथम कार्यकाल में नीतीश ने स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा पर उल्लेखनीय कार्य किया, लेकिन बाद के कार्यकाल में इसमें जड़ता आ गई और इनकी कई अहंकार से भरी नीतियों से तेजी से इनकी लोकप्रियता घटी; जैसे शराब-बंदी, बेलगाम नौकरशाही, खराब शिक्षा-व्यवस्था, बेरोजगारी, दुर्बल-स्वास्थ्य-व्यवस्था, अपराध आदि.
सातवां: राम-मंदिर और धारा-370 के बाद भाजपा के सांस्कृतिक राजनीति की अप्रासंगिकता- भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडे में शामिल मुद्दे जैसे राम-मंदिर, धारा-370 आदि के क्रियान्वयन के बाद अब इनके पास कोई ठोस सांस्कृतिक-राजनीतिक विमर्श नहीं रह गया है जो शिक्षित-मध्य-वर्ग को लुभा सके, ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर भाजपा की लगातार होती विफलता ने इसके मतदाताओं को विकल्पों की तरफ सोचने को बाध्य किया है.
उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए कन्हैया का कांग्रेस में जाना बिहार में कांग्रेस को नवजीवन तो देगा ही साथ ही भाजपा के एकाधिकारवादी राजनीति और इसके वर्चस्व पर भी अंकुश लगा सकता है; इसके अतिरिक्त यह बिहार को परिवारवादी और जातिवादी राजनीति से आंशिक ही सही लेकिन बाहर निकाल सकता है. जरूरत है कन्हैया को अपनी जन-पक्षधरता और लोक-सरोकार को बनाये रखने की, क्योंकि बिहार की राजनीति में कई ऐसे भ्रष्टतम चेहरे हैं जो कभी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के लिए जाने जाते थे; कन्हैया खुद को कबतक बेदाग बचाए रख पाते हैं यह भविष्य ही बताएगा!
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