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द न्यूयॉर्क टाइम्स, हिंदी को चलते फिरते मत इस्तेमाल कीजिए

प्रिय द न्यूयॉर्क टाइम्स,

बीते दिनों आपके प्रतिष्ठित संस्थान ने एक विशिष्ट काम को सरअंजाम दिया है. शायद पहली बार न्यूयॉर्क टाइम्स के डिजिटल संस्करण पर हिंदी (देवनागरी) में कोई रिपोर्ट छपी है. हो सकता है पहले भी ऐसा हुआ हो लेकिन मेरी जानकारी में यह पहली बार आया है. कोविड की दूसरी लहर के दौरान भारत की शीर्ष चिकित्सा शोध संस्था आईसीएमआर के अंदरूनी कामकाज की चिंताजनक हालत पर आपकी खोजी रिपोर्ट नि:संदेह आंखे खोलने वाली है.

लेकिन मैं यह पत्र बिल्कुल दूसरे उद्देश्य से लिख रहा हूं. हिंदी दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा बोली, पढ़ी और समझी जाने वाली भाषा है. इस लिहाज से द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित संस्था द्वारा हिंदी में कोई खबर या लेख छापा जाना खुशी का सबब भी है और साथ ही यह एक झटके में आपके सामने अपार संभावनाओं का एक नया दरवाजा खोलता है. यह आपको एक ऐसे व्यापक पाठक वर्ग से जोड़ता है जिसके लिए आपके दरवाजे अभी तक बंद थे. हिंदी समाज में व्यापक दुनियावी सोच-समझ को एक नया नजरिया विकसित करने के लिहाज से भी द न्यूयॉर्क टाइम्स का यह प्रयास सराहनीय है.

लेकिन इसके साथ ही इस दिशा में कई चुनौतियां भी हैं. एक भाषा से दूसरी भाषा में आवागमन दूध और पानी की तरह होना चाहिए, न कि तेल और पानी की तरह. मिले तो आपस में मिलकर एकसार हो जाएं. ऐसा नहीं कि मिलें तो लेकिन तेल की बूंदों की तरह सतह पर अलग-थलग तैरते रहें.

हिंदी में जो ख़बर द न्यूयॉर्क टाइम्स ने प्रकाशित की है वह अंग्रेजी से हिंदी में बिल्कुल तेल और पानी की तरह आया है. भाषा स्वाद एक अहम मसला है. अगर साफ-सुथरा और स्वादिष्ट है तो बिना मेहनत के गले से नीचे उतरता जाता है और अगर इसमें कंकड़ मिले तो मुंह का स्वाद खराब हो जाता है.

हिंदी भाषा का अपना व्याकरण है, उसे अंग्रेजी भाषा के व्याकरण के मानकों पर बरतने से स्वाद खराब हो जाता है. मुंह में स्वाद पैदा करने की बजाय कंकड़ की तरह अटकने लगता है. यह बात आपकी आईसीएमआर से संबंधित हिंदी रिपोर्ट के बारे में कही जा सकती है. शायद यह तकनीक के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भरता के कारण भी हुआ हो. अक्सर अनुवाद के लिए गूगल ट्रांसलेटर का सहारा लेने की वजह से भी इस तरह की दिक्कतें आती हैं. हमें नहीं पता कि इसकी सही वजह क्या है लेकिन रिपोर्ट को पढ़ते हुए हमने पाया कि वाक्य अपना अर्थ खो बैठे हैं. एक पैराग्राफ का दूसरे से संबंध नहीं जुड़ रहा. कई जगह वाक्यों का बिल्कुल दूसरे अर्थ में इस्तेमाल हुआ है.

इस तरह अच्छी भावना से शुरू हुई एक कोशिश गलत रास्ते चली गई. अच्छी और सराहनीय शुरुआत के लिए एक गंभीर नजरिए और समर्पण की भी जरूरत होती है. वरना जिस महत्वाकांक्षी दरवाजे के खुलने का हमने जिक्र किया उसके खुलने से पहले ही बंद होने का खतरा भी है.

हम इस पूरी रिपोर्ट का सरल हिंदी में अविकल अनुवाद यहां पेश कर रहे हैं. उम्मीद है आपको पसंद आएगा, अगर आप चाहें तो इसे जस का तस अपने यहां इस्तेमाल भी कर सकते हैं.

धन्यवाद

संपादक, न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी

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जैसे-जैसे भारत में कोविड की जानलेवा लहर करीब आई, सियासत विज्ञान पर हावी होती गई

शोधकर्ताओं का मानना है कि देश की सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था ने लगातार गहराते संकट के बावजूद, अपने निष्कर्षों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सुविधा के मुताबिक प्रस्तुत किया.

करन दीप सिंह

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पूर्वानुमान गणितीय आधार पर, सरकारी मुहर से लैस लेकिन दुखद रूप से गलत थे.

सितंबर 2020 में भारत में कोविड-19 की दूसरी घातक लहर के आने से 8 महीने पहले, सरकार द्वारा नियुक्त वैज्ञानिकों ने संक्रमण के एक नए विस्फोट की संभावना को जानबूझकर कम बताया. वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में लिखा कि पिछले संक्रमणों और जल्दी लगाए गए लॉकडाउन के प्रयासों ने वायरस के प्रसार को काबू में कर लिया था. भारतीय न्यूज़ मीडिया ने इस रिपोर्ट को व्यापक रूप से कवर भी किया.

अध्ययन के परिणाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो मुख्य लक्ष्यों के साथ बड़े करीने से मेल खाते थे. भारत की बिगड़ती हुई अर्थव्यवस्था को दोबारा चालू करना और आने वाले महीनों में होने वाले राज्यों के चुनावों के लिए अपनी पार्टी का प्रचार शुरू करना. लेकिन अध्ययन की समीक्षा और उसे प्रकाशित करने वाली भारत की शीर्ष विज्ञान संस्था में उस समय काम कर रहे एक चिकित्सक अनूप अग्रवाल चिंतित थे. उन्हें डर था कि ये निष्कर्ष देश में कोरोना को लेकर एक झूठी सुरक्षा की भावना पैदा कर देंगे.

डॉ. अग्रवाल ने अक्टूबर में अपनी चिंता से एजेंसी के शीर्ष अधिकारियों को अवगत कराया. वे कहते हैं कि बदले में उन्हें और एक अन्य चिंतित वैज्ञानिक को फटकार सुनने को मिली.

लाखों लोगों की जान लेने वाली कोविड की दूसरी लहर के बाद, भारत में कई लोग यह पूछ रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार चेतावनी संकेतों को देखने से कैसे चूक गई. मौजूदा और पूर्व सरकारी शोधकर्ताओं और द न्यूयॉर्क टाइम्स के द्वारा जांचे गए दस्तावेजों के अनुसार, इस सवाल के जवाब का एक पहलू यह है कि सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों ने उत्कृष्ट संस्थानों के वैज्ञानिकों पर इस बात का दबाव बनाया कि वो प्रधानमंत्री मोदी के राजनैतिक लक्ष्यों को प्राथमिकता दें और आसन्न खतरे को कम करके दिखाएं.

32 वर्षीय डॉ. अग्रवाल बताते हैं, "लोगों की मदद करने के बजाय विज्ञान को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया ताकि सरकार का एजेंडा आगे बढ़ाया जा सके."

32 वर्षीय डॉ. अग्रवाल

शोधकर्ताओं और दस्तावेजों के अनुसार भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद या आईसीएमआर के वरिष्ठ अधिकारियों ने खतरे को दर्शाने वाले आंकड़ों को दबाया/छुपाया. शोधकर्ताओं के मुताबिक अधिकारियों ने सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाने वाले एक अन्य अध्ययन को वापस लेने के लिए वैज्ञानिकों पर दबाव बनाया. इसी तरह एक तीसरे अध्ययन से एंजेसी ने खुद को अलग कर लिया जिसमें दूसरी लहर का अनुमान लगाया गया था.

द टाइम्स के द्वारा इंटरव्यू किए गए एजेंसी के वैज्ञानिकों ने वहां मुंह बंद रखने की संस्कृति की ओर इशारा किया. मध्य स्तर के कई शोधकर्ताओं को यह चिंता थी कि अगर उन्होंने वरिष्ठ लोगों से सवाल किए तो प्रमोशन और अन्य अवसरों से हाथ धो बैठेंगे.

भारत के शीर्ष वायरोलॉजिस्ट्स में से एक और सरकार के पूर्व सलाहकार डॉक्टर शाहिद जमील कहते हैं, “विज्ञान ऐसे वातावरण में पनपता है जहां आप खुलकर सबूतों पर सवाल उठा सकते हैं और उन पर तटस्थ और निष्पक्ष रूप से चर्चा कर सकते हैं. यह दुख की बात है कि कितने सारे स्तरों से यह लापता है."

शीर्ष चिकित्सा संस्था आईसीएमआर ने हमारे विस्तृत सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया. एक बयान जारी कर उन्होंने कहा कि वे एक "प्रधान अनुसंधान संस्थान" हैं जिसने भारत की टेस्टिंग क्षमता को बढ़ाने में मदद की थी. भारत का स्वास्थ्य मंत्रालय, जो कि इस संस्था की देखरेख करता है, ने भी इस विषय पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

भारत पहला देश नहीं है जहां वायरस विज्ञान का राजनीतिकरण हुआ. अमेरिका भी इस दिशा में बहुत पीछे नहीं रहा. नेता और एंटी वैक्सीन कार्यकर्ता दुष्प्रचार और उन्मत मीडिया से प्रेरित होकर वैक्सीन और मास्क की उपयोगिता को चुनौती दे रहे थे. चीनी सरकार ने इस बेकाबू वायरस की शुरुआत पर परदा डालने की कोशिश की वहीं वैक्सीन पर संशय करने वालों को रूस से लेकर स्पेन और तांजानिया तक समर्थन मिला.

एक शोधकर्ता, नई दिल्ली की एक प्रयोगशाला में

भारत आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रही स्वास्थ्य सेवा वाला एक विशाल देश है. इसे हर परिस्थिति में कोविड-19 की दूसरी लहर को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष करना ही पड़ता. वायरस के एक बेहद संक्रामक वैरिएंट ने उसे फैलाने में आग में घी का काम किया. लोगों ने मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग करना बंद कर दिया था.

प्रधानमंत्री मोदी कि भारतीय जनता पार्टी के सदस्य विजय चौथाईवाले ने कहा, “प्रधानमंत्री मोदी ने कभी भी सावधानी कम करने के लिए नहीं कहा.”

फिर भी सरकार ने इस लापरवाही में अपना योगदान दिया. प्रधानमंत्री मोदी ने हृदय विदारक दूसरी लहर से कुछ महीने पहले जनवरी में दावा किया था कि भारत ने “मानवता को एक बड़ी आपदा से बचाया है.” तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने मार्च में कहा कि देश "कोविड-19 के खात्मे की ओर है". (महामारी पर सरकार की प्रतिक्रिया की आलोचना के बाद डॉ. हर्षवर्धन ने जुलाई में अपना पद छोड़ दिया.)

आईसीएमआर भारत सरकार के लिए अनुसंधान और उनकी समीक्षा करता है, उसने इन धारणाओं को बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई. भारत ने, वायरस के प्रसार का सूक्ष्म स्तर तक का विस्तृत डाटा जारी नहीं किया. इससे वैज्ञानिकों को उसका अध्ययन कर पाने में दिक्कत हुई. इसके अभाव में एजेंसी ने ज्यादातर अनुमान जारी किए, जिन पर कोई न कोई बहस खड़ी हुई.

इस घटनाक्रम से जुड़े रहे वैज्ञानिकों के मुताबिक एजेंसी के दृष्टिकोण में राजनीतिक प्रभाव की शुरुआत पिछले साल के शुरू में हुई.

अप्रैल 2020 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान सरकार ने एक इस्लामिक जमावड़े को वायरस के फैलाव का दोषी ठहराया. इसने कट्टरपंथी हिंदू समूहों को मुसलमानों पर हमले के लिए प्रेरित किया. ये वो समूह हैं जो प्रधानमंत्री के समर्थक माने जाते हैं.

इस उग्र माहौल के बीच ही आईसीएमआर के कुछ अधिकारियों ने कहा कि इस जमावड़े से वायरस की रोकथाम के प्रयासों को झटका लगा है. एक मीडिया संस्थान ने एजेंसी के एक सूत्र के हवाले से कहा कि इस्लामिक जमावड़े ने "लॉकडाउन से हुए फायदों को बेअसर कर दिया है." उस समय के आईसीएमआर के मुख्य वैज्ञानिक रमन गंगाखेडकर ने एक इंटरव्यू में जमावड़े को निशाना बताते हुए उसे एक "अप्रत्याशित आश्चर्य" बताया.

न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में डॉ. गंगाखेडकर ने कहा कि उन्होंने मुसलमानों को निशाना बनाने वाले सरकार के बयानों पर "दुख" जताया था. लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि एजेंसी के डायरेक्टर जनरल बलराम भार्गव ने उन्हें कहा था कि इस मामले को लेकर उन्हें चिंतित नहीं होना चाहिए. डॉ. भार्गव ने इस पर हमसे बातचीत के अनुरोध का जवाब नहीं दिया.

शाहिद जमील, भारत के उच्च विरोलॉजिस्टों में से एक

लॉकडाउन ने गंभीर आर्थिक नुकसान किया. उसमें ढिलाई आने के बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने अर्थव्यवस्था को फिर से गति देने और चुनाव प्रचार की शुरुआत करने में तेजी दिखाई. एजेंसी के शोधकर्ताओं ने कहा कि सरकारी वैज्ञानिकों ने इस काम में प्रधानमंत्री की मदद की.

जून 2020 में एजेंसी के द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन ने निष्कर्ष दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लॉकडाउन से वायरस का प्रसार धीमा तो हुआ लेकिन रुका नहीं. कुछ ही दिनों के भीतर विशेषज्ञों ने इस अध्ययन को वापस ले लिया. एजेंसी ने यह कहते हुए अपना अध्ययन वापस ले लिया कि- अध्ययन की मॉडलिंग की समकक्ष वैज्ञानिकों द्वारा समीक्षा नहीं हुई थी. एक ट्वीट में लिखा कि अध्ययन “आईसीएमआर की आधिकारिक पोजीशन को नहीं दर्शाता.”

अध्ययन से परिचित एक वैज्ञानिक से उस अध्ययन के एक लेखक ने बताया कि अधिकारियों के दबाव में इसके लेखकों ने वापस ले लिया था. उन्होंने इसके निष्कर्षों पर शिकायत करते हुए सवाल उठाया था कि उसकी समीक्षा करने से पहले ही इसे प्रकाशित कर दिया गया. वैज्ञानिकों ने इस कदम को असामान्य बताया और कहा कि आम तौर पर एजेंसी का नेतृत्व किसी पेपर को वापस ले लेने के बजाए संदेहास्पद भाषा को ठीक करता है.

जुलाई 2020 में डॉ. भार्गव ने एजेंसी के वैज्ञानिकों के लिए दो निर्देश जारी किए जिन्हें उनके आंतरिक आलोचकों ने राजनीति से प्रेरित माना.

उनके पहले निर्देश में, कई संस्थानों के वैज्ञानिकों को केवल छह हफ्ते में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित एक कोरोनावायरस वैक्सीन को मंजूरी दिलवाने के लिए मदद करने का आह्वान किया गया. 2 जुलाई के एक ज्ञापन के मुताबिक डॉ. भार्गव ने कहा कि एजेंसी का लक्ष्य भारत के स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त तक वैक्सीन को मंजूरी देना है. इस त्रापन की समीक्षा न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी की है. इस दिन प्रधानमंत्री मोदी अक्सर देश के आत्मनिर्भर होने को बढ़ावा देते हैं. इस ज्ञापन में साफ लिखा था, "कृपया ध्यान दें कि नाफरमानी को बहुत गंभीरता से लिया जाएगा.”

इस मांग ने एजेंसी के वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया. दूसरे देशों में नियामक संस्थाएं अभी वैक्सीन की मंजूरी से महीनों दूर थीं. यह समय सारणी सार्वजनिक होने के बाद एजेंसी के शीर्ष अधिकारी इससे पीछे हट गए. (भारतीय अधिकारियों ने वैक्सीन को मंजूरी महीनों बाद जनवरी में दी.)

भारत में दूसरी कोविड लहर के दौरान श्मशान घाट

जुलाई 2020 के अंत में जारी किए गए डॉ. भार्गव के दूसरे निर्देश में वैज्ञानिकों को उन आंकड़ों को जारी न करने के लिए मजबूर किया गया जो वायरस के अभी भी 10 शहरों में फैलने की तरफ इशारा करते थे. यह जानकारी अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों और ई-मेल से पुष्ट हुई.

यह डाटा आईसीएमआर के सीरोलॉजिकल अध्ययनों से आया था, जिसमें खून के नमूनों में एंटीबॉडी की मौजूदगी के आधार पर बीमारी की निशानदेही की गई थी. डाटा में रोकथाम के प्रयासों के बावजूद, दिल्ली और मुंबई सहित कुछ अन्य इलाकों में संक्रमण की दर अधिक दिख रही थी. न्यूयॉर्क टाइम्स के द्वारा जांच की गई 25 जुलाई की एक ईमेल में डॉ. भार्गव ने वैज्ञानिकों को बताया कि डाटा प्रकाशित करने के लिए "मुझे मंजूरी नहीं मिली है."

डॉ. भार्गव लिखते हैं, "आप लोग एक अजूबी दुनिया में बैठे हैं और स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रहे. मैं सही में बहुत निराश हूं."

अध्ययन पर काम करने वाले एक चिकित्सक नमन शाह ने कहा कि, डाटा पर रोक ने विज्ञान और लोकतंत्र के खिलाफ काम किया.

वो कहते हैं, "यह ऐसी सरकार है जिसकी सोच और इतिहास स्पष्ट रहा है कि हर संस्थान पर कब्जा करके उसे राजनीतिक संघर्ष का अखाड़ा बनाया जाए और सत्ता के लिए उसका इस्तेमाल किया जाए."

जो डाटा आईसीएमआर ने जारी किया, उसने अधिकारियों को देश और दुनिया के सामने यह कुतर्क पेश करने में मदद की, कि कोरोना वायरस भारत में उतनी तेज़ी से नहीं फैल रहा जितना कि अमेरिका, ब्राज़ील, ब्रिटेन और फ्रांस में फैल रहा है.

फिर सितंबर में एजेंसी द्वारा स्वीकृत एक अध्ययन ने यह गलत इशारा दिया कि महामारी का सबसे बुरा कालखंड समाप्त हो गया है.

भारत में सुपरमॉडल के नाम से ज्ञात इस अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि फरवरी 2021 के मध्य तक भारत में महामारी खत्म हो जाएगी. उसने 2020 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लगाए गए लॉकडाउन का हवाला दिया. अध्ययन ने कहा कि देश शायद हर्ड इम्यूनिटी की स्थिति तक पहुंच गया है, क्योंकि 35 करोड़ (350 मिलियन) से अधिक लोग या तो संक्रमित हो चुके थे या उनमें एंटीबॉडी विकसित हो गई थीं. इस अध्ययन की जानकारी रखने वाले डॉ. अग्रवाल और अन्य लोगों ने कहा कि एजेंसी ने अध्ययन की मंजूरी को फास्ट-ट्रैक किया.

प्रधानमंत्री मोदी देश को संबोधित करते हुए

एजेंसी के अंदर काम करने वाले और बाहर के वैज्ञानिकों ने अध्ययन की समीक्षा कर उसे तार-तार कर दिया. अन्य कोई भी देश हर्ड इम्युनिटी के आस-पास तक नहीं थे. बड़ी संख्या में भारत में लोग अभी संक्रमित भी नहीं हुए थे. अध्ययन को लिखने वाले लेखकों में से कोई भी एपिडेमियोलॉजिस्ट अर्थात महामारी विशेषज्ञ नहीं था. कुछ वैज्ञानिकों ने कहा की ऐसा प्रतीत होता है कि मॉडल को निष्कर्ष पर फिट करने के लिए इसके डिजाइन में हेराफेरी की गई.

सोमदत्ता सिन्हा एक सेवानिवृत्त वैज्ञानिक हैं जो संक्रामक रोग मॉडलों का अध्ययन करते हैं. उन्होंने इस अध्ययन के खंडन में लिखा, "उनके पास वो मापदंड थे जिन्हें मापा नहीं जा सकता और जब भी कर्व मेल नहीं खाते थे, तो उन्होंने उस मापदंड को बदल दिया. मेरा मतलब है कि हम इस तरह से मॉडलिंग नहीं करते. यह लोगों को गुमराह करना है."

एजेंसी में पहले से काम करने वाले चिकित्सक डॉ. अग्रवाल कहते हैं कि उन्होंने अक्टूबर में अपनी चिंताओं को डॉक्टर भार्गव के सामने रखा था. उन्होंने तब कहा, “इसका उनसे कोई लेना देना नहीं है." वे बताते हैं, “इसके बाद डॉ. भार्गव ने अध्ययन पर चिंता जताने वाले एक और वैज्ञानिक को बुलाया और उन दोनों को फटकार लगाई.”

'सुपरमॉडल' को बनाने वाली समिति के अध्यक्ष एम विद्यासागर ने इस विषय पर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया. मई में जब देश दूसरी लहर की चपेट में था, भारत के विज्ञान अधिकारियों ने कहा कि पैनल का गणित पर आधारित मॉडल "केवल सीमित निश्चितता के साथ आगे की भविष्यवाणी कर सकता है, जब तक वायरस की गतिशीलता और फैलने की क्षमता समय के साथ बहुत ज्यादा नहीं बदलती है."

जनवरी 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन ने दूसरी लहर की भविष्यवाणी की थी. नेचर जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन ने कहा कि इस तरह का प्रकोप "किसी अन्य प्रकार की रोकथाम के बिना" फिर से फैल सकता है. अध्ययन ने और अधिक टेस्टिंग की मांग की. इस मामले से परिचित लोगों ने बताया कि, इस अध्ययन के लेखकों में से एक आईसीएमआर में कार्यरत थे लेकिन संस्था के नेतृत्व ने उन्हें उनके एजेंसी से संबंध को हटा देने के लिए मजबूर किया.

दूसरी लहर के दौरान कोविड मरीज

दूसरी लहर अप्रैल में आई. मरीजों की बड़ी संख्या अस्पतालों की क्षमता के पार होने पर, भारत के स्वास्थ्य अधिकारियों ने उन उपचारों तक की सिफारिश की जिन्हें सरकार के अपने वैज्ञानिकों ने बेअसर पाया था.

ऐसे उपचारों में से एक था रक्त प्लाज़्मा. डॉ. अग्रवाल और उनके सहयोगी महीनों पहले इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि रक्त प्लाज्मा किसी भी प्रकार से कोविड-19 के मरीजों के लिए लाभकारी नहीं होता है. मई में एजेंसी ने इस सलाह को देना बंद कर दिया.

सरकार अभी भी एक-दूसरे उपचार, भारत में निर्मित मलेरिया की दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन की सिफारिश करती है, जबकि इस दवा के कोविड-19 में अप्रभावी होने के बड़ी मात्रा में वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध हैं. हताश व असहाय परिवारों ने दूसरी लहर के दौरान इन दोनों चीजों को किसी भी तरह पाने के लिए हाथ पांव मारे, जिससे इनकी कालाबाजारी हुई और कीमतें आसमान छूने लगीं.

एजेंसी के वर्तमान और पूर्व वैज्ञानिकों ने कहा कि उन्होंने अपनी आवाज इसलिए नहीं उठाई क्योंकि जो उपचार चल रहे थे उनका एक राजनीतिक पक्ष भी था. मसलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी ने पिछले साल उनके 70वें जन्मदिन पर प्लाज्मा दान शिविरों का आयोजन किया था. भारत सरकार ने भी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन को एक सामरिक उपकरण की तरह, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप‌ और ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर एम बोल्सोनारो के साथ प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया था. ट्रंप और बोलसोनारो, दोनों ने पिछले वर्ष नई दिल्ली पर इस दवा की निर्यात सीमा बढ़ाने के लिए दबाव डाला था.

डॉ. अग्रवाल कहते हैं, "यदि आप जीवन भर कहीं काम करना चाहते हैं, तो आप लोगों के साथ अच्छे संबंध चाहते हैं. आप हर चीज को लेकर टकराव से बचते हैं."

डॉ. अग्रवाल ने अक्टूबर में इस्तीफा दे दिया और उसके बाद न्यू मैक्सिको स्थित गैलप में काम किया. फिलहाल वो बाॅल्टीमोर में एक चिकित्सक हैं और कहते हैं कि एजेंसी के साथ उनके अनुभव ने उन्हें भारत छोड़ने के लिए प्रेरित किया.

उन्होंने कहा, "आप अपने काम पर ही सवाल उठाना शुरू कर देते हैं. और फिर आपका उससे मोहभंग हो जाता है."

एमिली श्मॉल के योगदान के साथ.

(करन दीप सिंह नई दिल्ली स्थित पत्रकार हैं. इससे पहले वो द वॉल स्ट्रीट जर्नल के लिए काम कर चुके हैं. वहां ये उस टीम के सदस्य थे जिसका चयन 2020 के पुलित्ज़र पुरस्कार की इंवेस्टिेशन रिपोर्टिंग के फाइनलिस्ट में हुआ था. साथ ही इसे नेशनल एमी अवार्ड के लिए नामांकित किया गया था. @Karan_Singhs)

सभी तस्वीरें न्यूयॉर्क टाइम्स के अंग्रेजी लेख से ली गई हैं.

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अनुवाद शार्दूल कात्यायन ने किया है.

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