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क्या है नई वाली हिंदी और पुरानी हिंदी से क्यों है अलग?
हिंदी दिवस के मौके पर न्यूज़लॉन्ड्री ने एक खास परिचर्चा का आयोजन किया. परिचर्चा का मुख्य विषय ‘हिंदी, नई वाली हिंदी और इसे लेकर हो रही उसकी आलोचना’ रहा.
इस चर्चा में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर डॉ. चंद्रदेव यादव, लेखिका वंदना राग, लेखक दिव्य प्रकाश दुबे और नीलोत्पल मृणाल बतौर वक्ता शामिल हुए.
हिंदी दिवस के मायने को लेकर संवाददाता बसंत कुमार ने चर्चा की शुरुआत हरिशंकर परसाई के एक व्यक्तव्य से की. हिंदी दिवस को लेकर हरिशंकर परसाई ने कहा था, “हिंदी दिवस के दिन, हिंदी बोलने वाले, हिंदी बोलने वालों से कहते हैं कि हिंदी बोलनी चाहिए."
हिंदी दिवस की सार्थकता के सवाल पर डॉ. चंद्रदेव कहते हैं, "हिंदी दिवस की थोड़ी सार्थकता बनी हुई है. संविधान में मौजूद प्रावधान के अनुसार कार्यालयों में हिंदी अपनाने के लिए प्रेरित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है. लेकिन ये एक रश्म अदायगी नहीं होनी चाहिए, इसे व्यवहार में लाने की जरूरत है."
इसे लेकर वंदना राग कहती हैं, "मुझे तो लगता है कि इसे मनाना एक रश्मी त्योहार की तरह ही है क्योंकि हिंदी पखवाड़ा या माह के बाद अंततः लोग अपनी पुरानी शैली पर लौट जाते हैं."
नई हिंदी के लेखक माने जाने वाले दिव्य प्रकाश दुबे हिंदी दिवस को लेकर कहते हैं, "मेरा मानना है कि सरकार द्वारा प्रायोजित सप्ताह, पखवाड़ा या माह का आयोजन ही खत्म कर देना चाहिए. इसे साल भर क्यों ना मनाया जाए."
वहीं नीलोत्पल मृणाल कहते हैं, "हिंदी दिवस एक सरकारी काम की तर्ज पर मनाया जाने लगा है. यह खानापूर्ति का विषय नहीं है. जिस दिन हमारे मस्तिष्क में हिंदी को लेकर प्रेम, अपनत्व और सम्मान की भावना आ जाएगी उस दिन व्यवहार में भी आ जाएगी."
हिंदी तबके में खासकर साहित्य की दुनिया में अंग्रेजी को लेकर भय का माहौल बनाया गया है. क्या किसी भी भाषा को किसी भाषा से डरना चाहिए. इस सवाल पर नीलोत्पल मृणाल कहते हैं, "आजीविका और सामाजिक सम्मान दो ऐसी चीजें हैं, जो हिंदी को उसका स्थान दिला सकती हैं. भय की कोई बात नहीं है."
नीलोत्पल की बात से सहमत होते हुए वंदना राग कहती हैं, "जब हमारे साथी अंग्रेजी में लिखते हैं तो नाम के साथ यश भी बहुत जल्दी कमा लेते हैं लेकिन वहीं हिंदी साहित्यकारों को बहुत संघर्ष करना पड़ता है."
बातचीत के मुख्य विषय 'नई वाली हिंदी पर हो रही राजनीति और आलोचना' पर बंसत कुमार नवभारतटाइम्स में छपे एक लेख का जिक्र करते हैं, जिसका शीर्षक है 'जाने अनजाने हिंदी को बांट रही नई वाली हिंदी'. इस पर पूछते हैं कि नई वाली हिंदी क्या है? और ये पुरानी वाली से अलग कैसे है?
इस पर दिव्य प्रकाश कहते हैं, "नई वाली हिंदी एक विश्वास है."
नीलोत्पल नई वाली हिंदी को लेकर कहते हैं, "हमारी आलोचना करने वाले ज्यादातर लोग बिना पढ़े, बिना चिंतन-मनन किए पूरे एक वर्ग का मूल्यांकन कर देते हैं. हम अपने समय को, अपने नजरिए से, अपने वक्त में बैठकर, नए प्रयोगों के साथ, नए बिम्ब के साथ जो प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे ही हम नई वाली हिंदी कहते हैं."
डॉ. चन्द्र इस पर कहते हैं, "मैं नीलोत्पल वाली हिंदी पसंद नहीं करता. इसकी वजह ये है असगर वजाहत कहते हैं कि, इसे विदेश के लोगों को पढ़ने-समझने में आसानी होती है, मतलब कि दूसरों की आसानी के लिए हम अपनी भाषा के स्वरूप को क्यों बिगाड़ें."
बदलती भाषा को लेकर प्रोफेसर यादव का मतलब हिंदी में लगातार अंग्रेजी के प्रयोग से है.
वंदना राग कहती हैं, "जैसे-जैसे हिंदी का विकास होता गया वैसे-वैसे उसमें परिवर्तन लाजमी था. आलोचना करने से पहले हमें नई हिंदी पढ़नी होगी. हमें देखना होगा कि हम किस चीज की आलोचना कर रहे हैं लोकप्रियता की, भाषा की या कहन-कथन की कर रहे हैं."
लोकप्रियता की आलोचना के सवाल पर दिव्य प्रकाश कहते हैं, "अगर आपको एक अच्छा क्रिकेटर, साहित्यकार या पत्रकार बनना है तो इसमें सालों लग जाते हैं. लेकिन आज के समय आलोचक बनने में बस एक डेटा चाहिए."
Also Read: हिंदी दिवस: भाषा, शब्द और साम्राज्यवाद
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