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ऑनलाइन पढ़ाई से दूर होते छात्र, कैसे पूरा होगा 2030 तक पूर्ण साक्षरता का उद्देश्य?

देश में प्राइमरी और माध्यमिक स्कूल कोरोना वायरस महामारी के कारण पिछले 17 महीनों से बंद हैं. हालांकि स्कूलों में ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है लेकिन उससे कुछ खास फायदा नहीं दिख रहा है. क्योंकि 2011 के सरकारी साक्षरता आंकड़ों के मुकाबले 10-14 आयु वर्ग के बच्चों के स्कूलों में साक्षरता दर में कमी आई है.

स्कूल चिल्ड्रन ऑनलाइन एंड ऑफलाइन लर्निंग (स्कूल) द्वारा “तालीम पर ताला: स्कूली शिक्षा पर आपात रिपोर्ट” प्रकाशित की गई है. इसके लिए अगस्त 2021 में 15 राज्यों में 1362 परिवारों से बातचीत की गई है. रिपोर्ट को निराली बाखला, ज्यां द्रेज, विपुल पैकरा और रितिका खेड़ा ने तैयार किया है.

इस सर्वे में कुछ चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में इस सर्वे के वक्त केवल आठ फीसदी बच्चे नियमित रूप से पढ़ाई कर रहे थे, और 37 फीसदी बिल्कुल नहीं पढ़ रहे थे. सर्वे में शामिल करीब आधे बच्चे तो कुछ ही शब्द पढ़ पाए. बच्चों के ना पढ़ पाने पर अभिभावकों ने कहा, तालाबंदी के दौरान उनके बच्चों में पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई है, वे सिर्फ स्कूल खुलने का इंतजार कर रहे हैं.

साक्षरता दर में आई कमी

इस रिपोर्ट में कई बातें बताई गई हैं. लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण है वह साक्षरता दर में आई कमी है. भारत सरकार अपने सर्वे में उन लोगों को साक्षर मानती है जो किसी भी भाषा में पढ़ने और लिखने में सक्षम हैं.

इस सर्वे में साक्षर उन बच्चों को माना गया जो परीक्षा के वाक्य को “आसानी से” या “मुश्किल से” पढ़ पाएं. सभी स्कूल प्रदेशों में 10-14 के आयु वर्ग में साक्षरता दर 2011 में 88 से 99 प्रतिशत के बीच थी. लेकिन अभी 10-14 आयु वर्ग की साक्षरता में कमी आई है. जिन 10 सालों में इस दर को बढ़ना था वह कम हो गई है. वह शहरी इलाकों में 74, ग्रामीण इलाकों में 66 और ग्रामीण दलित- आदिवासियों के बीच 61 फीसदी हो गई है.

स्कूल सैंपल में ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति परिवारों के 10-14 आयु वर्ग के बीच ‘निरक्षरता दर’ 39 फीसदी है. जो 10 साल पहले इसी आयु वर्ग के बच्चों में नौ फीसदी थी. यानी कि वर्तमान में वह दर चार गुना ज्यादा है. रिपोर्ट कहती है, यह आंकड़े लंबे अरसे से गैर-बराबरी और असंतुलित तालाबंदी का मिला-जुला असर है.

स्कूल सर्वे के आंकड़ों में महिला और पुरुष के बीच साक्षरता दर शहरी इलाकों में बराबर है. वहीं ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का प्रतिशत 67 है तो पुरुषों का प्रतिशत 66 है. ग्रामीण दलित और आदिवासी इलाकों में पुरुषों का प्रतिशत 61 है तो वहीं महिलाओं का 60 प्रतिशत. यानी लिंग के भेद पर हर जगह साक्षरता दर बराबर या लगभग बराबर की स्थिति में है.

लेकिन अगर बात शहरी, ग्रामीण और आदिवासियों की करें तो वहां असमानता काफी ज्यादा है. दलित ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में साक्षरता दर 61 प्रतिशत है. वहीं शहरी इलाकों में 74 प्रतिशत. यह दिखाता है कि जो असमानता हमारे सामाजिक तौर पर देश में चली आ रही है वह अब स्कूल एजुकेशन में भी दिख रही है.

शिक्षा व्यवस्था को लेकर काम करने वाले एनजीओ स्टीर एजुकेशन से जुड़े डैक्सटर सैम कहते हैं, “ऑनलाइन एजुकेशन के बाद से असमानता बढ़ी है और यह आगे चलकर बहुत हानिकारक हो सकती है. ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रहने वाले लोगों के पास संसाधन की कमी तो है ही साथ ही कई ऐसी सुविधाएं हैं जो उन्हें नहीं मिल पाती हैं. मसलन इंटरनेट की समस्या, स्मार्टफोन ना होना, बिजली ना होना, आर्थिक वजह यह कुछ ऐसे कारण हैं जिससे गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ाई से दूर होते जा रहे हैं.”

डैक्सटर आगे कहते हैं, “कोरोना काल में जब स्कूल बंद हुए तो ऑनलाइन क्लास शुरू की गईं. लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था इस बदलाव के लिए तैयार नहीं थी, खासकर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में. इन स्थानों ने एक डिजिटल विभाजन का अनुभव किया और जिन बच्चों के पास उपकरण नहीं थे, उन्होंने अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर भी खो दिया. इसलिए असमानता बढ़ रही है.”

दिल्ली में शिक्षा के लिए काम करने वाले अनिल अग्रवाल कहते हैं, ऑनलाइन पढ़ाई की वजह से असमानता बढ़ी है, इसमें कोई संदेह नहीं है. सामाजिक तौर पर जो आदिवासी, पिछड़ों के साथ जो असमानता हमें दिखती है वहीं इस समय ऑनलाइन पढ़ाई में उभर कर सामने आई है. अभी हमें लग रहा होगा कि यह कुछ समय के लिए है लेकिन इसका हम पर बहुत लंबे समय तक असर रहेगा. ऑनलाइन कभी भी ऑफलाइन पढ़ाई का उपाय नहीं हो सकता.”

वह आगे कहते हैं, “ऑनलाइन पढ़ाई से बच्चों के स्वास्थ्य पर भी गलत असर हो रहा है. ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में पढ़ाई में असमानता इसलिए हमें दिख रही है क्योंकि उनके पास संसाधनों की कमी है. उनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं, उनके पास खाने के लिए भी नहीं है. ग्रामीण इलाकों और आदिवासी इलाकों में बच्चें मिड-डे मिल के लिए स्कूल जाते हैं. उनके पास खाने के लिए नहीं है. माता-पिता खाने के लिए मजदूरी कर रहे हैं तो वह पढ़ाई कैसे करवाएंगे.”

कैसे पूरा होगा साक्षरता का लक्ष्य

कोरोना वायरस के आने के बाद से करीब 17 महीनों से स्कूल बंद हैं. अभी हाल ही में कुछ प्रदेशों में स्कूल खुले हैं लेकिन वह सिर्फ 9-12वीं कक्षा तक के लिए हैं. अभी प्राथमिक स्कूल नहीं खुले हैं. जिसके कारण बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है.

केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 में साक्षरता को लेकर लक्ष्य निर्धारित किया है. जिसके मुताबिक 2030 तक देश में साक्षरता दर को 100 प्रतिशत करना है. सरकार ने जब यह नीति लॉन्च की तब से लेकर अभी तक स्कूल नहीं खुले हैं. सरकार की कोशिश है कि प्री स्कूल से हायर सेकेंडरी स्कूल में 100 प्रतिशत जीआरई को पूरा किया जाए. साथ ही सरकार ने कहा कि दो करोड़ बच्चे जो अभी स्कूल में नहीं पढ़ रहे हैं उनको वापस स्कूल में लाने पर काम करेगी.

साक्षरता दर क्या पूरा किया जा सकता है, इस पर रितिका खेड़ा कहती हैं, “यह टारगेट मुश्किल तो नहीं है लेकिन इसे पूरा करने के लिए दृढ़ निश्चय चाहिए. सरकार को फोकस होकर स्कूल एजुकेशन पर काम करना होगा.”

रितिका कहती हैं, “स्कूल एजुकेशन को लेकर सरकार कि मंशा क्या है? क्योंकि सरकार ने इस साल स्कूल एजुकेशन के बजट में 10 फीसदी की कटौती की है. अगर हमें स्कूली शिक्षा पर ध्यान देना है तो सरकार को उसपर एक प्लानिंग के साथ काम करना होगा.”

वर्तमान में तमिलनाडु सरकार के साथ काम कर रहे डैक्सटर बताते हैं, “कोविड -19 के नुकसान से शिक्षा के पुनर्निर्माण के इस चरण में, हमें केवल साक्षरता लक्ष्यों पर जोर नहीं देना चाहिए. ग्रामीण इलाकों में बच्चों के पास ऑनलाइन स्कूल की पहुंच नहीं होने के कारण, लगभग पिछले डेढ़ साल से बहुत कम पढ़ाई हो पायी है. इसलिए इस समय, यह महत्वपूर्ण है कि स्कूल फिर से खुल जाएं और हर छात्र को एक शिक्षक मिले जो उन्हें पढ़ा सकता है.”

“छात्रों में बुनियादी शिक्षा और साक्षरता ही नहीं है, पर उनको समग्र विकास पर जोर देना चाहिए. ताकि वे आजीवन सीखने के कौशल को विकसित कर सकें, जैसे हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी कहती है. हमारे स्कूलों को भविष्य में लॉकडाउन की संभावना के लिए भी तैयार रहने की जरूरत है. यदि भविष्य में कोई लॉकडाउन हो तो हमें उस समय में भी विद्यार्थियों के सीखने के लिए व्यवस्था करने की आवश्यकता है.” सैम ने कहा.

अनिल अग्रवाल कहते हैं, “एनईपी को पूरा नहीं कर पाएंगे. ग्राउंड पर कुछ नहीं हो रहा है. रियलिटी में ऐसा कुछ नहीं हो रहा जिससे यह कहा जाए कि एनईपी के टागरेट को पूरा कर लिया जाएगा. एनईपी में कहा गया कि दो करोड़ बच्चों को जोड़ना है, जबकि हमारा मानना है कि ऑनलाइन के चक्कर में करीब 10 करोड़ बच्चे पढ़ाई से दूर हो गए हैं. अभी ऐसा है कि जिसके पास पैसा है उसके बच्चे पढ़ रहे हैं, जिसके पास नहीं वह बच्चे अब नहीं पढ़ पा रहे हैं. यही हकीकत है.”

स्कूली शिक्षा पर आपात रिपोर्ट में भी कहा गया है कि ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति के 98 फीसदी अभिभावक चाहते हैं कि जितना जल्द मुमकिन हो स्कूल खोले जाएं.

रितिका खेड़ा कहती हैं, “हमने अपने सर्वे में जब लोगों से बात की तो उन्होंने स्कूल खोलने पर अपनी सहमति जताई. अभिभावक कहते हैं, हम मजदूरी करने के लिए बाहर निकल रहे हैं, काम रहे हैं ताकि बच्चे खा सकें. अगर कोरोना होना होता तो हमें भी हो सकता था, लेकिन अभी कोरोना की स्थिति में सुधार है इसलिए अब कोरोना का बहना छोड़कर हमें स्कूल खोलने चाहिए.”

स्कूल खोलने को लेकर अनिल अग्रवाल कहते हैं, “आप देखिए कि दिल्ली में कई दिनों से कोरोना के कारण एक भी मौत नहीं हो रही है. वहीं रोजाना स्तर पर केवल 60-70 मामले सामने आ रहे हैं. इसलिए अब कोरोना की आड़ लेकर छुपना नहीं चाहिए बल्कि स्कूल खोलना चाहिए, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुकसान हो रहा है.”

सर्वे में दलितों और आदिवासियों को लेकर भेदभाव का एक उदाहरण भी दिया गया है. झारखंड के लातेहार जिले के कुटमु गांव में ज्यादातर दलित और आदिवासी परिवार हैं, लेकिन पढ़ाने वाली शिक्षिका अगड़ी जाति से हैं. शिक्षिका के परिवार के लोगों ने सर्वे करने वाली टीम से कहा, “अगर इनके बच्चे पढ़-लिखेंगे तो हमारे खेतों में काम कौन करेगा?”

इस गांव में सर्वे करने वाली टीम ने करीब 20 दलित-आदिवासी बच्चों से भी बात की. वह सभी पढ़ने में असक्षम थे. शिक्षिका कभी-कभी स्कूल आती हैं, आने के बाद आराम फरमाती है. बच्चों के परिजनों ने सर्वे टीम से शिक्षिका को लेकर शिकायतें तो कि लेकिन इसको लेकर कुछ भी करने में लाचार है.

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