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पाठकों से छल: कैसे भारत के अखबार और पत्रिकाएं विज्ञापनों को खबरों की तरह दिखाते हैं

अगर कोई लेख पढ़ने में एक न्यूज़ रिपोर्ट जैसा लगता है, वैसा ही दिखता है और कई अन्य खबरों के साथ प्रकाशित किया जाता है, तो वह एक न्यूज़ रिपोर्ट ही होगी?

नहीं.

वह एक विज्ञापन भी हो सकता है, लेकिन अगर आप ध्यान से नहीं देखेंगे तो आप जान नहीं पाएंगे. और असल में यही इस फीचर का उद्देश्य है, विज्ञापन का पैकेज इस तरह से तैयार किया जाता है कि आप को, यानी पाठक को यह पता न चले कि यह खबर नहीं एक विज्ञापन है.

खबरों के रूप में विज्ञापन को पारंपरिक मीडिया में 'एडवरटोरियल', और डिजिटल मीडिया में 'नेटिव एड' कहा जाता है. दोनों ही माध्यमों में, संपादकीय और विज्ञापन विभागों के बीच की दीवार नगण्य हो गई है जिससे गंभीर नैतिक सवाल खड़े होते हैं.

एडवरटोरियल के साथ केवल यह दिक्कत नहीं है कि उन्हें रिपोर्ट के छद्म रूप में पेश किया जाता है, बल्कि यह भी कि उनमें स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले संकेतक भी गायब होते हैं जो पाठकों को बतायें कि यह किसी पत्रकार के द्वारा की गई रिपोर्ट नहीं बल्कि विज्ञापन हैं.

उदाहरण के लिए इंडिया टुडे नियमित रूप से ऐसे एडवरटोरियल प्रकाशित करता है जो बिना किसी स्पष्टीकरण के बिल्कुल उनकी न्यूज़ रिपोर्ट जैसे दिखाई देते हैं. इनको एडवरटोरियल या विज्ञापन की तरह बताने के बजाय, इनको 'फोकस' जैसे संदर्भ रहित शब्दों से इंगित किया जाता है जो बहुत छोटे अक्षरों में कहीं कोने में छपा होता है. जबकि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पत्रकारिकता में आचरण के मानदंडों के हिसाब से, "पत्रकारिता की नैतिकता यह मांग करती है की किसी भी अखबार में विज्ञापन स्पष्ट रूप से खबरों से अलग दिखाई देना चाहिए."

साप्ताहिक पत्रिका के 2 अगस्त के संस्करण में उत्तर प्रदेश से मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का 24 पन्नों का विज्ञापन छपा. इसको किसी न्यूज़ रिपोर्ट से भिन्न बताने वाला केवल एक स्पष्टीकरण पहले पेज के शीर्ष पर छपा शब्द 'फोकस' था, इसके अलावा अंक के शीर्षक पन्ने पर पूरे अंक के लिए एक सूचना छपी थी कि 'इंपैक्ट फीचर' या 'फोकस' शीर्षक वाले पन्ने केवल विज्ञापन हैं, जिनको तैयार करने में पत्रिका के संपादकीय विभाग का कोई दखल नहीं है.

हालांकि इस तरह के स्पष्टीकरणों के अक्षरों का आकार व शैली, और एडवरटोरियल की भाषा पत्रिका में बाकी भाषा से थोड़ी भिन्न होती है, लेकिन उसे पहचान पाने के लिए आपका एक समझदार पाठक होना आवश्यक है.

इंडिया टुडे के लिए यह आम बात है. 5 जुलाई को पत्रिका ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की प्रशंसा करते हुए एक और छः पन्नों का एडवरटोरियल छापा जिसका शीर्षक "जीवन और आजीविका बचाने के लिए योगी मिशन मोड में" था. इसे भी बहुत छोटे अक्षरों में "फोकस, उत्तर प्रदेश" से लेबल किया गया था. पत्रिका का यह अंक उसका वार्षिक "व्यापक शैक्षिक मार्गदर्शन" अंक था जिसमें एडवरटोरियल भरे हुए थे. हैदराबाद के रूट्स कॉलेजियम के चेयरमैन के बारे में एक एडवरटोरियल था जिसे "फोकस एजुकेशन" की तरह प्रकाशित किया गया और एक दूसरा एसआरएम इंस्टीट्यूट का था जिसको "इंपैक्ट फीचर" कहा गया.

इसी तरह, पत्रिका में 19 जुलाई को एक साक्षात्कार के रूप में "फोकस ओलंपिक्स" के नाम से मोटर गाड़ी के पुर्जों के निर्माता ब्रिजस्टोन पर और 14 जून को वोल्वो कार पर "ऑटो फोकस" के नाम से एडवरटोरियल प्रकाशित हुए.

कार्थिक श्रीनिवासन एक संवाद नीति सलाहकार हैं जो अपनी सीमा को लांघने वाले एडवरटोरियल का अध्ययन करते हैं. वे कहते हैं, "इसकी नैतिकता बिल्कुल अस्पष्ट है. होना तो यह चाहिए कि आप साफ तौर पर यह बताएं कि यह संपादकीय नहीं है और इसके पैसे लिए गए हैं, लेकिन अधिकतर मीडिया प्रकाशन इसी सीमा का उल्लंघन यह छुपाने के लिए कर रहे हैं कि यह एक खरीदा हुआ विज्ञापन है. एडवरटोरियल जानबूझकर संपादकीय के साथ मिलाकर छापे जाते हैं जिससे संपादकीय की विश्वसनीयता का लाभ उठा सकें."

पूरे उद्योग में फैला रोग

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने अखबारों और पत्रिकाओं को इस हरकत के लिए कई बार लताड़ा और उनके खिलाफ कुछ कदम भी उठाए लेकिन इससे कुछ हुआ नहीं. जून में संस्था ने टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक जागरण और आउटलुक को पत्रकारिता के मानदंडों का उल्लंघन करते हुए खबरों के रूप में विज्ञापन छापने के लिए फटकार लगाई. ऐसे मामलों में प्रेस काउंसिल खुद ही मामले का संज्ञान लेकर संपादक को कारण बताओ नोटिस भेजती है. वहीं अगर संपादक का जवाब संतोषजनक ना हो तो नियंत्रक संस्था प्रकाशन को चेतावनी दे सकती है, उसकी निंदा कर सकती है. अथवा संस्था उस संपादक के आचरण को अस्वीकार कर सकती है.

तब भी कई बड़े अखबारों और पत्रिकाओं ने पिछले कुछ महीनों में बड़ी संख्या में एडवरटोरियल प्रकाशित किए हैं, जिनकी कीमत राज्य और केंद्र सरकारों ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में अव्यवस्था को लेकर जनता में पैदा हुए गुस्से को शांत करने के लिए दी है. टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, डेक्कन क्रॉनिकल और इकनॉमिक टाइम्स ने नरेंद्र मोदी सरकार के लिए न के बराबर मौजूद स्पष्टीकरण के साथ कई एडवरटोरियल प्रकाशित किए जो न्यूज़ रिपोर्ट जैसे दिखाई देते थे.

देश में सबसे ज्यादा वितरित होने वाला अंग्रेज़ी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया है. वह अपने एडवरटोरियल को विज्ञापन की जगह "कनेक्ट कंज़्यूमर इनीशिएटिव" यानी "ग्राहक संपर्क पहल" बता कर प्रकाशित करता है, जिससे उसके लाखों पाठक यह समझें कि यह न्यूज़ रिपोर्ट हैं. अखबार और उसका साथी प्रकाशन इकोनॉमिक टाइम्स कई अतिरिक्त अंकों जैसे बॉम्बे टाइम्स, दिल्ली टाइम्स, चेन्नई टाइम्स या ईटी पनाश के साथ आता है. इसमें खबरों के पन्ने नहीं होते बल्कि एडवरटोरियल के रूप में बताने वाले अक्षर मुख्य शीर्षकों से बहुत छोटे होते हैं. और यह हर "लेख" की बगल में नहीं होते, इसलिए उन्हें गलती से खबर समझ लेना अप्रत्याशित नहीं है.

द वीक भी एडवरटोरियल को "फोकस" बताकर छपता है. पत्रिका के 2 मई के अंक में "उद्यमियों" और जेके टायर एंड इंडस्ट्रीज़, 30 अप्रैल के अंक में कुछ शिक्षण संस्थाओं, 28 फरवरी के अंक में स्वास्थ्य और "श्वसन कल्याण" 26 अक्टूबर के अंक में उत्तर प्रदेश पर एडवरटोरियल छापे गए. यह "स्पष्टीकरण" पन्ने पर वहीं छपे होते हैं जहां विषय के टैग छपते हैं, और दिखाई भी वैसे ही देते हैं.

एक और साप्ताहिक पत्रिका ओपन ने अपने 11 जनवरी के अंक में उत्तर प्रदेश सरकार के लिए 4 पन्नों का एडवरटोरियल छापा जिसको "ओपन एवेन्यू" का तमगा दिया गया. फोर्ब्स इंडिया ने 11 अगस्त को 4 पन्नों में योगी आदित्यनाथ का न्यूज़ रिपोर्ट जैसा दिखने वाला विज्ञापन छापा, जिसे "ब्रांड कनेक्ट" का नाम दिया गया.

बिजनेस टुडे भी नियमित तौर पर "फोकस" और "एक इंपैक्ट फीचर" के नाम से विज्ञापन प्रकाशित करता है जो अपने शीर्षक पन्ने पर यह चेतावनी प्रकाशित करता है: "यह विज्ञापनों से किसी भी तरह से भिन्न नहीं है और पत्रिका का संपादकीय विभाग/स्टॉफ इनके निर्माण में किसी भी तरह से शामिल नहीं है."

8 अगस्त के अंक में पेज 9 पर इंटरनेशनल सोलर अलायन्स के डायरेक्टर जनरल का इंटरव्यू जैसे दिखाई देने वाला एडवरटोरियल छपा जिसको "फोकस सोलर" का तमगा दिया गया, पेज 25 फर "फोकस इंफ्रा" के नाम से इंडिया इन्फ्राट्रक्चर फाइनेंस कंपनी की तरफ से छपा और एक "फोकस होम ऑटोमेशन" नाम का एडवरटोरियल पैनासोनिक लाइफ सॉल्यूशंस इंडिया की तरफ से पेज क्रमांक 35 पर छपा.

21 मार्च के अंक में, पत्रिका के वार्षिक तौर पर होने वाले भारत के सबसे अच्छे बैंकों के सर्वे के साथ स्वास्थ्य, सुरक्षा, व्यापार, तकनीक, व्यवस्था संचालन, मानव संसाधन, केरल और उत्तर प्रदेश पर एडवरटोरियल प्रकाशित हुए.

खास तौर पर, शिक्षण और स्वास्थ्य संस्थाओं पर न्यूज़ रिपोर्ट जैसे दिखाई देने वाले एडिटोरियल, पत्रकारिता के मानदंडों का उल्लंघन करने के साथ-साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा को नुकसान पहुंचाने का खतरा भी पैदा करते हैं.

हालांकि एडवरटोरियल को लेकर कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं हैं, लेकिन एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार इन्हें विज्ञापन ही माना जाता है. अर्थात अगर कोई एडवरटोरियल एक विज्ञापन के दिशानिर्देशों का पालन नहीं करता, तो स्व-नियामक संस्था जो कि प्रेस क्लब आफ इंडिया है, विज्ञापनदाता को उसे बदलने या ठीक करने का निर्देश दे सकती है. अगर वह तब भी ऐसा नहीं करते हैं तो प्रेस काउंसिल विज्ञापन देने वाली कंपनी से जुड़े मंत्रालय को उनके खिलाफ कदम उठाने के लिए कह सकते हैं. प्रेस काउंसिल केवल व्यापारिक विज्ञापनों की नियामक है, सरकारी विज्ञापन उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं.

प्रेस काउंसिल की जनरल सेक्रेटरी मनीषा कपूर कहती हैं, “वह प्रकाशन जो एडवरटोरियल के लिए "फोकस" या "इनीशियेटिव" जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं या उन्हें एक विज्ञापन की तरह स्पष्ट रूप से नहीं दिखाते, संभव है कि वे संस्था के नियमों का उल्लंघन कर रहे हों.”

ऐसा ही एक नियम है कोड 1.4, जो यह कहता है, "विज्ञापन न तो तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेंगे और न ही ग्राहक को आधी अधूरी जानकारी से गुमराह करेंगे." या फिर कोड 1.5 जो कहता है, "विज्ञापन इस प्रकार से नहीं बना होना चाहिए जो ग्राहक के विश्वास का गलत इस्तेमाल करें या उनके अनुभव और ज्ञान की कमी का फायदा उठाए."

मनीषा कपूर कहती हैं, "विज्ञापनदाताओं और मीडिया दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका यह सुनिश्चित करने की है कि यह एडवरटोरियल ग्राहकों को ज़रा भी गुमराह करते हुए न प्रतीत हों. शिकायत मिलने पर भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) इन मामलों को देख सकती है."

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