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जनसत्ता डिजिटल: क्लिकबेट, हिट बटोरू, सनसनीपसंद पत्रकारिता की नई सत्ता

तहलका पत्रिका ने साल 2001 में स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सेना में हो रहे भ्रष्टाचार का खुलासा किया. तब जनसत्ता के संस्थापक और संपादक प्रभाष जोशी ने स्टिंग के तरीके पर सवाल उठाते हुए ‘क्योंकि पत्रकारिता सदाचारिता है’ शीर्षक से एक लेख लिखा. इस लेख में जोशी लिखते हैं, ‘भंडाफोड़ तो पत्रकारिता का एक काम है और तहलका ने सदाचार से काम नहीं किया है. और जो सदाचार नहीं है उसे पत्रकारिता अपना नहीं सकती क्योंकि पत्रकारिता सदाचार के बिना हो नहीं सकती.’’

पत्रकारिता में सदाचार को अनिवार्य बताने वाले प्रभाष जोशी आज अपने द्वारा शुरू किए गए जनसत्ता के डिजिटल संस्करण की खबरों को पढ़ते तो शायद हैरान और बेचैन जरूर होते.

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ये खबरें ‘जर्नलिज्म ऑफ़ करेज’ पंच लाइन वाले अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी संस्करण जनसत्ता डिजिटल पर प्रकाशित हुई हैं. ये कुछ उदाहरण हैं. वहां इस तरह की खबरें हर रोज प्रकाशित होती हैं.

बीते दिनों जनसत्ता से नौकरी छोड़ने वाले एक पत्रकार कहते हैं, ‘‘पढ़ाई के दिनों में जब पटना में था तो एक दिन बाद जनसत्ता अख़बार मिलता था हमें. यहां जब उसके डिजिटल विंग में काम करने का मौका मिला तो मैं खुशी-खुशी गया था. मुझे लगा कि इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के साथ बेहतरीन काम करने को मिलेगा. लेकिन वहां जो माहौल था वो देखकर मैं हैरान हो गया. हिट्स के लिए किसी भी हद तक जाने पर मज़बूर किया जा रहा था. कुछ ही दिनों में मेरा मन ऊब गया, जैसे ही मौका मिला मैं वहां से निकल गया.’’

वो पत्रकार आगे कहते हैं, ‘‘मैंने तो करीब एक साल वहां काम किया. बीते दिनों एक लड़की ने जॉइन किया. उससे ऐसी-ऐसी खबरें बनवाई गई की वो दस दिन में ही नौकरी छोड़ गई. यहां हिट्स लाने का दबाव इतना है कि मज़बूरी में निम्न स्तर की खबरें लिखनी पड़ती हैं. किसका किससे अफेयर रहा. कौन किसके घर से निकलते दिखा. किस टीवी एंकर ने नेता की बोलती बंद की ये सब चाहे जो भी हो लेकिन ये पत्रकारिता तो नहीं है.’’

क्लिकबेट जर्नलिज्म मौजूदा दौर में विज्ञापन आधारित डिजिटल मीडिया का एक जांचा-परखा औजार बन गया है. सनसनीखेज हेडलाइन के जरिए लोगों के अंदर की इच्छाओं को उकसाना और उन्हें स्टोरी क्लिक करने के लिए आकर्षित करना इस पत्रकारिता की पहचान बनता जा रहा है. हिंदी के ज्यादातर डिजिटल प्लेटफॉर्म इस बीमारी से पीड़ित हैं. लेकिन जनसत्ता की बात हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस मीडिया संस्था की एक समृद्ध विरासत रही है. इसके संपादकीय नेतृत्व ने एक समय में भारत की हिंदी पत्रकारिता के मुहावरों को बदल कर उसे एक न या आयाम दिया है.

आज जनसत्ता डिजिटल संस्करण ट्रेंड के आगे-पीछे भागता है. उसकी रिपोर्टें, या विचारोत्तेजक लेख अब इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं. जनसत्ता अब यह सब नहीं करता. जनसत्ता में काम करने वाले एक कर्मचारी कहते हैं, ‘‘मान लीजिए भारतीय क्रिकेट टीम का कोई खिलाड़ी बेहतर खेल के कारण चर्चा में आया तो जिस कारण चर्चा में आया उस पर एक खबर बनाई जाती है. इसके बाद कहा जाता है कि उसका कोई पुराना इंटरव्यू निकालो, कोई पुराना विवाद निकालो या उसका किस-किस से अफेयर था. उस पर खबरें बनाओ. जब तक वह खिलाड़ी गूगल पर ट्रेंड करता रहता है तब तक खबरें बनती रहती है.”

इस बात की तस्दीक एक और कर्मचारी करते हैं, ‘‘ट्रेंड से खबरें तय होती है. मुलायम सिंह यादव किसी वजह से अगर ट्रेंड कर रहे हैं तो हमें डिंपल यादव की, अखिलेश यादव या उनके परिवार के दूसरे लोगों से जुड़ी खबरें बनाने के लिए कहा जाता है.’’

वो कर्मचारी आगे कहते हैं, ‘‘13 अगस्त को मुलायम सिंह यादव से जुड़ी कई खबरें साझा की गईं. कभी डिंपल के जरिए तो कभी अपर्णा के जरिए मुलायम सिंह का नाम लाया गया. सब कुछ शीर्षक होता है. शीर्षक ही तय करता है कि खबर पढ़ी जाएगी या नहीं. आज सोशल मीडिया पर एक पुरानी खबर साझा हुई है, जिसका शीर्षक ‘मुलायम सिंह की फैमिली के बेहद करीब हैं ऐश्वर्या राय की सास, देखें डिंपल यादव कैसे हैं जया बच्चन के संबंध’. अब इस एक वाक्य में मुलायम सिंह, ऐश्वर्या राय, डिंपल यादव और जया बच्चन चारों का नाम आ गया.’’

एक अन्य कर्मचारी जो अब जनसत्ता छोड़ चुके हैं, हमें बताते हैं, ‘‘अब तो मैं वहां काम नहीं करता, लेकिन 13 अगस्त को केएल राहुल से जुड़ी एक खबर बनी है. दरअसल सुनील शेट्टी ने लार्ड्स में शतक लगाने के बाद केएल राहुल की तारीफ की. उन्होंने लिखा कि क्रिकेट के मक्का में 100, वेल प्लेड बाबा. अब मक्का लिखने पर कुछ लोगों को ऐतराज हुआ. तो जनसत्ता ने उसे ही खबर बना दी. लेकिन इस खबर की असली वजह सुनील शेट्टी की बेटी आतिया शेट्टी और राहुल के बीच चल रहा कथित प्रेम है. जिसका जिक्र जनसत्ता अपनी कॉपी में करता है. तो वहां ऐसा ही चलता है. ऐसी खबरें आप इंडियन एक्सप्रेस में नहीं पढ़ते हैं.’’

क्या जानबूझकर किया जाता है मुस्लिम शब्द का प्रयोग?

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ये खबरें जनसत्ता की हैं. जनसत्ता पर ऐसी खबरें लगभग हर रोज प्रकाशित होती हैं. 16 अगस्त की सुबह-सुबह भी इसी तरह की एक खबर प्रकाशित हुई. जिसका शीर्षक दिया, “शादीशुदा मर्द संग घर बसा बर्बाद हो गई थी अमिताभ बच्चन की इस मुस्लिम एक्ट्रेस की ज़िन्दगी, साल भर में खत्म हुई थी शादी.’’

अगर इन खबरों में मुस्लिम शब्द इस्तेमाल नहीं किया जाता तो भी खबर पर कोई असर नहीं पड़ता. क्योंकि इन खबरों का धर्म से कोई लेना देना नहीं है. हालांकि जनसत्ता ने ना सिर्फ हेडिंग में बल्कि खबर में भी मुस्लिम शब्द का प्रयोग किया.

क्या ऐसा जानबूझकर किया जाता है या अनजाने में? इसको लेकर एक पूर्व कर्मचारी कहते हैं, ‘‘यह एक तरह से अलिखित संपादकीय निर्णय है. अगर उन्हें यह गलत लगता तो ऐसा लिखने का सिलसिला रुक गया होता. दरअसल ऐसा लिखने पर लोग मज़बूर इसलिए होते हैं कि हर रोज 10 खबरें बनाने और महीने में हिट्स का टारगेट दिया गया है. अब वो टारगेट कैसे पूरा हो. ऐसे में डेस्क वाले इस तरह की खबरें बनाते हैं. हिन्दू-मुस्लिम देखकर लोग ख़बर पढ़ते हैं.’’ यानी मुस्लिम इनके लिए एक महत्वपूर्ण कीवर्ड है.

मौजूदा दौर में ऐसे तमाम लोग हैं जो इसे स्त्रीविरोधी मानते हैं. क्योंकि इसमें परोक्ष तरीके से महिलाओं को वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. भारतीय सूचना सेवा की अधिकारी गीता यथार्थ कहती हैं, ‘‘सिर्फ जनसत्ता ही नहीं ज़्यादातर डिजिटल प्लेटफॉर्म महिलाओं के शरीर को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ समझकर सेंसेशनल खबरें बनाते हैं. क्योंकि सेक्सुअल कंटेंट सोशल मीडिया पर काफी ज़्यादा खोजा जाता है. ऐसे में इस तरह की हेडिंग जानबूझकर बनाई जाती है ताकी लोग लिंक खोले और संस्थानों को हिट्स मिले. आजकल सारा खेल तो क्लिक बिट्स का है. कई बार तो हेडिंग में जो लिखा जाता है वो खबर में होता ही नहीं. यह साफ़ तौर पर सेक्सिज्म है.’’

लेकिन जनसत्ता के इस रवैए पर क्या कहना है? गीता कहती हैं, ‘‘सिर्फ जनसत्ता की बात नहीं है. आप देखिए इस तरह की हेडलाइन्स लगभग सब जगह हैं. राजस्थान पत्रिका हो, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर या एनडीटीवी जिसे हम थोड़ा लिबरल और बेहतर न्यूज़ कंटेंट के लिए जानते हैं. सब एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं. अख़बार कितने लोगों ने पढ़ा इसको आप रीडरशिप सर्वे में थोड़ा ऊपर-नीचे करा सकते हैं, लेकिन यहां तो सब एक दूसरे का ‘हिट्स और रीच’ जानते हैं. ऐसे में सब महिलाओं को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में दिखाकर आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं.’’

न्यूज़लॉन्ड्री ने जनसत्ता डिजिटल के संपादक विजय झा से संपर्क किया. झा लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं और कई मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. उन्होंने हमसे काफी लंबी बातचीत की. बातचीत में जो सबसे अहम बात उभर कर सामने आई वह ये कि उनके पास रिसोर्स की कमी है. मुस्लिम शब्द के इस्तेमाल की रणनीति के बारे में वो कहते हैं, ‘‘अगर 50 खबरें हैं तो हो सकता है कि पांच में बेवजह इस्तेमाल हुआ हो.’’

हमने जनसत्ता में छपी कुछ हेडिंग पढ़कर सुनाया तो उन्होंने कहा, ‘‘इन स्टोरी में अगर मुस्लिम शब्द इस्तेमाल नहीं होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि मुस्लिम अभिनेत्रियों पर ही खबर होती है. वहां पर लिखना ज़रूरी होता है. दरअसल जिसने भी ऐसी खबर बनाई उसकी सोच का स्तर आपके या हमारे जैसा होगा तो इस तरह की खबरें नहीं होंगी.’’

यह बड़ी विचित्र बात उन्होंने कहीं. पत्रकारिता या खबरों में सोच के स्तर का उतना महत्व नहीं है जितना संपादकीय नीति का महत्व है. मसलन अगर संपादकीय नीति तय हो जाय कि हिंदू या मुसलमान की बजाय समुदाय का इस्तेमाल होगा तो फिर खबर लिखने वाले की सोच चाहे जो भी हो उससे फर्क नहीं पड़ता. हमने उनसे यह सवाल किया कि क्या संपादक की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? वे कहते हैं, ‘‘जिम्मेदारी तो होती ही है. लेकिन कई बार ऐसी चीजें चली जाती हैं, लेकिन उसके पीछे कोई खास मसकद नहीं होता.’’

लेकिन वहां काम कर रहे और पूर्व में काम कर चुके कर्मचारियों की माने तो सबको ट्रैफिक लाने का टारगेट दिया जाता है. जब हमने झा के सामने ट्रैफिक टारगेट का सवाल रखा तो तो वे कहते हैं, ‘‘ये बात तो सही है कि नंबर (ट्रैफिक) तो हमें लाना ही है लेकिन ऐसा नहीं है कि मुस्लिम लिखने या तलाक लिखने से ही नंबर आएगा. ऐसा नहीं है. इस पर हम रोज चर्चा करते हैं.’’

आधी खबरें ट्विटर और टीवी डिबेट से

उत्तर प्रदेश के एक रिटायर आईएएस अधिकारी हैं सूर्य प्रताप सिंह. मोदी सरकार और योगी सरकार की अक्सर आलोचन करते रहते हैं. जनसत्ता में 16 अगस्त तक लगभग 10 खबरें उनके ट्वीट के आधार पर बन चुकी है. कई बार तो ऐसा हुआ कि एक दिन में सिंह के ट्वीट के आधार पर दो-दो खबरें बनाई गई.

सिंह के अलावा पूर्व आईपीएस अमिताभ ठाकुर के भी ट्वीट पर लगातार जनसत्ता खबरें प्रकाशित करता है. ठाकुर योगी सरकार के आलोचक रहे हैं और इन्हें हाल ही में योगी सरकार ने समय से पहले नौकरी से जबरन रिटायर कर दिया. इनके अलावा, ट्विटर पर जो कुछ भी ट्रेंड हुआ, जनसत्ता उस पर खबर बनाता है.

इसको लेकर वहां काम कर रहे एक कर्मचारी बताते है, ‘‘एक-दो दिन इनके ट्वीट पर खबर बनाकर देखा गया. तो उसपर ट्रैफिक आया. जैसे बाबा रामदेव या सुब्रमण्यम स्वामी ट्रैफिक देते हैं. स्वामी के एक ट्वीट पर तो दो-दो खबरें बनती हैं. ऐसे ही दिग्विजय सिंह भी. उनके बयान या उनसे जुड़ी खबरें बनाने पर ट्रैफिक आता है. ऐसे ही ये दोनों पूर्व अधिकारी हैं. जब तक ट्रैफिक दे रहे हैं तब तक इनपर खबरें बन रही हैं.’’

इसके अलावा टीवी चैनलों पर होने वाली गलाफाड़ डिबेट पर भी जनसत्ता आए दिन खबरें बनाता है. भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा हर शाम किसी ना किसी टीवी चैनल पर मौजूद रहते हैं. उनपर जनसत्ता 16 अगस्त तक 13 खबर बना चुका है. किसी-किसी रोज तो एक दिन में संबित के डिबेट पर किसी कांग्रेस प्रवक्ता या एंकर से हुई बहस से जुड़ी दो-दो खबरें बनाई गईं.

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यही नहीं एंकर्स ने किसी प्रवक्ता या किसी नेता को शो में डांट दिया या किसी प्रवक्ता ने एंकर को तो यह भी जनसत्ता के लिए खबर है. कई बार ऐसा हुआ कि सालों पहले किसी नेता ने किसी एंकर को कुछ बोला होगा, उसे अब जाकर खबर बनाया गया. जैसे 16 अगस्त को ‘जब अपना गलत नाम सुन एंकर पर भड़क गई थीं स्मृति ईरानी, कहा था – अंजना अंजनी तो नहीं हो सकता न?’ शीर्षक से खबर प्रकाशित हुई. दरअसल यह घटना 2014 की है.

ऐसे ही 11 अगस्त को एक खबर प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक ‘भारतीय होने के सवाल पर जब आग-बबूला हो गए थे फारुख अब्दुल्ला, एंकर से कहा-साइकेट्रिस्ट की जरूरत है आपको’. यह इंटरव्यू जनवरी 2017 में हुआ. तब पुण्य प्रसून वाजपेई आज तक न्यूज़ चैनल में में एंकर हुआ करते थे. जनसत्ता ने यह खबर लगभग चार साल बाद प्रकाशित की.

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टीवी न्यूज़ चैनलों पर चलने वाली बहस पर हर रोज दो से तीन खबरें जनसत्ता वेबसाइट पर प्रकाशित होती हैं.

इसको लेकर वहां काम कर रहे एक कर्मचारी न्यूज़लॉन्ड्री से बताते हैं, ‘‘इन स्टोरी के कंटेंट पर कोई बात नहीं होती है. बस इतना कहा जाता है कि कुछ गलत मत लिखो. बाकी कुछ भी लिखकर 350 शब्दों की स्टोरी बना दो. इन खबरों का आप यूआरएल देखिए. उसमें रिपब्लिक टीवी या आज तक होता है, एंकर का नाम होता है, प्रवक्ता का नाम है. ये सब कीवर्ड इस्तेमाल किए जाते हैं. इससे ट्रैफिक अच्छा खासा आता है. क्योंकि इसमें न्यूज चैनलों और एंकरों का अपना ट्रैफिक है वो भी जुड़ जाता है. कोई आज तक सर्च करेगा तब भी ये खबर दिखाई पड़ेगी और जनसत्ता के अपने पाठक तो हैं ही.’’

यहां काम कर चुके एक पूर्व कर्मचारी बताते हैं, ‘‘एक दो लोगों की ड्यूटी तो टीवी डिबेट या पुराने इंटरव्यू देखने के लिए लगाई जाती है. वे उसमें से कुछ विवादास्पद हिस्सा तलाशते हैं और उस पर खबर बनाई जाती है. यहां उस तरह से खबरें बनाई जाती हैं जैसी उस चैनल के लोग नहीं बनाते जहां घटना हुई होती है.’’

टीवी चैनलों पर होने वाले चिल्ल-पों पर जनसत्ता क्यों खबरें बनाता है. इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘वेबसाइट पर न्यूज़ के साथ-साथ मनोरंजन सेक्शन भी है. टीवी डिबेट पर जो चल रहा है. वो हमारे लिए मनोरंजन सेक्शन की न्यूज़ है. मनोरंजन की खबरें सिर्फ बॉलीवुड या ओटीटी से जुड़ी खबरें होंगी ये हम नहीं मानते.’’

इंडियन एक्सप्रेस पर ऐसी खबरें नहीं होतीं…?

इंडियन एक्सप्रेस को बेहतर पत्रकारिता के लिए जाना जाता है. जनसत्ता अख़बार भी एक समय में हिंदी का प्रतिनधि अख़बार रहा है. लम्बे समय तक जनसत्ता में मीडिया की भाषा और उसके गैरजिम्मेदारना रवैये पर लेख प्रकाशित होते रहे लेकिन आज उसकी ही हिंदी वेबसाइट पर प्रकाशित खबरों पर सवाल खड़े हो रहे हैं. आखिर इंडियन एक्सप्रेस वेबसाइट पर ऐसी खबरें क्यों नहीं होती?

ये सवाल हमने संपादक विजय झा से किया तो वे कहते हैं, ‘‘इंडियन एक्सप्रेस पर ऐसी खबरें क्यों नहीं होती तो इसका जवाब मैं नहीं दे सकता है.’’

लंबे समय तक मीडिया को लेकर जनसत्ता अख़बार में कॉलम लिखने वाले मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार हिंदी और अंग्रेजी की वेबसाइट के बीच के अंतर को लेकर कहते हैं, ‘‘ज़्यादातर हिंदी मीडिया संस्थान अपने पाठकों को मुर्ख समझते हैं. अपने पाठकों के कॉमन सेन्स को खत्म करने में लगे हुए हैं. यह बहुत अपमानजनक है. इसमें जनसत्ता के साथ-साथ एनडीटीवी भी शामिल है, बाकि तो हैं ही. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी में मैनिपुलेशन नहीं होता या प्रोपेगेंडा नहीं होता. सबकुछ होता है. लेकिन वहां पर इस हद तक फूहड़पन नहीं है. और यह इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हें अपने पाठकों को एक तरह का सम्मान देना होता है. हिंदी में ऐसा नहीं है.’’

इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप हर साल बेहतर पत्रकारिता के लिए देशभर के पत्रकारों को सम्मानित करता है. यह अवार्ड जनसत्ता के मालिक रामनाथ गोयनका के नाम पर दिया जाता है. विनीत कुमार कहते हैं, ‘‘यह वही संस्थान है जो हर साल बेहतरीन खबर करने वाले पत्रकारों को पुरस्कृत करता है. पुरस्कार देने का मतलब है कि वह पत्रकारिता को बचाये रखने की कोशिश कर रहा है. जो संस्थान पूरे देश के संस्थानों को उत्साहित करने के लिए अवार्ड दे रहा है वो संस्थान अपने भीतर पत्रकारिता को नहीं बचा पा रहा है. यह कितना दुखद और हास्यास्पद है. रामनाथ गोयनका अब डिजिटल मीडिया संस्थानों को भी मिलने लगा है. ऐसे में क्या इस तरह की खबर कर रहे जनसत्ता को कभी यह अवार्ड मिल पाएगा?’’

झा से हमने पूछा कि एक्सप्रेस हर सवाल बेहतर पत्रकारिता के लिए अवार्ड देता है. जिस तरह की पत्रकारिता जनसत्ता कर रहा है ऐसे में उसे कभी यह अवार्ड मिल पाएगा? वे कहते हैं, ‘‘अगर डिजिटल के पास प्रिंट या टीवी जैसा रिसोर्स हो तो वहां भी बेहतरीन रिपोर्ट हो सकती है. अवार्ड रिपोर्ट को मिलता है किसी माध्यम को नहीं मिलता. अगर वो रिपोर्टर और रिसोर्स हमारे पास होगा तो हम भी जीतेंगे.’’

रिसोर्स की कमी की बात आगे बढ़ाते हुए झा कहते हैं, ‘‘ओरिजिनल रिपोर्टिंग के लिए आपको अलग तरह का रिसोर्स चाहिए. वो रिसोर्स प्रिंट और टीवी में जिस तरह से उपलब्ध है उस तरह डिजिटल में कहीं नहीं है. इसे आप वेब मीडिया का माइनस पॉइंट कहिए. अभी उसे इस तरह की मान्यता और विश्वनीयता नहीं मिल पाई है. उसका खामियाजा जैसे बाकी वेब मीडिया भुगत रहा वैसे जनसत्ता भी भुगत रहा है.’’

जनसत्ता की लम्बे समय तक एक प्रगतिशील अख़बार की छवि रही है. क्या जनसत्ता डिजिटल के इस तरह की खबरों से उसे नुकसान हो रहा है. जवाब में झा कहते हैं, ‘‘जनसत्ता अख़बार एक खास तरह के पाठक वर्ग तक पहुंच रहा है. हमारे पास हर तरह के पाठक के लिए कंटेंट हैं. ऐसा नहीं है कि हार्ड न्यूज़ हमारे पास नहीं होती है. वो भी है लेकिन बाकी जो पाठक हैं उनके लिए भी हमारे पास खबरें होती हैं.’’

यह वो जनसत्ता है जो एक बार फिर से पत्रकारिता के नए मुहावरे गढ़ रहा है. दुखद बात यह है कि इस बार के मुहावरे क्लिकबेट, हिट बटोरू, सनसनीपसंद हो चुके हैं.

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