Report
50 फीसदी बढ़ सकती हैं पानी में डूब कर मरने की घटनायें
क्या जलवायु परिवर्तन से प्रेरित एक्स्ट्रीम वेदर दुनिया में डूब कर होने वाली मौतों या घायल होने (ड्राउनिंग) की घटनाओं को बढ़ा रहा है. इस बात को पूरी तरह साबित करने के लिये अभी पुख्ता डाटा बेस उपलब्ध नहीं है लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि तार्किक आधार पर सोचा जाये तो इस ख़तरे से इनकार नहीं किया जा सकता. उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है जिन देशों में एक्स्ट्रीम वेदर (अचानक बाढ़ आना, बादल फटना आदि) की घटनायें अधिक हो रही हैं वहां पानी में डूब कर मरने की घटनायें 50% बढ़ सकती हैं.
क्या है ड्राउनिंग और क्या कहते हैं आंकड़े
“डूबने पर सांस ले पाने में अक्षम हो जाने की प्रक्रिया” को ड्राउनिंग कहा जाता है. यह जानलेवा हो सकती है या प्राण बच जाने की स्थिति में दिमागी अक्षमता और लंबे समय के लिये अपंगता– जैसे याददाश्त चले जाना या काम करने की शक्ति या कौशल खो देना आदि हो सकती है. ड्राउनिंग की घटना पूरे साल स्विमिंग पूल से लेकर नदियों, झीलों और समुद्र तटों पर कहीं भी हो सकती है. रोजगार के वक्त, यात्रा के वक्त और सैर सपाटे में यह घटनायें होती है.
डब्ल्यूएचओ की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि साल 2019 में दक्षिण पूर्व एशिया में 70 हज़ार से अधिक लोगों की मौत डूब कर मरने से हुई यानी औसतन 191 लोगों की मौत हर रोज़. साउथ ईस्ट एशिया के दस देश भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाइलैंड, मालदीव और तिमोर लेस्ते को इसमें शामिल हैं. मरने वालों में एक तिहाई से अधिक 15 साल से कम उम्र के थे. हर साल प्रति एक लाख में ड्राउनिंग से मरने वालों में सबसे खराब स्थिति तिमोर लेस्ते (5.8) और थाइलैंड (5.5) की है जबकि सबसे अच्छी स्थिति इंडोनेशिया (1.8) की है.
क्या है भारत की स्थिति
दक्षिण पूर्व एशिया के जिन 10 देशों को डब्ल्यूएचओ की लिस्ट में शामिल किया गया है उनमें प्रति एक लाख में ड्राउनिंग से मरने वालों में भारत का छठा नंबर है. यहां साल 2019 में हर एक लाख में औसतन 3.8 मौतें हुईं यानी भारत की आबादी (136 करोड़) के हिसाब से इस साल कुल 51,680 लोग डूबने से मरे. मरने वालों में 34% महिलायें और 66% पुरुष हैं. डूब कर मरने का सबसे अधिक खतरा 14 साल से कम आयु वर्ग के लोगों में है जिनकी संख्या 30% रही.
महत्वपूर्ण है कि नेपाल जैसे भौगोलिक रूप से छोटे देश में, जहां कोई समुद्र तट नहीं है और जहां आबादी तीन करोड़ से कम है, 2019 में डेढ़ हज़ार से अधिक लोग डूबने से मरे यानी प्रतिदिन चार से ज़्यादा लोगों की ड्राउनिंग से मौत हुई.
क्या जलवायु परिवर्तन इसे बढ़ा रहा है
डब्ल्यूएचओ ने अपनी रिपोर्ट में साल 2019 में 70,034 लोगों का आंकड़ा दिया है लेकिन यह भी कहा है कि मरने वालों की असल संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि एक्सट्रीम वेदर इवेंट या आपदाओं वाले इलाकों में हुई मौतों को इसमें शामिल नहीं किया गया है. दक्षिण पूर्व एशिया में जलवायु प्रेरित इन आपदाओं या मौसम की अप्रत्याशित घटनाओं का बहुत ख़तरा है. रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे देशों में ड्राउनिंग से मौत का आंकड़ा 50% तक बढ़ सकता है.
दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टेरी) के पृथ्वी विज्ञान और जलवायु परिवर्तन विभाग में सीनियर फेलो सुरुचि भडवाल कहती हैं, "जिस तरह मौसमी बदलाव दिख रहे हैं उससे आने वाले 10 सालों में बहुत बड़े परिवर्तन होने हैं और भारत में इसके स्पष्ट प्रभाव दिखेंगे."
सुरुचि कहती हैं, “भारत के नज़रिये से देखें तो आने वाले वर्षों में यहां जलवायु अधिक गर्म और अधिक बारिश वाली होगी. अब हम यह नहीं मान सकते कि जहां पर बारिश कम होती है वहां बरसात नहीं होगी या उन जगहों पर जहां पहले से काफी बारिश होती रही है वहां और अधिक बारिश नहीं होगी. ज़ाहिर है इससे बाढ़ की स्थिति और खतरनाक होने और डूबने की घटनायें बढ़ने की आशंका तो है ही.”
सुरुचि के मुताबिक क्लाइमेट चेंज के ख़तरों और उससे निपटने के तरीकों पर 2013 में महाराष्ट्र सरकार को दी गई रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी है कि कोंकण वाले इलाकों में बारिश बढ़ेगी और पिछले कई सालों से मुंबई और पश्चिमी घाट के अन्य इलाकों में बरसात का बढ़ता ग्राफ देखा जा रहा है.
आपदा प्रबंधन जानकार और बाढ़ पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी के सलाहकार प्रसून सिंह भी मानते हैं. बाढ़ और चक्रवाती तूफानों का अनायास और बार-बार होना चिन्ता का विषय है. वह कहते हैं, “अब हमारे पास पुख्ता रिसर्च और आंकड़े हैं जो जलवायु परिवर्तन और इन आपदाओं का संबंध बताते हैं.”
लेकिन क्या एक्सट्रीम वेदर की स्थिति में किसी की जान डूबने से गई या अन्य वजहों से यह बताना आसान है? पुख्ता आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण कई जानकार इस पर सवाल उठाते हैं. उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में बादल फटने और नदियों में बाढ़ आने की घटनायें होती रहती हैं. साल 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ में ही करीब 6000 लोगों की मौत हुई और इस साल चमोली आपदा में 200 लोग बह गये. उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग में एक्सक्यूटिव डायरेक्टर पीयूष रौतेला के मुताबिक ड्राउनिंग से हुई मौत के आंकड़ों को स्पष्ट बताना संभव नहीं है.
वह कहते हैं, “ड्राउनिंग शब्द का इस्तेमाल सामान्य रूप में कर लिया जाता है लेकिन यह जटिल मामला है. अगर किसी जगह नाव डूबती है तो वहां हुई मौतों का कारण ड्राउनिंग है लेकिन जब हमारे यहां (पहाड़ों में) फ्लैश फ्लड होता है तो आप नहीं जानते कि मौत किसी पत्थर से टकरा कर चोट लगने से हुई या डूबने से. पहाड़ों में अगर आप आत्महत्या जैसी वजहों को छोड़ दें तो आप मौत की वजह तकनीकी रूप से ड्राउनिंग नहीं कह सकते.”
रौतेला कहते हैं कि डूबने की घटनायें समुद्र तटीय इलाकों या उन क्षेत्रों में अधिक होती हैं जहां बड़ी नदियों को पार करने के लिये नावों इत्यादि का इस्तेमाल होता है. वैसे नदियों, झीलों और समुद्र तटों पर लोगों को यात्रा, रोज़गार और पढ़ाई-लिखाई यानी स्कूल जाने जैसे कार्यों के लिये पानी के पास जाना पड़ता है और कई बार दुर्घटनायें हो जाती हैं.
क्या हैं बचने के उपाय?
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में आपदा प्रबंधन और शहरी इलाकों में क्लाइमेट से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही संस्था इन्वायरेंमेंटल एक्शन ग्रुप, गोरखपुर के अध्यक्ष शिराज़ वजीह कहते हैं, “मैंने डूबने से हुई मौतों के पीछे वजह के तौर पर क्लाइमेट चेंज के असर का अध्ययन नहीं किया लेकिन यह स्वाभाविक बात है कि अगर कम वक्त में बहुत अधिक बारिश होगी और अचानक पानी बढ़ेगा तो डूबने का ख़तरा तो बढ़ेगा ही.”
वजीह के मुताबिक ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये ग्रामीण इलाकों में जागरूकता, मूलभूत ढांचा और लोगों को बेहतर उपकरण या ट्रेनिंग उपलब्ध करानी होगी क्योंकि लोगों की दिनचर्या में बाढ़ और पानी शामिल है.
वह कहते हैं, “अगर आप उत्तर भारत के तराई वाले इलाकों में कोसी, गंडक या राप्ती बेसिन जैसे इलाकों को देखें तो पूरे जलागम क्षेत्र में काफी गड्ढे बने हुये हैं क्योंकि नदियां रास्ता बदलती रहती हैं और क्योंकि लोग भोजन या रोज़गार के लिये मछली पकड़ने यहां जाते ही हैं तो दुर्घटनायें भी होती रहती हैं.”
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में वॉटर सेफ्टी नियमों को लेकर ज़ोर दिया गया है. सभी देशों से एक राष्ट्रीय जल सुरक्षा योजना बनाने और लागू करने को कहा गया है. लोगों द्वारा पानी प्राप्त करने (एक्सिस टू वॉटर) या पानी से जुड़े रोज़गार को सुरक्षित किया जाये. उधर पूर्व ओलम्पियन और मार्था पूल्स (इंडिया) के मैनेजिंग डायरेक्टर हकीमुद्दीन हबीबुल्ला कहते हैं कि तैराकी को सिर्फ एक खेल तक सीमित न रखकर अधिक आगे ले जाने की ज़रूरत है. यह महत्वपूर्ण जीवन रक्षण का कौशल है और हर किसी को इसे सीखना चाहिये.
हबीबुल्ला के मुताबिक बच्चों को स्कूल में ही तैराकी सिखाने और वॉटर सेफ्टी की तकनीक सिखाने की नीति होनी चाहिये. बच्चों के लिये सुरक्षा की प्राथमिक ज़िम्मेदारी स्वयंसेवक, टीचर और अभिभावक के रूप में महिलाओं के हाथों में होनी चाहिये.
(साभार- कार्बन कॉपी)
Also Read
-
Who picks India’s judges? Inside a hidden battle between the courts and Modi’s government
-
Years after ‘Corona Jihad’ vilification: Delhi HC quashes 16 Tablighi Jamaat FIRs
-
History must be taught through many lenses
-
PIL in Madras HC seeks to curb ‘speculation blaming pilots’ in Air India crash
-
उत्तर प्रदेश: 236 मुठभेड़ और एक भी दोषी नहीं, ‘एनकाउंटर राज’ में एनएचआरसी बना मूकदर्शक