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उत्तराखंड: जंगल बचाने वाले ग्रामीणों का जंगल पर ही नहीं है कोई हक
मार्च-अप्रैल की तेज़ गर्मी में आग की लपटों से घिरे उत्तराखंड के जंगल बारिश के समय एक बार फिर हरे-भरे नज़र आने लगे हैं. जंगल की आग हर साल ही वन संपदा को बड़ा नुकसान पहुंचाती है. ग्रामीणों की मदद से ही ये आग बुझायी जाती है. लेकिन जंगल पर इन ग्रामीणों का कोई हक़ नहीं है. राज्य में एफआरए से जुड़े कई मामले अब भी लंबित हैं. क्या जंगल के नज़दीक रहने वाले लोगों को इस पर हक देकर समस्या का हल तलाशा जा सकता है?
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी एमडीएमए जंगल की आग को प्राकृतिक आपदा नहीं मानता. पशुओं के लिए हरे चारे और खेतों के इर्द-गिर्द लगाई गई आग भी जंगल की आग की बड़ी वजह मानी जाती है. आग बुझाने के लिए भी वन विभाग गांव के लोगों पर ही निर्भर रहता है.
उत्तराखंड का कुल वन क्षेत्र 37999.532 वर्ग किमी है. जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 71 प्रतिशत है. वन विभाग में फॉरेस्ट गार्ड के स्वीकृत पद 3650 हैं, जबकि 1281 फॉरेस्ट गार्ड कार्यरत हैं, बाकी पद खाली हैं (1 जुलाई 2021 तक की स्थिति). वन क्षेत्र के सामने मुठ्ठीभर फॉरेस्ट गार्ड भी नहीं हैं. फॉरेस्टर के 1729 स्वीकृत पदों पर 1642 कार्यरत हैं. तो ऐसी स्थिति में बिना लोगों को साथ लिए वन विभाग जंगल का प्रबंधन नहीं कर सकता.
उदाहरण
बागेश्वर ज़िले के बागेश्वर तहसील के पुरकोट ग्राम पंचायत के ललित पांडे अब चल नहीं सकते. 30 जून 2014 को उनके गांव के नज़दीक के जंगल आग की लपटों से घिर गए. ललित याद करते हैं, “मैं उस समय गांव का प्रधान था. गांव के हम सभी लोग तीन दिन से जंगल की आग बुझाने में ही जुटे थे. यहां कभी दिन में आग लग जाती है तो कभी रात में. जंगल में आग लगी तो मेरे साथ गांव के 18-19 लोग आग बुझाने दौड़े. हमारे साथ एक फॉरेस्टर भी मौजूद था. इस दौरान मैं चट्टान से गिर गया और मेरी कमर टूट गई. तब से दो बार मैं ऑपरेशन करा चुका हूं.”
इस हादसे ने ललित को विकलांग बना दिया. उनकी खेती चौपट हो गई. परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ गया. इलाज में सरकार से कोई मदद नहीं मिली. वह कहते हैं, “उस समय के डीएफओ ने मेरे बेटे को वन विभाग में स्थायी नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन वह भी नहीं मिली. मैं जंगल बचाने के लिए दौड़ा था, अब चल भी नहीं सकता.”
देहरादून वन प्रभाग में आशारोड़ी वन क्षेत्र से लगे गांव शुक्लापुर के आसपास का जंगल आदर्श माना जाता है. यहां आग लगने की घटनाएं बेहद कम होती हैं. जंगल और छोटी आसन नदी को पुनर्जीवित करने के लिए गांव वालों ने अभियान चलाया. पर्यावरणविद् अनिल जोशी की संस्था हेस्को ने इनका मार्गदर्शन किया.
इस गांव की आशा पांडे बताती हैं, “गांव में जंगली जानवरों का आतंक बढ़ गया था. बंदर और सूअर खेती को नुकसान पहुंचाते थे. गांव के लोगों ने मिलकर जंगल की साफ़-सफ़ाई की. झाड़ियां साफ की. फलदार पेड़ लगाए. ताकि जानवरों को जंगल में ही भोजन मिले. हमने जंगल का रख-रखाव करना शुरू किया. लेकिन इसके बावजूद वन विभाग वाले अब भी हमें जंगल से दूर करने की कोशिश करते हैं. हमें वहां से लकड़ियां या सूखी पत्तियां लाने से भी मना करते हैं. पशुओं को चराने से मना करने पर लोगों ने अपने गाय-बछड़े तक सड़कों पर छोड़ दिए हैं. हमारे घर के ठीक सामने के जंगल को हम अपना नहीं कह सकते.”
जंगल से नाता
जंगलों के इतिहास के जानकार डॉ शेखर पाठक कहते हैं, “जंगल पर समुदाय का हक है. जो जंगल सरकार के पास है, वो भी समुदाय का है. वन विभाग को जंगल का मालिक न बनकर उसका संरक्षक बनना चाहिए. जंगल लोगों के जीवन के केंद्र में है. चाहें कृषि हो, सिंचाई, पीने का पानी, भूस्खलन, जड़ी-बूटी, खाद, लकड़ी या ईधन हो. इन प्राकृतिक स्रोतों की हिफाजत इसलिए करनी पड़ेगी, क्योंकि अन्य स्रोत इससे जुड़े हुए हैं. जंगल में आग लगेगी तो पीने के पानी, वनस्पति और चारे पर संकट आएगा. धरती के भीतर जल-प्रवाह पर इसका असर पर पड़ेगा. मिट्टी बह जाएगी.”
वन अधिकार के दावे
पिछले कुछ वर्षों में राज्य में जंगल की आग का खतरा बढ़ता जा रहा है. जबकि कठोर वन कानूनों के चलते जंगल से लोगों का रिश्ता कमज़ोर हो रहा है. वर्ष 2006 में आया वन अधिकार अधिनियम प्राकृतिक संसाधनों पर वनवासियों के पारंपरिक अधिकारों को मान्यता देता है. लेकिन उत्तराखंड में समुदाय के हक की संभावना पर कोई विचार नहीं किया जा रहा. बल्कि जंगल पर हक के दावों से जुड़े पुराने मामलों पर ही अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
सामुदायिक वन अधिकार को लेकर 2016 में तैयार की गई प्रॉमिस एंड परफॉर्मेंस रिपोर्ट के मुताबिक फॉरेस्ट राइट एक्ट (एफआरए) के तहत जंगल पर हक़ देकर स्थानीय लोगों को सशक्त बनाया जा सकता है और जंगल का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक एफआरए के तहत जंगल पर हक देने के मामले में सबसे खराब स्थिति वाले राज्यों में से एक उत्तराखंड भी है. उत्तराखंड में 40,00,000 एकड़ (16187.43 वर्ग किलोमीटर) वन क्षेत्र में समुदाय को हक़ दिया जा सकता है. महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा जैसे राज्य सामुदायिक वन अधिकार और व्यक्तिगत वन अधिकार देने के लिए कार्य कर रहे हैं.
जनजातीय कार्य मंत्रालय ने 31 जनवरी 2020 को एफआरए के तहत अनुसूचित जनजाति और अन्य वनवासियों को हक देने के मामले में जानकारी साझा की थी. इसके मुताबिक उत्तराखंड से 31 जनवरी 2020 तक 3,574 व्यक्तिगत और 3,091 सामुदायिक यानी कुल 6,665 दावे पेश किए गए. इसी तारीख तक इसमें से 144 व्यक्तिगत और एक सामुदायिक दावे पर हक दिया गया. 6,510 मामलों में अब भी कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है.
वनाधिकार दावों पर कुछ नहीं किया
उत्तराखंड सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने वाला है. वन संपदा के आधार पर उत्तराखंड सरकार ग्रीन बोनस की मांग तो करती है. लेकिन जंगल बचाने वाले समुदाय के हक़ के दावों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.
वन मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत कहते हैं, “हमने इस मुद्दे पर कुछ बैठकें तो की थीं लेकिन बहुत सफ़ल नहीं हो पाए. जंगल पर लोगों के पारंपरिक हक़ हैं. लेकिन वन संरक्षण अधिनियम आने के बाद वन विभाग के अधिकारी जंगल से जुड़े नियमों का हवाला देकर स्थानीय लोगों को रोकते हैं. मुझे लगता है कि केंद्र सरकार को वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करना चाहिए. जंगल तभी बचेगा जब लोग जंगल को अपना समझेंगे. कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस कानून के बाद लोगों ने जंगल को बचाना बिलकुल बंद कर दिया है. ”
नैनीताल में वन अधिकार अधिनियम के तहत किये गये दावों के निपटारे के लिए बनी ज़िला स्तरीय कमेटी के सदस्य एडीएम कैलाश टोलिया कहते हैं, “ऐसे ज्यादातर मामलों में लोग कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं पेश कर पाते. उन्हें 70-80 वर्ष पुराने सरकारी दस्तावेज़ दिखाने होते हैं. जबकि वन मंत्री कहते हैं कि राज्य के मूल निवासियों को इस तरह के काग़ज़ दिखाने की जरूरत नहीं है.”
वन पंचायतें भी बढ़ते दखल से परेशान
जंगल को आग से बचाने और जंगल की गुणवत्ता बेहतर बनाने का एक उदाहरण उत्तराखंड में वन पंचायतों के तौर पर भी मौजूद है. ब्रिटिशकाल (वर्ष 1931) में भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत वन पंचायतें बनाई गई थीं. ये वनों का बेहतर प्रबंधन करने के लिए जानी जाती हैं. 71.05% वन क्षेत्र का 13.41% (12,167 वर्ग किलोमीटर) वन पंचायतों के हिस्से में आता है. उत्तराखंड में कागजों पर 11,522 वन पंचायतें मौजूद हैं. हालांकि करीब 5500 वन पंचायतें ही सक्रिय तौर पर कार्य कर रही हैं. इन्हें वन और वन उपज पर हक़ हासिल है.
सामूहिक भागीदारी से चलने वाली वन पंचायतें भी इस समय वन विभाग से स्वायत्तता की मांग कर रही हैं. इनके नियमों में भी समय-समय पर बदलाव किए गए और वन विभाग की भूमिका बढ़ाई गई. अल्मोड़ा में वन पंचायत सरपंच संगठन के प्रांतीय संरक्षक ईश्वर दत्त जोशी कहते हैं “वन पंचायतें जंगलों के सामूहिक प्रबंधन का नमूना हैं. वन विभाग पहले तकनीकी सलाहकार के रूप में जुड़ा था. लेकिन अब विभाग का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है. बजट से लेकर छोटे-मोटे कार्यों के लिए सरपंच को फॉरेस्ट गार्ड की अनुमति लेनी पड़ती है. हम चाहते हैं कि वन अधिकार कानून के तहत वन पंचायतों को जंगल पर हक़ दिया जाए. संगठन ने अपनी ये मांगें वन विभाग के सामने भी रखी हैं.”
क्या है वन अधिकार कानून- 2006
वन अधिकार कानून जनजाति और जंगल से जुड़े अन्य पारंपरिक समुदाय को जंगल पर हक़ देता है. वे अपनी जरूरत और आजीविका के लिए जंगल की लकड़ी और अऩ्य वन-उपज का इस्तेमाल कर सकते हैं.
राजस्व गांवों के भीतर बसे जंगल पर सामुदायिक वन अधिकार के तहत लोगों को हक़ दिया जा सकता है. जबकि गांव की सीमा के बाहर भी जंगल का वो हिस्सा, जहां लोग अपनी रोज़ की लकड़ी-चारापत्ती की जरूरत के लिए निर्भर करते हैं, एफआरए के दायरे में आते हैं.
इस वर्ष 51 हज़ार से अधिक पेड़ जले, 6,621 ग्रामीणों ने बुझायी जंगल की आग
उत्तराखंड में इस साल फायर सीजन फरवरी से जून तक नहीं रहा. बल्कि अक्टूबर 2020 से ही आग लगने की घटनाएं शुरू हो गईं. सर्दियों में भी राज्य के जंगल जगह-जगह धधकते रहे. राज्य के वन मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत को कहना पड़ा कि अब फायर सीजन चार महीने नहीं साल भर रहेगा.
वर्ष 2021 में जनवरी से जून तक 3966.936 हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आए. इनके साथ ही 222.306 हेक्टेयर पौधरोपण क्षेत्र भी जंगल की आग की चपेट में आया. जंगल की आग से 1,06,43,639 रुपये के नुकसान का आंकलन किया गया. उत्तराखंड वन विभाग के कर्मचारियों के साथ पुलिस (240), एनडीआरएफ (101), एसडीआरएफ (48) के साथ 6,621 ग्रामीणों ने जंगल की आग बुझाने में मदद की. इस कोशिश में 8 लोगों की मौत भी हुई. 51,224 पेड़ जले. जंगल की आग से हुए नुकसान का आंकलन लकड़ी, लीसा, पौध रोपण को हुए नुकसान के आधार पर किया जाता है. जैव-विविधता को हुए नुकसान का आंकलन इसमें शामिल नहीं है.
ये आधिकारिक तौर पर दिए गए आंकड़े हैं. माना जा सकता है कि जंगल की आग बुझाने में मदद करने वाली ग्रामीणों की संख्या इससे कहीं अधिक रही होगी. मौत और घायलों की संख्या दर्ज करने में भी वन विभाग की कई औपचारिकताएं होती हैं.
लोगों की भागीदारी से ही सरकार जंगल का बेहतर प्रबंधन कर सकती है. तो लोगों को जंगल पर हक़ क्यों नहीं दिया जा सकता? कांग्रेस नेता किशोर उपाध्याय उत्तराखंड में वन अधिकार आंदोलन चला रहे हैं. वह कहते हैं, “हमारा राज्य पहाड़ों से लेकर मैदान तक जंगलों से घिरा हुआ है. हम अपनी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर हैं और आप हमें वनवासी नहीं मान रहे. बाकी वनवासियों को जो सुविधाएं दी जा रही हैं वो हमें क्यों नहीं मिल रही हैं.”
(इस स्टोरी के लिए शोध इंटरन्यूज अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच द्वारा आयोजित एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान किया गया)
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