Opinion
दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय हिंसा की आग ठंडी नहीं पड़ती कि फिर सुलगने लगती है
हाल ही में दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर से सुर्खियों में छाया रहा और इस बार भी वहीं सालों पुरानी नस्लीय हिंसा की घटना को लेकर ही जिससे उबरने को लेकर इस देश ने लंबा संघर्ष किया है. लेकिन इस संघर्ष की उपलब्धियों पर गाहे-बगाहे चोट पहुंचती रहती है और बमुश्किल वहां बने सकारात्मक माहौल को बिगाड़ती रहती है. हम एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका को नस्लीय हिंसा की आग में झुलसते हुए देख रहे हैं. नस्लीय हिंसा की आग वहां ठंडी पड़ती नहीं कि फिर से सुलगने लगती है.
दक्षिण अफ्रीका में हालिया नस्लीय हिंसा की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति जैकब जुमा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप पर उन्हें 15 महीने की जेल की सजा सुनाने के बाद शुरू हुई है. उनपर यह भी आरोप है कि उन्होंने भारतीय मूल के गुप्ता भाइयों को फ़ायदा पहुंचाने में उनकी गैर क़ानूनी तरीके से मदद की. हालांकि जैकब जुमा और गुप्ता बंधु इन आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे हैं.
गुप्ता बंधु तीन भाई हैं जो भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के सहारनपुर से ताल्लुक रखते हैं. वे भारत से व्यापर करने दक्षिण अफ्रीका गए हुए थे. फिलहाल तीनों भाई दक्षिण अफ्रीका से गायब हैं और वहां कि पुलिस उनकी तलाश में जुटी हुई है. जैकब जुमा के समर्थकों ने सजा सुनाए जाने के बाद अफरा-तफरी मचा दी और दंगे-फसाद जैसी अराजकता पूरे देश में फैलानी शुरू कर दी है.
शुरू में जब इस तरह के दंगे फसाद शुरू हुए तब इसका रूप नस्लीय नहीं था फिर धीरे-धीरे लोगों का गुस्सा भारतीय मूल के लोगों के प्रति निकलने लगा. वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोग अचानक से निशाने पर आ गए. खास कर उन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाया जाने लगा. उनकी पहचान कर उनकी दुकानें लूटी जाने लगीं. दक्षिण अफ्रीका के लोगों का आरोप है कि भारतीय मूल के लोग उन्हें अपने से कमतर समझते हैं और उनके साथ हमेशा भेदभाव करते हैं हालांकि भारतीय मूल के लोग वहां एक अल्पसंख्यक समुदाय के तौर पर हैं. जाहिर है कि अफ्रीकियों का गुस्सा भारतीयों के प्रति कोई एक दिन की उपज तो कतई नहीं है. गुप्ता बंधुओं के बहाने दक्षिण अफ्रीकी समाज में भारतीयों के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रह की यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है. इसे समझने के लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे.
सालों के संघर्ष के बाद 1994 में दक्षिण अफ्रीका को लोकतंत्र हासिल हुआ था. इस लोकतंत्र को हासिल करने में जो सबसे बड़ी समस्या रही थी वह अफ़्रीकी व भारतीय मूल के लोगों के बीच का टकराव भी था. इससे पहले भी इन दोनों समुदायों के बीच टकराव हिंसक घटनाओं के रूप में 1949 और 1985 में ले चुका था. हालांकि उस वक़्त दक्षिण अफ्रीका में गोरों का राज्य था और नस्लीय भेदभाव को वैधानिकता हासिल थी. किसी भी प्रकार के लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक सद्भाव के लिए वैसी गुंजाइश नहीं थी. लेकिन सिर्फ इसे ही इन दोनों समुदायों के बीच बने अविश्वास की वजह मानना, इस समस्या का सरलीकरण होगा.
दरअसल इन दोनों समुदायों के बीच सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक भेदभाव हमेशा से रहे हैं. 1939 में नॉन यूरोपियन यूनाइटेड फ्रंट की स्थापना इन दोनों समुदायों के बीच एकता को मजबूत करने के मकसद से की गयी थी ताकि दक्षिण अफ्रीका को गोरों से स्वतंत्र कराने में ज्यादा सार्थक संघर्ष किए जाएं. लेकिन गांधीजी इस तरह के यूनाइटेड फ्रंट बनाने के लिए उस समय की परिस्थितियों में तैयार नहीं थे. हालांकि इन दोनों समुदायों के बीच आपसी सद्भाव व एकता 1947 में की गई “थ्री डॉक्टर्स पैक्ट“ के दौरान ज्यादा सार्थक साबित हुई. लेकिन यह भी एतिहासिक सच है कि इसके बावजूद दोनों समुदाय के बिच हिंसा की घटनाएं हुईं.
वर्तमान समय में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के ढाई प्रतिशत लोग रहते हैं जिनकी वहां की अर्थव्यवस्था में अच्छी-खासी भागीदारी है. अगर वहां के स्थानीय लोगों की बात को सच मान भी लिया जाए कि भारतीय मूल के कुछ लोग उन्हें अपने से कमतर समझ कर उनके साथ भेदभव करते हैं तब सारे भारतीयों के साथ इस तरह के उनके रवैये को जायज नहीं ठहराया जा सकता. यह नहीं भूला जाना चाहिए की तमाम मतभेदों के बावजूद दोनों समुदायों के बीच उपनिवेशवाद के खिलाफ साझा संघर्ष का लंबा इतिहास भी रहा है.
कभी भी किसी समुदाय के कुछ लोगों की गलतियों कि सजा पूरे समुदाय को देना किसी भी कीमत पर न्यायसंगत नहीं हो सकता. पिछले साल की ही बात है जब भारत में कोरोना के समय दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में जमातियों के इकठ्ठा होने पर उनकी इस गलती के लिए न सिर्फ देश भर के मुसलमानों का बहिष्कार किया जाने लगा बल्कि पड़ोसी मुल्क नेपाल के मुसलमान जिनका रिश्ता भारत से था उनके साथ भी भेदभव किया गया.
इस तरह के आरोप प्रत्यारोप का सीधा प्रभाव सामाजिक सद्भाव पर भी पड़ता है. जो लोग सालों से एक-दूसरे के साथ रहते आए हैं उनके बीच एक अविश्वास का पनपना न सिर्फ समाज के बेहतर भविष्य की संभावनाओं को तोड़ता है बल्कि देश के अंदर भी गृह-युद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा करता है.
मीडिया में गुप्ता बंधुओं के भारत में छिपे होने की संभावना व्यक्त की जा रही है. भारत सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए और अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए. इससे न सिर्फ दोनों देशो के रिश्ते प्रगाढ़ होंगे बल्कि दक्षिण अफ्रीका के स्थानीय लोगों में भी भारतीय मूल के लोगों के प्रति विश्वास जागेगा.
कौन हैं गुप्ता बंधु
गुप्ता बंधु 1993 में दक्षिण अफ्रीका व्यापार के मकसद से गये थे. उस वक्त तीनों भाई अजय, अतुल और राजेश गुप्ता परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ अपने व्यापार को दक्षिण अफ्रीका के अंदर विस्तार देने में लग गए. सबसे पहले अतुल गुप्ता ने सहारा कंप्यूटर्स नाम से दक्षिण अफ्रीका में अपना व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित किया. इसके बाद धीरे-धीरे गुप्ता बंधुओं ने अपना व्यापार दक्षिण अफ्रीका के अंदर बढ़ाना शुरू किया. आज उनके पास वहां कोयले की खदानें, कंप्यूटर्स व मीडिया संस्थान जैसे स्थापित व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं.
यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति जैकब जुमा की एक पत्नी बोनगी जुमा खुद गुप्ता बंधुओं की खनन कपंनी जेआईसी माइनिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड से जुड़ी रहीं हैं. यहां तक कि जैकब जुमा की बेटी व नवासा भी उनके व्यापार का हिस्सा रहे हैं.
जैकब जुमा की ओर से गैर कानूनी तरीकों से गुप्ता बंधुओं को मदद पहुंचाने की संभावना इन वजहों से भी ज्यादा मालूम पड़ती है. साल 2018 में जब पहली बार यह विवाद सुर्खियों में आया था तब जैकब जुमा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ गया था और अगले साल 2019 में गुप्ता बंधुओं की ओर से अपनी कई खनन कंपनियों को बेचने की खबर भी सामने आई थी.
दक्षिण अफ्रीका और भारत दोनों ब्रिक्स के भी सदस्य हैं दोनों देशों के बीच आर्थिक व व्यापारिक संंबंध भी हैं. इस मसले पर दोनों देशों को और संवेदनशील हो कर सोचना होगा जिससे कि भविष्य में भी इन दोनों के रिश्तों में और प्रगाढ़ता आए और अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो पाए.
(लेखिका ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के ऊपर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शोध कार्य किया है.)
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