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'स्टैन स्वामी की मौत भारतीय कानून व्यवस्था पर कलंक'
''हम सभी लोग जो कानूनी पेशे में हैं, जिन्होंने भी उनकी जमानत याचिका का विरोध किया, जिन्होंने भी उन्हें झूठे मामले में फंसाया, वो सभी लोग जो जानते थे कि उनकी उम्र 84 साल है और वो कई गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे- वो सभी लोग जो जानते थे कि वो मर जायेंगे और इस सबके बावजूद उन्होंने ये सब किया, वे सभी उनकी मौत के जिम्मेदार है," स्टैन स्वामी की मौत की खबर आने के कुछ घंटों बाद न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए वरिष्ठ वकील कॉलिन गॉन्ज़ालवेस ने कहा.
फादर स्टैन स्वामी जो जेसुइट पादरी थे और जिन्होंने आदिवासियों के अधिकारों के लिए जीवन भर लड़ाई लड़ी उनका बीते सोमवार को निधन हो गया. इससे दो दिन पहले दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें वेंटिलटर पर रखा गया था. स्टैन स्वामी झारखंड में आदिवासियों के बीच रहते हुए उनके साथ मिलकर पिछले पांच दशकों से काम कर रहे थे. पिछले साल अक्टूबर में उन्हें भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने नक्सलियों और प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) से संपर्क रखने के आरोप में उन पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे क्रूर कानून के तहत मामला दर्ज किया.
स्वामी पहले ही बहुत कमजोर हो चुके थे. मई में वो कोविड की जांच में पॉजिटिव पाये गये थे और महामारी का हवाला देते हुए उन्होंने जमानत की मांग की थी. उन्होंने अपने विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी मामलों का भी हवाला दिया जिसमें पार्किंसन की बीमारी, बहरापन, और कांपना आदि शामिल था. लेकिन अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी. भारत में वो यूएपीए के तहत आरोप झेलने वाले सबसे उम्रदराज़ व्यक्तियों में से एक थे.
22 मई को उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया कि उनके स्वास्थ्य की दशा लगातार खराब होती जा रही है. इस पर माननीय न्यायालय ने उनसे सवाल किया कि क्या वो सरकारी अस्पताल में भर्ती होकर सामान्य इलाज करवाना चाहेंगे? इस पर स्वामी ने कहा, "वो पहले भी दो बार सरकारी अस्पताल में भर्ती हो चुके हैं और इसलिए उन्हें नहीं लगता कि इससे कोई फायदा होगा. इससे तो बेहतर है कि मैं यहीं मर जाऊं. मैं अस्पताल में भर्ती होने से यही बेहतर समझूंगा. अदालत से मेरी दरख़्वास्त है कि मुझे अंतरिम जमानत दी जाये. मैं रांची में अपने लोगों के बीच रहना पसंद करूंगा."
सोमवार को दोपहर 2:30 बजे जब बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्वामी की जमानत याचिका की सुनवाई शुरू की तो उनके वकील मिहिर देसाई ने कहा कि स्वामी का इलाज करने वाले डॉक्टर कुछ कहना चाहते हैं. डॉक्टर ने अदालत को बताया, "मुझे बहुत भारी मन से आप लोगों को यह सूचित करना पड़ रहा है कि फादर स्टैन स्वामी नहीं रहे. उनकी केवल एक ही इच्छा रह गयी थी कि वो अपने घर पहुंचकर मरना चाहते थे."
वहीं वरिष्ठ वकील नित्या रामाकृष्णन ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, "वो मौत का इंतजार कर रहे थे."
'एक फर्जी मामले के आरोपी'
वरिष्ठ वकील गॉन्ज़ालवेस ने कहा कि वो स्वामी की मौत से 'बेहद कड़वाहट' महसूस कर रहे हैं.
नम्र आवाज में उन्होंने आगे कहा, "उन्होंने अदालत को बताया था कि वो जेल में मर जायेंगे. कानून के पेशे से जुड़े किसी भी व्यक्ति ने आगे आकर इस पर अपनी आपत्ति नहीं दर्ज कराई, किसी ने भी तकलीफ नहीं की. किसी ने भी हिम्मत नहीं दिखाई."
गॉन्ज़ालवेस के अनुसार, "यह पूरी कानून व्यवस्था पर एक कलंक है. यह पूरी व्यवस्था अमानवीय और बुरी हो चुकी है. जनहित याचिका के बारे में बात करने का क्या तुक है जबकि पूरी व्यवस्था ही इतनी क्रूर हो चुकी है?"
उन्होनें कहा, "वो इसे लेकर सशंकित हैं कि स्वामी की मौत जजों को झकझोरेगी और कानून व्यवस्था कुछ प्रयास और सुधार अमल में लायेगी. अब हम सुधारों की बात से बहुत दूर जा चुके हैं और बेहद असंवेदनशील हो चुके हैं. बहुत सारे अन्य राजनैतिक बंदी अभी भी इस नीयत से जेलों में रखे गये हैं कि वो जेल में पड़े-पड़े मर जाएं क्योंकि उनको दोषी ठहराने के लिए कोई सबूत ही नहीं है."
"यातनायें देने के पीछे की नीयत यही है कि उनकी मौत हो जाये. आप और कितने बुरे हो सकते हैं? भारतीय सरकारें पुरानी ब्रिटिश सरकार से भी बुरी हैं. कितनी भी मौतें हो और कितनी भी यातनाएं दी जाए इन सरकारों की भूख कभी तृप्त नहीं होती." उन्होंने कहा.
वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "यह बहुत गहरी पीड़ा का मसला है कि एक ऐसे देश में जहां की जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी पड़ी हैं, वहां एक ऐसे नाज़ुक स्वास्थ्य दशा वाले 84 वर्षीय आदमी को उठाकर जेल में डाल दिया जाता है जिस पर लगे आरोपों की जांच अभी तक एक भी अदालत द्वारा नहीं की गयी है. जिस मामले में उन्हें गिरफ़्तार किया गया है उसमें कोई प्रगति नहीं हुई है."
जॉन ने कहा, "अदालत द्वारा अब तक किसी को भी बर्खास्त नहीं किया गया है, जिसका काम अनिवार्य रूप से अभियोजन पक्ष द्वारा पेश की जाने वाली चीजों की छानबीन कर यह पता लगाना है कि मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त चीजें सबूत के तौर पर मौजूद है या नहीं. लेकिन यह भी नहीं हुआ."
"वैश्विक महामारी के कारण उच्चतम न्यायालय ने एक गाइडलाइन जारी की थी जिसके अनुसार सभी उच्च न्यायालयों को एक उच्च शक्ति प्राप्त समिति बनानी होगी जिसका काम ऐसी श्रेणियां बनाना है जिसके आधार पर यह तय किया जायेगा कि किसे-किसे जमानत पर छोड़ा जायेगा. लेकिन स्वामी की खराब सेहत से अधिकारियों को कोई फर्क नहीं पड़ा. मई में वो कोविड से संक्रमित हो गए. वो बेहद संवेदनशील श्रेणी में थे. लेकिन आप फिर भी यह नहीं सोच पाए कि स्वास्थ्य की दृष्टि से अतिसंवेदनशील स्थिति वाले इस व्यक्ति को फौरन छोड़ देना चाहिए." जॉन ने समझाते हुए कहा.
जॉन ने इस बात को रेखांकित किया कि, "यही वो पल है जब ये झलक मिलती है कि यूएपीए जैसे सख़्त कानून देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं. ये नागरिकों के साथ क्या करते हैं. और किस तरह यह कानून अतिसंवेदनशील, कमजोर या बुजुर्गों का अपराधीकरण करता है. यह मनोदशा को बहुत भीतर तक खराब कर देने वाला है कि हमारे जैसे देश में जो कि संविधान से चलता है, उसके संविधान में ऐसे कानून मौजूद हैं जो ऐसे विचारों और कार्यों को आपराधिक बनाता है जो राष्ट्र-राज्य को स्वीकार्य नहीं है."
उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहा, "आखिरकार आप उन पर किस बात का आरोप लगा रहे हैं? हत्या या डकैती का तो नहीं, बल्कि राष्ट्र-राज्य को तोड़ने के षड्यंत्र के एक फर्जी मामले का. यही सही वक्त है जब यूएपीए जैसे कानूनों का विवेकहीन समर्थन बंद हो."
'ये मौत राज्य के हाथों हुई है'
स्वामी के सह आरोपी गौतम नवलखा की वकील रामकृष्णन का कहना है कि स्वामी की गिरफ़्तारी कुछ और नहीं बल्कि केवल और केवल असहमति का अपराधीकरण है.
"मेरी नजर में उनकी गिरफ़्तारी एक विडम्बनापूर्ण कार्रवाई थी. यह हम सबके लिए बेहद सोचनीय है. हम एक ऐसी व्यवस्था में क्यों रहें जिसमें लोगों को केवल उनकी राय के लिए यातनाएं दी जाती हों? हमारा सिस्टम ऐसा क्यों है कि हमें स्ट्रॉ की इजाजत के लिए भी अदालत जाना पड़े?" उन्होंने कहा.
रामकृष्णन की कभी भी स्वामी से व्यक्तिगत तौर पर कोई मुलाकात नहीं हुई लेकिन उन्होंने कहा, "जितनी भी जानकारी उनके बारे में है, उसके अनुसार वो एक बेहद विनम्र आत्मा थे जिसने एक साधारण जीवन जिया लेकिन साथ ही वो आत्म-सम्मान से भरे हुए थे. वो एक ही चीज चाहते थे, वापस अपने घर जाकर वहीं मर जाना. वो मौत का इंतजार कर रहे थे. एक ऐसा सिस्टम जो उन जैसे लोगों को यातनाएं देता हो, बहुत ज्यादा गलत है लेकिन हमें अच्छाई की लड़ाई भी लड़ते रहनी होगी."
वकील करुणा नंदी ने भी न्यूज़लॉन्ड्री से इस पर सहमति जताई कि स्वामी की मौत राज्य के हाथों हुई है.
उनकी मौत हिरासत में हुई है. वो राज्य के हाथों से होने वाले क्रूर और अमानवीय बर्ताव से जूझ रहे थे. उन्होंने स्वामी को ज्यादातर लोगों के मुकाबले अधिक सज्जन, अधिक प्रेरित और अधिक उदार बताया.
नंदी ने सुधा भारद्वाज और उमर खालिद जैसे दूसरे राजनैतिक बंदियों के लिए भी आवाज उठाते हुए कहा, "उनको भी रिहा कर दिया जाना चाहिए और राज्य को जनता के साधनों और पैसों का इस्तेमाल बीजेपी के राजनैतिक विरोधियों को जेलों में बंद करने के लिए नहीं करना चाहिए. राज्य उनके चाहने वालों, और दूसरे सभी नागरिकों के प्रति उन सभी व्यक्तियों के लिए जिम्मेदार है जिनके द्वारा ऐसे फैसले लिए गये जिनकी वजह से स्वामी की मौत हुई."
वहीं इस सब के उलट वरिष्ठ वकील आनंद ग्रोवर का कहना है कि इसी वक्त किसी नतीजे पर पहुंचना और किसी को भी स्वामी की मौत का जिम्मेदार मान लेना "कोरी कल्पना पर आधारित तर्क" होगा और यह "काफी" नहीं है.
"किसी स्पष्ट नतीजे तक पहुंचने के लिए हमें और ज्यादा तथ्यों की जांच करनी चाहिए. वो पहले से ही बीमार थे और जेल तथा अस्पताल में क्या हुआ इसके लिए हमें वहां के रिकॉर्ड्स की जरूरत पड़ेगी." इसके आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि वो जल्दबाजी में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे और कोई अस्पष्ट बयान देने से बचना चाहेंगे.
ग्रोवर ने यह भी कहा कि वो पक्के तौर पर यह मानते हैं कि स्वामी पर जेल में रहने का दुष्प्रभाव पड़ा है लेकिन यही उनकी मौत का कारण था ये बात पूरे तथ्यों और सभी जरुरी कानूनी दस्तावेजों के आधार पर ही कही जा सकती है.
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