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अफ्रीकन स्वाइन फीवर: खतरनाक डीएनए वायरस ने पिग फार्मिंग वालों की तोड़ी कमर

“कोविड की दूसरी लहर से पहले नवंबर-दिसंबर तक असम के कई जिलों में एएसएफ के मामले जीरो तक पहुंच गए थे, हम इस पर लगभग नियंत्रण पा चुके थे. लेकिन ऐसा लगता है कि राज्यों ने बीमार या संक्रमित जानवरों को छांटकर अलग करने या हटाने (कलिंग) के ऑपरेशन को ठीक तरीके से अंजाम नहीं दिया. यह कमी रह गई जिसके कारण शायद यह दोबारा उभरा. कलिंग एक बड़ी चुनौती है हालांकि इसके जरिए हम एएसएफ पर पूरी तरह नियंत्रण पाया जा सकता है.“

पशुपालन और डेयरी विभाग के एनिमल हसबेंडरी कमिश्नर डॉक्टर प्रवीण मल्लिक ने यह जानकारी दी. अफ्रीकन स्वाइन फीवर (एएसएफ) को शुरुआत से ही मॉनिटर कर रहे प्रवीण मलिक बताते हैं, "जब बीते वर्ष चीन में एएफएस का काफी व्यापक आउटब्रेक हुआ तभी हम यह अंदेशा लगा रहे थे कि ट्रांसबाउंड्री से यह आ सकता है. उसी वक्त हमने राज्यों को अलर्ट किया और संक्रमण रोकने के लिए एडवाइजरी जारी की गई. गुवाहटी में प्रशिक्षण कार्यक्रम भी किया गया था लेकिन राज्यों से जरूर कुछ चूक हुई है."

बीते वर्ष कोविड की पहली लहर की शुरुआत हो रही थी उसी दौरान जनवरी, 2020 में देश में एएसएफ का पहला आउटब्रेक अरुणाचल प्रदेश में हुआ जो कि बढ़ते-बढ़ते असम, मेघालय और मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड में फैल गया. यह जूनोटिक नहीं है, अर्थात यह जानवरों से मनुष्य में नहीं पहुंच सकता है. डीएनए विषाणु वाला यह संक्रमण एक वायरल डिजीज है जो कि काफी संक्रामक है और बहुत कम समय में प्रसार कर सकता है जिसमें सुअर की तत्काल मृत्यु तक हो जाती है. यह संक्रमण प्रत्यक्ष नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष नुकसान पहुंचा सकता है. खासतौर से सुअर पालन करने वाले किसानों और प्रोटीन के लिए सुअर पर आश्रित गरीब आबादी को बड़ा झटका लग रहा है. डाउन टू अर्थ से पशुपालन करने वाले किसान ने नुकसान की पुष्टि भी की है.

पंजाब में करीब 1200 से 1300 किसान पिग फॉर्मिंग करते हैं. इन्हीं में एक है बीटी पिगरी फॉर्म. पंजाब के लुधियाना में गुरु अंगद देव वेटरेनरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी से पांच साल की ट्रेनिंग लेने के बाद बरनाला के संघेरा गांव में 2013 में 30 लाइव एनिमल से बीटी पिगरी फॉर्म की शुरुआत करने वाले धर्मिंदर सिंह का फॉर्म अब 500 लाइव एनिमल तक पहुंच गया है.

वह बताते हैं, "हमारे लाइव एनिमल का भाव काफी कम हो गया है और उनकी खुराक की लागत दोगुनी तक बढ़ गई है. इसकी बड़ी वजह कोविड और एएसएफ है. इन दोनों ने मिलकर हमें बड़ा नुकसान पहुंचाया है. लाइव एनिमल बीते वर्ष 80-100 रुपए किलो तक ही बिका. यह हमारी लागत से भी कम है. इस वर्ष फरवरी में भाव 102 रुपए से 115 रुपए प्रति किलो लाइव एनिमल का भाव रहा लेकिन बीते आठ दिनों से फिर से यह भाव गिरने लगा है. सुअर का बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक से डेढ़ किलो का होता है. साढ़े चार महीने में इसका वजन 60 किलो तक पहुंच जाता है. लेकिन इसमें लागत नहीं निकलती है. हमें इसे 100 किलो के आस-पास पहुंचाना होता है जिसकी बिक्री में हमें कुछ फायदा होता है. लेकिन मांग कम होने और प्रतिबंध के कारण इस वक्त लाइव एनिमल का भाव काफी कम है."

धर्मेंदर कहते है, "दूसरी चुनौती है कि इनका आहार काफी ज्यादा होता है. इनके फीड की लागत बीते वर्ष के मुकाबले दोगुना हो चुकी है. इनके फीड में मुख्य रूप से प्रोटीन स्रोत और विटामिन और मिनरल होते हैं. प्रोटीन के लिए हम मुख्यरूप से सोयाबीन और मूंगफली की खली का इस्तेमाल करते हैं और विटामिन-मिनरल के लिए चीन से पैकेट मंगाते हैं. इस वक्त चारे के लिए सोयाबीन की कीमत 68 रुपए किलो मिल रही है लेकिन बीते वर्ष इसकी कीमत 35 रुपए के आस-पास थी. इसलिए फीडिंग काफी महंगी हो गई है."

"तीसरी चीज हमारे जो बड़े बाजार हैं वह नॉर्थ-ईस्ट के राज्य हैं. वहां, कोई-न कोई प्रतिबंध बीते वर्ष से लगा है. जाड़े में तो हमारा लाइव एनिमल दिल्ली और आस-पास के राज्यों में बिकता है लेकिन गर्मी में हम मुख्यतौर पर नागालैंड के दीमापुर या असम में गुवाहटी में बेचते हैं. लेकिन कोविड में प्रतिबंध और एएसएफ की वजह से वहां माल जाना बीते वर्ष ही मंदा हो गया है. दीमापुर काफी बड़ी मंडी है जहां बीते सप्ताह अभी दिक्कत हुई. हम एएफएस के बचाव के लिए वैज्ञानिकों के संपर्क में हैं और बायोसेफ्टी उपाय अपना रहे हैं. अभी उत्तर भारत में इसकी कोई समस्या नहीं है." वह कहते हैं.

पशुपालन और डेयरी विभाग के संयुक्त सचिव (लाइवस्टॉक हेल्थ) उपामन्यु बसु ने अपनी संक्षिप्त टिप्पणी में कहा, “यह पहली बार देश में 2020 में आया अब स्थिति काफी नियंत्रण में है. सुअरों की मृत्यु रुक गई है.“

बहरहाल जनवरी, 2020 में हुए आउटब्रेक के छह महीने बाद 24 जून, 2020 को राज्यों के लिए एक नेशनल एक्शन प्लान जारी किया गया था. अभी राज्य संक्रमण के दौरान इसी प्लान को फॉलो कर रहे हैं. डॉक्टर प्रवीण मलिक ने कहा, "वियतनाम की स्थिति लगभग भारत जैसी थी. वहां पर जिन एक्सपर्ट ने एएफएस पर नियंत्रण के लिए काम किया उनकी सलाह ली गई, साथ ही ओआईई और एफएओ की सिफारिशों को भी प्लान में शामिल किया गया. मुख्य चीज थी कि राज्यों को कहा गया था कि जैसे ही संक्रमण का पता चले कंटेनमेंट जोन बनाकर बीमार या संक्रमित जीवों को छांट कर अलग करने या हटाएं. कंटेनमेंट जोन और कलिंग जैसी चीजों पर थोड़ी कोताही राज्यों ने जरूर की है."

मलिक बताते हैं, "कोविड-19 के कारण आवाजही पहले सी ही प्रतिबंधित थी और उसी दर्मियान हमने उत्तर (छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब-हरियाणा) जैसे राज्यों में सुअरों का मूवमेंट रोक दिया गया था. इसने संक्रमण नियंत्रण में काफी मदद की."

एएफएस के भविष्य को लेकर वह कहते हैं, "इसकी कोई दवा या वैक्सीन नहीं है. हम नहीं चाहते हैं कि कोई वैक्सीन इसके लिए आए. क्योंकि यह काफी खर्चीला होता है और यह डिजीज को खत्म नहीं करता बल्कि नियंत्रित करता है. हम एएसएफ को दूसरे उपायों से पूरी तरह नियंत्रित कर सकते हैं. हमने इसमें शुरू में ही तेजी दिखाई जिसका नतीजा भी मिला. कलिंग यदि सही से की जाए तो यह पूर्ण रूप से नियंत्रित हो सकती है."

क्या एएसएफ की जांच के लिए पर्याप्त क्षमता वाली लैब है? डाउन टू अर्थ ने मिजोरम और मणिपुर के वेटेरनरी साइंटिस्ट से बातचीत की जहां पता चला कि जिनकी प्राथमिक सैंपल भोपाल स्थित आइसीएआर: नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाई सिक्योरिटी एनिमल डिजीज में आइसोलेशन के लिए भेजे जाते हैं. वैज्ञानिकों ने कहा कि एनालिसिस की इजाजत उन्हें नहीं हैं. मिजोरम के ऑइजॉल में स्थित केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय कॉलेज ऑफ वेटेरिनरी साइंसेज एंड एनिमल हस्बेंडरी के माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर तपन कुमार दत्ता ने कहा कि वे सिर्फ सैंपल एकत्र करते हैं और प्राथमिक पुष्टि के बाद एनालिसिस के लिए सैंपल भोपाल भेजते हैं. जब वहां से पुष्टि होती है तभी हम रिपोर्ट करते हैं. हालांकि, इस मामले पर पशुपालन और डेयरी विभाग के एनिमल हसबेंडरी कमिश्नर डॉक्टर प्रवीण मलिक ने बताया कि कोविड की पहली लहर के दौरान जब पहले केस का पता चला तो उसे जांच तक लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. उस वक्त काफी प्रतिबंध था. हालांकि हम सिर्फ भोपाल की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाई सिक्योरिटी एनिमल डिजीज की लैब पर केंद्रित नहीं रहे. हमने गुवाहटी और मेघालय के बारापानी में लैब में प्रारंभिक जांच सुविधा रखी है, भोपाल की लैब को सैंपल के लिए आइसोलेशन के लिए रखा गया है. कोविड न होता तो यह काम और अच्छा हो सकता था.

मिजोरम के ऑइजॉल में स्थित केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय कॉलेज ऑफ वेटेरिनरी साइंसेज एंड एनिमल हस्बेंडरी के माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर तपन कुमार दत्ता बताते हैं, "यह बेहद ही खतरनाक विषाणु है जो बहुत कम समय में 100 फीसदी पीक पर पहुंच सकता है. इससे लाइव एनिमल (सुअर) की तत्काल मृत्यु हो सकती है."

वह कहते हैं, "इसके स्रोत का स्पष्ट पता अभी नहीं चल सका है. यह पहले चीन फिर नजदीकी देशों म्यांमार और फिर भूटान तक भी पहुंचा. भारत आने के इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं. भारतीय सीमा से लगे हुए देशों में जंगलों से आने वाले वाइल्ड बोर से हमारे डोमेस्टिक एनिमल संक्रमित हो सकते हैं. एक कारण चीन से भारत में बहकर आने वाली नदी भी हो सकती है. किसी फूड मटेरियल (मीट) के जरिए हो सकता है. अभी तक साइंटिफिक प्रूफ नहीं है. इसका नियंत्रण सिर्फ सेग्रिगेशन है."

पशुपालन और डेरी विभाग के कमिश्नर डॉ प्रवीण मलिक ने बताया, "सबसे ज्यादा संभावित कारण वाइल्ड बोर हैं जो जंगली क्षेत्र में विचरण करते हैं. इसकी जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय के तहत वाइल्डलाइफ विभाग की है कि वह जानवरों में संक्रमण को ट्रेस करे. इसकी गाइडलाइन भी मौजूद है लेकिन ऐसा हुआ नहीं. ट्रांस बाउंड्री मूवमेंट वाले जीवों पर निगरानी रखना और आगाह करने का तंत्र प्रभावी तौर पर काम करना चाहिए था. मुझे कुछ सूचनाएं मिली थीं संभावित कुछ वाइल्ड बोर प्रभावित हैं लेकिन ऐसा व्यापकता के साथ होता तो हमें जरूर पता होता."

(डाउन टू अर्थ से साभार)