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पुस्तक- एक देश बारह दुनिया: मौजूदा और भावी संकटों से संबंधित दस्तावेज

“तुम्ही चुकाच्या रस्त्याने फिरत-फिरत इथे येऊन पोहोचला आहात. तुमच्या मनात परत फिरण्यासाठीचे एक घर नक्कीच निश्चित केलं असेल. आमच्या मनात असं कुठलंच घर अधीच निश्चित नव्हते... ’’

भूरा गायकवाड़ कुछ-कुछ बता रहे थे जिसे मैंने आडियो में रिकार्ड किया. लेकिन, मुझे उन्हें रोकना पड़ा. वे अपने घर की दहलीज के भीतर बैठे हमें बता रहे थे और हम उनकी दहलीज के बाहर बैठे उन्हें सुन रहे थे.

भूरा गायकवाड़ दो दशक पुरानी संघर्ष की इस कहानी के प्रमुख सूत्रधार हैं. लेकिन, 15-20 मिनट में ही मुझे उन्हें रोकना पड़ा. बोलने और सुनने वाले की भाषा एक ही हो तो बड़े इत्मिनान से सब सुना और समझा जा सकता है, पर बात जब दूसरी भाषा में धाराप्रवाह चल रही हो तो हर शब्द और भाव पर बहुत ध्यान देना पड़ता है.

मैंने कुछ देर तक तो ठीक यही किया, किंतु बहुत ध्यानपूर्वक सुनने के बाद मुझे लगा भूरा गायकवाड़ कुछ अलग तरह की मराठी में बात करने लगे हैं. समझने की जरा कोशिश करने के बावजूद कोई फायदा न होता देख मैंने मेरी बायीं ओर बैठे सतीश को टोका. उससे दीनहीन-सा बोला, “हा मराठी येत नहीं भाऊ, तुमि जरा मराठी ते हिन्दी करा न!” सतीश ने बताया कि यह मराठी मिक्स तेलूग हर किसी के पल्ले वैसे भी न पड़ेगी.

यह पुस्तक अंश है, जो हिन्दी पत्रकार शिरीष खरे की पुस्तक 'एक देश बारह दुनिया' से है. यहां वह महाराष्ट्र में सुदूर मराठवाड़ा के कनाडी बुडरुक गांव के तिरमली मोहल्ले तक पहुंचकर हिन्दी और टूटी-फूटी मराठी में एक ऐसे समुदाय से संवाद साधने की कोशिश करना चाह रहे हैं जो मराठी से भी भिन्न एक अलग ही बोली जानता और बोलता है. भाषा और बोलियों को न समझ पाने से इतर इसी तरह के कई दूसरे अनुभव इस पुस्तक में दर्ज हैं जो बताते हैं कि बतौर पत्रकार कई जगह अलग-अलग बोलियां बोलने वाले लोगों के साथ संवाद स्थापित करना किस तरह उनके लिए एक जटिल लेकिन मजेदार अनुभव रहा.

हाल ही में राजपाल एंड सन्स, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक के भीतर महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, बुंदेलखंड और राजस्थान के थार से जुड़े तरह-तरह के अनुभव मिलते हैं. वहीं, देश के कुछ जनजातीय अंचलों में स्थानीय लोगों के साथ बिताए गए समय से जुड़ी रोचक और भावनात्मक घटनाएं हैं.

'एक देश बारह दुनिया' यानी एक ही देश के भीतर बारह तरह की दुनियाएं हैं जिन्हें शिरीष ने पत्रकारिता के अपने अनुभवों को एक पुस्तक की शक्ल देते हुए यह नाम दिया है. असलियत में यह पुस्तक हाशिये पर छूटे असल भारत की तस्वीर है.

इस पुस्तक में भारत का वह परिदृश्य उभरता है जिन्हें कभी विकास, कभी आधुनिकता तो कभी परिवर्तन के नाम पर और अधिक हाशिये पर धकेल दिया गया है. दरअसल, यह एक-दूसरे से बहुत दूर की दुनियाओं में रहने वाले वंचितों के दुख, तकलीफ, संघर्ष, प्यार, उनकी खुशियों और उम्मीदों का भिन्न-भिन्न यथार्थ है जिसे देख ताज्जुब होता है कि क्या यह एक ही देश है.

जहां मध्य भारत के एक बड़े इलाके के साथ किसी साल फिर सूखे की चपेट में आए छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए राहत का धोखा है. दूसरी तरफ, बस्तर और उसके आसपास रक्तरंजित पीड़ास्थल की भयावह अनुभूतियां हैं. इसी अमानवीय परिस्थितियों से प्रवेश करते हुए एक जगह शिरीष लिखते हैं, “वर्ष 1947 के बाद भारत का भूगोल भले ही दो भागों में न बंटा हो. लेकिन, विभाजन के मुद्दे पर मेरा एहसास मेरी अनुभव-सीमा के परे अब यह सोचने के लिए विवश करता है कि बस्तर के भीतर-बाहर एक ही देश की सीमा में कई लाख आबादी विस्थापित क्यों हुई.”

वहीं, 'सुबह होने में अभी देर है' में राजस्थान के बाड़मेर जिले की तीन अलग-अलग महिलाओं की तीन अलग-अलग दुनियाओं से जुड़ी असल कहानियां हैं, जिसमें इस हकीकत की तरफ ध्यान दिलाया गया है कि कई जगहों पर अपने साथ हुए अनाचार या अन्याय के विरोध में कई महिलाओं ने गांव से थाने, थाने से अदालत तक का रास्ता तो तय कर लिया है लेकिन, आगे क्या वे अदालत के रास्ते पर चलकर गांव के रास्तों पर वापस चल सकेंगी, या ऐसी महिलाओं को थाने और अदालत जाने से रोकने वाला समाज उन्हें गांवों के रास्तों पर पहले की तरह चलने देता है?

इसी तरह, एक पत्रकार के रूप में दो अलग-अलग रिपोर्ताज को लेकर शिरीष मध्य-प्रदेश में नर्मदा की डूब और गुजरात के सूरत शहर की संगम टेकरी के बीच एक संबंध जोड़ते हैं. जब जबलपुर के बरगी बांध से विस्थापित परिवारों को चुटका परमाणु संयंत्र परियोजना के चलते फिर से उजड़ने की तैयारी हो रही होती है तब वहां पहुंचे शिरीष इस बारे में लिखते हैं कि कुछ घटनाएं यदि हमारे सामने न घटे तो उनका मर्म हम कभी न समझ सकें, महज एक किताबी आदमी बनकर न रह जाएं. 'बहु-विस्थापन' शब्द से वास्ता कुछ साल पहले सूरत में हुआ था. और अब तपती हुई एक और दोपहर जब चुटका गांव पहुंचा हूं तो जयंती बाई कहती हैं, "एक-एक लकड़ी और ईंट कैसे जोड़ी जाती है, यह सरकार को थोड़ी न पता है." जयंती बाई के तजुर्बे मुझे बहु-विस्थापन शब्द की भयावहता और दुख-ताप से रू-ब-रू करा रहे हैं.

इस पुस्तक में कुल बारह रिपोर्ताज पर आधारित दस्तावेज हैं. साल 2008 से 2017 तक बतौर एक पत्रकार शिरीष ने पत्रकारिता के दौरान देश के दुर्गम भूखंडों में होने वाले दमन-चक्र का लेखा-जोखा तैयार किया है. इस पुस्तक के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक हर्ष मंदर लिखते हैं, “जब मुख्यधारा की मीडिया में अदृश्य संकटग्रस्त क्षेत्रों की जमीनी सच्चाई वाले रिपोर्ताज लगभग गायब हो गए हैं तब इस पुस्तक का संबंध एक बड़ी जनसंख्या को छूते देश के इलाकों से है जिसमें लेखक ने विशेषकर गांवों की त्रासदी, अपेक्षा और उथल-पुथल की पड़ताल की है.”

पुस्तक में कुछेक जगहों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर पात्रों के नामों को ज्यों का त्यों रखा गया है. दरअसल, कई बार इन्हीं पात्रों से जुड़ी कहानियों के बारे में समाचारों में कुछ नहीं कहा जाता, जबकि उसे कहने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. इसलिए लेखक ने अपनी प्रस्तावना में कहा है कि जिन लोगों की सच्ची कहानियों ने सालों तक उनके मन में बहुत अधिक जिज्ञासा पैदा की, उन्हें उन्होंने फिर नये सिरे से समझने और उन पर पूरी ईमानदारी से लिखने की कोशिश की है. इस तरह, इस पुस्तक की सच्ची कहानियों के असली पात्र एक अलग ही दुनिया से रु-ब-रु कराते हैं. देश का यह रूप 21वीं के मेट्रो-बुलेट ट्रैन वाले भारत से अलग है, जो झटके से हमें एक सदी पीछे धकेल देते हैं.

मध्य-प्रदेश में नरसिंहपुर जिले के एक छोटे-से गांव मदनपुर से निकलकर शिरीष ने 18 वर्ष में पहली बार भोपाल जैसे बड़े शहर को देखा था. नौकरियों के चलते शिरीष को कुछ राज्यों की राजधानियों में रहने का मौका मिला, इसके बावजूद उनके रिपोर्ताज देश के सुदूर पिछड़े गांवों से सीधे जुड़ते हैं.

कई नाम ऐसी जगहों से हैं जिनके नाम कभी सुने नहीं गए हैं. बतौर पत्रकार शिरीष ने देश के उपेक्षित लोगों की ऐसी आवाजों को यहां शामिल किया है जिन्हें अमूमन अनसुना और अनदेखा कर दिया जाता है. उन्होंने अपने रिपोर्ताज में भारत की कुलीन और देश की विशाल आबादी के बहुमत के बीच बढ़ती खाई और उदासीनता के टापुओं पर रोशनी डाली है. संभवत: इसलिए डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने इस पुस्तक के बारे में बैक कवर पर टिप्पणी लिखी है: यह देश-देहात के मौजूदा और भावी संकटों से संबंधित नया तथा जरूरी दस्तावेज है.”

पुस्तक: एक देश बारह दुनिया

प्रकाशक: राजपाल एंड सन्स

पृष्ठ: 206

मूल्य: 196 रुपए

(समीक्षक आशुतोष कुमार ठाकुर बैंगलोर में रहते हैं. पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं.)

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