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उत्तराखंड के चमोली में आई आपदा हिमस्खलन का नतीजा थी, शोध से हुआ खुलासा
7 फरवरी, 2021 को उत्तराखंड के चमोली जिले में आई भीषण बाढ़ हिमस्खलन का नतीजा थी. यह जानकारी हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आई है, जिसे 53 वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने किया है. शोधकर्ताओं के इस दल में नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और आईआईटी, इंदौर के अनुसंधानकर्ता भी शामिल थे. इस आपदा में 200 से ज्यादा लोग मारे या लापता हो गए थे, साथ ही इसने गंगा नदी पर बने दो जलविद्युत संयंत्रों को भी नष्ट कर दिया था.
वैज्ञानिकों के अनुसार हिमस्खलन के कारण रोंती पर्वत से 2.7 करोड़ क्यूबिक मीटर की चट्टान और हिमनद टूट कर गिर गई थी. जिस वजह से यह मलबा और पानी रोंती गाड, ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदी घाटियों में गिरा था जिसने भीषण बाढ़ का रूप ले लिया था.
10 जून 2021 को अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में छपे इस शोध के लिए उपग्रह से ली गई तस्वीरों, भूकंपीय रिकॉर्ड और प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा बनाई वीडियो का इस्तेमाल किया गया है. हालांकि पहले इस तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अचानक आई इस बाढ़ के लिए झील या नदी में आई रूकावट तो जिम्मेवार नहीं है पर वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि यह बाढ़ चट्टान और ग्लेशियर की बर्फ गिरने के कारण आई थी.
इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने जब इस आपदा से पहले और बाद के मानचित्रों और तस्वीरों का अध्ययन किया तो उन्हें ढलान पर एक काले गुबार का पता लगा था. इस बारे में इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डैन शुगर ने बताया, "हमें ढलान पर संदिग्ध काले गुबार का पता लगा था, जोकि धूल और पानी का ढेर था. यह काला गुबार हिमस्खलन के 3.5 करोड़ घन गज का हिस्सा था."
इसमें करीब 80 फीसदी चट्टानें और 20 फीसदी ग्लेशियर की बर्फ थी. अब बड़ा सवाल यह उठता है कि यह बर्फ इतनी जल्दी कैसे पिघल गई? वैज्ञानिकों के अनुसार यह बर्फ और चट्टान का यह विशाल खंड करीब 1.8 किलोमीटर नीचे गिरा था जोकि अपने साथ फिसलते हुए पेड़ों और अन्य मलबे को भी साथ लेता आया. शुगर के अनुसार इस विशाल खंड के 216 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से 3400 मीटर घिसटने के बाद गर्मी के रूप में जो घर्षण ऊर्जा निकली थी वो पूरे ग्लेशियर की बर्फ को पिघलाने के लिए काफी थी. इस वजह से जो पानी और मलबा बहकर आया था उसने अचानक से भीषण बाढ़ का रूप धारण कर लिया था.
इस शोध से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता शशांक भूषण ने बताया, "जैसे ही यह खंड टूटकर गिरा तो अधिकांश बर्फ कुछ मिनटों में पिघल गई थी, जिसके कारण वहां भरी मात्रा में पानी और मलबा पैदा हो गया था. उनके अनुसार यह बहुत असाधारण है क्योंकि एक सामान्य भूस्खलन या हिमस्खलन से इतनी बड़ी मात्रा में पानी उत्पन्न नहीं हो सकता था."
शोध के अनुसार जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते इस तरह की आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है. हालांकि इस आपदा में सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन का कोई हाथ है इस बारे में स्पष्ट नहीं हो पाया है. पर इतना जरूर है कि जिस तरह से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है उसका असर इस क्षेत्र पर भी पड़ रहा है. बढ़ते तापमान के साथ ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा और बढ़ गया है जिसके चलते यह क्षेत्र और अस्थिर हो रहा है. जिस वजह से भूस्खलन और हिमस्खलन की सम्भावना बढ़ गई है.
हाल ही में ग्लेशियर पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो दशकों के दौरान ग्लेशियरों में जमा बर्फ रिकॉर्ड तेजी से पिघल रही है. ऐसा तापमान में हो रही वृद्धि का परिणाम है. उत्तराखंड के उच्च हिमालय में स्थित पर्वतों में आजकल दोपहर को तापमान सामान्य से पांच डिग्री ज्यादा हो रहा है. वहीं बेहद कम हिमपात होने से हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं.
वैज्ञानिकों की मानें तो हिमालय में सर्दियों के दौरान एवलांच आमतौर पर नहीं होता है. हिमालय क्षेत्र में एवलांच अक्सर गर्मियों में टूटते हैं. ग्लेशियर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पिछले 20 सालों में इस बार हिमालय सबसे ज्यादा गर्म है. जो तापमान मई या जून में होता है, वो इस बार जनवरी और फरवरी की दोपहर में हो रहा है, जिस कारण आगे भी ऐसी आपदायें हो सकती हैं.
भले ही वैज्ञानिकों ने इसके लिए हिमस्खलन को जिम्मेवार माना है, पर देखा जाए तो यह हमारी ही गलतियों का नतीजा है, जिन्हें हम बार-बार दोहरा रहे हैं।. हिमालय विश्व की सबसे नवीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जो आज भी अस्थिर है. वहां भूगर्भिक बदलाव होते रहते हैं जिस वजह से भूकंप, क्षरण और भूस्खलन का खतरा सदैव बना रहता है.
बिना व्यापक अध्ययन किए जिस तरह से वहां एक के बाद एक बांध और जलविद्युत परियोजनाएं बनाई जा रही हैं उसने इस क्षेत्र को और अस्थिर कर दिया है. ऊपर से जलवायु में आ रहे बदलावों ने आग में घी डालने का काम किया है जिस वजह से हर दिन के साथ इन आपदाओं का खतरा बढ़ता जा रहा है.
इससे पहले 2013 में उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ ने भी हिमालय में बन रही जलविधुत परियोजनाओं को कटघरे में खड़ा कर दिया था, जिसमें 4,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. अब चमोली में आई इस बाढ़ ने इसपर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि इस संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में बिना व्यापक अध्ययन के इन बड़ी परियोजनाओं का निर्माण कितना सही है.
इस मामले में जानी-मानी पर्यावरणविद और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की महानिदेशक सुनीता नारायण ने भी लिखा है कि, “यह भविष्य में होने वाली किसी भयावह दुर्घटना की चेतावनी हो सकती है.
यह साफ है कि जब तक हम पर्यावरण के प्रति अपने व्यवहार को नहीं बदलते, तब तक इस तरह की घटनाओं की संख्या में कमी नहीं आएगी, बल्कि इजाफा ही होगा. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये दुर्घटनाएं तभी रुकेंगी, जब हम इन परियोजनाओं पर पूरे ध्यान से विचार करें और इनके प्रभावों की भी सतत समीक्षा हो."
यदि हम अब भी नहीं चेते तो ऐसा न हो कि भविष्य में हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़े. ऐसे में इससे पहले प्रकृति अपना बदला ले हमें अपने व्यवहार को बदलना होगा. हमें समझना होगा कि भले ही हमने विकास की कितनी भी सीढ़ियां चढ़ ली हों पर अभी भी हम प्रकृति के आगे बौने ही हैं.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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