Opinion

कोरोना काल में सरकार की नाकामी बनी गरीबों की परेशानी

कोरोना और उसके कारण लगे लॉकडाउन की वजह से देशभर के मजदूर वर्ग की स्थिति बेहद खराब है. लोगों के पास अब न तो काम है ना खाने के लिए पैसे बचे हैं. ऐसे में वह बेहद कठिनाई वाली जिंदगी गुजार रहे हैं. बिहार के सलूजा चांद गांव के रहने वाले 40 वर्षीय अजीत कुमार कहते हैं, "वह दिल्ली की फैक्ट्री में भाई के साथ मजदूरी किया करते थे, लेकिन लॉकडाउन लगने की वजह से सब तहस-नहस हो गया. लॉकडाउन की वजह से हम लोग दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं. स्थिति बेहद खराब हो चुकी है. हालात ऐसे हैं कि मजदूरी करते हैं तो खाते हैं और जिस दिन नहीं करते हैं तो उस दिन नहीं खा पाते हैं."

"सरकार की तरफ से भी इस लॉकडाउन में कोई मदद नहीं की गई है, लेकिन अब मई महीने में सरकार की तरफ से राशन दिया गया है. वह परिवार के लिए पूरा नहीं हो पाता है. जो राशन सरकार ने बीते महीने दिया वह काफी कम है. राशन को जरूरत अनुसार नहीं दिया जा रहा है, बल्कि कटौती करके मिल रहा है." उन्होंने कहा.

जिला कैमूर के रहने वाले अजीत कहते हैं, "बीते साल 2020 से चल रहे लॉकडाउन की वजह से हमारा जीवन तितर-बितर हो गया है. कुछ समय के लिए लॉकडाउन हटा तो सोचा काम करेंगे लेकिन लॉकडाउन भी आगे बढ़ाया जा रहा है. हमारे गांव में कई बंधुआ मजदूर मजदूरी के लिए मजबूर हो गए हैं. बंधुआ मजदूरी मतलब भारी ब्याज." बता दें कि बिहार में 8 जून तक लॉकडाउन की अवधि को बढ़ा दिया गया है.

बिहार सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत लाभुक को मई और जून महीने के लिए पांच 5-5 किलो राशन मुहैया करवा रही है जिसमें दो किलो गेहूं और तीन किलो चावल हैं. लेकिन इस कड़ी में सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि राशन को काट कर दिया जा रहा है.

बिहार की कुल आबादी लगभग 12.85 करोड़ है और ऐसे में मजदूरी कर रहे इन लोगों पर कोरोना वायरस और लॉकडाउन का सबसे गहरा प्रभाव पड़ता हुआ नजर आता है.

अगर हम सोशल इकोनॉमिक कास्ट सेंसस, (मिनिस्ट्री ऑफ रूरल डिपार्टमेंट) के जारी किए गए आंकड़ों की बात करें तो बिहार में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति मजदूर 6325717 परिवार रहते है.

बिहार का भूभाग मुख्यत: नदियों के बाढ़ मैदान एवं कृषि योग्य समतल है. बिहार निवासियों के जीवन के आय का स्रोत मुख्यतः कृषि और खेती है. उन खेतों पर मजदूरी करने वाले दलित समाज से आते हैं.

बिहार में लगभग 6 करोड़ से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आते है. जिसमें एससी-एसटी से आने वाले मजदूर जिनकी आय का स्त्रोत खेतीबाड़ी है वह तकरीबन 439266 परिवार हैं. जबकि नियमतिक से मजदूरी करने वाले परिवारों की संख्या पांच करोड़ से ज्यादा है. इसके अलावा घरेलू काम करने वाले परिवारों की संख्या 88043 है. सीधे तौर पर 6 करोड़ से ज्यादा परिवारों के जीवन पर एक बहुत बड़ा खतरा काफी लंबे समय से मंडरा रहा है, और ऐसे में बिहार में लॉकडाउन को 8 जून तक के लिए बढ़ा दिया गया है.

यदि हम मौजूदा साल 2021 की बात करें तो कोरोना महामारी ने किसी खास वर्ग के जीवन को प्रभावित नहीं किया है, बल्कि हर वर्ग हर जाति के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है. हालांकि, यह भी सच है कि इस महामारी ने देशभर में रहने वाले दलित समाज और मजदूरों की जीवनी को भी तहस-नहस कर दिया है. भारत में दलित समाज कुल आबादी का लगभग 17 फीसदी है. पूरी दुनिया में चीन के बाद सबसे बड़ी लेबर फोर्स भारत में है. भारत में लगभग 49.80% लेबर फोर्स कंट्रीब्यूशन है. दुनिया के मशहूर मेडिकल जर्नल लेंसेट द्वारा की गई स्टडी में दावा किया गया है कि साल 2100 में दुनिया में सबसे बड़ी मजदूरों की संख्या भारत में होगी.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों और बिहार के 38 जिलों में कई दलित मजदूर रहते हैं, जो मजदूरी करके अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं. लेकिन साल 2020 से चल रही कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से पहले से समाज में भेदभाव झेल रहे मजदूरों के जीवन पर संकट खड़ा कर दिया है. कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से लोग इधर-उधर भाग रहे हैं. सरकार टीवी के माध्यम से सड़कों पर लाउडस्पीकर लगाकर लोगों से घर में रहने की अपील कर रही है. मजबूरियों के बावजूद भी लोग लॉकडाउन के चलते घरों में बंद हैं, लेकिन परिवार को क्या खिलाना है इसको लेकर सरकार ना ही लाउडस्पीकर से घोषणा करती है, और ना ही सरकार इस पर अपनी कोई जवाबदेही रखती है.

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि 23 जनवरी 2020 को भारत में पहले कोरोना वायरस केस की पुष्टि हुई थी और मई 2021 आते-आते यह आंकड़ा लगभग 2,75,55,457 तक पहुंच चुका था. जिनमें तीन लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. इनमें वो मौतें भी शामिल हैं जो चार घंटे से भी कम समय के भीतर अचानक लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान अलग-अलग राज्यों में फंस गए थे. तब हजारों लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने घरों को निकल पड़े थे. उनमें से कई मजदूरों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था. सरकार की ओर से कोई वाहनों की सुविधा नहीं दी गई थी. इस वजह से सरकार की काफी आलोचना हुई थी.

दलितों की आवाज उठाने वाले हरदोई जिले के निवासी 30 वर्षीय आरके ने बताया, "यूपी में 20.6 फीसदी आबादी दलितों की है. इनमें अधिकतर लोग मजदूरी करते हैं. हरदोई जिले में 17 फीसदी ऐसे लोग हैं जो काम न मिल पाने के कारण शहरों की ओर पलायन करते हैं. लेकिन महामारी में वे सभी मजदूरी के लिए भटक रहे हैं जिसके कारण शहरों से फिर वापस गांव आ रहे हैं. लेकिन गांव में भी काम न होने के कारण फिर से बंधुआ मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं."

गांव के ही अन्य निवासी हरिओम कहते हैं, "कोरोना काल आने के बाद से बेरोजगार भटक रहा हूं. काम न मिलने की वजह से बड़ी परेशानी हो रही है. सरकार राशन कार्ड पर सुविधा दे रही है, लेकिन मेरे पास राशन कार्ड तक नहीं है."

उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या 231,502,578 से ज्यादा है. उत्तर प्रदेश आबादी के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा राज्य है. यूपी की बात की जाए तो लगभग 6368361 ऐसे परिवार हैं जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के हैं. जिसमें एससी-एसटी जाति से आने वाले मजदूर जिनकी आय का स्त्रोत खेतीबाड़ी है वो 1883413 परिवार हैं. जबकि नियमतिक 5473889 हैं. इसके अलावा घरेलू काम करने वाले परिवारों की संख्या 115983 है और यह दोनों राज्यों के बेबस लोग हैं जो कोरोना, लॉकडाउन और आर्थिक मंदी की मार झेल रहे हैं.

विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर गरीब मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं. इनमें से 34 फीसदी खेतों पर मजदूरी करते हैं तो 30 फीसदी अपने खेतों पर कार्य करते हैं और 17 फीसदी दूसरे राज्यों में मजदूरी करते हैं. कोरोना महामारी का प्रकोप मजदूरों से लेकर प्रवासी मजदूरों पर भी देखने को मिला. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 29 मार्च 2020 तक कोरोना वायरस के चलते देश में कुल 25 लोगों की मौत हो चुकी थी.

दूसरी ओर, लॉकडाउन के चलते सड़क दुर्घटना और मेडिकल इमरजेंसी से अब तक 20 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. अब ये तो रहे सरकार के आधिकारिक आंकड़े, लेकिन उन आंकड़ों का क्या जो लॉकडाउन में भुखमरी की वजह से कई मजदूर मौत का शिकार हुए हैं. मौत का शिकार हो गई यह मौतें कोरोना की वजह से नहीं बल्कि कोरोना के दौरान भुखमरी की वजह से हुई थी.

लेबर एक्टिविस्ट शिव कुमार कहते हैं, “कोरोना महामारी के दौरान बहुत कुछ खो दिया है. कोरोना में मजदूरों ने कुछ पाया नहीं है. काम और घर के सदस्य तक मजदूरों ने खो दिए. सरकार ने मजदूरों के लिए कोई कानून नहीं बनाया. लॉकडाउन से महामारी पर काबू नहीं पाया जा सकता है. हम सरकार से मांग करते हैं कि मजदूरों के लिए अस्पताल, डॉक्टर उपलब्ध कराएं जाएं. ताकि महामारी पर काबू पाया जा सके. मजदूरों को भत्ता मिले और श्रम कानून को रद्द करे.”

(यह रिपोर्ट न्यूज़लॉन्ड्री और इंडिया डाटा पोर्टल की साझा फेलोशिप के तहत की गई है. इसमें इंडिया डाटा पोर्टल की विस्तृत आंकड़ों की मदद ली गई है.)

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