Opinion

वाराणसी: छह दशकों बाद गैरकानूनी कब्जे से आजाद हुई नागरीप्रचारिणी संस्था

अंतरराष्ट्रीय महत्व की हिंदी सेवा संस्था नागरीप्रचारिणी सभा में पिछले 15 वर्षों से चल रहे कानूनी विवाद का पटाक्षेप हो गया है. जानेमाने कवि आलोचक संस्कृतिकर्मी व्योमेश शुक्ल की लिखित आपत्ति को स्वीकार करते हुए वाराणसी के उपज़िलाधिकारी (सदर) प्रमोद कुमार पांडेय ने 23 पृष्ठों के आदेश में संस्था पर काबिज़ पद्माकर पांडेय और शोभनाथ यादव की कमेटी को ग़ैरकानूनी माना है. साथ ही सहायक निबंधक, सोसाइटीज़ को 2004 की साधारण सभा के सदस्यों की सूची के आधार पर ज़िला प्रशासन की देखरेख में नये चुनाव कराने के आदेश दिये हैं.

बीते 60 वर्षों से एक परिवार हिंदी की इस 128 साल पुरानी संस्था पर क़ब्ज़ा जमाये बैठा था. इस निर्णय के बाद संस्था को उस शिकंजे से मुक्ति मिल गयी है. इस बीच संस्था में बौद्धिक संपदा और ज़मीन-जायदाद के घपले से जुड़ी ख़बरें समय-समय पर प्रकाश में आती रही हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भी इस संस्था पर नज़र बनी रही है और इसने यहां हुए चुनावों की जांच का आदेश स्थानीय न्यायालय को दे रखा था. उसी सिलसिले में आये इस निर्णय के बाद देश-भर के शोधार्थियों और लेखकों को उम्मीद बंध गयी है कि अब संस्था को उसका खोया हुआ गौरव वापस मिल जायेगा.

हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के निर्माण और प्रसार में अनिवार्य भूमिका निभाने वाली 128 वर्ष पुरानी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी की हालत चिंताजनक थी. इस संस्था पर लंबे समय से एक परिवार ग़ैरकानूनी तरीक़े से क़ाबिज़ था. ये लोग निजी लाभ के लिए मनमाने ढंग से संस्था की मूल्यवान चल-अचल संपत्ति का दुरुपयोग कर रहे थे. इससे ‘सभा’ की वाराणसी, नयी दिल्ली और हरिद्वार स्थित भौतिक और बौद्धिक संपदा और इसकी स्थापना के संकल्प ख़तरे में थे.

समृद्ध इतिहास के खंडहर

नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी परिसर के पूर्वी हिस्से में स्थित प्रकाशन-कार्यों के लिए बनाया गया ऐतिहासिक भवन एक दवा व्यापारी को ‘लीज़’ के ज़रिये दस साल के लिए दे दिया गया है. ग़ौरतलब है कि उस भवन का उद्घाटन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने किया था. उनके नाम का शिलापट्ट भवन के बाहर से हट गया है. सभा की अतिथिशाला में कुछ लोगों का कब्ज़ा है. यही हाल नयी दिल्ली-स्थित अतिथिशाला का भी है. वह भूखंड भी भारत सरकार ने ‘सभा’ को दिया है, लेकिन उसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है. पूरी बिल्डिंग ही किराये पर उठा दी गयी है. ख़ास बात यह है कि सभा की नयी दिल्ली शाखा की बैलेंस शीट, बैंक ऑपरेशन और आय व्यय से जुड़ा कोई काग़ज़ सहायक निबंधक कार्यालय, वाराणसी में जमा नहीं है.

अनियमितताएं अनेक हैं. संस्था की भू-संपदा को ग़ैरकानूनी तरीक़े से बेच देने या बहुत लंबी अवधि के लिए किराये पर उठा देने के षड्यंत्र के साथ-साथ ‘सभा’ की बौद्धिक संपदा को भी विदेश-स्थित व्यक्तियों और संस्थाओं को चोरी-छिपे बेच देने की कोशिशें चल रही हैं. हिंदी भाषा, नागरी लिपि और भारतीय साहित्य की अनमोल संपदा– लगभग 80 वर्ष पहले नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा संकलित, संपादित और प्रकाशित ग्रंथ– ‘हिंदी शब्दसागर’ इसी अनधिकृत सोसायटी ने अपनी जनरल काउंसिल (साधारण सभा) की अनुमति के बग़ैर शिकागो विश्वविद्यालय के एक विभाग को महज़ 21 लाख रुपये में बेच दिया है.

नागरीप्रचारिणी सभा के ऐतिहासिक मुद्रण और प्रकाशन विभाग अरसे से बंद हैं. अगर सभा द्वारा प्रकाशित सभी किताबें आज भी उपलब्ध हो जाएं तो हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों और शोधार्थियों समेत वृहत्तर हिंदी संसार न सिर्फ़ लाभान्वित होगा, बल्कि उनकी बिक्री से होने वाली आय से ‘सभा’ का ‘इकोसिस्टम’ भी सुधरा जा सकता है. वे किताबें आज अनुपलब्ध हैं और दूसरे प्रकाशक मौक़े का लाभ उठाकर, कॉपीराइट कानूनों का उल्लंघन करते हुए उन्हें चोरी-छुपे छाप भी रहे हैं.

सभा का मुख्यभवन जिसमें हिंदी का सबसे पुराना ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’ है. सवा सौ साल पुरानी एक हेरिटेज इमारत है, जिसे तत्काल सघन देखरेख और सरंक्षण की ज़रूरत है, जबकि रखरखाव के अभाव में वह जीर्णशीर्ण होकर गिरने की कगार पर है. भूतल पर उसका एक हिस्सा ढह भी गया है.

सन 2000 के आसपास तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 94 लाख रुपये की एक परियोजना में नोएडा-स्थित एक कंपनी सी-डैक के माध्यम से नागरीप्रचारिणी सभा में मौजूद सभी दुर्लभ पाण्डुलिपियों, हस्तलेखों और पोथियों का डिजिटाइजेशन करवाया था; लेकिन उस डिजिटाइजेशन की सीडी या सॉफ्ट कॉपी कहीं किसी के भी लिए उपलब्ध नहीं है.

नागरीप्रचारिणी सभा के योगदान

नागरीप्रचारिणी सभा का योगदान बहुत बड़ा है. 1893 में स्थापित इस संस्था ने पचास सालों तक हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों की खोज का देशव्यापी अभियान चलाया. इन ग्रंथों के विधिवत पाठ-संपादन से तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, रहीम और रसखान जैसे कवियों की प्रामाणिक रचनावालियां प्रकाशित हुईं और शिक्षित भारतीय समाज उनसे परिचित हुआ.

इसी सभा ने अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज विद्वानों की लगभग 25 वर्षों की साझा मेहनत के फलस्वरूप ‘हिंदी शब्दसागर’ नामक हिंदी का पहला, सबसे बड़ा, समावेशी और प्रामाणिक शब्दकोष तैयार किया. भारत की संविधान सभा और बाद में गठित अनेक आयोगों ने नियमों, कानूनों और संवैधानिक पदों के हिंदी प्रतिशब्द तैयार करने के लिए इसी शब्दसागर की मदद ली है. इस शब्दसागर की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से भी लग जाता है कि इसकी भूमिका के तौर पर प्रकाशित आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ शीर्षक निबंध को पिछले एक हज़ार वर्षों के साहित्य के इतिहास की सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक आलोचना पुस्तक के तौर पर आज तक पढ़ा जाता है.

आज़ादी के पहले अदालतों में हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने के लिए इस संस्था ने एक अखिल भारतीय आंदोलन चलाकर पांच लाख हस्ताक्षरों का एक ज्ञापन संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर को सौंपा था. उसी समय हिंदी में सरकारी और अदालती कामकाज की सुविधा के लिए सभा ने एक ‘कचहरी हिंदी कोश’ भी प्रकाशित की.

नागरीप्रचारिणी सभा के प्रकाशनों का इतिहास गौरवशाली रहा है. ‘हिंदी शब्दसागर’ के 12 खंडों के अलावा इस संस्था ने इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की तर्ज पर 12 खंडों का ‘हिंदी विश्वकोश’, 16 खंडों का ‘हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास’ और 500 से ज़्यादा ग्रंथ प्रकाशित किये. एक समय तक यहां से प्रकाशित रिसर्च जर्नल ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ का भी बड़ा मान रहा है.

नागरीप्रचारिणी सभा ने ही सौ साल पहले एमए की कक्षाओं के लिए हिंदी का पहला पाठ्यक्रम बनाया था.

नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना क्वींस कॉलेज, वाराणसी की 9वीं कक्षा के तीन छात्रों– बाबू श्यामसुंदरदास, पंडित रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने इसी कॉलेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की. बाद में इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने 16 जुलाई 1893 निर्धारित की और आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए. काशी के सप्तसागर मुहल्ले में घुड़साल में इसकी बैठकें होती थीं और बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना. पहले ही साल जो लोग इसके सदस्य बने, उनमें महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जॉर्ज ग्रियर्सन, अम्बिकादास व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत-ख्याति के विद्वान थे.

जब इस संस्था की स्थापना की गई तो इसका उद्देश्य हिंदी और देवनागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार एवं प्रसार था, उस समय न्यायालयों में या अन्यत्र सरकारी कामों में हिंदी का प्रयोग नहीं हो सकता था और हिंदी की शिक्षा की व्यवस्था वैकल्पिक रूप से मिडिल पाठशालाओं तक ही सीमित थी. हिंदी में आकर ग्रंथों का पूर्ण रूप से अभाव था. प्रेमसागर, बिहारी सतसई, तुलसीकृत रामायण और मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत जैसे ग्रंथ ही आकर-ग्रन्थ माने जाते थे, जो जहां-तहां मिडिल में वैकल्पिक रूप से पढ़ाये जाते थे. भारतेंदु और उनकी मित्रमंडली का साहित्य केवल साहित्यकारों के अध्ययन और चिंतन तक सीमित था.

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