Godman Series

पत्रकारों और राजनेताओं के कंधों पर पैर रख-रखकर कैसे एक शख़्स जग्गी वासुदेव से सद्गुरु बन गया

चेन्नई से प्रकाशित होने वाली तमिल साप्ताहिक पत्रिका आनंद विकटन में वर्ष 1997 में एक आध्यात्मिक नेता द्वारा कॉलम लिखने की शुरुआत की गयी. उन दिनों विकटन तमिल न्यूज़ और रिपोर्टिंग की दुनिया में एक बड़ा नाम हुआ करता था- और अब भी है. पाठकों तक अपनी पहुंच और प्रसार की दृष्टि से इसीलिए जब कॉलम जैसा इतना महत्वपूर्ण स्थान एक तथाकथित "गुरु" के हवाले किया गया तो इस पर कुछ लोगों की भौहें भी तन गयीं.

लेकिन ये फैसला काफी लाभदायी सिद्ध हुआ. "मनसे रिलैक्स प्लीज़" अथवा अपने मस्तिष्क को शांत करो, सबसे पहले साल 1997 में और उसके बाद दोबारा सन् 2003 में स्वामी सुखबोधानंद द्वारा लिखना शुरू किया गया. यह इतना सफल रहा कि 2004 में इस कॉलम को फिर से विकटन में जगह दे दी गयी. लेकिन इस बार इस कॉलम की कमान एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध "गुरु" के हाथों में थी. आध्यात्मिक सलाह देने का काम कारोबार के लिए साफ तौर पर लाभदायक दिखाई दे रहा था. तो ऐसे में भला ये पत्रिका इस मुनाफ़े को क्यों न भुनाती?

विकटन की दूसरी आध्यात्मिक श्रृंखला के लेखक ने इसका नाम बदलकर 'अथाइनाइक्कुम असाइपाडु" (सबकी दुआएं) रख दिया. इस लेखक के पास निष्ठावान अनुयायियों का झुंड तो पहले से ही था लेकिन वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय तौर पर उतना मशहूर नहीं हुआ था जितना कि वो आज है.

और ये शख़्स कोई और नहीं बल्कि स्वयं जग्गी वासुदेव थें.

सुखबोधानंद के कॉलम ने विकटन के पाठकों हेतु आध्यात्मिक लेखन के विचार को बल जरूर दिया था लेकिन वासुदेव के लेखों की तरफ इस तरह से पाठकों का खिंचे चले आना, आखिर ये कारनामा तो पूरी तरह जग्गी वासुदेव का ही किया धरा था.

'मनसे रिलैक्स प्लीज़' को पहले ही पाठकों का भरपूर प्यार मिला था, इसीलिए उन्होंने 'अथाइनाइक्कुम असाइपाडु' को भी पढ़ा. और इस तरह लोगों का ध्यान वासुदेव की ओर जाने लगा", अचिमुथु शंकर ने कहा, जो कि पूर्व में एक सरकारी कर्मचारी थे लेकिन अब एक विसलब्लोअर हैं. इन दिनों ये "सावुक्कू" शंकर के नाम से ज्यादा मशहूर हैं. "इस तरह जग्गी वासुदेव ने समझा कि कैसे उन्हें मीडिया द्वारा प्रदर्शित किये जाने पर लोकप्रियता हासिल होगी."

और उन्होंने तुरंत इसका लाभ उठाया. सितंबर, 2007 में उन्होंने काट्टूपू नामक एक पत्रिका का लोकार्पण किया जिसके पाठकों में ज्यादातर उनके अनुयायी ही थे.

विकटन के लाखों पाठकों के दिलों-दिमाग में वो एक विचारवान आध्यात्मिक सलाहकार के तौर पर स्थापित हो चुके थे. और अपने कॉलम के शुरू होने के तीन सालों के बाद उन्होंने अपने लिए राजनैतिक समर्थन का मानो एक बैंक ही खड़ा करना शुरू कर दिया था.

राजनैतिक साठगांठ

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के अध्यक्ष एम करुणानिधि 2006 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे. करुणानिधि ने अपना पूरा जीवन नास्तिकता और तार्किकता के द्राविड़ सिद्धांतों के अनुरूप जिया और साधु-संतों के प्रति हमेशा आलोचनापूर्ण नज़रिया ही रखा. लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि वासुदेव उनके इन सिद्धांतों के मामले में एक अपवाद ही रहे.

"करुणानिधि से वासुदेव की जान-पहचान नक्खीरन के एक वरिष्ठ पत्रकार ए कामराज ने कराई," एक तमिल पत्रकार ने कहा.

1999 में जब जंगलों के खूंखार डकैत वीरप्पन ने कन्नड़ अभिनेता राजकुमार का अपहरण कर लिया तो उस वक़्त कामराज नक्खीरन समाचार पत्रिका के सहायक संपादक थे. पत्रिका के संस्थापक और संपादक गोपाल को सत्यामंगलम के जंगलों में वीरप्पन से समझौता वार्ता के लिए भेजा गया और कामराज को गोपाल के संपर्क अधिकारी के वेश में उनके साथ ही भेजा गया. सूत्रों ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया कि इसका परिणाम ये हुआ कि कामराज इस दौरान डीएमके अध्यक्ष का करीबी बन गया.

कामराज स्वयं भी वासुदेव के अनुयायी थे और वासुदेव ने उन्हें करुणानिधि से मिलवाने को कहा. "कामराज ने न केवल उनको करुणानिधि से मिलवाया बल्कि करुणानिधि को अन्ना विश्वविद्यालय में होने वाले ईशा फाउंडेशन के एक आयोजन में भी आने के लिए राजी कर लिया," एक सूत्र ने बताया.

ये आयोजन 23 सितंबर, 2007 को चेन्नई के अन्ना विश्वविद्यालय में हुआ. ये एक वृक्षारोपण समारोह था जिसमें वासुदेव और करुणानिधि दोनों ने ही शिरकत की तथा अपने भाषण में करुणानिधि ने वासुदेव की तारीफों के पुल बांधते हुए कहा कि यदि पर्यावरण की देखभाल के मामले में लोग वासुदेव के पदचिन्हों का अनुसरण करेंगे तो ये दुनिया एक बेहतर जगह बन जायेगी.

पत्रकार वी अनबालागान ने रिपोर्टर को बताया कि 2006 में करुणानिधि से मुलाकात होने से पहले वासुदेव की कोई "राजनैतिक पहुंच" नहीं थी. "वासुदेव करुणानिधि से मुलाकात करने के लिए चेन्नई आते थे," उन्होंने बताया. "एक बार जब वो डीएमके के खास लोगों से जुड़ने में सफल हो गये तो इसके बाद उनकी पहुंच बहुत व्यापक हो गयी. उनके डीएमके के संपर्क में आने से पहले किसी राजनीतिज्ञ ने ईशा फाउंडेशन में कदम तक नहीं रखा था."

उन्होंने आगे जोड़ा, "लेकिन एक बार जब उनकी पहुंच राजनैतिक गलियारों तक हो गयी तो उसके बाद फिर कभी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा." राजनेताओं के साथ ही वासुदेव ने जल्द ही सिनेमा के सितारों, अफसरशाहों और बड़े कारोबारियों का एक समूह अपने अनुयायियों के तौर पर खड़ा कर लिया था.

मीडिया की भूमिका

प्रिंट मीडिया और राजनेताओं के बाद टेलीविजन, सद्गुरु की सफलता के मार्ग में उठाया गया एक स्वाभाविक कदम था.

2008 में तमिल एंटरटेनमेंट चैनल स्टार विजय ने विकटन में आने वाले वासुदेव के कॉलम के नाम से ही एक शो शुरू किया, ‘अथाइनाइक्कुम असाइपाडु’. इस शो का प्रसारण रविवार की सुबह आधे घंटे के लिए किया जाता था जिसमें वासुदेव अपनी पसंद के मेहमानों के साथ बैठकर आध्यात्मिकता, सामाजिक मुद्दों, योगा, संस्कृति, ग्लोबल वार्मिंग, प्रेम, तलाक, और यहां तक कि मांसाहारी भोजन खाया जाये या नहीं इस पर भी बात करते थें.

उनके सभी मेहमान अपने क्षेत्र की बहुत बड़ी हस्ती होते फिर चाहे वो संगीत हो, साहित्य हो, या फिर सिनेमा और राजनीति हो. इनमें विवेक, आर पार्थिबन और क्रेज़ी मोहन जैसे अभिनेता, सुधा रघुनाथन जैसी कर्नाटक संगीत की गायिका, और यहां तक कि विदुथालाई चिरूथाइगल कातची तथा थोल थिरुमावलन जैसे राजनेता भी होते थे. वासुदेव मेजबान की भूमिका में होतें और साक्षात्कार कोयम्बटूर के बाहर, आश्रम के मुख्यालय में फ़िल्मायें जाते.

"ये प्रोग्राम अनूठा था", ईशा के एक स्वयंसेवक ने अपना नाम न उजागर होने देने की शर्त पर कहा. "एक आध्यात्मिक गुरु द्वारा मशहूर हस्तियों का साक्षात्कार लिया जाना- ये देखने में बहुत दिलचस्प था. इसने तमिलनाडु में सद्गुरु की स्थिति को और भी मजबूत किया."

नवंबर, 2010 में ईशा फाउंडेशन ने इन कन्वर्सेशन विथ द मिस्टिक के नाम से अथानाइक्कुम असाइपाडु का अपना संस्करण शुरू किया. इसकी पद्धत्ति भी पुराने संस्करण वाली ही रही लेकिन अब इसे लाइव ऑडियंस के आगे फ़िल्माया जाने लगा और ग्लैमर के तड़के को बढ़ाने के लिए मेहमानों के तौर पर जूही चावला, अनुपम खेर, किरण बेदी, किरण मज़ूमदार शॉ, बरखा दत्त और अर्णब गोस्वामी को भी शामिल किया गया. वासुदेव के साथ बैठने वाले पहले मेहमान शेखर कपूर थे.

सालों बाद रणवीर सिंह, कंगना रणौत, जैसे बॉलीवुड के सितारे और क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग सिद्ध पुरुष के साथ बातचीत करने के लिए बैठें. इस प्रोग्राम में बैठने के लिए टिकट लगता था. जल्द ही वासुदेव ने सहयोगी प्रोग्राम्स की भी शुरुआत कर दी, जैसे कि यूथ एंड ट्रूथ जिसमें वो आईआईएम से लेकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे जाने-माने विश्वविद्यालयों के छात्रों से बातचीत करते.

यहां गौर करने वाली बात ये है कि सभी प्रोग्राम बहुत आराम से नहीं चले. 2018 में हैदराबाद के नलसार विश्वविद्यालय में यूथ एंड ट्रूथ के एक एपिसोड के दौरान छात्रों ने सीधे-सीधे ऐसे सवाल पूछ लिए जिससे कि वासुदेव चौंक गये. उदाहरण के लिए एक छात्र ने सवाल कर दिया कि क्या तमिलनाडु के संरक्षित एलीफैंट कॉरिडोर क्षेत्र में ईशा फाउंडेशन के लिए अनुमति ली गयी है, उसने यह भी पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि कुछेक मंदिरों में स्त्रियों को नहीं जाना चाहिए.

उस वक़्त वहां पर मौजूद रहने वाली नालसार की एक पूर्व अस्सिटेंट प्रोफेसर प्रेरणा धूप ने इस घटना के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की कि नालसार के छात्र "बेहद सूक्ष्म स्तर पर भी सोचने-समझने में अभ्यस्त" है.

"जब उन्होंने जटिल मुद्दों पर सवाल करने शुरू किये तो उन्हें बेहद साधारण और एक तरफा जवाब मिलें," उन्होंने कहा. "इस आयोजन से...इसकी भी झलक मिलती है कि किस तरह हमारे नौजवानों को यथार्थ के केवल उसी संस्करण से परिचित कराया जा रहा है जो सद्गुरु के नजरिये के अनुरूप है. प्रिंट और सोशल मीडिया समेत संवाद के प्रमुख उपागमों पर ठीक-ठाक नियंत्रण, और शासक वर्ग के समर्थन के साथ ही उनका सरकार के भीतर भी अच्छा-खासा दबदबा था. सत्ता, प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों का ऐसा दुर्लभ संयोग हमारे उदारवादी लोकतंत्र और विविधताओं से भरे समाज के लिए आफत खड़ी कर सकता है."

फरवरी, 2021 से ही बिग एफएम पर वासुदेव नियमित रूप से धुन बदल के देखो नाम का शो करते हैं जहां वो स्वास्थ्य, आध्यात्म, नौजवानों, संबंधों और धर्म पर अपने विचार रखते हैं. न्यूजलॉन्ड्री उन शर्तों की प्रामाणिकता की जांच नहीं कर पाया है जिनके आधार पर वासुदेव या ईशा फाउंडेशन के साथ बिग एफएम एक सहयोगी की भूमिका निभा रहा है.

लेकिन आज की तारीख़ में वासुदेव को अपने ब्रांड के प्रचार-प्रसार के लिए किसी पत्रिका के कॉलम या टीवी शो की जरूरत नहीं है; वो तो स्वयं ही ये काम कर रहे हैं. अब जबकि इंटरनेट के द्वारा ब्रांड और प्रतिष्ठा का निर्माण किया जा रहा है तो ऐसे में बिना कोई देरी किये सद्गुरु अलग-अलग मंचों के और भाषाओं के अपने लाखों अनुयायियों के साथ इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए दौड़ पड़े. उनके फाउंडेशन के केंद्र पूरे भारत और विश्व में फैले हुए हैं. इसके साथ ही फाउंडेशन के पास 4,600 पूर्णकालिक स्वयंसेवकों और 90 लाख अंशकालिक स्वयंसेवकों का एक नेटवर्क है.

इन स्वयंसेवकों को कोई भुगतान नहीं किया जाता बल्कि वो तो "इनर इंजीनियरिंग" के एक प्रोग्राम से गुजरकर आने के बाद ही ईशा के लिए काम करने के लिए चुने जाते हैं. वो फाउंडेशन के लिए सोशल मीडिया संभालने, आईटी डेवलपमेंट, ब्रांड स्ट्रैटजी, लेखन सामग्री तैयार करने, फ़िल्मांकन करने, वीडियो एडिटिंग, आयोजन करवाने, चंदा इकट्ठा करने और खाना बनाने तथा सफाई के काम के साथ ही आश्रम के दूसरे बहुत से काम से करते हैं.

"सभी स्वयंसेवक मुफ़्त में काम करते हैं," ईशा की एक पूर्व स्वयंसेविका ने बताया जो कि अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण फाउंडेशन को अलविदा कह चुकी हैं लेकिन अक़्सर यहां आती रहती हैं. "उनमें से बहुत सारे लोग अपने कार्यक्षेत्रों में माहिर व्यक्ति हैं पर वो सद्गुरु के प्रसार के लिए अपनी निःशुल्क सेवाएं प्रदान करते हैं."

योगा से जुड़े सवाल

"ईशा योगा" वासुदेव के सबसे बड़े उत्पादों में से एक है जो कथित तौर पर "सद्गुरु द्वारा डिजाइन किया गया है" और इसे एक विस्तृत प्रणाली के तौर पर परिभाषित किया गया है जो आधुनिक मानव के लिए यौगिक विज्ञान के मूल को भी समेटे हुए है."

लेकिन एक ऐसा नाम भी है जिसका जिक्र आपने कभी भी ईशा फाउंडेशन के साथ नहीं सुना होगा और ये नाम है, ऋषि प्रभाकर. ऋषि प्रभाकर ही वो शख़्स हैं जिन्होंने 1984 में योगा का एक रूप सिद्धा समाधि योगा वासुदेव को सिखाया. यदि सूत्रों की मानें तो वासुदेव ने बाद में सिद्धा समाधि योगा को अपना लिया और ईशा योगा के नाम से इसकी रिपैकेजिंग कर दी.

प्रभाकर एक आध्यात्मिक गुरु और योगा के अध्यापक थे जो 1974 में बेंगलुरु में सिद्धा समाधि योगा के प्रणेता थे. उन्होंने भारत लौटने से पहले स्विट्ज़रलैंड में महर्षि महेश योगी के अधीन रहकर अध्ययन किया था. जबकि वासुदेव ने 1984 में प्रभाकर के अधीन रहकर ही मैसूर के नजदीक गोममातागिरि क्षेत्र में अध्ययन किया था.

"जग्गी और मैंने ऋषि प्रभाकर से मैसूर के निकट गोममातागिरी रहकर सिद्धा समाधि योगा सीखा", आंध्र प्रदेश के एक योगा अध्यापक ने बताया जिसने वासुदेव के साथ प्रशिक्षण लिया था." जग्गी 1984 में गुरुजी (प्रभाकर) से जुड़ें… वहां पर उनकी मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई जो कि वहां एक स्वयंसेविका और प्रशिक्षक थी.

वासुदेव बीच पंक्ति में, बाएं से तीसरे स्थान पर
वासुदेव बाएं से तीसरे
वासुदेव जमीन पर बैठे हैं, दायें से तीसरे स्थान पर.

सिद्धा समाधि योग में प्रशिक्षित होने तक वासुदेव का योगा से कोई "पूर्व संबंध नहीं" था. और इसके बाद वो 1986 से 1987 के बीच हैदराबाद, बेंगलुरु और मैसूर में प्रभाकर का योगा सिखाने लगे. "इसके बाद गुरुजी ने जग्गी को कोयम्बटूर में एक और केंद्र स्थापित करने के लिए भेजा," उन्होंने कहा. "लेकिन जब वो वहां गये तो उन्होंने स्वयं को गुरुजी से अलग कर लिया और वहां अपना खुद का ईशा योगा शुरू कर दिया." ईशा फाउंडेशन की स्थापना 1992 में हुई थी.

सुब्रमण्यम रेड्डी जो कि सिद्धा समाधि योगा के एक अध्यापक हैं, का कहना है, "जग्गी वासुदेव सिद्धा समाधि योग के सबसे बेहतरीन अध्यापकों में से एक थे. वो गुरुजी के भी बहुत करीबी थे. लेकिन उन्होंने बहुत जल्द उनसे नाता तोड़ लिया और कोयंबटूर में योगा सीखाना शुरू कर दिया. सद्गुरु जो कुछ भी सिखाते हैं वो सब ऋषि प्रभाकर के पाठ्यक्रम से लिया गया है."

इस संबंध में ईशा फाउंडेशन की टिप्पणी लेने के लिए हम अब तक उनसे संपर्क नहीं कर पाये हैं.

***

तीन पार्ट में प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट का यह दूसरा हिस्सा है. पहली रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें

यह रिपोर्ट हमारी एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसमें 155 पाठकों ने योगदान दिया.

इसे सरस उपाध्याय, विशाल रघुवंशी, विपिन शर्मा, किमाया कर्मलकर, शाफिया काज़मी, सौम्या के, तपिश मलिक, सूमो शा, कृष्णन सीएमसी, वैभव जाधव, रचित आचार्य, वरुण कुझिकट्टिल, अनिमेष प्रियदर्शी, विनील सुखरमानी, मधु मुरली, वेदांत पवार, शशांक राजपूत, ओलिवर डेविड, सुमित अरोड़ा, जान्हवी जी, राहुल कोहली, गौरव जैन, शिवम अग्रवाल, नितीश के गनानी , वेंकट के, निखिल मेराला, मोहित चेलानी, उदय, हरमन संधू, आयशा, टीपू, अभिमन्यु चितोशिया, आनंद, हसन कुमार , अभिषेक के गैरोला, अधिराज कोहली, जितेश शिवदासन सीएम, रुद्रभानु पांडे, राजेश समाला, अभिलाष पी, नॉर्मन डीसिल्वा, प्रणीत गुप्ता, अभिजीत साठे, करुणवीर सिंह, अनिमेष चौधरी, अनिरुद्ध श्रीवत्सन, प्रीतम सरमा, विशाल सिंह, मंतोश सिंह, सुशांत चौधरी , रोहित शर्मा, मोहम्मद वसीम, कार्तिक, साई कृष्णा, श्रेया सेथुरमन, दीपा और हमारे अन्य एनएल सेना सदस्यों के योगदान से संभव बनाया गया है.

Also Read: कानून की जमीन पर खोखली नजर आती ईशा फाउंडेशन के साम्राज्य की नींव

Also Read: “हम श्मशान के बच्चे हैं”: वाराणसी के घाटों पर कोविड लाशों का क्रिया कर्म कर रहे मासूम