Report
पत्रकार कोविड-19 के दहलाने वाले दृश्य क्यों दिखा रहे हैं?
सोमवार दोपहर को जब हमने न्यूयॉर्क टाइम्स के एक फोटो जर्नलिस्ट को फोन किया, तो उन्होंने पूछा, "क्या हम थोड़ी देर में बात कर सकते हैं? मैं अभी एक अंतिम संस्कार की शूटिंग के बीच में हूं."
जैसे-जैसे कोविड-19 से मरने वालों की संख्या बढ़ रही है, भारतीय और विदेशी पत्रकार श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों से यह दिखाने के लिए रिपोर्ट कर रहे हैं कि महामारी की दूसरी लहर कितनी विनाशकारी साबित हुई है.
बहुत से पत्रकार जिनसे हमने बात की, ने समझाया कि ऐसा मुख्यतः मौत के आंकड़ों को एक चेहरा देने के लिए किया जाता है. साथ ही, राज्य और केंद्र सरकारों के द्वारा आंकड़ों में गड़बड़ी और मीडिया प्रबंधन में इस त्रासदी की गंभीरता और विस्तार न छुप सके इसलिए भी महत्वपूर्ण है.
लेकिन ऑफलाइन या ऑनलाइन, भारतीय टिप्पणीकारों का एक धड़ा पूरी तरह संतुष्ट नहीं है और आरोप लगा रहा है कि इस तरह की खबरें दिखाने वाले पत्रकार, "गिद्धों की तरह बर्ताव", "हिंदू संस्कृति का अपमान", "भारत या नरेंद्र मोदी को नीचा दिखाने की साजिश" कर रहे हैं.
आलोचक और ट्रोल यह जानने की मांग करते हैं, कि जब अमेरिका और इंग्लैंड में कोविड-19 ने हाहाकार मचाया हुआ था, तो विदेशी मीडिया ने इसी प्रकार के मृत्यु और तबाही के दृश्य क्यों नहीं दिखाए थे?
यह दृश्य दिखाए गए थे.
उदाहरण के लिए, जब पिछले साल न्यूयॉर्क में कोविड से मरने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी थी, तो रॉयटर्स, वॉशिंगटन पोस्ट, सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी, टेलीग्राफ ने सामूहिक कब्रों में दफन किए जा रहे ताबूतों के ड्रोन फुटेज दिखाए थे. ब्राजील, इटली और इंग्लैंड के कब्रिस्तानों से भी ऐसी ही खबरें आईं थीं.
कोई भारत से सौतेला व्यवहार नहीं कर रहा.
एक ब्रिटिश मीडिया संस्थान के रिपोर्टर ने कहा, "यही सच है. हम सच के गवाह भी हैं और उसे दर्ज करने वाले भी. इस पत्रकारिता पर खेद जताकर आंसू बहाना या सूचना देने वाले को ही दोषी ठहराना आसान है, इससेे कहीं ज्यादा मुश्किल है जिम्मेदारी सुनिश्चित करने को कहना. लेकिन कोई भी मनगढ़ंत बातें नहीं कर रहा, वास्तविकता यही है. लोगों को, जो हो रहा है उसकी गंभीरता को समझना बड़ा जरूरी है."
इस पत्रकार ने यह भी ध्यान दिलाया कि न्यूयॉर्क और ब्राजील की सामूहिक कब्रों को काफी ज़्यादा मीडिया में जगह मिली थी, जबकि वहां के हालात आज भारत में जैसे हालात हैं वैसे नहीं थे. वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि कोविड महामारी के बाद से बदतर हालात में भी पश्चिम में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो सड़क पर एक लाश की तरह इसलिए था क्योंकि उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिल पाई. हमारा काम है उन लोगों की आवाज़ बनना, जिनकी अपनी आवाज़ नहीं है. और ऐसे बहुत से श्मशान घाटों में लोग हमारे पास आकर, जो मुसीबतें उन्होंने उठाईं उनकी वजह से अपना दुख और गुस्सा जाहिर कर रहे हैं."
जिन पत्रकारों की श्मशान घाटों से पत्रकारिता की आलोचना हो रही है, उन्होंने अधिकतर शोकाकुल परिवार वालों की निजता का सम्मान उनके न चाहते हुए भी उनके मुंह के सामने माइक न ठूंस कर किया है.
इतना ही नहीं, कई भारतीय मीडिया संस्थान जैसे कि कारवां, मोजो स्टोरी, दैनिक भास्कर, लल्लनटॉप, इंडिया टुडे, एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस भी अंतिम संस्कार केंद्रों से विदेशी मीडिया की तरह और उन्हीं कारणों की वजह से पत्रकारिता करते रहे हैं.
गुजरात में हिंदू के संवाददाता महेश लांगा यह तर्क देते हैं कि ऐसी रिपोर्टिंग सरकारों के द्वारा छुपाई जा रही परिस्थितियों की गंभीरता को दिखाने के लिए अति आवश्यक है. गुजरात में राज्य के स्वास्थ्य विभाग से जनता को बताई जा रही मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा बड़ी है यह दिखाने वाले महेश कहते हैं, "सरकार के द्वारा बताए जा रहे आंकड़े और मरने वालों की सही संख्या में बहुत बड़ा अंतर है. ऐसी कहानियां गड़बड़ियों की तरफ इशारा करने के काम आती हैं. समाज में जो हो रहा है उसके लिए आईना दिखाना भी बहुत महत्वपूर्ण है."
मरने वालों की संख्या कम बताने वाला गुजरात अकेला राज्य नहीं है. पिछले सप्ताह ही न्यूज़लॉन्ड्री ने रिपोर्ट की थी कि अकेले भोपाल के ही श्मशान और कब्रिस्तान की संख्या शिवराज सिंह चौहान के द्वारा पूरे मध्य प्रदेश के लिए जारी किए गए आंकड़ों से कहीं ज्यादा है.
दैनिक भास्कर ने भी मध्य प्रदेश सरकार पर कोविड के आंकड़े छुपाने को लेकर सवाल उठाए, 16 अप्रैल को अपने मुखपृष्ठ पर हिंदी अखबार के शीर्षक में "सरकार की मरने वालों की संख्या झूठ है" छापा और उसके साथ भोपाल के एक श्मशान घाट में जलती हुई चिताओं की फोटो भी लगाई.
कारवां में मल्टीमीडिया निर्माता सीके विजयकुमार ने ऐसी पत्रकारिता को नैतिक और आवश्यक बताने का एक दूसरा कारण पेश किया, "हमारे देश में राजनीतिक नेताओं की व्यक्ति पूजा, और चाहे उनका प्रदर्शन कितना भी खराब रहा हो उनका बचाव करने की फितरत है. भले ही यह वीडियो लोगों की सोच न बदल पाए, लेकिन यह लोगों को अपने मत पर सवाल खड़े करने के लिए प्रेरित कर सकता है. दिल्ली के श्मशान घाटों से आने वाली इतनी तस्वीरों को झुठला पाना बहुत कठिन है. एक समाचार ग्राहक के लिए तथ्य और तस्वीरें बड़ा महत्व रखती हैं."
पिछले हफ्ते चिताओं को दिखाते हुए बहुत देखे गए एक वीडियो को बनाने वाले विजयकुमार कहते हैं कि यह कवर करना एक कठिन काम था. वे कहते हैं, "हमें उसके बारे में गहराई से सोचना पड़ा कि हम इसे क्यों कर रहे हैं. बड़ा सवाल यह है कि ऐसा लग रहा है स्वास्थ्य व्यवस्था ढह गई और राजनैतिक हलकों से पूरी तरह लापरवाही होती मालूम देती है. समाज के कुछ वर्गों में एक किवदंती है कि कोरोनावायरस है ही नहीं. मुझे ऐसा लगता है कि यह तस्वीरें और मरने वालों के रिश्तेदारों के साक्षात्कारों मैं उस भ्रम को तोड़ देने की ताकत है."
एक न्यूज़ मीडिया वेबसाइट के पत्रकार जो कोविड-19 को कवर करते रहे हैं और उन्होंने दिल्ली के अंतिम संस्कार केंद्रों से भी रिपोर्ट की हैं, इंगित करते हैं कि मीडिया के अस्पताल में घुसने पर अनौपचारिक पाबंदी है. इसीलिए अंतिम संस्कार के आधार से रिपोर्ट करना सच्चाई दिखाने का एक तरीका है.
वह पत्रकार कहते हैं, "सरकार की कलई श्मशान घाटों पर खुल रही है. शव और श्मशान में काम करने वाले हमें सच्चाई बता रहे हैं. अगर सरकार ऐसा कर सकती है तो वह मीडिया को श्मशान घाटों पर जाने से भी रोक देती. इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार पूरी तरह से असफल रही है. पिछले 15 दिनों से सरकार गूंगी, बहरी और अंधी है. मैं इस परिस्थिति पर रिपोर्ट करने से पीछे नहीं हट सकता."
एक वैश्विक न्यूज़ एजेंसी के फोटो जर्नलिस्ट ने भी यही बात कही, "जब तक आप कब्रिस्तान और श्मशान नहीं जाते आप नहीं समझ सकते कि यह त्रासदी कितनी बड़ी है. यह पिछले साल भी कर रहे थे. मैं कब्रिस्तान, श्मशान घाट और अस्पतालों के फोटो ले रहा था. मुझे नहीं समझ आता कि लोग उस समय यह रोना-धोना क्यों नहीं कर रहे थे लेकिन अब कर रहे हैं."
दैनिक अखबार हिंदू के संवाददाता जतिन आनंद, जो राजधानी के इस कोविड-19 संकट पर रिपोर्ट करते रहे हैं अंतिम संस्कार स्थलों से की जाने वाली रिपोर्टिंग को आरोप पत्र दाखिल करने के समकक्ष रखते हैं. उन्होंने कहा, "देखिए आप आरोपपत्र में आरोप क्या है यह साफ देख सकते हैं, अनुमान लगा सकते हैं और आम तौर पर अदालत अधिकतर आरोप खारिज कर देती है. श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों से पत्रकारिता करना भी बिल्कुल ऐसा ही है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार आपको क्या आंकड़े दे रही है, यही अंतिम पड़ाव है जहां हर चीज की पुष्टि हो जाती है."
अंतिम संस्कार के आधार पर रिपोर्टिंग करने वाले कई पत्रकारों को ऑनलाइन ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा. पिछले 3 दिनों में एक साथ किए गए 11 हूबहू ट्वीट, मोजो स्टोरी की संपादक के शमशान घाट की फोटो के साथ कहती हैं, "शमशान भूमि से बरखा दत्त के सीधे प्रसारण का दृश्य गिद्ध के अपने शिकार की मृत्यु होने के इंतजार करने जैसा है."
इसके जवाब में बरखा ने ट्रोल करने वालों को बताया कि उनका "सूचना देने वाले पर ही इल्जाम लगाने" का पुराना हथकंडा काम नहीं आएगा.
बीबीसी की योगिता लिमये जिनके कोविड संकट की पत्रकारिता ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय असर डाला है, उन्हें भी अपने सहकर्मियों की तरह ही इस प्रकार के अपशब्द झेलने पड़े.
फोटोग्राफर अनुपम नाथ की चिताओं की फोटो को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों ने इस्तेमाल किया है. एसोसिएटेड प्रेस के फोटो जर्नलिस्ट कहते हैं कि चाहे आलोचक या ट्रोल कुछ भी कहें, वह अपना काम करना बंद नहीं करेंगे. यह काम बहुत आवश्यक है और सिर्फ इसीलिए नहीं कि इस हो रही आपदा को आने वाली पीढ़ियों के लिए दर्ज करना है. वे समझाते हैं, "यह एक दुख की बात है लेकिन यह अब एक मानवीय संकट है. हम शवों की कतारें देख रहे हैं और कभी कभी परिस्थिति की गंभीरता को दर्शाने के लिए ऐसे दृश्यों को दिखाना आवश्यक होता है."
वह अंत में कहते हैं, "हमें इतिहास के लिए यह दर्ज करना चाहिए. अगर किसी ने हिरोशिमा बमबारी की फोटो ली ही नहीं होती तो हमें अंदाजा नहीं होता कि हालात कितने बुरे थे. जब तक आप परिस्थिति को देखते नहीं तो आप उसकी कल्पना नहीं कर पाते."
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
Also Read
-
The polarisation of America: Israel, media and campus protests
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi
-
Mandate 2024, Special Ep: The 4 big distortions in the PM’s ‘infiltrator’ speech
-
एनएल चर्चा 316: पीएम की ‘हेट स्पीच’, इलेक्शन कमीशन की ‘चुप्पी’ और सूरत का ‘फिक्स’ चुनाव
-
Hafta 482: JDS-BJP in Karnataka, inheritance tax debate, issues with PMLA