Obituary
मौलाना वहीदुद्दीन खान इस्लाम के पंडित थे और भारतीय अध्यात्म उनकी अंतर्धारा
मौलाना वहीदुद्दीन खान की मौत उस खालिस इंसान की मौत है जिनकी संख्या दिन-पर-दिन घटती जा रही है. संख्या घटती जा रही है तो इसलिए नहीं कि खुदा ने इंसान बनाने बंद कर दिए हैं बल्कि इसलिए कि हमने इंसान बनना बंद कर दिया है. हम सभी आदमी की शक्ल-ओ-सूरत ले कर ही पैदा होते हैं, सो कह सकते हैं कि हम सब पैदाइशी आदमी हैं. लेकिन आदमी को इंसान बनने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है. वैसी मशक्कत के बाद जब आदमी इंसान बन जाता है तब हमें लगता है कि यह तो पैदा ही ऐसा हुआ था! मौलाना वहीदुद्दीन के साथ भी ऐसा ही था. उनको देख-सुन व जान कर लगता ही नहीं था कि इन्हें इंसान बनने की कोशिश भी करनी पड़ी होगी. हमेशा लगता था कि यह तो बना-बनाया माल है. न कहीं शब्द फिसलते थे, न शख्सियत कमजोर पड़ती थी. उनकी सख्सियत का एक-एक ताना-बाना कसा हुआ था और मन हमेशा विनय भाव से झुका हुआ. भूल रहा हूं कि किसने लिखा है पर क्या खूब लिखा है- ये नहीं देखते कितनी है रियाजत किसकी/लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को.
आसान नहीं था मौलाना वहिदुद्दीन बनना!
बड़े विषैले दिन थे वे! बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले का दौर था और रथयात्रा से धूल नहीं, घृणा व विद्वेष की चिंगारियां फूट रही थीं. कोई अपशकुन हवा में घुल रहा था. मुझे पहले भी कभी श्रद्धा नहीं थी कि अटलबिहारी वाजपेयी तालीबजाऊ लोकप्रियता से आगे जा कर कभी सच बोल सकते हैं, उस दिन भी नहीं थी लेकिन उस दिन मैं पहुंचा तो उनके पास ही था. साथ में सर्वोदय के वयोवृद्ध साथी ठाकुरदास बंग थे. सदा की आत्मीयता से वाजपेयीजी मिले लेकिन मेरी चिंतित बातें सुन कर चुप हो गये. अपना हाथ तो कई बार हवा में नचाया लेकिन कोई लकीर न बननी थी, न बनानी थी, न बनी. मैंने उन्हें जगाने की कोशिश की. जेपी आपके लिए कहते थे कि अटलजी एक ऐसे आदमी हैं जो अवसर आने पर पार्टी के संकीर्ण हितों से ऊपर उठ सकते हैं. मुझे लगता है, आज वैसा अवसर है. खिन्न स्वर में बुदबदाते हुए बोले, "प्रशांतजी, आप मुझे इतना ऊपर उठने को मत कहिए कि मेरे पांव के नीचे कोई जमीन ही न रहे. फिर तो कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं.
अगले दिन हम मौलाना वहिदुद्दीन के पास बैठे थे. मैं उद्विग्न तो था ही, किसी हद तक निराश भी था. हिंदू सांप्रदायिकता का शमन और बाजवक्त उसका मुकाबला करने की बात पर मेरे और उनके रुख में बड़ा फर्क था जो कई बार हमारे बीच आ खड़ा होता था. लेकिन उस दिन मेरी बात सुन कर वे हमेशा की तरह शांत व गहरी आवाज में बोले, “यह तो आपने बहुत अच्छा किया कि वाजपेयीजी से बात की.” मैंने कहा. बात नहीं की बस मैंने बात कही. वे तो कुछ बोले नहीं.
मौलाना फिर बड़े भरोसे से बोले, “आपको लगता है कि आपके वापस आने के बाद भी कुछ बोले नहीं होंगे? वे ऐसे इंसान नहीं हैं. उनके भीतर बात चलती रहती है." मैंने कुछ ऐसा कहा कि जिससे बात बनती न हो, वैसी बातों का चलना, न चलना सब बेमानी ही होता है, तो धीरे से जैसे मुझे आश्वस्त कर रहे हों. ऐसे बोले, “आप बहुत परेशान न हों. कुछ बातें वक्त भी तो बना देता है.” वहां से निकला तो मुझे भी कहीं आश्वस्ति मिली थी कि हम भले कुछ न कर पा रहे हों, वक्त जरूर कुछ करेगा. जब अपने हाथ में कुछ नहीं होता है तब उन जैसा कोई आदमी शुभ की कामना करता है तो वह कामना आपके भीतर भी भरोसा जगाती है.
वे इस्लाम के पंडित थे, भारतीय अध्यात्म उनकी अंतर्धारा थी. वे पहले मुसलमान थे और अंतत: भी मुसलमान थे लेकिन उसी दावे के साथ वे पहले भारतीय थे और अंतत: भी भारतीय थे. आसान नहीं होता है ऐसा संतुलन साधना लेकिन साधना सब कुछ आसान बना देती है. इसलिए जो सिर्फ मुसलमान थे उन्हें मौलाना बहिदुद्दीन पचते नहीं थे; जो सिर्फ हिंदू थे उनको भी मौलाना से ऐसी ही दिक्कत होती थी. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वे अपनी कोटि के संभवत: पहले मुसलमान थे जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि मुसलमानों को अब बाबरी मस्जिद से अपना दावा वापस ले लेना चाहिए और उस तरफ से खामोशी अख्तियार कर लेनी चाहिए. मुझे यह तजवीब रुचि नहीं थी. मैंने पूछा, आप मुसलमानों को न्याय के हक में बोलने का अधिकार भी नहीं देंगे?
वे बगैर किसी प्रतिक्रिया के बोले, मैंने किसी से हक छोड़ने को नहीं कहा है. खामोश रहना भी बोलना ही है. मुसलमान पिछले दिनों में जो कुछ हुआ है उसका गम बता कर खामोशी अख्तियार कर लेंगे तो हिंदुओं के लिए लाजिमी हो जाएगा कि वे सच व न्याय की बात बोलें." उन्होंने यह भी कहा कि बाबरी के बाद किसी मस्जिद-मंदिर का सवाल नहीं उठाया जाएगा, ऐसा आश्वासन मिलना चाहिए. मैंने फिर टोका था. यह आश्वासन कौन देगा? ये तो वे लोग हैं जो सर्वोच्च न्यायालय को आश्वासन दे कर भी छल करने में हिचकते नहीं हैं. बगैर किसी रोष के वे बोले, "नहीं, यह आश्वासन भर नहीं, संवैधानिक वचन होना चाहिए. लिखित हो और न्यायपालिका की मध्यस्थता में हो. ऐसा कुछ होना नहीं था, हुआ भी नहीं लेकिन मौलाना अपनी बात कहते रहे. अपनी बात बेहिचक कहना और कहते रहना उनकी साधना थी."
ऐसा नहीं था कि वे कम बोलते थे लेकिन उनके अंदर कोई छलनी लगी थी जिससे छन कर सार भर ही बाहर आता था. उस ऊंचाई के लोग दूसरों को बहुत छोटा व तुच्छ मानते हैं लेकिन मौलाना उतने ऊंचे आसान से कभी बात नहीं करते थे. वे मनुष्य से छोटी भूमिका में मुझे कभी मिले ही नहीं. गांधीजी के सेवाग्राम आश्रम में शाम की प्रार्थना में वे हमारे साथ बैठे थे. सभी चाहते थे कि प्रार्थना के बाद वे कुछ कहें. ऐसा होना कोई अनहोनी नहीं थी. खास मेहमानों से प्रार्थना के बाद कुछ कहने की बात होती रहती थी. लेकिन मौलाना ने बात सुनते ही इंकार में सर हिलाया. एकदम इंकार! लेकिन बापू जिस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर प्रार्थना करते थे वहां देर तक बैठे रहे. पीपल जैसे लाखों पत्तियों वाला अपना हाथ ऊपर लहरा रहा था. धीरे से बोले यहां बोलना क्या, यहां तो ये सारे पत्ते भी प्रार्थना करते रहते हैं. इन्हें सुनें हम. दूसरे दिन बहुत इसरार के बाद, वे प्रार्थना के अंत में कुछ बोले भी लेकिन मुझे याद तो इतना ही रहा कि यहां पत्ते भी प्रार्थना करते हैं, इन्हें सुनें हम!
अब वह आवाज सुनाई नहीं देगी. मौत का मतलब ही उतनी दूर का सफर होता है जितनी दूर से आती आवाज न सुनाई देती है, न इंसान उतनी दूर से दिखाई देता है. लेकिन एक सार्थक व पवित्र जीवन का मतलब ही यह होता है कि काल व वक्त की दूरी पार कर भी उसकी गूंज उठती रहती है. मौलाना वहिदुद्दीन खान वैसी ही गूंज बन कर हमारे बीच रहेंगे.
Also Read
-
Adani met YS Jagan in 2021, promised bribe of $200 million, says SEC
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
The Indian solar deals embroiled in US indictment against Adani group
-
‘India should be more interested than US’: Editorials on Adani charges