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धन्य भाग श्रवण का अवसर पाया, अनहद नाद की यात्रा पर पंडित राजन मिश्र
शास्त्रीय संगीत की दुनिया में पंडित राजन मिश्र के न रहने का अर्थ अगर किसी दर्शनशास्त्र के विद्वान से पूछिये तो वो शायद कहेंगे कि यह बिलकुल वैसा है जैसे काशी में व्याप्त देवात्मा और उनकी आराधना में लीन जीवात्मा के बीच के सांगीतिक सम्बन्ध की कड़ी का टूट जाना. यही सवाल अगर बनारस के बाहर के उनके किसी चाहने वाले से पूछिये तो शायद वे कहेंगे कि उनके बीच से संगीत का एक ऐसा साधक चला गया जिनके सुरों की ओज देर तक मन के अन्धकार को क्षीण करती थी. लेकिन अगर उनसे किसी मोहल्लेदारी या रिश्तेदारी या नातेदारी या करीबी सम्बन्ध रखने वाले से पूछिये तो उनके लिये उनके राजन, राजू या रज्जू या गुरु चले गये.
वो राजन जो बुर्राक सफेदी लिये धोती कुर्ता पहनकर संगीत सीखते लेकिन कुछ ही घंटों में डीएवी डिग्री कॉलेज के मैदान में लकदक क्रिकेट किट में चौके छक्के भी उसी तसल्ली से लगाया करते थे जिस तसल्ली से वे अपने घर में मालकौंस की बंदिश गाया करते. बैडमिंटन के बाद डीएवी की तात्कालिक कैंटीन में मिलने वाले चने की रसदार घुंघनी और आलू भरी छोटी कचौड़ियों के लिये आवाज़ लगाते राजन. या शायद वो राजन जो भोर में उठकर सिर्फ इसलिये रियाज़ करते थे क्यूंकि बचपन में उनके पितामह ने उनसे कहा था, "भोर में काशी में देवी देवता आते हैं गंगास्नान करने, अच्छा सुर लगाओगे और उन्हें पसंद आ गया तो शायद कंठ को आशीर्वाद मिल जायेगा". या शायद वो राजन मिश्र जो पान खाने कबीरचौरा से पियरी आते तो खालिस काशिका में अपने इष्ट मित्र एवं संगी साथियों से "का गुरु " कह कर बतियाते और ठहाका लगा कर हंसते थे.
चार सौ साल की संगीत परम्परा के ध्वजवाहक
1951 में बनारस के कबीरचौरा मोहल्ले में जन्मे पंडित राजन मिश्र के परिवार की स्वर साधना विगत लगभग 400 वर्षों से अनवरत गतिमान है. इस परिवार में उनके पितामह पंडित बड़े रामदास जी, पिता पंडित हनुमान मिश्र समेत पंडित महादेव प्रसाद मिश्र जैसे अभूतपूर्व स्वरसाधक और सुरों के प्रवीण लोग हुए हैं. राजन मिश्र को उनके पिता पंडित हनुमान मिश्र ने सुर लगाने के साथ सारंगी बजाना भी सिखाया था. कहते हैं, "उनकी रस सिद्धता स्वर और सारंगी के तारतम्य के कारण उनमें आकर अवस्थित हो गयी थी. किसी विलम्बित सुर को पकड़ने या अलाप करने के क्रम में उनके हाथ स्वाभाविक रूप से पिता से विरासत में मिले सारंगी की भाव भंगिमा के अनुरूप ऊपर से नीचे इशारे आते जाते थे, ऐसा लगता था मानों सारंगी के धनुष को खींच रहे हैं."
राजन मिश्र का रागों के साथ रससिद्धता का उदाहरण इसी बात से स्पष्ट है कि उन्होंने नन्द जैसे कठिन राग को मध्यम करके ठुमरी में इस्तेमाल करने की विधा को दुनिया के कोने कोने में पहुंचाया. शायद यही वजह थी कि उन्होंने दुनिया भर में "भैरव से भैरवी तक" नामक एक सांगीतिक यात्रा की थी. पंडित राजन मिश्र का जीवन दर्शन और पूजा के प्रति भाव स्पष्ट थे उनके शब्दों में कहें तो, "ब्रम्हाण्ड में एक विशेष ध्वनि है. ॐ की. यह विशेष ध्वनि है. उसी तरह सभी ध्वनियों में सभी प्रकार के संगीत में जो हमारा शास्त्रीय संगीत है वो सैकड़ों साल पुराना है जिसकी क्षमता खुद में इतनी अधिक है कि आज भी अगर हमें राग याद है तो सिर्फ इसलिये कि हमारे शास्त्रीय संगीत की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि उसे समझने सीखने और आत्मसात करने में ही ज़िंदगी गुज़ार देते हैं, संगीत ईश्वर की वाणी है."
ख्याल गायकी के सिरमौर
पंडित राजन मिश्र विलम्बित एवं द्रुत ख्याल के जादूगर थे, आज अगर बनारस घराने की ख्याल गायकी को दुनिया भर में समझा जा रहा है या शोध हो रहा है तो उसके पीछे पंडित राजन मिश्रा का एकल प्रयास रहा है. भजन के नए आयाम स्थापित करने के साथ ख्याल को उन्होंने क्लिष्ट से स्पष्ट बना दिया था, दुनिया भर में फैले हुए उनके सैकड़ों देशी विदेशी शिष्य इस बात के गवाह हैं कि ख्याल की बनारसी परंपरा का भविष्य उज्जवल है.
बनारस घराने की शान
पंडित राजन मिश्र भले ही अपने चाचा गोपाल मिश्र के साथ युवावस्था में दिल्ली चले आये लेकिन उनके भीतर का बनारस उन्हें किसी न किसी बहाने से बनारस खींचता रहता था. बनारस शहर के संगीत के साथ वे बनारस घराने के आचरण को आद्योपांत पढ़ कर धारण करते थे और शायद यही वजह है कि इस बात पर हमेशा ज़ोर देते, "बनारस में बंदिश को कहना सिखाया जाता है, उसके बाद समझना फिर रियाज़ और तब गाना, और जब गाना है तो यह सोच के गाना है कि साक्षात ईश्वर को सुना रहे हैं." हर बात को समझाने का एक विशेष बनारसी तरीका होता था, मसलन यह सोचना कि यह जीवन और अन्य सब कुछ अंततः एक प्रकार का खेल है.
वह हमेशा केवल एक विद्यार्थी के रूप में ही नहीं, बल्कि एक प्रकार के संग्रह के विद्यार्थी के रूप में, अधिक ज्ञान के याचक के रूप में, केवल संगीत ही नहीं बल्कि दार्शनिक और व्यावहारिक रूप से भी अवगत थे. उन्होंने कभी भी गुरु होने का दावा नहीं किया लेकिन अपने संगीत को अपना सब कुछ मानते थे जो उन्हें उन सब गुरुओं द्वारा दिया गया था, जिनकी तस्वीरें उन्होंने बनारस में अपने पैतृक घर की दीवारों पर लगाई हुयी थीं. उनकी इच्छा थी कि वे अंतिम समय में बनारस आकर अपने पैतृक आवास में रहें ताकि उनके गुरुओं की स्मृति में वे साधना कर सकें.
बहुधा भक्ति से नवधा भक्ति तक
क्रिकेट, कुश्ती, तैराकी, बैडमिंटन पर समान अधिकार रखने वाली शख्सियत के मालिक, मुंह में मगही पान का बीड़ा जमाने वाले और गंभीर आवाज़ के स्वामी राजन मिश्र को ओशो से ख़ास लगाव हो गया था. कम ही लोग जानते हैं कि वे ओशो के ध्यान शिविरों में आते जाते थे और पूरी गंभीरता के साथ ओशो साहित्य का अवलोकन करते थे. इसके अलावा उनकी कलाधर्मिता की सोच एवं दूरदर्शिता का स्तर असामान्य था और वे रागों और सुरों के साथ पारम्परिक आयोजनों के पक्षधर थे. शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाने वाली संस्था कला प्रकाश के संयोजक एवं कलाधर्मी अशोक कपूर ने रुंधे गले से सिर्फ इतना कह कर फोन रख दिया कि, "मेरे लिये यह व्यक्तिगत क्षति है, सिर्फ श्रद्धांजलि देकर निवृत्त नहीं हो पाउंगा, वो मेरे लिये मार्गदर्शक थे, एक महान व्यक्तित्व के स्वामी और वादे के पक्के, उनका जाना संगीत आयोजनों के लिये रिक्तता है, वे अगर किसी आयोजन में श्रोता बनकर भी आ जाते थे तो उस आयोजन की गरिमा बढ़ जाती थी."
श्रीसंकट मोचन संगीत समारोह से अनवरत रहा नाता
पंडित राजन मिश्र अपने छोटे भाई साजन मिश्र के साथ दशकों तक लगातार हर वर्ष श्रीसंकट मोचन संगीत समारोह में अपनी स्वरांजलि हनुमत दरबार में अर्पित करने आते थे. महंत परिवार से उनके परिवार के पीढ़ियों के रिश्ते थे.
उन्हें याद करते हुए संकट मोचन मंदिर के महंत डॉ. विश्वम्भरनाथ मिश्र बताते हैं, "इनके पिता प्रख्यात सारंगी वादक पंडित हनुमान मिश्र मेरे पितामह पंडित अनरनाथ मिश्र के मित्र थे, लिहाजा मेरे पितामह समेत मेरे पिता डॉ. वीरभद्र मिश्रा का राजन-साजन मिश्र से गहरा अनुराग था. मुझे याद है 1979 में संकट मोचन संगीत समारोह में एक दिन भोर में दोनों भाइयों का गायन हो रहा था उसी दिन ख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर जी का जन्मदिन भी था और वे मंदिर आये थे, उन्होंने इन लोगों का गायन सुना और फ़ौरन इन्हें एक बड़े आयोजन के लिए निमंत्रित किया. उसके बाद इन दोनों भाइयों ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और ये लोग दुनिया भर में बनारस का डंका बजाने लग गए. बहुत सालों तक संगीत समारोह में व्यस्तता के कारण नहीं आ पाए लेकिन 1993 में मुझसे मिलने के बाद उन्होंने वचन दिया कि जब तक जीवित रहेंगे तब तक समारोह में आएंगे और इस वादे को उन्होंने निभाया भी. पिछले वर्ष कोविड के कारण डिजिटल समारोह में उन्होंने वीडियो के माध्यम से अपना प्रस्तुतीकरण भेजा और इस वर्ष भी उन्होंने सहभागिता का वादा किया था. मुझे यह कहने में पीड़ा हो रही है कि वे अब नहीं हैं लेकिन मैं यह अवश्य कहूंगा कि बनारस घराने का एक चमकदार नक्षत्र ब्रम्हाण्ड में विलीन हो गया है."
सुर संसार की अप्रतिम जोड़ी टूट गयी, दो सुन्दर राजहंसों का जोड़ा बिछड़ गया. पंडित राजन मिश्र नाद ब्रम्ह के स्वामी उस ईश्वर की सेवा में चले गये जिनके लिये वे हमेशा गाते थे. उनके चाहने वालों के जीवन में हर कठिन मोड़ की वेदनाओं से विरक्त होने के क्रम में अगर कभी उनका संगीत होगा तो निश्चित रूप से कहीं न कहीं पार्श्व में राग दरबारी में उनका गाया हुआ "धन्य भाग सेवा का अवसर पाया" प्रतिध्वनित होता रहेगा.
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