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पुस्तक समीक्षा: हरी भरी उम्मीद- पहाड़ी जंगलों से जुड़े आंदोलनों का इतिहास

मिट्टी, पानी और जंगल पृथ्वी में जीवन के आधार हैं. पहाड़ी जीवन में जंगलों की केन्द्रीयता किसी भी और इलाके से ज़्यादा है. जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की वैश्विक महत्ता समझी जाने लगी है. औपनिवेशिक काल में जंगलों में पहला हस्तक्षेप हुआ. बेगार और जंगलात की नीतियों के विरोध ने उत्तराखंड को राष्ट्रीय संग्राम से जोड़ा और इसे जंगल सत्याग्रह नाम दिया गया.

गांधी ने इसे 'रक्तहीन क्रांति' कहा था. आज़ादी के बाद वन्य नीतियां पूर्ववत बनी रहीं. अति दोहन और आपदाओं ने इनके दुष्प्रभावों को बढ़ाया. अंततः यह प्रतिरोध चिपको आन्दोलन के रूप में मुखरित हुआ. चिपको एक आर्थिक और पारिस्थितिक आन्दोलन के रूप में विकसित होता गया. इसकी बहुत-सी उपलब्धियां रहीं, जिनसे यह विश्वविख्यात हुआ. उसने एक और उत्तराखंड की स्थानीय चेतना निर्मित की, दूसरी ओर उसे समस्त विश्व से जोड़ा.

शेखर पाठक हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, समाज और संस्कृति के गहरे जानकार हैं और हिमालय को बचाने समेत कई पर्वतीय आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है. वह हमें बताते हैं कि कैसे, भारत में, आधुनिक पर्यावरण आंदोलन का आरंभ 1973 में एक जमीनी स्तर के संघर्ष, चिपको आंदोलन के द्वारा शुरू किया गया था. चिपको अपने अहिंसात्मक आंदोलन के कारण पूरे विश्व के बुद्धिजीवियों और पर्यावरण से जुड़े आन्दोलनकारिओं का ध्यान आकृर्षित किया था. इस आंदोलन की उत्पत्ति चमोली जिले के मंडल गांव में हुई थी. जब 1973 के वसंत में, चंडी प्रसाद भट्ट से प्रेरित और दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल द्वारा आयोजित, ग्रामीणों ने एक स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी "साइमंड्स" को पेड़ों की कटाई से रोक दिया था. इसके बाद के वर्षों में, उत्तराखंड के अन्य हिस्सों में अनगिनत विरोध प्रदर्शन हुए. यह चिपको आंदोलन इतिहास के पहले और व्यापक महत्व की किताब है.

चिपको आंदोलन देश में पर्यावरण की रक्षा और पेड़ों को कटने से बचाने के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. इस आंदोलन की मुख्य उपलब्धि ये रही कि इसने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को एक सघन मुद्दा बना दिया था. वास्तव में, 1970 की अलकनंदा की बाढ़ ने देश में नयी पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया. बकौल, शेखर पाठक, “यह भी समझने योग्य है कि जंगल सत्याग्रह तथा बेगार आन्दोलन ने इस क्षेत्र को भारतीय स्वतंत्रता सग्राम से जोड़ा तो चिपको ने देश में आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की शुरूआत की. भारत में 1980 का वन संरक्षण अधिनियम और यहां तक कि केंद्र सरकार में पर्यावरण मंत्रालय का गठन भी चिपको की वजह से ही संभव हो पाया.”

लेखक ने पुस्तक में नेतृत्व, संगठन, जन हिस्सेदारी तथा नेता-कार्यकर्ताओं के बहाने चिपको आंदोलन की गहन पड़ताल की है. साथ ही आंदोलन में महिलाओं और युवाओं के योगदान पर भी विस्तार से चर्चा की है.

'चिपको आन्दोलन' का नारा था-

“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार

मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार."

चिपको आंदोलन के दो प्रमुख नेता थे; चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा. भट्ट विशेष रूप से "अलकनंदा" में सक्रिय थे; वहीं गंगा की अन्य शाखा "भागीरथी" में बहुगुणा. इन दो गांधीवादियों ने शुरुआत में इस आंदोलन में एक साथ काम किया था; बाद में अपने रस्ते अलग कर लिए. उनके मध्य आये दरार के कारणों पर उन दिनों प्रेस में अनेक लेख लिखे गए थे. कुछ पत्रकार चंडी प्रसाद भट्ट को वास्तविक नेता मानते थे और कुछ ऐसे थे जो बहुगुणा के प्रतिनिधित्व को वास्तविक मानते थे. इस बहस में उतरने या पक्ष लेने के बजाय, शेखर पाठक ने एक एकनिष्ट विद्वान के रूप में इस विषय पर काम किया. चिपको के प्रत्येक कार्य को बेहतरीन तरीके से संकलित किया, जिसमें भट्ट और बहुगुणा ने साथ मिल कर नेतृत्व किया और भाग लिया था.

चिपको आंदोलन का बड़ा पैना विश्लेषण इस किताब की आत्मा है. जब दूरस्थ हिमालय में ग्रामीणों के प्रतिरोध को इस तरह सामने रखा जाता था कि वे पेड़ के स्थान पर अपने को कटवाने के लिए तैयार थे, तो इसका असर आम लोगों, युवाओं और महिलाओं पर सहज ही था.

भट्ट और बहुगुणा दोनों खुद गांधीवादी थे. जिसके कारण से चिपको को काफी लम्बे समय तक "गांधीवादी" आंदोलन के रूप में देखा जाता था. शेखर की पुस्तक इस विमर्श को पूरी तरह से खारिज करती है, न केवल चिपको को अपने जमीनी संदर्भों में रखकर, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं और छात्र नेताओं द्वारा निभाई गई प्रमुख भूमिका और सक्रिय सहभागिता की बात करके. शेखर हमें यहां तक बताते हैं कि कैसे यह चिपको आंदोलन नेतृत्व और विचारधारा के स्तर पर भी गांधीवादी आंदोलन से आगे का विचार था.

इस पुस्तक की गहराई और कथात्मकता लेखक के उत्तराखंड से सम्बंधित ज्ञान, उसके इतिहास के प्रति आग्रह, संस्कृति के प्रति समर्पण, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बारे उनकी चिन्ताओं से भी है. जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की महत्ता और बढ़ेगी. नगरीकरण से त्रस्त समाज को जंगल ही राहत देंगे और मिट्टी को रोकने का जतन करने वाली जंगलों से अधिक प्रभावी कोई व्यवस्था अभी दुनिया में विकसित नहीं हुई है. सही मायनों में पर्यावरण पर हमारा भविष्य आधारित है.

जिन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, भाग लिया अपना योगदान दिया, शेखर पाठक ने बहुत ही उदारता के साथ इस पुस्तक में उल्लेख किया है. मानवीय उपागमों को ध्यान में रखते हुए, यह किताब उत्तराखंड के समृद्ध सांस्कृतिक विविधताओं और पर्यावरणीय चेतनाओं की ऐतिहासिक परिदृश्य को जीवंतता के साथ वर्णन करती है. शेखर की पुस्तक उन सभी विरोधों के बारे में बारीकी से बताती है, जिन्हें हम समान्यतया याद भी नहीं करते हैं.

शेखर पाठक ने हमेशा उद्योग से जुड़ी संकट के प्रति राज्य की उदासीनता के बारे में बात करते रहे हैं. जंगलों और वनों की रक्षा के लिए चलने वाले कई आंदोलनों से लेखक का सक्रिय संबंध रहा है. आज़ाद भारत से पहले और आज़ादी बाद गठित सरकारों के द्वारा पहाड़ी जन-जीवन के साथ जो रवैया अपनाया, उसमें लेखक को कोई ख़ास अंतर नहीं दिखाई दिया. पुस्तक में भी वह उत्तराखण्ड के ग्रामीण अंचल और स्थानीय निवासियों द्वारा सामना की जाने वाली ऐसी तमाम कठिनाइयों पर विस्तार से चर्चा करते हैं. स्थानीय लोगबाग जिनकी आजीविका और घर उन क्षेत्रों में हैं जहां जंगलों की कटाई, औद्योगिक कारणों से नदियों की दुर्दशा और सड़कों के लिए पहाड़ों को काटने की काम निरंतर जारी है. वास्तव में ये सरकारें हिमालय और गंगा को चुनावों में तो भुनाती रही हैं लेकिन असल में उनके प्रति बहुत ही निष्ठुर हैं. लेखक शेखर पाठक ने एक सदी से भी लम्बे इन संघर्षों के इतिहास को इस पुस्तक में सफलता के साथ संजोया है.

शेखर पाठक लिखते हैं कि पिछले 200 साल की जंगलात व्यवस्था और आंदोलनों का इतिहास बताता है कि, जंगलों की केन्द्रीयता हमारे जीवन में बनी रहेगी. ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के विकसित हो जाने पर भी जंगलों की व्यापक पारिस्थितिक भूमिका रहेगी. इस पहाड़ी जन-जीवन और वहां के जंगलों और संस्कृति के अस्तित्व की लड़ाई में जन्में अनेक आन्दोलनों और वन्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं की सुरक्षा को समर्पित "हरी भरी उम्मीद" पहाड़ बचाओ संघर्षों का सम्पूर्ण इतिहास है. आप इस कृति को पढ़ते हुए विचारों के समन्दर में डूबते हैं और आप पढ़ते हुए बार-बार भावनात्मक होते हैं.

इस पुस्तक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण विवरण "रैणी" पर है, जो ऊपरी अलकनंदा घाटी में एक भोटिया जनजातिओं का गांव है. यह वही जगह है, जहां महिलाओं, और अन्य ग्रामीणों ने गौरा देवी के नेतृत्व में पहली बार चिपको आंदोलन में भाग लिया था, जब उन्होंने मार्च 1974 के अंतिम सप्ताह में लकड़हाराओं द्वारा जंगल की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया था. 1972 में गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनी. नवम्बर 1973 और उसके बाद गोबिन्द सिंह रावत, चण्डी प्रसाद भट्ट, वासवानंद नौटियाल, हयात सिंह तथा कई छात्र उस क्षेत्र में आए. आस पास के गांवो तथा "रैणी" में सभाएं हुईं. जनवरी 1974 में "रैणी" के जंगल के पेड़ों की बोली लगने वाली थी. नीलामी देहरादून में थी. वहां चण्डी प्रसाद भट्ट ठेकेदार को अपनी बात कह कर आए कि उसे आंदोलन का सामना करना पड़ेगा. इसके बाद 26 मार्च को उन्होंने महिलाओं को लेकर चिपको आंदोलन की शरुआत की. शेखर पाठक ने इस गांव की अपनी अनगिनत यात्राओं के आधार पर इसके बारे में विस्तार से लिखा है.

शेखर पाठक तीन दशकों तक कुमाऊं विश्वविद्यालय में शिक्षण; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फ़ेलो रहे प्रो. शेखर पाठक हिमालयी इतिहास, संस्कृति, सामाजिक आन्दोलनों, स्वतन्त्रता संग्राम तथा अन्वेषण के इतिहास पर यादगार अध्ययनों और योगदान के लिए जाने जाते हैं. "कुली बेगार" प्रथा, पण्डित नैनसिंह रावत, जंगलात के आन्दोलनों आदि पर इनकी किताबें विशेष चर्चित रही हैं. शेखर पाठक उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने पांच अस्कोट आराकोट अभियानों सहित भारतीय हिमालय के सभी प्रान्तों, नेपाल, भूटान तथा तिब्बत के अन्तर्वर्ती क्षेत्रों की दर्जनों अध्ययन यात्राएं की हैं. हर दशक में एक बार, 1974, 1984, 1994 और 2004 में, उन्होंने, असकोट-आराकोट से एक पदयात्रा की.

प्रगति की दौड़ में आज का मानव इतना मतलबी हो गया है कि, वह अपनी सुख सुविधाओं के लिए कुछ भी करने को तैयार है. विज्ञान के क्षेत्र में असीमित प्रगति तथा नये आविष्कारों की स्पर्धा के कारण आज का मानव प्रकृति पर पूर्णतया विजय प्राप्त करना चाहता है. वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण मानव पर्यावरण से संबंधित विमर्श को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है. धरती पर जनसंख्या की निरंतर वृद्धि, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति प्रकृति के हरे भरे क्षेत्रों को समाप्त करता जा रहा है. परिणामस्वरूप पर्यावरण का संतुलन तेजी से बिगड़ता जा रहा है.

पर्यावरणविद शेखर पाठक का कहना है कि जल, जंगल, जमीन जैसे आधार संसाधन ही हिमालयी राज्यों का उद्धार व हिफाजत कर सकते हैं. वह लिखते हैं कि प्राकृतिक सौंदर्य, शिखर, झरने, वनस्पति, नदी, ग्लेशियर, जंगल, जीव-जंतु आदि प्राकृतिक घटक हिमालयी राज्यों की मुख्य परिसंपत्तियां है. वन व सांस्कृतिक विविधता हिमालय का मुख्य आधार है.

‘हरी भरी उम्मीद’ 20वीं सदी के विविध जंगलात आन्दोलनों के साथ चिपको आन्दोलन का पहला गहरा और विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत करती है. यह अध्ययन समाज विज्ञान और इतिहास अध्ययन की सर्वथा नयी पद्धति का आविष्कार भी है. 14 अध्यायों और 600 पृष्ठों की यह पुस्तक वन्य प्रेमियों तथा पर्यावरण के प्रति जागरुकता का विशाल तथा महत्वपूर्ण साधन है. इसे पढ़ने से छोटे-बड़े तमाम ऐसे आंदोलनों का पता चलता है जिन्होंने पहाड़ और वन सुरक्षा में अहम योगदान दिया.

पुस्तक समीक्षा: हरी भरी उम्मीद: पहाड़ी जंगलों से जुड़े आंदोलनों का इतिहास

लेखक: शेखर पाठक

प्रकाशक: वाणी प्रकाशन

भाषा: हिंदी

मूल्य: 995 रुपए

(समीक्षक, आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं.)

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