Pakshakarita
'पक्ष'कारिता: बंगाली ‘’भद्रलोक’’ का कान लेकर दिल्ली उड़ गए कौवा पत्रकार
पिछले पखवाड़े इस स्तम्भ में मैंने बंगाल में हिंदीकरण की ‘उलटबांसी’ पर बात की थी. आगे बढ़ने से पहले एक बार फिर से इस बात को संक्षेप में समझा जाना ज़रूरी है कि हमारे हिंदी के अखबार और विद्वान बार-बार भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के बरअक्स बंगाल के जिस राष्ट्रवाद (या उपराष्ट्रीयता) को खड़ा कर के देख रहे हैं, वह तस्वीर दरअसल सिर के बल खड़ी है और उसे कायदे से सीधा करने की ज़रूरत है.
ताजा उदाहरण बीबीसी पर रजनीश कुमार की एक स्टोरी है जिसमें वे बंगाल में बीजेपी और हिदुत्व के उभार की कहानी बताते हुए दो बड़ी गलतियां करते हैं: पहली, वे हिंदुत्व का जनक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बताते हैं जो तथ्यात्मक रूप से गलत है क्योंकि हिंदुत्व का सबसे पहला शाब्दिक और पारिभाषिक प्रयोग चंद्र नाथ बसु ने किया था (इस पर विस्तार से एक कहानी जनपथ पर पढ़ी जा सकती है). दूसरी बड़ी गलती या भूल ये है कि बंगाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि का बखान करते हुए उसके सांस्कृतिक आयाम को लेखक पूरी तरह से भूल जाते हैं जबकि भाजपा-आरएसएस का ‘हिंदू’ और ‘हिंदुस्तान’ अनिवार्यत: ‘हिंदी’ से जुड़ा हुआ है और बंगाल की संस्कृति पर कोई भी बात हिंदी भाषा में उसके अवदान के बगैर अधूरी रह जाएगी.
पिछले एक पखवाड़े से पश्चिम बंगाल में घूमते हुए ये सवाल मुझे बार-बार परेशान करता रहा है कि बाहर से यहां चुनाव कवर करने आए पत्रकार आखिर बंगाल को सीधा-सीधा समझ क्यों नहीं पा रहे हैं? वे भाजपा की जीत की संभावना को ‘हिंदुत्व’ की जीत कैसे बता दे रहे हैं? वे बंगाली समाज में हिंदीभाषियों को बाइनरी के तौर पर क्यों देख रहे हैं? बार-बार बंगाली अस्मिता की बात उठा रहे अखबार और पत्रकार ये क्यों नहीं समझ पा रहे कि यह अस्मिता हिंदी अस्मिता के दूसरे ध्रुव पर खड़ी नहीं है? दोनों उस अर्थ में विरोधी नहीं हैं जैसी द्रविड़ अस्मिता और हिंदी.
चुनावी पर्यटन की समस्याएं
यहां दो बातें मोटे तौर पर समझ आती हैं. पहली यह कि हिंदी क्षेत्र के पत्रकारों को भाषायी अड़चन के कारण सामाजिक-सांस्कृतिक परतों में छुपी बहुत सी बातें न तो समझ में आ पा रही हैं, न ही वे उसकी तह में जाने में कोई दिलचस्पी ले रहे हैं. दिलचस्पी न होने की एक वजह तो यही है कि हिंदी का पाठक सीधे तौर पर यह जानना चाहता है कि चुनाव में कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है. दर्शकों के सिर पर अपने आलस्य का ठीकरा फोड़ने वाले पत्रकार सांस्कृतिक आयामों की कवरेज पर सीधे कहते हैं कि लोग ये सब नहीं देखते.
मसलन, एक पुराने समाजवादी बुद्धिजीवी से जब मिलने की बात हुई, तो एक टीवी पत्रकार ने कह दिया- मेरा इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं है. उनका इंटरेस्ट हिंदू-मुस्लिम, पांच रुपये के भोजन और मोदी विरोध में था. जाहिर है, फिर खबरों की गहराई की कल्पना स्वत: की जा सकती है.
दूसरी वजह पत्रकारों का अनपढ़ होना है. यह बात मैं पूरे जोखिम और ईमानदारी से कह रहा हूं कि हिंदी का एक औसत पत्रकार सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में ही नहीं, राजनीतिक मामलों में भी पर्याप्त अनपढ़ है. वह ‘जनता’ को एक होमोजेनस यानी एकाश्म दृष्टि से देखता है. वह कान लेकर उड़ जाने वाला कौवा है जो खाने के बीच मुंह में हड्डी आ जाने से बचता है, केवल कबाब में दिलचस्पी रखता है.
इसका एक उदाहरण कलकत्ता के बस स्टैंडों पर लगी स्वामी विवेकानंद और ममता बनर्जी की फोटो से समझा जा सकता है. एक सहज सामान्य जिज्ञासा उपजनी चाहिए थी कि आखिर जिस स्वामी विवेकानंद को भाजपा अपना आइकॉन मानती है, उन्हीं को अपना आइकॉन बनाने की ममता को ज़रूरत क्या थी, जबकि बंगाल का भद्रलोक विवेकानंद को पुनरुत्थानवादी मानता है? क्या ममता को बांग्ला राष्ट्रीयता के आइकॉन के तौर पर कोई और नहीं मिला? यह सवाल किसी ने नहीं पूछा.
दूसरी ओर बंगाल के पत्रकार, जो चीज़ों को गहराई से समझते हैं उन्हें सामान्य रिपोर्टिंग करने से रोका जा रहा है. यह बात बाहर नहीं आ पा रही है. जीतेंद्र जीतांशु कलकत्ता के पुराने पत्रकार हैं और हिंदी साहित्य में वर्षों से सक्रिय हैं. वे बताते हैं, "चुनाव कवरेज का पास होने के बावजूद उन्हें जादवपुर और टालीगंज के बूथों पर कवरेज करने से रोका गया. वहां तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया, बावजूद इसके कि उनके पास चुनाव आयोग से बाकायदे मंजूरी का एक पत्र था."
यह दुतरफा संकट है. बाहर के पत्रकारों के पास बंगाल के समाज में प्रवेश करने की न इच्छाशक्ति है, न भाषायी सुविधा. स्थानीय पत्रकारों के पास चुनावी तंत्र में प्रवेश करने की दिक्कत है. दोनों के बीच कोई संपर्क सेतु नहीं है कि वे एक-दूसरे को अपनी समझदारी से सिंचित कर पाएं और एक समग्र तस्वीर उभर कर सामने आए. इस वजह से जो भी रिपोर्टिंग हो रही है, खंडित और अधूरी है.
बंगाल और हिंदी: संदर्भ राजा राममोहन राय
हिंदी के पत्रकारों को अनपढ़ कहने में मेरी एक निजी स्वीकारोक्ति भी है. प्रसिद्ध सिने आलोचक और बुद्धिजीवी बिद्यार्थी चटर्जी के साथ चार घंटे लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने जब यह सवाल दागा कि हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता का जनक कौन है, तो मैं हतप्रभ रह गया. प्रेमचंद? भारतेंदु? गणेश शंकर विद्यार्थी? अपने सीमित ज्ञान में मेरे मुंह से यही जवाब निकले. उनका जीवट देखिए, वे भाग कर अपने घर गए और एक किताब ले आए.
पुस्तक में संकलित नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के दादा क्षितिमोहन सेन के एक लेख से उन्होंने कुछ अंश पढ़ कर सुनाए, तो वास्तव में अपने ज्ञान पर शक हुआ और यह महसूस हुआ कि बंगाल को हम कितना कम जानते हैं. पुस्तक का नाम है ‘’राममोहन चर्चा’’ और इसके संपादक और संकलनकर्ता हैं गौतम नियोगी. पुस्तक बांग्ला में है.
क्षितिमोहन सेन लिखते हैं कि वर्तमान युग में हिंदी भाषा और साहित्य के चार आदितम जनक हैं: राजा राममोहन राय, सदल मिश्र, लज्जूजी लाल और इंशाअल्ला खां. पुस्तक के अनुसार इन चारों में अकेले सदल मिश्र हिंदुस्तानी थे. राजा राममोहन राय बंगाली ब्राह्मण थे, इंशाअल्ला खां बंगाली मुसलमान थे और लज्जूजी लाल आगरावासी गुजराती थे.
बिद्याथी दादा कहते हैं कि भाजपा जो हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान करती रहती है, उसे पता होना चाहिए कि हिंदी के चार जनक में तीन अहिंदीभाषी थे और इनमें भी एक बंगाल का मुसलमान था. वे किताब पढ़ते हुए बताते हैं कि राजा राममोहन राय के हिंदी में लिखे साहित्य को काफी बाद में हिंदी के आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी में अनुवाद और प्रकाशित किया. वे कहते हैं कि राजा राममोहन राय का हिंदी लेखन खो चुका था. द्विवेदी जी ने उसे खोज-खोज कर छपवाया.
स्वामी विवेकानंद से बहुत पहले राजा राममोहन राय ने हिंदी और बंगाली में वेदांत की व्याख्या की थी. इसके अलावा एक बड़ा फर्क यह रहा कि स्वामी विवेकानंद के वेदांत में ‘’रिवाइवलिज्म’’ का पुट था, उनकी व्याख्या ‘’पुनरुत्थानवादी’’ थी जबकि राजा राममोहन राय की दृष्टि वैश्विक और प्रगतिशील थी. यही वजह है कि भाजपा और आरएसएस ने बंगाल से विवेकानंद को चुना, लेकिन राजा राममोहन राय की उपेक्षा कर दी.
पुस्तक के अंश पढते हुए वे उसका तर्जुमा करते हुए बताते हैं कि राजा राममोहन राय एक सार्वभौमिक शख्स थे, उन्होंने कभी बंगाल के सीमित संदर्भ में नहीं सोचा. हिंदी को राष्ट्रीय भाषा होना चाहिए, यह बात प्रेमचंद या गांधी ने सबसे पहले नहीं कही. राजा राममोहन राय लिखते हैं कि मैंने जब भारत की यात्रा की, तो मैंने पाया कि ज्यादातर हिस्सों में लोग या तो हिंदी बोलते हैं या लिखते हैं या पढ़ते हैं और ज्यादातर बंगाली भी हिंदी को समझते हैं.
यहां हिंदी का राजा राममोहन राय द्वारा अंगीकरण मोदी-शाह के हिंदी से बिलकुल अलहदा है. राजा राममोहन राय एक बौद्धिक की तरह इस बात को कह रहे हैं जबकि मोदी-शाह जब हिंदी की बात करते हैं तो वे लोगों को विभाजित करने की मंशा रखते हैं. ये केवल ‘’हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान’’ (हिंदुओं के निवास स्थान) के संदर्भ में सोचते हैं, जबकि राजा राममोहन राय अखिल भारतीय संदर्भ में इस बात को कह रहे थे.
सवाल स्वाभाविक है कि बंगाल पर बात करते हुए हम में से कितने लोगों ने राजा राममोहन राय के अवदान को याद किया और हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने की उनकी मूल स्थापना को भाजपा-आरएसएस के हिंदी आग्रह के बरअक्स रख के देखा. इस फर्क को समझे बगैर हम कुछ बातें कभी नहीं समझ पाएंगे. मसलन, भाजपा अगर बंगाल में राज करने आ भी जाए तो राजा राममोहन राय का प्रेत उसका पीछा नहीं छोड़ने वाला, जो न सिर्फ यहां के बांग्ला राष्ट्रवाद बल्कि हिंदी राष्ट्रीयता की नींव है- उसी हिंदी राष्ट्रीयता की, जिसके बल पर संघ ने अपना हिंदू राष्ट्रवाद खड़ा किया है.
‘’अन्यता’’ की अज्ञानता
एकबारगी दिल्ली के पत्रकारों को छोड़ दीजिए, तो यह सवाल बंगाल के उन तमाम हिंदीभाषी पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए जो हिंदीभाषियों की बंगालियों द्वारा सांस्कृतिक उपेक्षा का राग अलापते हुए आजकल भाजपा के पक्ष में जोर लगा रहे हैं. जनसत्ता कलकत्ता के एक पुराने पत्रकार परमानंद सिंह से उनके घर पर बात हो रही थी. वे रिसड़ा में रहते हैं, जहां देश की पहली जूट मिल अंग्रेजों ने स्थापित की थी. वे दुखी होकर बता रहे थे कि बुद्धदेब भट्टाचार्य से उनके अच्छे सम्बंध हुआ करते थे, लेकिन जब भी वे मिलते बुद्धदेब बंगाल के लोगों के लिए कहते- आमादेर लोग (हमारे लोग). इससे उन्हें ‘’अन्य’’ होने का जो अहसास होता, वह अपमानजनक था.
बंगाल में रहने वाले लाखों हिंदीभाषी इस ‘’अन्यता’’ के भाव का ‘प्रतिशोध’ लेने के लिए न केवल भाजपा के लिए जोर लगा रहे हैं, बल्कि तृणमूल के जीतने की स्थिति में भी दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं. इसीलिए चांपदानी विधासभा सीट, जिसमें रिसड़ा आता है, वहां के लोगों ने दोनों पक्षों से पुरबिया ठाकुरों को खड़ा कर दिया है. चित भी मेरी, पट भी मेरी. ये है बंगाल के कुंठित हिंदीभाषियों की असल राजनीति.
ये लोग शायद नहीं जानते उनकी हिंदी भाषा को राष्ट्रीय बनाने की बात और किसी ने नहीं, दो बंगालियों ने की थी जिसमें एक मुसलमान इंशाअल्ला खां थे. वे बगैर इस बात को जाने मोदी नाम का जाप कर रहे हैं कि हिंदुत्व के जनक चंद्र नाथ सेन कलकत्ता से साठ किलोमीटर दूर पैदा हुए. या हो सकता है वे जानते भी हों, क्योंकि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें कालीन के नीचे बुहार देने में ही ‘भलाई’ समझी जाती है. ऐसी ही एक बात जिसे कोई बंगाली या बंगाल में रहने वाला हिंदीभाषी कभी नहीं कहता, वह चैतन्य महाप्रभु के रहस्यमय तरीके से गायब हो जाने का अध्याय है.
जिस वक्त दिल्ली के पत्रकारों के लिए बंगाल का ‘’भद्रलोक’’ एक रहस्य बना हुआ है और लगातार तमाम रिपोर्टों में इस बात को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि बंगाली ‘’भद्रलोक’’ भाजपा का विरोधी है और उसके सत्ता में आने की आशंका से दुखी है, बाउल के महान कलाकार मंसूर फकीर आंख खोलने का काम करते हैं. मंसूर फकीर पूछते हैं, ‘’चैतन्य को किसने मारा? जब वे हिंदुओं और मुस्लिमों को कृष्ण भक्ति में एकजुट कर रहे थे, वे ब्राह्मण ही तो थे जिनके हाथ में चाबुक था. जिन्होंने मार कर महाप्रभु को फेंक दिया?”
नदिया जिले के एक छोटे से गांव में अपना आश्रम बनाकर रहने वाले मंसूर फकीर के दादा महान लालन शाह फ़कीर के शागिर्द थे. मंसूर के पिता अज़हर फ़कीर मालदा के गौड़भंगा से लालन की शिक्षाएं लेकर नदिया आए और यहां एक और गौड़भंगा बसाये. चैतन्य महाप्रभु की रहस्यमय मौत पर बोलने का साहस करने वाले मंसूर फ़कीर से बात करने पर लगता है कि बंगाल के ‘’भद्रलोक’’ को हम जिस चश्मे से देखते रहे हैं, वो बुनियादी रूप से गड़बड़ है.
‘’बाइनरी’’ की पत्रकारिता
राजा राममोहन राय का हिंदी को अवदान हो या चैतन्य महाप्रभु का प्रसंग, इस तरह की तमाम बातें उस फर्जी द्विभाजन की धुंध को साफ करने में मददगार होंगी जिसमें हमारा मीडिया और पत्रकार फंसे पड़े हैं. हर चीज को दो विरोधी तत्वों में बांटकर देखने का नजरिया मौजूदा दौर की पत्रकारिता में धुरी बन चुका है. यही समग्र नजरिये को विकसित होने से रोकता है. अगर हमारे पत्रकार थोड़ा कायदे से घूम-फिर लेते, पढ़-लिख लेते, तो वे हिंदी बनाम बंगाली, हिंदू राष्ट्रवाद बनाम बांग्ला राष्ट्रवाद, हिंदुत्व बनाम भद्रलोक की बाइनरी खड़ी नहीं करते, चीजों को समग्रता में रिपोर्ट करते.
बात केवल इतनी नहीं है. बंगाल में भाजपा की सरकार कल आती है या नहीं, इससे बहुत सी चीजें अछूती और बेअसर भी रह जाएंगी, जिन पर पत्रकारों का ध्यान नहीं है. आम तौर से बाउल फ़कीर सियासत पर बात नहीं करते, लेकिन मंसूर फ़कीर के शागिर्द बाबू फ़कीर संक्षेप में जो बात कहते हैं वह बंगाली समाज के एक अनछुए पहलू को उजागर करता है: ‘’कोई भी आए, सब अपना है. हां, गाना हम अपना ही गाएगा, दूसरे का नहीं.‘’
इसी बात को बिद्यार्थी दादा कुछ अलग तरीके से कहते हैं, ‘’बहुत मजा आएगा, एक बार भाजपा को आने दो. उसको पता नहीं है वो कहां फंस रहा है. बंगाली भद्रलोक देखने को बोका लगता है, लेकिन उतना है नहीं. जहां अपना फायदा दिखता है, वो बोका बना रहता है. ये बंगाल है. भाजपा आ तो जाएगा, लेकिन टिकेगा कैसे?”
अब भी एक पखवाड़ा बाकी है चुनाव खत्म होने में. क्या सुधी पत्रकार इस पर कुछ लिखेंगे कि बंगाल में भाजपा अगर सत्ता में आती है तो उसकी चुनौतियां क्या होंगी? या वे वाकई ये मानकर चल रहे हैं कि बंगाली बोका होता है और बंगाल में भाजपा वैसे ही राज करेगी जैसे बाकी देश में कर रही है? ताली-थाली बजवाकर?
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