Opinion

महान वकील डॉ. आंबेडकर, जिन्हें सिर्फ आरक्षण दाता के रूप में पेश किया गया

कुछ घटनाएं, कुछ चीजें, कुछ पल या कुछ यादें किसी खास इंसान से इस तरह जुड़ जाती हैं कि उनकी एकमात्र पहचान बनकर रह जाती है या बना दी जाती हैं.

उदाहरण तो कई मिल जाएगें लेकिन मौजूदा समय में इसके सबसे सशक्त उदाहरण महान कथाकार शआदत हसन मंटो हैं. जिन्होंने लगभग सभी विधाओं पर लिखा, उनका लिखा संस्मरण व व्यक्ति चित्र तो अद्भुत है, लेकिन इस मुल्क में उनकी पहचान भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर लिखने वाले सबसे बड़े रचनाकार के रूप में हुई. लगभग ऐसा ही कुछ डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के साथ हुआ जिनकी समान्यतया आम लोगों में सिर्फ दो रूप में पहचान बना दी गई हैः एक तो भारत के संविधान निर्माता के रूप में जहां उन्हें ड्राफ्टिंग कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया था और दूसरा एससी/एसटी के लिए आरक्षण लागू करवाने वाले योद्धा के रूप में (सवर्णों की नजर में तो इसी के चलते सबसे बड़े खलनायक भी माने जाते हैं (बाद में उसी आधार पर पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिला). लेकिन बहुत ऐसे मामले हैं जिसमें बड़े-बड़े योगदान के लिए अंबेडकर को जान-बूझकर नजरअंदाज कर दिया गया. हां, आंबेडकर के बारे में पढ़ते, लिखते व बोलते समय समान्यतया हम इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि वे 20वीं सदी के दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनेता थे.

ऐसा भी नहीं है कि आंबेडकर की वकालत के पक्ष को ही जानबूझकर नजरअंदाज किया गया है, हकीकत तो यह है कि उनके बहुत से पक्षों का ओझल कर दिया गया है. इसके पीछे भी भारतीय समाज की जातिवादी सोच है. हम जानते हैं कि जातीय पायदान पर आंबेडकर सबसे नीचे आते थे/हैं और इतिहास लिखने वाले से इतिहास गढ़ने वाले तक समाज के सबसे ऊपरी पायदान पर बैठे लोग रहे हैं. फलस्वरूप उनके योगदान को या तो नजरअंदाज कर दिया गया या फिर उनके खिलाफ पेश किया गया. यह काम देश के बुद्धिजीवियों ने ही नहीं किया है बल्कि अधिकांश सरकारों ने उनके साथ इसी तरह की नाइंसाफी की है. वैसे इतिहासकार रोडित डे ने अपने लेख ‘लायरिंग एज पॉलिटिक्सः द लीगल प्रैक्टिस ऑफ डॉक्टर आंबेडकर, बार एट लॉ’ में वकील आंबेडकर के बारे में विस्तार से लिखा है. रोहित डे ने इसके लिए अखबारों में छपी खबरों की सहायता से उन मुकदमों के बारे में जानने की कोशिश की है. साथ ही, उन्होंने यह भी बताया है कि कुछ महत्वपूर्ण मुकदमों में बहस किस तरह से हुई!

डॉक्टर आंबेडकर ने इंग्लैंड में 1916 में ही लॉ में नामांकन ले लिया था लेकिन उनकी वकालत का कोर्स तब तक पूरा नहीं हुआ था क्योंकि बड़ौदा महाराज से मिले वजीफे की मियाद पूरी हो गयी थी, भारत लौटने के बाद आंबेडकर को सिडेनहम कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी भी मिल गई. चूंकि उनका मन अभी भी वकालत में लगा हुआ था इसलिए वहां उन्होंने नौकरी के अलावा निजी रूप से पढ़ाना शुरू किया जिससे कि पैसा बचाकर अपनी अधूरी पड़ी डिग्री को पूरा कर सकें. आंबेडकर फिर से इंग्लैंड पहुंचे और 1923 में लॉ की डिग्री लेकर भारत लौटे. उन्होंने किसी कॉलेज-विश्वविद्यालय में पढ़ाने की बजाय अपने दोस्त से उधार लेकर वकालत करने का फैसला किया. उसी साल उन्हें डिस्ट्रिक्ट जज बनने का ऑफर मिला जिसमें उनसे यह भी कहा गया था कि अगले तीन वर्षों में उन्हें बंबई हाई कोर्ट में जज बना दिया जाएगा. कुछ दिनों के बाद हैदराबाद के निजाम ने उन्हें हैदराबाद के मुख्य न्यायधीश बनने का ऑफर भी दिया लेकिन आंबेडकर ने इन सभी प्रस्तावों को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यह उनके निजी स्वतंत्रता को खत्म कर देगा.

हम इस बात से भी आंबेडकर की प्रतिबद्धता का आकलन कर सकते हैं कि वह व्यक्ति झुग्गी में रह रहा है, लेकिन जिला जज की नौकरी करने से मना कर देता है. और हां, उन्होंने कॉरपोरेट घरानों की वकालत करने को प्राथमिकता नहीं दी बल्कि मजदूरों के (लेबर) एडवोकेट के रूप में काम करना शुरू किया. एक वकील के रूप में उन्होंने मूलतः चार तरह के मामलों को प्राथमिकता दी, पहला-राजनीतिक, दूसरा- समुदायों के बीच के आंतरिक मामले, तीसरा- मजदूरों-गरीबों से जुड़े हुए मामले और चौथा- संविधान के मूल भावना से जुड़े मामले. लेकिन ऐसा नहीं है कि इसके अलावा वह और मामलों में वकालत नहीं करते थे, जैसा कि उन्होंने 1953 में राज्य सभा में कहा भी था, ‘हम वकीलों को तरह-तरह के मामलों में बचाव करना पड़ता है’ लेकिन उनकी प्राथमिकता में उपर्युक्त मामले सबसे उपर थे.

स्वतंत्रता आंदोलन से पहले के कांग्रेस नेतृत्व को देखने से पता चलता है कि उसके अधिकांश बड़े नेता वकालत के पेशा से जुड़े हुए थे और उनकी पृष्ठभूमि, खासकर आर्थिक काफी सुदृढ़ थी. वर्तमान समय की तरह ही उस समय भी वकालत में या तो अकूत कमाई होती थी या फिर लंबे समय तक संधर्ष करते रहना पड़ता था. मोतीलाल नेहरू, मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्ना, दादाभाई नौरोजी, बदरूद्दीन तैयबजी, फिरोजशाह मेहता, एन जी चन्द्रावरकर, चित्तरंजन दास, सैय्यद हसन इमाम, मियां मोहम्मद शफी जैसे लोग उस समय के बड़े वकीलों में शुमार किए जाते थे. गांधी और जिन्ना दोनों बनिक समाज से आते थे और दोनों के परिवार वालों ने अपने पैसे से इंग्लैंड भेजकर बैरिस्टर बनाया था. जब आंबेडकर इस पेशे से जुड़ रहे थे तो उन्हें पता था कि यह पेशा उन लोगों के लिए मुफीद है जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है.

रोहित डे ने लिखा है कि आंबेडकर अपने प्रतिकुल परिस्थिति के बारे में जानता थे कि उनके पास सोशल कैपिटल नहीं है, वह बड़े-बड़े सोलिसिटरों को नहीं जातने हैं, जिनका झुकाव गोरों के प्रति स्वाभाविक रूप से होता है, फिर भी उन्होंने इस पेशे को चुनाव किया. इतना ही नहीं, इस पेशे में भी आंबेडकर के साथ भेदभाव हुआ और उन्हें काम की तलाश में मुफस्सिल कोर्ट की तरफ भी जाने के लिए बाध्य होना पड़ता था. पारिवारिक पृष्ठभूमि का वकालत में क्या मायने होता है इसका अनुमान सिर्फ इससे लगाया जा सकता है कि जिस दिन मोहम्मद अली जिन्ना 2 लाख 57 हजार रुपए के दिवालियापन का मुकदमा लड़ रहे थे उसी दिन आंबेडकर उसी कोर्ट में एक सेवानिवृत मुसलमान शिक्षक का अविश्वास तोड़ने का 24 रुपए का मुकदमा लड़ रहे थे, जिसमें उन्हें जीत मिली थी.

आंबेडकर की प्राथमिकता में मौलिक अधिकारों की रक्षा भी उतना ही महत्वपूर्ण थी. इस तरह का सबसे महत्वपूर्ण मामला फिलिप स्प्राट का था जो इंगलैंड के मूल निवासी थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे. उन्होंने ‘इंडिया और चाइना’ नाम से एक पर्चा लिखा था जिसके चलते उसे ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिया. कोर्ट में वह बरी हुए. इसी तरह मशहूर ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट लीडर बीटी रणदिवे के राजद्रोह के मामले में डॉ. आंबेडकर ही वकालत कर रहे थे जिसमें रणविदे को भी बरी किया गया. ट्रेड यूनियन से जुड़े अनेकों मामले में, जिसमें देश के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता वीबी कार्णिक, मणिबेन कारा, अब्दुल मजीद, रणविदे जैसे लोग शामिल थे, का सफलतापूर्वक बचाव किया था. डॉक्टर आंबेडकर इस बात को बखूबी जानते थे कि समाज के सबसे गरीब तबकों का ही इंसान होने के अधिकारों का सबसे अधिक उल्लंधन होता है, इसलिए ह्यूमन राइट डिफेंडर के रूप में उन्होंने तरह-तरह के मुकदमों में वकालत की.

आंबेडकर की प्रतिभा जो भी रही हो, इसके बावजूद जातीय प्रताड़ना को सबसे अधिक उन्होंने ही झेला. चूंकि वे मानव अधिकार व मानवीय गरिमा से वाकिफ थे, इसलिए इसका प्रतिरोध भी सबसे अधिक उन्होंने ही किया. वह अभिव्यक्ति की आजादी (फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन) के बारे में भी जानते थे और यह भी जानते थे किन लोगों व जगहों पर इसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है, इसलिए उन्होंने इसके पक्ष में खड़ा रहने/होने को प्राथमिकता दी. इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण मराठी में लिखी एक पुस्तक के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराना था.

वर्ष 1926 में प्रकाशित पुस्तक ‘देश्चे दुश्मन’ (देश का दुश्मन) के लेखक केशव जेधे के खिलाफ ब्राह्मण वकील ने मुकदमा दायर कर दिया. केशव जेधे दलित थे और उन्होंने अपनी किताब में बाल गंगाधर तिलक और चिपलुनकर को ‘देश का दुश्मन’ और ‘गहदे की औलाद’ कहकर संबोधित किया था. मामला तुल पकड़ने से पहले ही किताब को प्रतिबंधित कर दिया लेकिन जब मामला कोर्ट में आया तो आंबेडकर ने दलील दी कि चूंकि जिन दो लोगों के बारे में किताब में जिक्र है, अब जिंदा नहीं हैं और जिसने यह मुकदमा दर्ज किया है, वह उनके निकट के संबंधी नहीं हैं, इसलिए उसके पास कोई अधिकार नहीं है कि वह मुकदमा दर्ज कराए. आंबेडकर ने अपनी वाकपटुता में यहां तक कह दिया कि चूंकि यह किताब किसी खास ब्राह्मण के खिलाफ नहीं बल्कि पूरे समुदाय के खिलाफ लिखा गया है, और वकील चूंकि पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता है इसलिए इस मुकदमे का कोई तुक नहीं बनता है! इस पर न्यायालय ने माना कि इस तरह लिखना ‘गलत व्यवहार’ की श्रेणी में तो आता है लेकिन अवैध नहीं है या उस पर नजर रखना उनका अपना अधिकार है.

यह तो तय है कि आंबेडकर वकालत में जो सोचकर आए थे वह पूरी तरह नहीं कर पाए क्योंकि जातीय, सामाजिक और आर्थिक दुराग्रह उनके खिलाफ था, लेकिन अगर आंबेडकर उस समय वकालत में नहीं आए होते या किसी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे होते तो भारतीय संविधान का वही स्वरूप नहीं होता जो आज दिख रहा है, क्योंकि उन्हें संविधान लिखने वाली कमिटी का अध्यक्ष भी इसलिए बनाया गया था क्योंकि वह पेशेवर वकील भी थे, न कि सिर्फ राजनेता!

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