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क्या है गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन की मौजूदा स्थिति?
रविवार दोपहर सैकड़ों की संख्या में केरल से किसान गाजीपुर बॉर्डर पहुंचे हुए थे. ये किसान अपनी परेशानी साझा कर रहे थे. केरल से आए किसानों की तरफ इशारा करते हुए 22 वर्षीय प्रशांत चौधरी कहते हैं, ‘‘आपको लग रहा है कि यहां भीड़ कम हुई है. केरल से भी लोग यहां आने लगे हैं. गर्मीं बढ़ रही तो हम अपने टेंट को ऊंचा करने के लिए खोलते हैं तो कुछ नेशनल मीडिया वाले फोटो खींचकर दिखाते हैं कि गाजीपुर से किसान जाने लगे हैं. जब स्टेज पर कोई बोल रहा होता है तो जिन टेंटों से लोग स्टेज के पास आकर बैठे होते हैं उन टेंटों की तस्वीरें खींचकर नेशनल मीडिया वाले कहने लगते हैं कि गाजीपुर में टेंट खाली पड़ा हुआ है. यहां हर रोज लोग आते हैं और जाते हैं. आंदोलन तो तब तक चलेगा जब तक सरकार नहीं मान जाती.’’
दिल्ली विश्वविधालय के पीजीडीएवी कॉलेज से एमए हिंदी की पढ़ाई कर रहे प्रशांत बुलंदशहर के रहने वाले हैं. पहले दिन से ही अपने दोस्तों के साथ वे इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं. जब हम प्रशांत और उनके दोस्तों से बात कर रहे थे तभी बुलंदशहर के ही रहने वाले 55 वर्षीय चैधरी तेजपाल सिंह कहते हैं, ‘‘मीडिया वालों से बात मत करो झूठ दिखाते हैं.’’
अपनी बात को सही साबित करने के लिए एक नेशनल टेलीविजन की महिला रिपोर्टर की कहानी बताते हुए तेजपाल कहते हैं, ‘‘चार-पांच दिन पहले एक बेटी (रिपोर्टर) यही कह रही थी कि गाजीपुर खाली हो चुका है. वो मेरे टेंट में आकर दिखाने लगी. मैं अकेला उसमें था और आंख बंद कर करके आराम कर रहा था. वो कह रही थी कि टेंट में एक दो लोग ही बचे हुए हैं. यहां से लोग जा चुके हैं. मैं उसे क्या बोलता बेटी जैसी थी. इसलिए हम लोग मीडिया वालों से बात नहीं करते. सच नहीं दिखाते हैं.’’
इसी बातचीत के दौरान प्रशांत कहते हैं, ‘‘कुछ मीडिया वाले तो 28 जनवरी की रात को गाजीपुर किसान आंदोलन की आखिरी रात बता रहे थे. उसके बाद कितनी रातें गुजर गई. आंदोलन और मज़बूत होता गया.’’
दरअसल पिछले कुछ दिनों से लगातार ऐसी खबरें आती रही कि गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे आंदोलन में किसानों की संख्या लगातार कम हो रही है. 15 फरवरी को न्यूज़ 18 ने इसको लेकर एक खबर प्रकाशित की जिसका शीर्षक ‘क्या कमजोर पड़ रहा है किसान आंदोलन? गाजीपुर बॉर्डर पर मंच और सड़क पर पसरा सन्नाटा’ था. न्यूज़ 18 पर इसको लेकर खबर भी दिखाई थी.
7 मार्च को दैनिक जागरण की वेबसाइट पर गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन को लेकर ऐसी ही एक खबर प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक है, ‘किसान आंदोलन के 100 दिन बाद लगा झटका, प्रदर्शनकारियों की घटती संख्या ने बढ़ाई राकेश टिकैत की टेंशन; किसान नेता का दावा धराशायी’.
जागरण अपनी खबर में लिखता हैं, ‘‘यूपी गेट स्थित धरनास्थल पर शनिवार को भी प्रदर्शनकारियों की संख्या में काफी कमी रही. साथ ही धरनास्थल पर लगे हुए टेंट भी खाली दिखाई दिए. जो लोग यहां पर थे भी उनमें वह जोश नजर नहीं आ रहा था जो आंदोलन की शुरुआत में था. प्रदर्शनकारियों व टेंटों की संख्या में काफी कमी आई है. जहां कई जगहों से टेंट हट गए हैं वहीं जहां टेंट लगे हैं वह पूरी तरह से सुनसान हैं.’’
आंदोलन के रणनीति में बदलाव
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा बीते सितंबर में लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के शनिवार को सौ दिन पूरे हो गए हैं. इसको लेकर किसान ने केएमपी रोड को ब्लॉक करके विरोध प्रदर्शन किया. इसी बीच आंदोलन में भीड़ कम होने को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं.
हालांकि गाजीपुर बॉर्डर पर भीड़ में कोई खास कमी नहीं आई है. इन दिनों खेती का काम चल रहा है. इसलिए किसान बीच-बीच में अपनी फसल का ध्यान रखने के लिए आपने गांवों की ओर भी रुख करते हैं. आलू की फसल भी तैयार है. वहीं दूसरी तरफ गन्ना रोपाई भी जारी है. ऐसे में किसान नेताओं ने रोटेशन के तहत कब कौन आएगा इसे तय किया हुआ है.
बागपत के रहने वाले विक्रांत दिल्ली में फायरमैन का काम करते हैं. उनका दिल्ली में भी घर है, लेकिन आंदोलन शुरू होने के दिन से ही वे गाजीपुर से ही नौकरी करने जाते हैं. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए विक्रांत बताते हैं, ‘‘किसानों को खेती भी करनी है ऐसे में वो हमेशा के लिए बैठ जाएं ये ठीक नहीं है. हमारे किसान नेताओं ने गाजियाबाद के 128 गांवों को जिम्मेदारी दी है कि हर दिन एक गांव से किसान यहां आएंगे. हर रोज यहां अलग-अलग गांव से लोग आते हैं. किसी गांव से दस ट्रैक्टर तो किसी गांव से 15 ट्रैक्टर होते हैं. दिनभर वे यहां रहते हैं और शाम को लौट जाते हैं. अगले दिन दूसरे गांव से किसान आते हैं. गाजियाबाद का एक बड़ा गांव है जलालाबाद. वहां से 150 ट्रैक्टर से किसान आए थे.’’
विक्रांत आगे बताते हैं, ‘‘ये तो आसपास के गांवों के लिए हैं. जो दूर के गांव के लिए हमारे किसान नेताओं ने सात दिन और 15 दिन तय किया है. शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत और दूसरे जिलों से किसान सात और 15 के लिए आते हैं. उनके जाने से पहले उनके गांव से एक टीम आ जाती है. इस तरह से यहां किसानों की संख्या हमेशा बनी रहती है.’’
भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धर्मेंद्र मलिक आंदोलन में किए गए बदलाव को लेकर न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘देखिए आंदोलन की हर समय रणनीति बदली जाती है. एक रणनीति से आंदोलन नहीं होता. शुरुआत में हमारा मकसद था कि हम दिल्ली आएं और दिल्ली को दिखाएं कि हम लोग इकट्ठा हैं. हम 26 जनवरी को 5-10 लाख लोग दिल्ली में लेकर आए, लेकिन आंदोलन हमें चलाना है तो हम पूरी ऊर्जा दिल्ली पर नहीं लगा सकते. हमने अपनी रणनीति में बदलाव किया है. हम 80 से ज़्यादा महापंचायत कर चुके हैं. 3 अप्रैल तक संयुक्त मोर्चा के नेताओं के पास महापंचायत से समय नहीं हैं. अब हम इस आंदोलन को गांव-गांव तक ले जा रहे हैं.’’
धर्मेंद्र मलिक आगे कहते हैं, ‘‘सरकार कह रही थी कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के ही किसान आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश में महापंचायत है. उसके बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश की महापंचायत है. तो ये आंदोलन देश के गांव-गांव में पहुंच गया है. अब दिल्ली में दिखाने का नहीं रह गया. यह जनक्रांति है. सरकार बात नहीं कर रही है. अहंकार में है. सरकार से अपनी बात मनवानी है तो उसके लिए जनक्रांति करनी होगी.’’
बीते दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खाप के कुछ नेताओं से मिले थे. मलिक योगी सरकार को खाफ को तोड़ने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘‘वे उन लोगों से मिले जिनके पास खाप के फैसले को लेकर कोई अधिकार ही नहीं है. जो मंत्री-विधायक हैं वो अपने को मज़बूत दिखाने के लिए खाप के नकली प्रतिनधि बना रहे हैं. ये लोग समाज को बांटने वाले हैं. यह किसान आंदोलन है. हम हारने वाले नहीं हैं. ये आंदोलन एक हज़ार दिन भी चलेगा तो हम चलाने वाले हैं.’’
‘खेती बाद में पहले धरना’
बुलंदशहर के रहने वाले पवन कुमार 15 दिन रहने के लिए अपने गांव के जत्थे के साथ रविवार को ही गाजीपुर पहुंचे थे. इस जत्थे में उनके गांव के 25 लोग आए हैं, जब ये लोग जाएंगे तो और 25 लोग यहां आ जाएंगे. 42 वर्षीय कुमार का बायां हाथ तीन साल की उम्र में ही कट गया था. वे तीसरी बार यहां आए हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कुमार कहते हैं, ‘‘मैं आज ही घर से आया हूं. मैंने एक एकड़ में आलू की खेती की है जिसे निकालने का काम शुरू होना था. अपने छोटे भाई और बेटे को बताकर आ गया कि आलू निकालकर क्या करना है. हमारे लिए खेती से बढ़कर आंदोलन ज़रूरी है. अगर हमारा आंदोलन सफल नहीं हुआ तो खेती हमारी खत्म है. खेती बाद में पहले धरना ज़रूरी है. जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होती हमारा आंदोलन ज़ारी रहेगा.’’
रविवार को ही संभल जिले के बंजपुरी की रहने वाली अमरावती अपने पति सतवीर सिंह यादव और दो बच्चों के साथ गाजीपुर बॉर्डर पहुंची थीं. आठ एकड़ में खेती करने वाली अमरावती इससे पहले भी यहां आ चुकी हैं. इस बार वो होली तक रहने के लिए आई हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए अमरावती कहती हैं, ‘‘हम तो यहां पहले भी आए थे. खेती का काम था तो कुछ दिनों के लिए वापस चले गए थे लेकिन आज दोपहर एक बजे ही वापस आए हैं. इस बार तो होली तक इधर ही रहेंगे. इस बार बेटा और बेटी को भी लेकर आई हूं. पिछली बार लेकर नहीं आई थी. सरकार जब तक ये कानून ख़त्म नहीं करती हम इधर आते रहेंगे. जीत हमारी होगी. किसानों की जीत होगी.’’
अमरावती को बस इतना पता है कि ये तीनों कानून किसानों के खिलाफ हैं. क्यों आंदोलन कर रही हैं ये समझाने के लिए वो अपने पति सतवीर को बुलाती हैं. सतवीर कहते हैं, ‘‘सरकार बिन मांग के ये कानून हमें दी है. जब हम लेने से मना कर रहे हैं तो वापस नहीं ले रही है. इसी से समझिए की यह किसके फायदे के लिए हैं. अगर मैं आपको कुछ दूं ताकि आपका भला हो सके और आप न लो तो मुझे वापस लेने में क्या नुकसान होगा? नहीं होगा न. बात ये है कि कानून हमारे लिए आया ही नहीं है. कानून अडानी-अंबानी जैसों के लिए आया है, लेकिन हम भी बिना आपस कराये जाने वाले नहीं. चाहे छह महीना चले या छह साल. इधर ही बैठे रहेंगे.’’
सतवीर बताते हैं, ‘‘हम लोग होली तक यहीं रहने वाले हैं. होली के दिन यहां गांव से काफी संख्या में लोग आ रहे हैं. होली के दिन जो कार्यक्रम हम गांव में करते हैं वो इस बार दिल्ली में ही होगा.’’
पीएम मोदी से अपील
किसान नेताओं और सरकार के मंत्रियों के बीच 22 जनवरी के बाद कोई बातचीत नहीं हुई, अभी होगी इसकी कोई संभावना भी नजर नहीं आ रही है. इससे पहले 11 दौर की बातचीत बेनतीजा रही थी. गाजीपुर में हमने कई किसानों से पूछा कि आंदोलन के सौ दिन पूरे हो गए हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कुछ कहना चाहेंगे?
इस सवाल के जवाब में आर्मी के जवान रहते हुए साल 1965 का युद्ध लड़ने वाले उत्तराखंड के देसा सिंह कहते हैं, ‘‘मोदी जी को सोचना चाहिए कि सौ दिन से किसान सड़कों पर हैं. मेरी उम्र 75 साल है. पहले देश के लिए युद्ध लड़ा. 1965 की लड़ाई में श्रीनगर में था. आज हमें आतंकवादी, नक्सली कहा जा रहा है. पहले तो ऐसा जो बोले उस पर सरकार कार्रवाई करे. साथ ही सरकार बातचीत करके किसानों की परेशानी दूर करे और कानून वापस ले. सरकार का काम हठ करना नहीं है.’’
इसी सवाल के जवाब में चौधरी तेजपाल सिंह कहते हैं, ‘‘मोदी जी यहीं आए थे (उन्हें जगह का नाम याद नहीं आता). कह रहे थे किसानों के लिए ये करूंगा, वो करूंगा. आपका सांसद आपके गांव नहीं गया हो तो उसे माफ़ कीजिएगा और मेरे लिए वोट दीजिएगा. जब हमने उन्हें जीताकर भेज दिया तो आज हमें ही घुटने के बल बैठा दिया है. ये शर्म की बात है. अडानी-अंबानी के लिए किसानों को सड़क पर छोड़ दिया है.’’
पहले ही दिन से गाजीपुर बॉर्डर पर लंगर लगाने वाले उत्तराखंड के जिला उधमसिंह नगर के जसपुर निवासी 26 वर्षीय युवक करणदीप कहते हैं, ‘‘अगर सरकार नहीं मान रही तो उसे समझना चाहिए कि गेहूं की कटाई के बाद दो महीने तक किसानों के पास खास काम नहीं होता. वो जून-जुलाई का महीना होता है. सरकार को लग रहा होगा कि गर्मी के कारण किसान नहीं आएंगे तो वो भूल है. हमें गर्मी और ठंडी सहने की आदत है. किसान यहां लाखों की संख्या में आएंगे और सरकार को सुनना होगा.’’
रविवार दोपहर सैकड़ों की संख्या में केरल से किसान गाजीपुर बॉर्डर पहुंचे हुए थे. ये किसान अपनी परेशानी साझा कर रहे थे. केरल से आए किसानों की तरफ इशारा करते हुए 22 वर्षीय प्रशांत चौधरी कहते हैं, ‘‘आपको लग रहा है कि यहां भीड़ कम हुई है. केरल से भी लोग यहां आने लगे हैं. गर्मीं बढ़ रही तो हम अपने टेंट को ऊंचा करने के लिए खोलते हैं तो कुछ नेशनल मीडिया वाले फोटो खींचकर दिखाते हैं कि गाजीपुर से किसान जाने लगे हैं. जब स्टेज पर कोई बोल रहा होता है तो जिन टेंटों से लोग स्टेज के पास आकर बैठे होते हैं उन टेंटों की तस्वीरें खींचकर नेशनल मीडिया वाले कहने लगते हैं कि गाजीपुर में टेंट खाली पड़ा हुआ है. यहां हर रोज लोग आते हैं और जाते हैं. आंदोलन तो तब तक चलेगा जब तक सरकार नहीं मान जाती.’’
दिल्ली विश्वविधालय के पीजीडीएवी कॉलेज से एमए हिंदी की पढ़ाई कर रहे प्रशांत बुलंदशहर के रहने वाले हैं. पहले दिन से ही अपने दोस्तों के साथ वे इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं. जब हम प्रशांत और उनके दोस्तों से बात कर रहे थे तभी बुलंदशहर के ही रहने वाले 55 वर्षीय चैधरी तेजपाल सिंह कहते हैं, ‘‘मीडिया वालों से बात मत करो झूठ दिखाते हैं.’’
अपनी बात को सही साबित करने के लिए एक नेशनल टेलीविजन की महिला रिपोर्टर की कहानी बताते हुए तेजपाल कहते हैं, ‘‘चार-पांच दिन पहले एक बेटी (रिपोर्टर) यही कह रही थी कि गाजीपुर खाली हो चुका है. वो मेरे टेंट में आकर दिखाने लगी. मैं अकेला उसमें था और आंख बंद कर करके आराम कर रहा था. वो कह रही थी कि टेंट में एक दो लोग ही बचे हुए हैं. यहां से लोग जा चुके हैं. मैं उसे क्या बोलता बेटी जैसी थी. इसलिए हम लोग मीडिया वालों से बात नहीं करते. सच नहीं दिखाते हैं.’’
इसी बातचीत के दौरान प्रशांत कहते हैं, ‘‘कुछ मीडिया वाले तो 28 जनवरी की रात को गाजीपुर किसान आंदोलन की आखिरी रात बता रहे थे. उसके बाद कितनी रातें गुजर गई. आंदोलन और मज़बूत होता गया.’’
दरअसल पिछले कुछ दिनों से लगातार ऐसी खबरें आती रही कि गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे आंदोलन में किसानों की संख्या लगातार कम हो रही है. 15 फरवरी को न्यूज़ 18 ने इसको लेकर एक खबर प्रकाशित की जिसका शीर्षक ‘क्या कमजोर पड़ रहा है किसान आंदोलन? गाजीपुर बॉर्डर पर मंच और सड़क पर पसरा सन्नाटा’ था. न्यूज़ 18 पर इसको लेकर खबर भी दिखाई थी.
7 मार्च को दैनिक जागरण की वेबसाइट पर गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन को लेकर ऐसी ही एक खबर प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक है, ‘किसान आंदोलन के 100 दिन बाद लगा झटका, प्रदर्शनकारियों की घटती संख्या ने बढ़ाई राकेश टिकैत की टेंशन; किसान नेता का दावा धराशायी’.
जागरण अपनी खबर में लिखता हैं, ‘‘यूपी गेट स्थित धरनास्थल पर शनिवार को भी प्रदर्शनकारियों की संख्या में काफी कमी रही. साथ ही धरनास्थल पर लगे हुए टेंट भी खाली दिखाई दिए. जो लोग यहां पर थे भी उनमें वह जोश नजर नहीं आ रहा था जो आंदोलन की शुरुआत में था. प्रदर्शनकारियों व टेंटों की संख्या में काफी कमी आई है. जहां कई जगहों से टेंट हट गए हैं वहीं जहां टेंट लगे हैं वह पूरी तरह से सुनसान हैं.’’
आंदोलन के रणनीति में बदलाव
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा बीते सितंबर में लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के शनिवार को सौ दिन पूरे हो गए हैं. इसको लेकर किसान ने केएमपी रोड को ब्लॉक करके विरोध प्रदर्शन किया. इसी बीच आंदोलन में भीड़ कम होने को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं.
हालांकि गाजीपुर बॉर्डर पर भीड़ में कोई खास कमी नहीं आई है. इन दिनों खेती का काम चल रहा है. इसलिए किसान बीच-बीच में अपनी फसल का ध्यान रखने के लिए आपने गांवों की ओर भी रुख करते हैं. आलू की फसल भी तैयार है. वहीं दूसरी तरफ गन्ना रोपाई भी जारी है. ऐसे में किसान नेताओं ने रोटेशन के तहत कब कौन आएगा इसे तय किया हुआ है.
बागपत के रहने वाले विक्रांत दिल्ली में फायरमैन का काम करते हैं. उनका दिल्ली में भी घर है, लेकिन आंदोलन शुरू होने के दिन से ही वे गाजीपुर से ही नौकरी करने जाते हैं. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए विक्रांत बताते हैं, ‘‘किसानों को खेती भी करनी है ऐसे में वो हमेशा के लिए बैठ जाएं ये ठीक नहीं है. हमारे किसान नेताओं ने गाजियाबाद के 128 गांवों को जिम्मेदारी दी है कि हर दिन एक गांव से किसान यहां आएंगे. हर रोज यहां अलग-अलग गांव से लोग आते हैं. किसी गांव से दस ट्रैक्टर तो किसी गांव से 15 ट्रैक्टर होते हैं. दिनभर वे यहां रहते हैं और शाम को लौट जाते हैं. अगले दिन दूसरे गांव से किसान आते हैं. गाजियाबाद का एक बड़ा गांव है जलालाबाद. वहां से 150 ट्रैक्टर से किसान आए थे.’’
विक्रांत आगे बताते हैं, ‘‘ये तो आसपास के गांवों के लिए हैं. जो दूर के गांव के लिए हमारे किसान नेताओं ने सात दिन और 15 दिन तय किया है. शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत और दूसरे जिलों से किसान सात और 15 के लिए आते हैं. उनके जाने से पहले उनके गांव से एक टीम आ जाती है. इस तरह से यहां किसानों की संख्या हमेशा बनी रहती है.’’
भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धर्मेंद्र मलिक आंदोलन में किए गए बदलाव को लेकर न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘देखिए आंदोलन की हर समय रणनीति बदली जाती है. एक रणनीति से आंदोलन नहीं होता. शुरुआत में हमारा मकसद था कि हम दिल्ली आएं और दिल्ली को दिखाएं कि हम लोग इकट्ठा हैं. हम 26 जनवरी को 5-10 लाख लोग दिल्ली में लेकर आए, लेकिन आंदोलन हमें चलाना है तो हम पूरी ऊर्जा दिल्ली पर नहीं लगा सकते. हमने अपनी रणनीति में बदलाव किया है. हम 80 से ज़्यादा महापंचायत कर चुके हैं. 3 अप्रैल तक संयुक्त मोर्चा के नेताओं के पास महापंचायत से समय नहीं हैं. अब हम इस आंदोलन को गांव-गांव तक ले जा रहे हैं.’’
धर्मेंद्र मलिक आगे कहते हैं, ‘‘सरकार कह रही थी कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के ही किसान आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश में महापंचायत है. उसके बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश की महापंचायत है. तो ये आंदोलन देश के गांव-गांव में पहुंच गया है. अब दिल्ली में दिखाने का नहीं रह गया. यह जनक्रांति है. सरकार बात नहीं कर रही है. अहंकार में है. सरकार से अपनी बात मनवानी है तो उसके लिए जनक्रांति करनी होगी.’’
बीते दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खाप के कुछ नेताओं से मिले थे. मलिक योगी सरकार को खाफ को तोड़ने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘‘वे उन लोगों से मिले जिनके पास खाप के फैसले को लेकर कोई अधिकार ही नहीं है. जो मंत्री-विधायक हैं वो अपने को मज़बूत दिखाने के लिए खाप के नकली प्रतिनधि बना रहे हैं. ये लोग समाज को बांटने वाले हैं. यह किसान आंदोलन है. हम हारने वाले नहीं हैं. ये आंदोलन एक हज़ार दिन भी चलेगा तो हम चलाने वाले हैं.’’
‘खेती बाद में पहले धरना’
बुलंदशहर के रहने वाले पवन कुमार 15 दिन रहने के लिए अपने गांव के जत्थे के साथ रविवार को ही गाजीपुर पहुंचे थे. इस जत्थे में उनके गांव के 25 लोग आए हैं, जब ये लोग जाएंगे तो और 25 लोग यहां आ जाएंगे. 42 वर्षीय कुमार का बायां हाथ तीन साल की उम्र में ही कट गया था. वे तीसरी बार यहां आए हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कुमार कहते हैं, ‘‘मैं आज ही घर से आया हूं. मैंने एक एकड़ में आलू की खेती की है जिसे निकालने का काम शुरू होना था. अपने छोटे भाई और बेटे को बताकर आ गया कि आलू निकालकर क्या करना है. हमारे लिए खेती से बढ़कर आंदोलन ज़रूरी है. अगर हमारा आंदोलन सफल नहीं हुआ तो खेती हमारी खत्म है. खेती बाद में पहले धरना ज़रूरी है. जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होती हमारा आंदोलन ज़ारी रहेगा.’’
रविवार को ही संभल जिले के बंजपुरी की रहने वाली अमरावती अपने पति सतवीर सिंह यादव और दो बच्चों के साथ गाजीपुर बॉर्डर पहुंची थीं. आठ एकड़ में खेती करने वाली अमरावती इससे पहले भी यहां आ चुकी हैं. इस बार वो होली तक रहने के लिए आई हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए अमरावती कहती हैं, ‘‘हम तो यहां पहले भी आए थे. खेती का काम था तो कुछ दिनों के लिए वापस चले गए थे लेकिन आज दोपहर एक बजे ही वापस आए हैं. इस बार तो होली तक इधर ही रहेंगे. इस बार बेटा और बेटी को भी लेकर आई हूं. पिछली बार लेकर नहीं आई थी. सरकार जब तक ये कानून ख़त्म नहीं करती हम इधर आते रहेंगे. जीत हमारी होगी. किसानों की जीत होगी.’’
अमरावती को बस इतना पता है कि ये तीनों कानून किसानों के खिलाफ हैं. क्यों आंदोलन कर रही हैं ये समझाने के लिए वो अपने पति सतवीर को बुलाती हैं. सतवीर कहते हैं, ‘‘सरकार बिन मांग के ये कानून हमें दी है. जब हम लेने से मना कर रहे हैं तो वापस नहीं ले रही है. इसी से समझिए की यह किसके फायदे के लिए हैं. अगर मैं आपको कुछ दूं ताकि आपका भला हो सके और आप न लो तो मुझे वापस लेने में क्या नुकसान होगा? नहीं होगा न. बात ये है कि कानून हमारे लिए आया ही नहीं है. कानून अडानी-अंबानी जैसों के लिए आया है, लेकिन हम भी बिना आपस कराये जाने वाले नहीं. चाहे छह महीना चले या छह साल. इधर ही बैठे रहेंगे.’’
सतवीर बताते हैं, ‘‘हम लोग होली तक यहीं रहने वाले हैं. होली के दिन यहां गांव से काफी संख्या में लोग आ रहे हैं. होली के दिन जो कार्यक्रम हम गांव में करते हैं वो इस बार दिल्ली में ही होगा.’’
पीएम मोदी से अपील
किसान नेताओं और सरकार के मंत्रियों के बीच 22 जनवरी के बाद कोई बातचीत नहीं हुई, अभी होगी इसकी कोई संभावना भी नजर नहीं आ रही है. इससे पहले 11 दौर की बातचीत बेनतीजा रही थी. गाजीपुर में हमने कई किसानों से पूछा कि आंदोलन के सौ दिन पूरे हो गए हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कुछ कहना चाहेंगे?
इस सवाल के जवाब में आर्मी के जवान रहते हुए साल 1965 का युद्ध लड़ने वाले उत्तराखंड के देसा सिंह कहते हैं, ‘‘मोदी जी को सोचना चाहिए कि सौ दिन से किसान सड़कों पर हैं. मेरी उम्र 75 साल है. पहले देश के लिए युद्ध लड़ा. 1965 की लड़ाई में श्रीनगर में था. आज हमें आतंकवादी, नक्सली कहा जा रहा है. पहले तो ऐसा जो बोले उस पर सरकार कार्रवाई करे. साथ ही सरकार बातचीत करके किसानों की परेशानी दूर करे और कानून वापस ले. सरकार का काम हठ करना नहीं है.’’
इसी सवाल के जवाब में चौधरी तेजपाल सिंह कहते हैं, ‘‘मोदी जी यहीं आए थे (उन्हें जगह का नाम याद नहीं आता). कह रहे थे किसानों के लिए ये करूंगा, वो करूंगा. आपका सांसद आपके गांव नहीं गया हो तो उसे माफ़ कीजिएगा और मेरे लिए वोट दीजिएगा. जब हमने उन्हें जीताकर भेज दिया तो आज हमें ही घुटने के बल बैठा दिया है. ये शर्म की बात है. अडानी-अंबानी के लिए किसानों को सड़क पर छोड़ दिया है.’’
पहले ही दिन से गाजीपुर बॉर्डर पर लंगर लगाने वाले उत्तराखंड के जिला उधमसिंह नगर के जसपुर निवासी 26 वर्षीय युवक करणदीप कहते हैं, ‘‘अगर सरकार नहीं मान रही तो उसे समझना चाहिए कि गेहूं की कटाई के बाद दो महीने तक किसानों के पास खास काम नहीं होता. वो जून-जुलाई का महीना होता है. सरकार को लग रहा होगा कि गर्मी के कारण किसान नहीं आएंगे तो वो भूल है. हमें गर्मी और ठंडी सहने की आदत है. किसान यहां लाखों की संख्या में आएंगे और सरकार को सुनना होगा.’’
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