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मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा
शीर्षक की पंक्ति जनाब बशीर बद्र के एक शेर से ली गई है. ऐसा कम होता है कि शेर किसी दूसरे के लिए, किसी दूसरे अंदाज में लिखा जाए और वह एकदम से कहीं और चस्पा हो जाए, लेकिन ऐसा होता भी है, और अभी-अभी हुआ भी है. बात अमेरिका से आई है. यह ठीक है कि अब वहां ‘हमारे ट्रंप भाई’ नहीं हैं और ह्यूस्टन में ट्रंप भाई के साथ मिलकर ‘हाउडी मोदी’ की जो गूंज प्रधानमंत्री ने उठाई गई थी, वह दम तोड़ चुकी है.
‘ट्रंप भाई’ ने जाते-जाते हमें ‘गंदा व झूठा देश’ कहकर मुंह का स्वाद भले खराब कर दिया है लेकिन बाइडन का अमेरिका तो है न जिसके साथ मिलकर काम करने का अरमान प्रधानमंत्री ने अभी-अभी जाहिर किया है. मुद्दा यह है कि अमेरिका से बात आती है तो हमारे यहां ज्यादा सुनी जाती है, तो बात अमेरिकी संस्थान ‘फ्रीडम हाउस’ से आई है. वह कहती है कि जहां तक लोकतंत्र, उससे जुड़ी स्वतंत्रताओं, नागरिक अधिकारों व तटस्थ न्यायपालिका का सवाल है हमारा भारत 2019 में ‘स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में था, 2020 में खिसककर ‘किसी हद तक स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में आ गया है. यह क्या हुआ? 2019 से चलकर 2020 में हम यह कहां पहुंचे कि अपनी सूरत ही गवां बैठे? अगर कोई ऐसा कहने की जरूरत करे कि अमेरिका की क्या सुनना, तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे क्योंकि आज कौन यह कहने की हिम्मत करेगा कि ‘ट्रंप भाई’ का अमेरिका ‘हमारा’ था और बाइडन का अमेरिका ‘उनका’ है? इसलिए हमें देखना यह चाहिए कि 2019-20 के बीच हमने क्या-क्या कारनामे किए की इस तरह गिरे.
‘मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा’ कि लोकतंत्र की अपनी ही व्याख्या को लोकतंत्र मानने वालों का दौर आ गया है. इस दौर में हमने देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं को बधिया कर दिया है और ऐसे लोगों को उनमें ला बिठाया जिनकी रीढ़ है ही नहीं. ऐसे अर्ध-विकसित, विकलांगों की कमी समाज में कभी नहीं रही. ऐसे लोगों की भीड़ जुटा कर आप सत्ता में रहने का सुख पा सकते हैं, लोकतंत्र नहीं पा सकते हैं. लोकतंत्र का संरक्षण व विकास ऐसों के बस का होता ही नहीं है. लोकतंत्र होगा तो रीढ़ सीधी और सर स्वाभिमान से तना होगा.
इसी दौर में हमने यह मिजाज भी दिखलाया कि जिस जनता ने हमें ‘चुना’ है, उसे अब हम ‘चुनेंगे’. नागरिकता का कानून ऐसी ही अहमन्यता से सामने लाया गया था और हेंकड़ी दिखाते हुए उसे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी. इसका जिसने जहां विरोध किया उसे वहीं कुचल डालने की असंवैधानिक अमानवीय कोशिशें हुईं. स्वतंत्र भारत में कभी युवाओं की ऐसी व्यापक धुनाई-पिटाई, बदनामी और गिरफ्तारी नहीं हुई थी जैसी नागरिकता आंदोलन के दौरान हुई. बाजाप्ता कहा गया कि जो हमसे सहमत नहीं है उसका ईमान मुसल्लम नहीं है और जिसका ईमान मुसल्लम नहीं है वह देशद्रोही है. लोकतंत्र खत्म होता है तो देशद्रोहियों की जरखेज फसल होती है.
यही दौर था जब लोकतंत्र को पुलिसिया राज में बदला गया, गुंडों को राजनीतिक लिबास पहनाया गया, मीडिया को पीलिया हो गया और न्यायपालिका को मोतियाबिंद. और तभी देश में कोविड का प्रकोप फूटा. इस संकट को आनन-फानन में ऐसे अवसर में बदल लिया गया जिसमें आपका कहा ही कानून बन गया. जैसे भय आदमी को आदमी नहीं रहने देता है वैसे ही भयभीत लोक और अहंकारी तंत्र लोकतंत्र को लोकतंत्र नहीं रहने देता है. ऐसा माहौल रचा गया कि एक धर्मविशेष के लोग योजनापूर्वक कोविड फैलाने का ठेका लेकर भारत में घुस आए हैं. भारत की सड़कों पर जिस तरह कभी जानवर नहीं चले होंगे, उस तरह लाखों-लाख श्रमिकों को चलने के लिए मजबूर छोड़ दिया गया. उनके सामने दो मौतों में से एक को चुनने का विकल्प छोड़ा गया था: कोविड से मरो या भूख से! इसी अंधेरे काल में श्रम कानूनों में, बैंकिंग व्यवस्था में, फौजी संरचना में, पुलिस के अधिकारों में, विपक्षी राज्यों में, विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक व पाठ्यक्रम के ढांचे में, कश्मीर की वैधानिक स्थिति में तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की भूमिका ऐसे परिवर्तित की गई कि लोकतंत्र घुटनों के बल आ गया.
चुनाव व चुनाव परिणाम सत्ता व पैसों की ताकत से बनाए व बिगाड़े जाने लगे. व्यक्तित्वहीन व संदर्भहीन लोगों को राज्यपाल बनाने से ले कर ज्ञान-विज्ञान व शोध के शीर्ष संस्थानों में ला बिठाया गया. अंतरधार्मिक व अंतरजातीय विवाहों को अपराध बना देने वाले ‘लव जेहाद’ जैसे सिरफिरे कानून पारित किए गये. भीड़ को तत्काल न्याय देने का काम सौंपा गया और यह सावधानी रखी गई कि भीड़ एक धर्म या जाति विशेष की हो जो दूसरे धर्म व जाति विशेष को सजा देती फिरे. यह सब है जो भारत को ‘स्वतंत्र देश’ की श्रेणी से ‘किसी हद तक स्वतंत्र’ देश की श्रेणी में उतार लाया है. यह हर भारतीय के लिए अपमान व लज्जा की बात है. इसका मतलब यह है कि लोकतंत्र का आभास देने वाली संरचनाएं भले बनी रहेंगी लेकिन सब आत्माहीन और खोखली होंगी. आखिर चीन भी तो अपनी तरह के लोकतंत्र का दावा करता ही है न लेकिन ‘फ्रीडम हाउस’ चीन को ‘स्वतंत्र राष्ट्र नहीं’ की श्रेणी में रखता है. इसी रिपोर्ट में ‘फ्रीडम हाउस’ यह भी लिखता है कि अमेरिका ‘स्वतंत्र राष्ट्र’ की श्रेणी में, 2010 में 94 अंकों के साथ था लेकिन ट्रंप भाई के कार्यकाल में यहां से गिर कर यह 83 अंकों पर पहुंचा है. ‘फ्रीडम हाउस’ बता रहा है कि सारी दुनिया का लोकतांत्रिक स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है. स्वीडन, फिनलैंड और नॉर्वे ही हैं जो पूरे 100 अंक के साथ ‘ स्वतंत्र राष्ट्र’ बने हुए हैं.
यह ‘फ्रीडम हाउस’ है क्या? फासीवाद व तानाशाही का लंबा दौर झेलने और दूसरे विश्वयुद्ध की लपटों में घिरी दुनिया को सावधान करने के लिए 31 अक्तूबर 1941 को वाशिंग्टन में इसकी स्थापना हुई. इसने दुनिया भर में लोकतंत्र के विकास व विनाश का विधिवत अध्ययन करने और उस आधार देशों को अंक देने की शुरुआत की. आज कोई 80 साल बाद 150 से ज्यादा लोग इस संस्थान में काम करते हैं. दुनिया के कई देशों में इसकी शाखाएं हैं. ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ नाम से इसकी एक पत्रिका भी निकलती है जो तानाशाहों और तानाशाही की उभरती प्रवृत्तियों को पहचाने व उसे उजागर करने का ही काम नहीं करती है बल्कि इनका घोर विरोध भी करती है.
यह मानती है कि जहां भी सरकारें अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं, लोकतंत्र वहीं पल्लवित व पुष्पित होता है. मतलब लोकतंत्र चुनावों, संसदों और सांसदों-विधायकों की फौज में न छुपा हुआ है, न सुरक्षित है. आप जहां लोकतांत्रिक प्रतिमानों से घिरे ‘फ्रीडम हाउस’ आपको पहचान लेता है और सारी दुनिया को बता देता है. इसलिए बशीर बद्र साहब का पूरा शेर कहता है- सब उसी के हैं, हवा, खुशबू , जमीं-ओ-आसमां / मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा. दुनिया को पता हो गया है कि भारत में लोकतंत्र का आसमान सिकुड़ भी रहा है और धुंधला भी रहा है. देखना है कि हमें इसका पता कब चलता है.
शीर्षक की पंक्ति जनाब बशीर बद्र के एक शेर से ली गई है. ऐसा कम होता है कि शेर किसी दूसरे के लिए, किसी दूसरे अंदाज में लिखा जाए और वह एकदम से कहीं और चस्पा हो जाए, लेकिन ऐसा होता भी है, और अभी-अभी हुआ भी है. बात अमेरिका से आई है. यह ठीक है कि अब वहां ‘हमारे ट्रंप भाई’ नहीं हैं और ह्यूस्टन में ट्रंप भाई के साथ मिलकर ‘हाउडी मोदी’ की जो गूंज प्रधानमंत्री ने उठाई गई थी, वह दम तोड़ चुकी है.
‘ट्रंप भाई’ ने जाते-जाते हमें ‘गंदा व झूठा देश’ कहकर मुंह का स्वाद भले खराब कर दिया है लेकिन बाइडन का अमेरिका तो है न जिसके साथ मिलकर काम करने का अरमान प्रधानमंत्री ने अभी-अभी जाहिर किया है. मुद्दा यह है कि अमेरिका से बात आती है तो हमारे यहां ज्यादा सुनी जाती है, तो बात अमेरिकी संस्थान ‘फ्रीडम हाउस’ से आई है. वह कहती है कि जहां तक लोकतंत्र, उससे जुड़ी स्वतंत्रताओं, नागरिक अधिकारों व तटस्थ न्यायपालिका का सवाल है हमारा भारत 2019 में ‘स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में था, 2020 में खिसककर ‘किसी हद तक स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में आ गया है. यह क्या हुआ? 2019 से चलकर 2020 में हम यह कहां पहुंचे कि अपनी सूरत ही गवां बैठे? अगर कोई ऐसा कहने की जरूरत करे कि अमेरिका की क्या सुनना, तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे क्योंकि आज कौन यह कहने की हिम्मत करेगा कि ‘ट्रंप भाई’ का अमेरिका ‘हमारा’ था और बाइडन का अमेरिका ‘उनका’ है? इसलिए हमें देखना यह चाहिए कि 2019-20 के बीच हमने क्या-क्या कारनामे किए की इस तरह गिरे.
‘मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा’ कि लोकतंत्र की अपनी ही व्याख्या को लोकतंत्र मानने वालों का दौर आ गया है. इस दौर में हमने देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं को बधिया कर दिया है और ऐसे लोगों को उनमें ला बिठाया जिनकी रीढ़ है ही नहीं. ऐसे अर्ध-विकसित, विकलांगों की कमी समाज में कभी नहीं रही. ऐसे लोगों की भीड़ जुटा कर आप सत्ता में रहने का सुख पा सकते हैं, लोकतंत्र नहीं पा सकते हैं. लोकतंत्र का संरक्षण व विकास ऐसों के बस का होता ही नहीं है. लोकतंत्र होगा तो रीढ़ सीधी और सर स्वाभिमान से तना होगा.
इसी दौर में हमने यह मिजाज भी दिखलाया कि जिस जनता ने हमें ‘चुना’ है, उसे अब हम ‘चुनेंगे’. नागरिकता का कानून ऐसी ही अहमन्यता से सामने लाया गया था और हेंकड़ी दिखाते हुए उसे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी. इसका जिसने जहां विरोध किया उसे वहीं कुचल डालने की असंवैधानिक अमानवीय कोशिशें हुईं. स्वतंत्र भारत में कभी युवाओं की ऐसी व्यापक धुनाई-पिटाई, बदनामी और गिरफ्तारी नहीं हुई थी जैसी नागरिकता आंदोलन के दौरान हुई. बाजाप्ता कहा गया कि जो हमसे सहमत नहीं है उसका ईमान मुसल्लम नहीं है और जिसका ईमान मुसल्लम नहीं है वह देशद्रोही है. लोकतंत्र खत्म होता है तो देशद्रोहियों की जरखेज फसल होती है.
यही दौर था जब लोकतंत्र को पुलिसिया राज में बदला गया, गुंडों को राजनीतिक लिबास पहनाया गया, मीडिया को पीलिया हो गया और न्यायपालिका को मोतियाबिंद. और तभी देश में कोविड का प्रकोप फूटा. इस संकट को आनन-फानन में ऐसे अवसर में बदल लिया गया जिसमें आपका कहा ही कानून बन गया. जैसे भय आदमी को आदमी नहीं रहने देता है वैसे ही भयभीत लोक और अहंकारी तंत्र लोकतंत्र को लोकतंत्र नहीं रहने देता है. ऐसा माहौल रचा गया कि एक धर्मविशेष के लोग योजनापूर्वक कोविड फैलाने का ठेका लेकर भारत में घुस आए हैं. भारत की सड़कों पर जिस तरह कभी जानवर नहीं चले होंगे, उस तरह लाखों-लाख श्रमिकों को चलने के लिए मजबूर छोड़ दिया गया. उनके सामने दो मौतों में से एक को चुनने का विकल्प छोड़ा गया था: कोविड से मरो या भूख से! इसी अंधेरे काल में श्रम कानूनों में, बैंकिंग व्यवस्था में, फौजी संरचना में, पुलिस के अधिकारों में, विपक्षी राज्यों में, विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक व पाठ्यक्रम के ढांचे में, कश्मीर की वैधानिक स्थिति में तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की भूमिका ऐसे परिवर्तित की गई कि लोकतंत्र घुटनों के बल आ गया.
चुनाव व चुनाव परिणाम सत्ता व पैसों की ताकत से बनाए व बिगाड़े जाने लगे. व्यक्तित्वहीन व संदर्भहीन लोगों को राज्यपाल बनाने से ले कर ज्ञान-विज्ञान व शोध के शीर्ष संस्थानों में ला बिठाया गया. अंतरधार्मिक व अंतरजातीय विवाहों को अपराध बना देने वाले ‘लव जेहाद’ जैसे सिरफिरे कानून पारित किए गये. भीड़ को तत्काल न्याय देने का काम सौंपा गया और यह सावधानी रखी गई कि भीड़ एक धर्म या जाति विशेष की हो जो दूसरे धर्म व जाति विशेष को सजा देती फिरे. यह सब है जो भारत को ‘स्वतंत्र देश’ की श्रेणी से ‘किसी हद तक स्वतंत्र’ देश की श्रेणी में उतार लाया है. यह हर भारतीय के लिए अपमान व लज्जा की बात है. इसका मतलब यह है कि लोकतंत्र का आभास देने वाली संरचनाएं भले बनी रहेंगी लेकिन सब आत्माहीन और खोखली होंगी. आखिर चीन भी तो अपनी तरह के लोकतंत्र का दावा करता ही है न लेकिन ‘फ्रीडम हाउस’ चीन को ‘स्वतंत्र राष्ट्र नहीं’ की श्रेणी में रखता है. इसी रिपोर्ट में ‘फ्रीडम हाउस’ यह भी लिखता है कि अमेरिका ‘स्वतंत्र राष्ट्र’ की श्रेणी में, 2010 में 94 अंकों के साथ था लेकिन ट्रंप भाई के कार्यकाल में यहां से गिर कर यह 83 अंकों पर पहुंचा है. ‘फ्रीडम हाउस’ बता रहा है कि सारी दुनिया का लोकतांत्रिक स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है. स्वीडन, फिनलैंड और नॉर्वे ही हैं जो पूरे 100 अंक के साथ ‘ स्वतंत्र राष्ट्र’ बने हुए हैं.
यह ‘फ्रीडम हाउस’ है क्या? फासीवाद व तानाशाही का लंबा दौर झेलने और दूसरे विश्वयुद्ध की लपटों में घिरी दुनिया को सावधान करने के लिए 31 अक्तूबर 1941 को वाशिंग्टन में इसकी स्थापना हुई. इसने दुनिया भर में लोकतंत्र के विकास व विनाश का विधिवत अध्ययन करने और उस आधार देशों को अंक देने की शुरुआत की. आज कोई 80 साल बाद 150 से ज्यादा लोग इस संस्थान में काम करते हैं. दुनिया के कई देशों में इसकी शाखाएं हैं. ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ नाम से इसकी एक पत्रिका भी निकलती है जो तानाशाहों और तानाशाही की उभरती प्रवृत्तियों को पहचाने व उसे उजागर करने का ही काम नहीं करती है बल्कि इनका घोर विरोध भी करती है.
यह मानती है कि जहां भी सरकारें अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं, लोकतंत्र वहीं पल्लवित व पुष्पित होता है. मतलब लोकतंत्र चुनावों, संसदों और सांसदों-विधायकों की फौज में न छुपा हुआ है, न सुरक्षित है. आप जहां लोकतांत्रिक प्रतिमानों से घिरे ‘फ्रीडम हाउस’ आपको पहचान लेता है और सारी दुनिया को बता देता है. इसलिए बशीर बद्र साहब का पूरा शेर कहता है- सब उसी के हैं, हवा, खुशबू , जमीं-ओ-आसमां / मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा. दुनिया को पता हो गया है कि भारत में लोकतंत्र का आसमान सिकुड़ भी रहा है और धुंधला भी रहा है. देखना है कि हमें इसका पता कब चलता है.
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