Newslaundry Hindi
एसओई 2021: गरीब आबादी वाले राज्य नहीं उठा पाए मनरेगा का फायदा
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना गरीब आबादी वाले राज्यों के लिए बनाई गई थी, लेकिन इसका फायदा उन राज्यों ने अधिक उठाया, जहां बेहतर सुशासन था. इन राज्यों ने मनरेगा का पैसा अधिक से अधिक खर्च किया, लेकिन गरीब आबादी वाले राज्य मनरेगा का फायदा नहीं उठा पाए.
यह बात सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और डाउन टू पत्रिका पत्रिका के वार्षिक प्रकाशन स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट (एसओई) 2021 के ग्रामीण विकास अध्याय में कही गई है. इस अध्याय में मनरेगा पर प्रकाशित आलेख बताता है कि कोविड-19 लॉकडाउन (अप्रैल से जुलाई 2020) के दौरान मनरेगा में काम पाने वाले लोगों की संख्या पिछले साल के मुकाबले 50 फीसदी अधिक थी, लेकिन अति गरीब आबादी वाले छह राज्यों (बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश) में यह संख्या और भी अधिक लगभग 81 फीसदी थी.
पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव फुगल मोहापात्रा और पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन द्वारा लिखे गए इस अध्याय में कहा गया है कि मनरेगा से मिलने वाले रोजगार के मामले में अति गरीब राज्यों (एचपीएस) की तुलना यदि अन्य राज्यों से की जाए तो इन गरीब राज्यों में 2014-15 के बाद से रोजगार सृजन बढ़ा है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के हिसाब से ये आंकड़ें अभी भी कम हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की खासी कमी है. लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार खासकर गैर कृषि कार्यों की भारी कमी देखी गई. ऐसे में मजदूरी करने वाले परिवारों को केवल मनरेगा के अलावा कोई काम नहीं मिला.
लेख में बताया गया है कि लॉकडाउन के दौरान जून 2020 में मनरेगा के तहत सबसे अधिक काम की मांग की गई, जून 2019 के मुकाबले 71 फीसदी अधिक थी, लेकिन छत्तीसगढ़ को छोड़ कर शेष 5 अति गरीब आबादी वाले राज्यों में काम की मांग का प्रतिशत काफी अधिक था. उत्तर प्रदेश और बिहार में तो काम की मांग में 200 फीसदी तक वृद्धि हो हुई.
खर्च में नहीं हुई भारी वृद्धि
बेशक अति गरीब आबादी वाले राज्यों में मनरेगा के तहत काम की मांग अधिक होती है और काम भी अधिक होता है, लेकिन यहां मनरेगा का खर्च बहुत अधिक नहीं होता. 2014-15 में मनरेगा के तहत कुल खर्च राशि में से 30.29 फीसदी इन छह गरीब राज्यों में किया गया. जो 2019-20 में बढ़ कर 32.28 फीसदी हो गया और अप्रैल से जुलाई 2020 में 35.35 फीसदी रहा. इन राज्यों में गरीबी का प्रतिशत के मुकाबले मनरेगा का खर्च काफी कम रहा. केवल छत्तीसगढ़ ने गरीबी के अनुपात की दर से खर्च किया. उत्तर प्रदेश और बिहार में इस अनुपात में काफी अंतर रहा.
भुगतान में देरी
मनरेगा की मजदूरी के भुगतान में देरी एक बड़ा मुद्दा है. स्टेट ऑफ इंडिया'ज एनवायरमेंट (एसओई 2021) के इस लेख में भी इसे एक बड़ी समस्या बताया गया है. हालांकि सरकार द्वारा इस परेशानी को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं. जैसे कि नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम शुरू किया गया है. आंकड़े हैं कि लगभग 28 फीसदी मनरेगा मजदूरों को 15 दिन के भीतर भुगतान नहीं मिलता है. जबकि कानूनी बाध्यता है कि मजदूरों को 15 दिन के भीतर भुगतान मिलना चाहिए.
रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 71.32 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 79.19 फीसदी, झारखंड में 78.83 फीसदी, मध्यप्रदेश में 72.87 फीसदी, ओडिशा में 71.44 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 64.10 फीसदी भुगतान 15 दिन के भीतर हुआ. इन राज्यों में कमजोर बैंकिंग व्यवस्था और पैसे निकालने में आने वाली समस्याएं लोगों की परेशानी और बढ़ा देती हैं. लेखक बताते हैं कि मजदूरी मिलने में देरी गरीबों की आर्थिक तौर पर अधिक परेशान करती है. दूसरा, इस वजह से भी लोग मनरेगा की बजाय दूसरे ऐसे रोजगार की ओर प्रेरित होते हैं, जहां से समय पर पैसा मिल जाए.
ग्रामीण भारत के लिए जरूरी है मनरेगा
लेख में निष्कर्ष के तौर पर कहा गया है कि ग्रामीण भारत में मजबूत सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की कमी है, इसलिए मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना ग्रामीण गरीबों के लिए बहुत जरूरी है. हालांकि इसके डिजाइन और ऑपरेशन में कुछ कमियां भी हैं, जिनको दूर करके लोगों की आजीविका को और बढ़ाया जा सकता है. खासकर अति गरीब प्रदेशों में मनरेगा को मजबूती से लागू किया जाना चाहिए और जिस राज्यों में अति गरीब आबादी अधिक है, वहां इसे गरीबी दूर करने के लक्ष्य से जोड़ा जाना चाहिए. दूसरा, यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि मनरेगा में काम कर रहे सभी लोगों को 15 दिन के भीतर मजदूरी मिल जाए. तीसरा, एक मजबूत निरीक्षण प्रणाली विकसित करनी होगी, जिससे मनरेगा के तहत बन रही परिसंपत्तियों की गुणवत्ता का फीडबैक मिल सके.
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना गरीब आबादी वाले राज्यों के लिए बनाई गई थी, लेकिन इसका फायदा उन राज्यों ने अधिक उठाया, जहां बेहतर सुशासन था. इन राज्यों ने मनरेगा का पैसा अधिक से अधिक खर्च किया, लेकिन गरीब आबादी वाले राज्य मनरेगा का फायदा नहीं उठा पाए.
यह बात सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और डाउन टू पत्रिका पत्रिका के वार्षिक प्रकाशन स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट (एसओई) 2021 के ग्रामीण विकास अध्याय में कही गई है. इस अध्याय में मनरेगा पर प्रकाशित आलेख बताता है कि कोविड-19 लॉकडाउन (अप्रैल से जुलाई 2020) के दौरान मनरेगा में काम पाने वाले लोगों की संख्या पिछले साल के मुकाबले 50 फीसदी अधिक थी, लेकिन अति गरीब आबादी वाले छह राज्यों (बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश) में यह संख्या और भी अधिक लगभग 81 फीसदी थी.
पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव फुगल मोहापात्रा और पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन द्वारा लिखे गए इस अध्याय में कहा गया है कि मनरेगा से मिलने वाले रोजगार के मामले में अति गरीब राज्यों (एचपीएस) की तुलना यदि अन्य राज्यों से की जाए तो इन गरीब राज्यों में 2014-15 के बाद से रोजगार सृजन बढ़ा है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के हिसाब से ये आंकड़ें अभी भी कम हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की खासी कमी है. लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार खासकर गैर कृषि कार्यों की भारी कमी देखी गई. ऐसे में मजदूरी करने वाले परिवारों को केवल मनरेगा के अलावा कोई काम नहीं मिला.
लेख में बताया गया है कि लॉकडाउन के दौरान जून 2020 में मनरेगा के तहत सबसे अधिक काम की मांग की गई, जून 2019 के मुकाबले 71 फीसदी अधिक थी, लेकिन छत्तीसगढ़ को छोड़ कर शेष 5 अति गरीब आबादी वाले राज्यों में काम की मांग का प्रतिशत काफी अधिक था. उत्तर प्रदेश और बिहार में तो काम की मांग में 200 फीसदी तक वृद्धि हो हुई.
खर्च में नहीं हुई भारी वृद्धि
बेशक अति गरीब आबादी वाले राज्यों में मनरेगा के तहत काम की मांग अधिक होती है और काम भी अधिक होता है, लेकिन यहां मनरेगा का खर्च बहुत अधिक नहीं होता. 2014-15 में मनरेगा के तहत कुल खर्च राशि में से 30.29 फीसदी इन छह गरीब राज्यों में किया गया. जो 2019-20 में बढ़ कर 32.28 फीसदी हो गया और अप्रैल से जुलाई 2020 में 35.35 फीसदी रहा. इन राज्यों में गरीबी का प्रतिशत के मुकाबले मनरेगा का खर्च काफी कम रहा. केवल छत्तीसगढ़ ने गरीबी के अनुपात की दर से खर्च किया. उत्तर प्रदेश और बिहार में इस अनुपात में काफी अंतर रहा.
भुगतान में देरी
मनरेगा की मजदूरी के भुगतान में देरी एक बड़ा मुद्दा है. स्टेट ऑफ इंडिया'ज एनवायरमेंट (एसओई 2021) के इस लेख में भी इसे एक बड़ी समस्या बताया गया है. हालांकि सरकार द्वारा इस परेशानी को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं. जैसे कि नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम शुरू किया गया है. आंकड़े हैं कि लगभग 28 फीसदी मनरेगा मजदूरों को 15 दिन के भीतर भुगतान नहीं मिलता है. जबकि कानूनी बाध्यता है कि मजदूरों को 15 दिन के भीतर भुगतान मिलना चाहिए.
रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 71.32 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 79.19 फीसदी, झारखंड में 78.83 फीसदी, मध्यप्रदेश में 72.87 फीसदी, ओडिशा में 71.44 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 64.10 फीसदी भुगतान 15 दिन के भीतर हुआ. इन राज्यों में कमजोर बैंकिंग व्यवस्था और पैसे निकालने में आने वाली समस्याएं लोगों की परेशानी और बढ़ा देती हैं. लेखक बताते हैं कि मजदूरी मिलने में देरी गरीबों की आर्थिक तौर पर अधिक परेशान करती है. दूसरा, इस वजह से भी लोग मनरेगा की बजाय दूसरे ऐसे रोजगार की ओर प्रेरित होते हैं, जहां से समय पर पैसा मिल जाए.
ग्रामीण भारत के लिए जरूरी है मनरेगा
लेख में निष्कर्ष के तौर पर कहा गया है कि ग्रामीण भारत में मजबूत सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की कमी है, इसलिए मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना ग्रामीण गरीबों के लिए बहुत जरूरी है. हालांकि इसके डिजाइन और ऑपरेशन में कुछ कमियां भी हैं, जिनको दूर करके लोगों की आजीविका को और बढ़ाया जा सकता है. खासकर अति गरीब प्रदेशों में मनरेगा को मजबूती से लागू किया जाना चाहिए और जिस राज्यों में अति गरीब आबादी अधिक है, वहां इसे गरीबी दूर करने के लक्ष्य से जोड़ा जाना चाहिए. दूसरा, यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि मनरेगा में काम कर रहे सभी लोगों को 15 दिन के भीतर मजदूरी मिल जाए. तीसरा, एक मजबूत निरीक्षण प्रणाली विकसित करनी होगी, जिससे मनरेगा के तहत बन रही परिसंपत्तियों की गुणवत्ता का फीडबैक मिल सके.
Also Read
-
How Jane Street played the Indian stock market as many retail investors bled
-
BJP govt thinks outdoor air purifiers can clean Delhi air, but data doesn’t back official claim
-
India’s Pak strategy needs a 2025 update
-
The Thackerays are back on stage. But will the script sell in 2025 Mumbai?
-
‘Oruvanukku Oruthi’: Why this discourse around Rithanya's suicide must be called out