मोहम्मद आरिफ की मां परवीन बृजपुरी में अपने घर पर.
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दिल्ली दंगा: आरिफ को सभी मामलों में मिली जमानत लेकिन गरीबी बनी रोड़ा

25 फरवरी की दोपहर दो बजे के करीब भजनपुरा के सुभाष मुहल्ले के एक घर में जश्न का माहौल था. दीवार पर चिपके वेलकॉम के पोस्टर के आसपास बच्चे बैलून चिपका रहे थे. यह घर मनोज कुमार गुर्ज्जर का है. मनोज की मां कहती हैं, ‘‘एक साल बाद बेटा आ रहा है. इसीलिए बच्चे कमरे को सजा रहे हैं.’’

मनोज के घर से पांच सौ मीटर की दूरी पर आज़ाद सैफी का घर है. आज़ाद अपने बेटे शोएब सैफी को लेने के लिए तिहाड़ जेल जाने को तैयार हैं. इनके यहां बैलून लगाकर तैयारी तो नहीं हो रही, लेकिन आज़ाद की पत्नी अपने बेटे के लिए उसकी मनपसंद का खाना पकाने की बात करती नजर आती हैं.

मनोज और शोएब को पुलिस ने बीते साल दिल्ली दंगे के दौरान सुभाष मुहल्ले में हुई मारूफ अली की हत्या के मामले में आरोपी बनाया था. दोनों को जमानत मिल गई और वे अपने घर लौटने वाले हैं.

एक तरफ जहां मनोज और शोएब के घर में उनके लौटने की ख़ुशी में तैयारी चल रही हैं. वहीं इनके घर से महज दो किलोमीटर की दूरी पर ब्रिजपुरी में 35 वर्षीय मोहम्मद आरिफ का घर हैं. आरिफ को भी जमानत मिल चुकी है, लेकिन जमानत के लिए पैसे नहीं जमा कराने की स्थिति में वे जेल से लौट नहीं पा रहे हैं. ऐसे में आरिफ के परिजनों ने घर के कागजात जमानत के लिए जमा किए जिसे कोर्ट ने रिजेक्ट कर दिया.’’

आरिफ को स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) ने दंगे के दौरान 25 फरवरी को हुई तीन लोगों की हत्या के मामले में आरोपी बनाया था. आरिफ को दो मामलों में बीते साल 11 दिसंबर को और एक मामले में 22 फरवरी को 20-20 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत मिली गई है. पुलिस ने आरिफ पर जो आरोप लगाए थे उसे कोर्ट ने निराधार पाया है. जमानत देते हुए कड़कड़डूमा कोर्ट के जज विनोद यादव ने आरिफ के खिलाफ हत्या के सबूत नहीं होने की बात कही है.

मोहम्मद आरिफ की मां 55 वर्षीय परवीन न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहती हैं, ‘‘सुबह कमाते हैं तो शाम को खाते हैं. आरिफ के अब्बा पहले से ही बीमार रहते थे, लेकिन जब से वो दंगे के मामले में जेल में गया तब से इनकी बीमारी और बढ़ती जा रही है. हमारे पास तो वकील को देने के लिए भी पैसे नहीं थे. इसलिए हमने कोई वकील भी नहीं किया. वकील अब्दुल गफ्फार खान साहब मुफ्त में हमारा केस लड़ने के लिए राजी हो गए, नहीं तो हम जज साहब से सरकारी वकील की मांग करते. अब उसे तीनों केस में जमानत तो मिल गई है, लेकिन हमारे पास जमानत के लिए पैसे नहीं हैं. कोई हमें कर्ज भी क्यों देगा जब लौटने की शक्ति हमारे पास नहीं है.’’

परवीन की पारिवारिक आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बाबू खान की दवाओं पर खर्च होता है.

आरिफ को वकील अब्दुल गफ्फार खान ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया, ‘‘आरिफ के परिजनों ने पैसे नहीं होने की स्थिति में घर के कागजात तो जमा करा दिए, लेकिन समस्या यह है कि आरिफ का घर पंजीकृत नहीं है. अदालत अपंजीकृत संपत्तियों के दस्तावेजों पर विचार नहीं करती है. ऐसे में उसकी जमानत नहीं हो पायी. अब परिजनों को कोई और इंतज़ाम करना होगा.’’

परवीन के तीन बेटे और एक बेटी है. अपने बेटे आरिफ के जमानत के लिए घर के कागजात जमा कराने के बाद परवीन कहती हैं, ‘‘बुलंदशहर से आने के बाद हम कई सालों से किराए के मकान में रहे हैं. मज़दूरी करके इस घर को बनाया है. बड़ा बेटा दिहाड़ी मज़दूरी करता है. जहां उसको कभी काम मिलता है तो कभी नहीं मिलता है. एक दूसरा बेटा है जो लोन पर ऑटो लेकर चला रहा है. इनमें से किसी ने पढ़ाई नहीं की. पढ़ाई सिर्फ मेरी बेटी फरहीन ने की है. आज जब मेरे पति बीमार रहते हैं. मैं भी ज़्यादा काम नहीं कर पाती. ऐसे में सिलाई करके फरहीन परिवार की ज़िम्मेदारी में सहयोग करती है.’’

आरिफ पर हिंदू बन मुसलमानों को मारने का आरोप

बीते साल 23 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा के विवादास्पद बयान के तुरंत बाद उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगा भड़क गया जिसमें 53 लोगों की हत्या कर दी गई. इस दौरान लोगों को मारकर नाले में फेंक दिया गया. लोगों के घरों में आग लगा दी गई. लोग बेघर हुए और महीनों तक खुले आसमान के नीचे रहने को मज़बूर हुए. दंगे के एक साल गुजर जाने के बाद यहां जले घरों को तो रंग दिया गया, लेकिन लोगों के मन पर लगा दाग अभी तक नहीं मिट पाया है.

दिल्ली दंगों के तीसरे दिन यानी 25 फरवरी को सबसे ज़्यादा हिंसा हुई. इसी दिन कई लोगों के साथ-साथ अशफाक हुसैन, मेहताब खान, शाकिर अहमद और मनीष सिंह की हत्या कर दी गई.

हत्या के करीब पांच महीने बाद जुलाई महीने में दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने अशफाक, मेहताब और जाकिर की मौत पर तीन अलग आरोप पत्र (चार्जशीट) दाखिल किया. इन तीनों मामले में पुलिस की चार्जशीट में मृतक का नाम बदलता है, बाकी सबकुछ एक जैसा ही है.

पुलिस ने बृजपुरी रोड पर तीन की डंडों, कैंचियों और तलवारों से की गई सामूहिक हत्या के लिए चार हिंदुओं और एक मुसलमान को गिरफ्तार किया था. आरिफ इसमें से एक थे. इन्हें पुलिस ने 16 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया था. गिरफ्तारी के लिए पुलिस ने कॉल डिटेल, सीसीटीवी फुटेज और गवाहों के बयानों को आधार बनाया है.

ब्रजपुरी मार्ग दिल्ली

जिन लोगों की हत्या हुई उसमें से एक महताब, आरिफ के मामा थे. तीन मुसलमानों की हत्या में आरिफ को आरोपी बनाने के पीछे पुलिस का तर्क हैरान करने वाला था.

न्यूजलॉन्ड्री ने अपने इन्वेस्टिगेशन में पाया था कि पुलिस ने दयालपुरी थाने में अशफ़ाक़ की हत्या के मामले में 159/20, महताब के मामले में 163/20 और जाकिर की हत्या के मामले में 158/20 और मनीष सिंह के मामले में 74/20 एफआईआर दर्ज की. चारों एफआईआर दर्ज करने के पीछे पुलिस का तर्क था कि चारों हत्याएं अलग-अलग हुई है, लेकिन जुलाई में जब पुलिस ने चार्जशीट फाइल किया तो पाया कि जाकिर, मेहताब और अशफाक को बृजपुरी रोड पर गली नंबर 10 के सामने हिंदुओं की भीड़ ने एक साथ हत्या की थी.

इन तीनों मामले में पुलिस ने चार हिंदुओं और एक मुसलमान मोहम्मद आरिफ को गिरफ्तार किया था. आरिफ को लेकर पुलिस ने दावा किया कि आरिफ ने ‘कुछ हिंदुओं की भीड़’ को इन तीनों को पकड़ कर बुरी तरह पीटते हुए देखा. वह डर के मारे वहीं रुका रहा और उसने अपने मुंह पर रूमाल बांध लिया.अपने को छुपाने के लिए उसने भी वही सब नारे लगाने शुरू कर दिए. अपने को बचाने के लिए उसने भी इन तीन लड़कों को पीटा. यह लड़के उस समय संभवत मर कर गिर गए. फिर वह वहां से किसी तरह निकल भागा. उसे बाद में यह पता चला कि तीनों लड़के मुसलमान थे.’’

एसआईटी की चार्जशीट में आरिफ समेत बाकी आरोपियों को हत्या के लिए जिम्मेदार बताते हुए सीसीटीवी फुटेज का सहारा लेती है. चार्जशीट में बाकी तीन आरोपियों की डंडा लिए हुए और पत्थर फेंकते का फुटेज दिया है, लेकिन आरिफ का कोई फुटेज नहीं है. पुलिस ने चार्जशीट में पाया कि घटना स्थल के पास आरिफ का फोन लोकेशन पाया गया था. इसके अलावा कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के साथ-साथ आरिफ का कबूलनामा था. जो पुलिस के सामने दिया गया था.

चार्जशीट में तीन तथाकथित चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. न्यूजलॉन्ड्री के पास मौजूद यह बयान जो पुलिस की हिरासत में दिए गए, कहते हैं कि गवाहों ने आरिफ को मुसलमानों की आग लगाती और दंगा करती हुई भीड़ का नेतृत्व करते हुए देखा. लेकिन उनमें से किसी ने भी उसे जाकिर, अशफाक और मेहताब के ऊपर हमला या उनकी हत्या करते हुए देखने का दावा नहीं किया है.

देखा जाए तो पुलिस के पास फोन लोकेशन के अलावा कोई सबूत नहीं था.

पुलिस ने अपने अजीबोगरीब दावों और सबूतों के साथ मोहम्मद आरिफ को 14 अप्रैल 2020 को उनके घर के बाहर से गिरफ्तार कर लिया. आरिफ की मां परवीन कहती हैं, ‘‘हम लोग कमरे में थे. बाहर से कुछ लड़कों ने शोर किया कि आरिफ भाई को कोई उठा ले गया. वो लोग पुलिस की ड्रेस भी नहीं पहने थे ऐसे में हम समझ नहीं पाए की कौन लेकर गया है. बाद में पता चला कि पुलिस वाले लेकर गए. जैसे-तैसे हम पुलिस के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा कि शाम तक छोड़ देंगे. शाम तक मैं इंतज़ार करती रही, लेकिन नहीं छोड़ा. पूछने पर कहा कि सुबह छोड़ देंगे. उस दौरान लॉकडाउन लगा हुआ था. कोई गाड़ी नहीं चल रही थी. जैसे-तैसे मैं दूसरे दिन सुबह पहुंची. पुलिस वालों ने कहा कि पूछताछ के बाद छोड़ देंगे. मैं दिन भर इंतज़ार करती रही. उन्होंने उस दिन भी नहीं छोड़ा. अगले दिन आने के लिए बोला. अगले दिन फिर मैं गोकुलपुरी थाने पहुंचीं तो वहां पता चला कि उसपर तीन केस दर्ज हुए हैं.’’

इस बातचीत के दौरान आरिफ की बहन फरहीन कहती हैं, ‘‘पुलिस वाले चाह रहे थे कि हम उन्हें पैसे दें. वो मुंह खोलकर मांग नहीं रहे थे. 48 घंटे तक तो उन्होंने बताया ही नहीं कि मेरा भाई कहां है. जब मेरे घर वालों ने पैसे नहीं दिए तो केस बना दिया’’

कोर्ट में क्या हुआ?

आरिफ के घर वालों के पास वकील करने के भी पैसे नहीं थे. ऐसे में उन्होंने सरकारी वकील लेने का फैसला किया था. इसी बीच वकील अब्दुल गफ्फार खान ने मुफ्त में केस लड़ने की बात कही. परवीन, अब्दुल गफ्फार खान को इसके लिए कई बार दुआ देती हैं. वो कहती हैं, ‘‘हम सुन रहे थे कि दंगे के मामले में वकील ज़्यादा पैसे मांग रहे हैं. जब हमारे पास खाने तक के पैसे नहीं थे. जेल में अपने बेटे को पांच सौ से ज़्यादा रुपए कभी नहीं दे पाए. ऐसे में वो किसी फ़रिश्ते की तरह आए और केस लड़ा. एक रुपया भी नहीं लिया.’’

न्यूजलॉन्ड्री ने अब्दुल गफ्फार खान से इस मामले में बात की. वे कहते हैं, ‘‘पुलिस ने घटना वाले दिन आरिफ के मोबाइल का लोकेशन दिया था. 25 फरवरी को सिर्फ 3 बजे से 3:44 के बीच उसका लोकेशन बदलता है बाकी समय लोकेशन उसके घर का ही है. जो लोकेशन बदला है वो गुरुनानक नगर का दिखा रहा है. जो आरिफ के घर से डेढ़ किलोमीटर दूरी पर ओल्ड मुस्तफाबाद में है. हत्या का समय अलग-अलग है. ऐसे में फोन लोकेशन सबूत नहीं रह जाता है.’’

एडवोकेट अब्दुल गफ्फार

गफ्फार खान आगे कहते हैं, ‘‘दूसरा प्रत्यक्षदर्शियों के बयान की बात है तो एक प्रत्यक्षदर्शी ने आरिफ समेत सात और लोगों का नाम लिया है. पुलिस ने सिर्फ पांच को गिरफ्तार किया और बाकियों को क्यों नहीं इसको लेकर भी वे साफ-साफ कुछ नहीं कहते हैं.’’

ज़ाकिर खान की हत्या के मामले में गफ्फार खान ने कोर्ट में जिरह करते हुए कहा कि घटना 25 फरवरी को हुई. इस मामले में एफआईआर 21 मार्च को दर्ज की गई. लगभग एक महीने बाद. 16 अप्रैल को आरिफ को गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. एफआईआर दर्ज होने में इतनी देरी का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. आरिफ के पास से पुलिस ने कुछ रिकवर नहीं किया.

अपनी बहस में गफ्फार खान इस मामले के चश्मदीदों गवाह शशिकांत कश्यप, अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा को ‘प्लांटेड चश्मदीद’ कहते हुए बताते हैं, ‘‘चमश्दीद गवाहों ने भी बस यह कहा है कि आरिफ दंगाई भीड़ का हिस्सा था. उन्होंने नहीं कहा कि आरिफ किसी धारदार हथियार के साथ उस दिन दिखा और उसने हमला करके हत्या की. कबुलानामे के सिवाए पुलिस के पास कोई सबूत नहीं जिससे यह पता चले कि आरिफ ने हमला करके किसी की हत्या की.’’

पुलिस कोर्ट में मोबाइल लोकेशन और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के अलावा कोई भी सबूत पेश नहीं कर पाई. पुलिस ने कोर्ट में यह तो ज़रूर बताया कि आरिफ के साथ-साथ गिरफ्तार बाकी आरोपी अजय कुमार, अशोक कुमार और शुभम के हाथों में पट्टा, डंडा, तलवार, कैंची लिए हुए थे. पुलिस बकायदा कहती है कि अजय के हाथ में तलवार थी, अशोक ने अपने हाथ में कैंची बंधा डंडा लिया था. शुभम के हाथ में डंडा था, लेकिन पुलिस ने ये नहीं बताया कि आरिफ के हाथ में क्या था.

महताब और अशफ़ाक़ के मामले में भी गफ्फार खान इसी तरह पक्ष रखते हैं और पुलिस भी अपना पक्ष रखती है. पुलिस कोई और मज़बूत सबूत पेश नहीं करती जिससे यह लगे कि आरिफ इस हत्या में शामिल था.

11 दिसंबर को जज विनोद यादव ने जाकिर हुसैन के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि आरोपियों में जिसकी संख्या ज़्यादा होगी उसी ने गैरक़ानूनी भीड़ जमा की. इस मामले में ऐसा करने वाले हिन्दू हैं. वहीं आवेदक (आरिफ) मुस्लिम धर्म से हैं. आवेदक के खिलाफ आरोप है कि वह इस गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा था. यह ‘भ्रामक’ है कि एक मुस्लिम लड़का ऐसे गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा बन गया जिसमें हिंदू धर्म के लोग ज़्यादा थे

जज विनोद यादव ने अपने फैसले में ये भी कहा कि चमश्दीद गवाह अशोक सोलंकी, शशिकांत कश्यप और सुरेंद्र शर्मा ने आवेदक (आरिफ) की भूमिका के बारे में साफ-साफ नहीं बताया है. उनका स्टेटमेंट समान्य लगता है. आवेदक (आरिफ) किसी भी सीसीटीवी फुटेज में नजर नहीं आता है. जहां तक सीडीआर लोकेशन की बात है तो आवेदक घटना स्थल के पास ही रहता है ऐसे में लोकेशन उसके आसपास पाया जाना बहुत मायने नहीं रखता.’’

तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने 20 हजार के निजी मुचलके पर आरिफ को जमानत दे दी.

11 दिसंबर को जाकिर और अशफ़ाक़ की हत्या के मामले में जज विनोद यादव ने आरिफ को जमानत दे दी. यानी दो मामलों में आरिफ को जमानत एक ही दिन दी गई. तीसरा मामला महताब की हत्या का था जिसमें 22 फरवरी को आरिफ को जज विनोद कुमार यादव ने लगभग इन्हीं तथ्यों को आधार बनाकर आरिफ को जमानत दी.

‘आरिफ घर कम जेल में ज़्यादा रहता है’

साल 2004 से अब तक आरिफ पर पुलिस 27 केस दर्ज कर चुकी है. ज़्यादातर मामले में उसे कोई सजा नहीं मिली. आरिफ के परिवार की माने तो पुलिस न जाने क्यों उसे परेशान करती रहती है. जब मन होता है उठा ले जाती है.

आरिफ की मां परवीन कहती हैं, ‘‘न जाने पुलिस वालों को मेरे बेटे से क्या परेशानी है. आसपास में कोई भी मामला होता है उसे उठाकर लेकर चले जाते हैं. बाद में वो सबूत नहीं होने पर रिहा हो जाता है लेकिन हम तो परेशान होते हैं. दंगा होने से छह महीने पहले ही 3 साल से ज़्यादा समय तक जेल में रहकर वापस लौटा था. फिर उठाकर लेकर चले गए. मैं जिस गली में रहती हूं यहां मुसलमानों का एक-दो ही घर है. ज़्यादातर हिन्दू हैं. आप किसी से भी पूछ सकते हैं कि दंगे वाले दिन आरिफ क्या कर रहा था. वो कुछ देर गली के गेट पर बैठकर सुरक्षा करता था और कुछ देर छत पर रहता था. वो बाहर गया ही नहीं लेकिन उसे फंसा दिया गया.’’

आरिफ की बहन फरहीन कहती हैं, ‘‘पुलिस ने मेरे भाई को बड़ा अपराधी समझ रखा है. जब वो 14 साल के थे तब से ही उनपर पुलिस एफआईआर दर्ज करती रहती है. वे बाहर कम जेल में ज़्यादा रहते हैं. तीन साल जेल में रहने के बाद छह महीने पहले ही बाहर आए थे कि दिल्ली दंगा हुआ और फिर वे जेल चले गए. अगर मेरे भाई अपराधी होते तो आज हम लोग ऐसे घर में रहते. आप देखिए टूटा हुआ है. जमानत कराने तक के पैसे नहीं हैं.’’

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25 फरवरी की दोपहर दो बजे के करीब भजनपुरा के सुभाष मुहल्ले के एक घर में जश्न का माहौल था. दीवार पर चिपके वेलकॉम के पोस्टर के आसपास बच्चे बैलून चिपका रहे थे. यह घर मनोज कुमार गुर्ज्जर का है. मनोज की मां कहती हैं, ‘‘एक साल बाद बेटा आ रहा है. इसीलिए बच्चे कमरे को सजा रहे हैं.’’

मनोज के घर से पांच सौ मीटर की दूरी पर आज़ाद सैफी का घर है. आज़ाद अपने बेटे शोएब सैफी को लेने के लिए तिहाड़ जेल जाने को तैयार हैं. इनके यहां बैलून लगाकर तैयारी तो नहीं हो रही, लेकिन आज़ाद की पत्नी अपने बेटे के लिए उसकी मनपसंद का खाना पकाने की बात करती नजर आती हैं.

मनोज और शोएब को पुलिस ने बीते साल दिल्ली दंगे के दौरान सुभाष मुहल्ले में हुई मारूफ अली की हत्या के मामले में आरोपी बनाया था. दोनों को जमानत मिल गई और वे अपने घर लौटने वाले हैं.

एक तरफ जहां मनोज और शोएब के घर में उनके लौटने की ख़ुशी में तैयारी चल रही हैं. वहीं इनके घर से महज दो किलोमीटर की दूरी पर ब्रिजपुरी में 35 वर्षीय मोहम्मद आरिफ का घर हैं. आरिफ को भी जमानत मिल चुकी है, लेकिन जमानत के लिए पैसे नहीं जमा कराने की स्थिति में वे जेल से लौट नहीं पा रहे हैं. ऐसे में आरिफ के परिजनों ने घर के कागजात जमानत के लिए जमा किए जिसे कोर्ट ने रिजेक्ट कर दिया.’’

आरिफ को स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) ने दंगे के दौरान 25 फरवरी को हुई तीन लोगों की हत्या के मामले में आरोपी बनाया था. आरिफ को दो मामलों में बीते साल 11 दिसंबर को और एक मामले में 22 फरवरी को 20-20 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत मिली गई है. पुलिस ने आरिफ पर जो आरोप लगाए थे उसे कोर्ट ने निराधार पाया है. जमानत देते हुए कड़कड़डूमा कोर्ट के जज विनोद यादव ने आरिफ के खिलाफ हत्या के सबूत नहीं होने की बात कही है.

मोहम्मद आरिफ की मां 55 वर्षीय परवीन न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहती हैं, ‘‘सुबह कमाते हैं तो शाम को खाते हैं. आरिफ के अब्बा पहले से ही बीमार रहते थे, लेकिन जब से वो दंगे के मामले में जेल में गया तब से इनकी बीमारी और बढ़ती जा रही है. हमारे पास तो वकील को देने के लिए भी पैसे नहीं थे. इसलिए हमने कोई वकील भी नहीं किया. वकील अब्दुल गफ्फार खान साहब मुफ्त में हमारा केस लड़ने के लिए राजी हो गए, नहीं तो हम जज साहब से सरकारी वकील की मांग करते. अब उसे तीनों केस में जमानत तो मिल गई है, लेकिन हमारे पास जमानत के लिए पैसे नहीं हैं. कोई हमें कर्ज भी क्यों देगा जब लौटने की शक्ति हमारे पास नहीं है.’’

परवीन की पारिवारिक आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बाबू खान की दवाओं पर खर्च होता है.

आरिफ को वकील अब्दुल गफ्फार खान ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया, ‘‘आरिफ के परिजनों ने पैसे नहीं होने की स्थिति में घर के कागजात तो जमा करा दिए, लेकिन समस्या यह है कि आरिफ का घर पंजीकृत नहीं है. अदालत अपंजीकृत संपत्तियों के दस्तावेजों पर विचार नहीं करती है. ऐसे में उसकी जमानत नहीं हो पायी. अब परिजनों को कोई और इंतज़ाम करना होगा.’’

परवीन के तीन बेटे और एक बेटी है. अपने बेटे आरिफ के जमानत के लिए घर के कागजात जमा कराने के बाद परवीन कहती हैं, ‘‘बुलंदशहर से आने के बाद हम कई सालों से किराए के मकान में रहे हैं. मज़दूरी करके इस घर को बनाया है. बड़ा बेटा दिहाड़ी मज़दूरी करता है. जहां उसको कभी काम मिलता है तो कभी नहीं मिलता है. एक दूसरा बेटा है जो लोन पर ऑटो लेकर चला रहा है. इनमें से किसी ने पढ़ाई नहीं की. पढ़ाई सिर्फ मेरी बेटी फरहीन ने की है. आज जब मेरे पति बीमार रहते हैं. मैं भी ज़्यादा काम नहीं कर पाती. ऐसे में सिलाई करके फरहीन परिवार की ज़िम्मेदारी में सहयोग करती है.’’

आरिफ पर हिंदू बन मुसलमानों को मारने का आरोप

बीते साल 23 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा के विवादास्पद बयान के तुरंत बाद उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगा भड़क गया जिसमें 53 लोगों की हत्या कर दी गई. इस दौरान लोगों को मारकर नाले में फेंक दिया गया. लोगों के घरों में आग लगा दी गई. लोग बेघर हुए और महीनों तक खुले आसमान के नीचे रहने को मज़बूर हुए. दंगे के एक साल गुजर जाने के बाद यहां जले घरों को तो रंग दिया गया, लेकिन लोगों के मन पर लगा दाग अभी तक नहीं मिट पाया है.

दिल्ली दंगों के तीसरे दिन यानी 25 फरवरी को सबसे ज़्यादा हिंसा हुई. इसी दिन कई लोगों के साथ-साथ अशफाक हुसैन, मेहताब खान, शाकिर अहमद और मनीष सिंह की हत्या कर दी गई.

हत्या के करीब पांच महीने बाद जुलाई महीने में दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने अशफाक, मेहताब और जाकिर की मौत पर तीन अलग आरोप पत्र (चार्जशीट) दाखिल किया. इन तीनों मामले में पुलिस की चार्जशीट में मृतक का नाम बदलता है, बाकी सबकुछ एक जैसा ही है.

पुलिस ने बृजपुरी रोड पर तीन की डंडों, कैंचियों और तलवारों से की गई सामूहिक हत्या के लिए चार हिंदुओं और एक मुसलमान को गिरफ्तार किया था. आरिफ इसमें से एक थे. इन्हें पुलिस ने 16 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया था. गिरफ्तारी के लिए पुलिस ने कॉल डिटेल, सीसीटीवी फुटेज और गवाहों के बयानों को आधार बनाया है.

ब्रजपुरी मार्ग दिल्ली

जिन लोगों की हत्या हुई उसमें से एक महताब, आरिफ के मामा थे. तीन मुसलमानों की हत्या में आरिफ को आरोपी बनाने के पीछे पुलिस का तर्क हैरान करने वाला था.

न्यूजलॉन्ड्री ने अपने इन्वेस्टिगेशन में पाया था कि पुलिस ने दयालपुरी थाने में अशफ़ाक़ की हत्या के मामले में 159/20, महताब के मामले में 163/20 और जाकिर की हत्या के मामले में 158/20 और मनीष सिंह के मामले में 74/20 एफआईआर दर्ज की. चारों एफआईआर दर्ज करने के पीछे पुलिस का तर्क था कि चारों हत्याएं अलग-अलग हुई है, लेकिन जुलाई में जब पुलिस ने चार्जशीट फाइल किया तो पाया कि जाकिर, मेहताब और अशफाक को बृजपुरी रोड पर गली नंबर 10 के सामने हिंदुओं की भीड़ ने एक साथ हत्या की थी.

इन तीनों मामले में पुलिस ने चार हिंदुओं और एक मुसलमान मोहम्मद आरिफ को गिरफ्तार किया था. आरिफ को लेकर पुलिस ने दावा किया कि आरिफ ने ‘कुछ हिंदुओं की भीड़’ को इन तीनों को पकड़ कर बुरी तरह पीटते हुए देखा. वह डर के मारे वहीं रुका रहा और उसने अपने मुंह पर रूमाल बांध लिया.अपने को छुपाने के लिए उसने भी वही सब नारे लगाने शुरू कर दिए. अपने को बचाने के लिए उसने भी इन तीन लड़कों को पीटा. यह लड़के उस समय संभवत मर कर गिर गए. फिर वह वहां से किसी तरह निकल भागा. उसे बाद में यह पता चला कि तीनों लड़के मुसलमान थे.’’

एसआईटी की चार्जशीट में आरिफ समेत बाकी आरोपियों को हत्या के लिए जिम्मेदार बताते हुए सीसीटीवी फुटेज का सहारा लेती है. चार्जशीट में बाकी तीन आरोपियों की डंडा लिए हुए और पत्थर फेंकते का फुटेज दिया है, लेकिन आरिफ का कोई फुटेज नहीं है. पुलिस ने चार्जशीट में पाया कि घटना स्थल के पास आरिफ का फोन लोकेशन पाया गया था. इसके अलावा कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के साथ-साथ आरिफ का कबूलनामा था. जो पुलिस के सामने दिया गया था.

चार्जशीट में तीन तथाकथित चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. न्यूजलॉन्ड्री के पास मौजूद यह बयान जो पुलिस की हिरासत में दिए गए, कहते हैं कि गवाहों ने आरिफ को मुसलमानों की आग लगाती और दंगा करती हुई भीड़ का नेतृत्व करते हुए देखा. लेकिन उनमें से किसी ने भी उसे जाकिर, अशफाक और मेहताब के ऊपर हमला या उनकी हत्या करते हुए देखने का दावा नहीं किया है.

देखा जाए तो पुलिस के पास फोन लोकेशन के अलावा कोई सबूत नहीं था.

पुलिस ने अपने अजीबोगरीब दावों और सबूतों के साथ मोहम्मद आरिफ को 14 अप्रैल 2020 को उनके घर के बाहर से गिरफ्तार कर लिया. आरिफ की मां परवीन कहती हैं, ‘‘हम लोग कमरे में थे. बाहर से कुछ लड़कों ने शोर किया कि आरिफ भाई को कोई उठा ले गया. वो लोग पुलिस की ड्रेस भी नहीं पहने थे ऐसे में हम समझ नहीं पाए की कौन लेकर गया है. बाद में पता चला कि पुलिस वाले लेकर गए. जैसे-तैसे हम पुलिस के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा कि शाम तक छोड़ देंगे. शाम तक मैं इंतज़ार करती रही, लेकिन नहीं छोड़ा. पूछने पर कहा कि सुबह छोड़ देंगे. उस दौरान लॉकडाउन लगा हुआ था. कोई गाड़ी नहीं चल रही थी. जैसे-तैसे मैं दूसरे दिन सुबह पहुंची. पुलिस वालों ने कहा कि पूछताछ के बाद छोड़ देंगे. मैं दिन भर इंतज़ार करती रही. उन्होंने उस दिन भी नहीं छोड़ा. अगले दिन आने के लिए बोला. अगले दिन फिर मैं गोकुलपुरी थाने पहुंचीं तो वहां पता चला कि उसपर तीन केस दर्ज हुए हैं.’’

इस बातचीत के दौरान आरिफ की बहन फरहीन कहती हैं, ‘‘पुलिस वाले चाह रहे थे कि हम उन्हें पैसे दें. वो मुंह खोलकर मांग नहीं रहे थे. 48 घंटे तक तो उन्होंने बताया ही नहीं कि मेरा भाई कहां है. जब मेरे घर वालों ने पैसे नहीं दिए तो केस बना दिया’’

कोर्ट में क्या हुआ?

आरिफ के घर वालों के पास वकील करने के भी पैसे नहीं थे. ऐसे में उन्होंने सरकारी वकील लेने का फैसला किया था. इसी बीच वकील अब्दुल गफ्फार खान ने मुफ्त में केस लड़ने की बात कही. परवीन, अब्दुल गफ्फार खान को इसके लिए कई बार दुआ देती हैं. वो कहती हैं, ‘‘हम सुन रहे थे कि दंगे के मामले में वकील ज़्यादा पैसे मांग रहे हैं. जब हमारे पास खाने तक के पैसे नहीं थे. जेल में अपने बेटे को पांच सौ से ज़्यादा रुपए कभी नहीं दे पाए. ऐसे में वो किसी फ़रिश्ते की तरह आए और केस लड़ा. एक रुपया भी नहीं लिया.’’

न्यूजलॉन्ड्री ने अब्दुल गफ्फार खान से इस मामले में बात की. वे कहते हैं, ‘‘पुलिस ने घटना वाले दिन आरिफ के मोबाइल का लोकेशन दिया था. 25 फरवरी को सिर्फ 3 बजे से 3:44 के बीच उसका लोकेशन बदलता है बाकी समय लोकेशन उसके घर का ही है. जो लोकेशन बदला है वो गुरुनानक नगर का दिखा रहा है. जो आरिफ के घर से डेढ़ किलोमीटर दूरी पर ओल्ड मुस्तफाबाद में है. हत्या का समय अलग-अलग है. ऐसे में फोन लोकेशन सबूत नहीं रह जाता है.’’

एडवोकेट अब्दुल गफ्फार

गफ्फार खान आगे कहते हैं, ‘‘दूसरा प्रत्यक्षदर्शियों के बयान की बात है तो एक प्रत्यक्षदर्शी ने आरिफ समेत सात और लोगों का नाम लिया है. पुलिस ने सिर्फ पांच को गिरफ्तार किया और बाकियों को क्यों नहीं इसको लेकर भी वे साफ-साफ कुछ नहीं कहते हैं.’’

ज़ाकिर खान की हत्या के मामले में गफ्फार खान ने कोर्ट में जिरह करते हुए कहा कि घटना 25 फरवरी को हुई. इस मामले में एफआईआर 21 मार्च को दर्ज की गई. लगभग एक महीने बाद. 16 अप्रैल को आरिफ को गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. एफआईआर दर्ज होने में इतनी देरी का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. आरिफ के पास से पुलिस ने कुछ रिकवर नहीं किया.

अपनी बहस में गफ्फार खान इस मामले के चश्मदीदों गवाह शशिकांत कश्यप, अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा को ‘प्लांटेड चश्मदीद’ कहते हुए बताते हैं, ‘‘चमश्दीद गवाहों ने भी बस यह कहा है कि आरिफ दंगाई भीड़ का हिस्सा था. उन्होंने नहीं कहा कि आरिफ किसी धारदार हथियार के साथ उस दिन दिखा और उसने हमला करके हत्या की. कबुलानामे के सिवाए पुलिस के पास कोई सबूत नहीं जिससे यह पता चले कि आरिफ ने हमला करके किसी की हत्या की.’’

पुलिस कोर्ट में मोबाइल लोकेशन और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के अलावा कोई भी सबूत पेश नहीं कर पाई. पुलिस ने कोर्ट में यह तो ज़रूर बताया कि आरिफ के साथ-साथ गिरफ्तार बाकी आरोपी अजय कुमार, अशोक कुमार और शुभम के हाथों में पट्टा, डंडा, तलवार, कैंची लिए हुए थे. पुलिस बकायदा कहती है कि अजय के हाथ में तलवार थी, अशोक ने अपने हाथ में कैंची बंधा डंडा लिया था. शुभम के हाथ में डंडा था, लेकिन पुलिस ने ये नहीं बताया कि आरिफ के हाथ में क्या था.

महताब और अशफ़ाक़ के मामले में भी गफ्फार खान इसी तरह पक्ष रखते हैं और पुलिस भी अपना पक्ष रखती है. पुलिस कोई और मज़बूत सबूत पेश नहीं करती जिससे यह लगे कि आरिफ इस हत्या में शामिल था.

11 दिसंबर को जज विनोद यादव ने जाकिर हुसैन के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि आरोपियों में जिसकी संख्या ज़्यादा होगी उसी ने गैरक़ानूनी भीड़ जमा की. इस मामले में ऐसा करने वाले हिन्दू हैं. वहीं आवेदक (आरिफ) मुस्लिम धर्म से हैं. आवेदक के खिलाफ आरोप है कि वह इस गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा था. यह ‘भ्रामक’ है कि एक मुस्लिम लड़का ऐसे गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा बन गया जिसमें हिंदू धर्म के लोग ज़्यादा थे

जज विनोद यादव ने अपने फैसले में ये भी कहा कि चमश्दीद गवाह अशोक सोलंकी, शशिकांत कश्यप और सुरेंद्र शर्मा ने आवेदक (आरिफ) की भूमिका के बारे में साफ-साफ नहीं बताया है. उनका स्टेटमेंट समान्य लगता है. आवेदक (आरिफ) किसी भी सीसीटीवी फुटेज में नजर नहीं आता है. जहां तक सीडीआर लोकेशन की बात है तो आवेदक घटना स्थल के पास ही रहता है ऐसे में लोकेशन उसके आसपास पाया जाना बहुत मायने नहीं रखता.’’

तमाम तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने 20 हजार के निजी मुचलके पर आरिफ को जमानत दे दी.

11 दिसंबर को जाकिर और अशफ़ाक़ की हत्या के मामले में जज विनोद यादव ने आरिफ को जमानत दे दी. यानी दो मामलों में आरिफ को जमानत एक ही दिन दी गई. तीसरा मामला महताब की हत्या का था जिसमें 22 फरवरी को आरिफ को जज विनोद कुमार यादव ने लगभग इन्हीं तथ्यों को आधार बनाकर आरिफ को जमानत दी.

‘आरिफ घर कम जेल में ज़्यादा रहता है’

साल 2004 से अब तक आरिफ पर पुलिस 27 केस दर्ज कर चुकी है. ज़्यादातर मामले में उसे कोई सजा नहीं मिली. आरिफ के परिवार की माने तो पुलिस न जाने क्यों उसे परेशान करती रहती है. जब मन होता है उठा ले जाती है.

आरिफ की मां परवीन कहती हैं, ‘‘न जाने पुलिस वालों को मेरे बेटे से क्या परेशानी है. आसपास में कोई भी मामला होता है उसे उठाकर लेकर चले जाते हैं. बाद में वो सबूत नहीं होने पर रिहा हो जाता है लेकिन हम तो परेशान होते हैं. दंगा होने से छह महीने पहले ही 3 साल से ज़्यादा समय तक जेल में रहकर वापस लौटा था. फिर उठाकर लेकर चले गए. मैं जिस गली में रहती हूं यहां मुसलमानों का एक-दो ही घर है. ज़्यादातर हिन्दू हैं. आप किसी से भी पूछ सकते हैं कि दंगे वाले दिन आरिफ क्या कर रहा था. वो कुछ देर गली के गेट पर बैठकर सुरक्षा करता था और कुछ देर छत पर रहता था. वो बाहर गया ही नहीं लेकिन उसे फंसा दिया गया.’’

आरिफ की बहन फरहीन कहती हैं, ‘‘पुलिस ने मेरे भाई को बड़ा अपराधी समझ रखा है. जब वो 14 साल के थे तब से ही उनपर पुलिस एफआईआर दर्ज करती रहती है. वे बाहर कम जेल में ज़्यादा रहते हैं. तीन साल जेल में रहने के बाद छह महीने पहले ही बाहर आए थे कि दिल्ली दंगा हुआ और फिर वे जेल चले गए. अगर मेरे भाई अपराधी होते तो आज हम लोग ऐसे घर में रहते. आप देखिए टूटा हुआ है. जमानत कराने तक के पैसे नहीं हैं.’’

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