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जनता की भाषा में जनता की कहानी कहती ‘ऑफ द स्क्रीन’

पत्रकारिता में करियर बनाने वाले बहुत से छात्र अक्सर कहते हैं कि क्या पढ़ा जाए, जिससे पत्रकारिता की समझ बढ़े. इनमें ज्यादातर छात्र वह होते हैं जो टीवी पत्रकारिता में जाना चाहते हैं. दरअसल पत्रकारिता में आने का उनका मकसद ही होता है कि वो टीवी पर दिखें. हालांकि ज्यादातर छात्रों का यह सपना पत्रकारिता के बाद टूट जाता है. खैर मैं कहूंगा कि जो छात्र पत्रकारिता में ही अपना करियर बनाना चाहते हैं उन्हें एबीपी न्यूज के संवाददाता ब्रजेश राजपूत की किताब "ऑफ द स्क्रीन" को पढ़ना चाहिए.

इस किताब में भोपाल के एबीपी न्यूज़ संवाददाता ब्रजेश राजपूत ने टीवी रिपोर्टिंग से जुड़ी कहानियों को संजोया है. कहानियां ऐसी जिन्हें आसानी से समझा जा सके. सरल भाषा में लिखी गई इन छोटी-छोटी कहानियों को पढ़ने के बाद लगेगा कि टीवी पर दिखने वाली रिपोर्टिंग के पीछे जो मेहनत होती है उसका नतीजा यह किताब है. खासतौर पर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे उन छात्रों को पढ़कर पता लगेगा कि टीवी पर दिखने के पीछे कितनी कड़ी मेहनत होती है. सीमित समय में कहानियों को पूरा करने का कितना भारी दबाव होता है. इस दौरान एक रिपोर्टर को दफ्तर का प्रेशर, समय की पाबंदी, अन्य चैनलों से जल्दी, नेटवर्क प्रोब्लम, सही सोर्स, सटीक जानकारी होना, घटनास्थल पर तमाम बधाएं होती हैं.

किताब ‘ऑफ द स्क्रीन’ की पहली कहानी ही बताती है कि एक रिपोर्टर के लिए जिंदगी कैसी होती है. जब कहीं कोई आपदा आ जाती है तो लोग उस जगह को खाली करना चाहते हैं. किसी भी हाल में वहां से भागना चाहते हैं. लेकिन पत्रकारों के साथ उल्टा है, वह उस घटनास्थल पर जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहता है. हालांकि कई बार सुरक्षा की दृष्टि से पत्रकार भी लाख कोशिशों के बाद घटनास्थल पर नहीं पहुंच पाते हैं. लेकिन एक वक्त पर जब उन्हें घटना पर जाने का सिग्नल मिलता है तो लगता है जैसे भगवान ने उनकी सुन ली हो. ऐसी कहानियों का जिक्र भी इस किताब में आपको पढ़ने के लिए मिलेगा.

घटनास्थल पर पहुंचने के बाद चुनौतियां और ज्यादा बढ़ जाती हैं जैसे- सबसे पहले घटना के फोटो और वीडियो भेजने का प्रेशर, यह सब हो भी जाए तो कई बार नेटवर्क की समस्या से निपटना पड़ता है.

इसके बाद दुख होता है कि जब कोई पत्रकार बड़ी रिपोर्ट करता है, उसके लिए जी-जान से मेहनत करता है, शासन प्रशासन को जगाने का काम करता है. वह तथ्यों के साथ बताता है कि कौन सही है और कौन गलत. इसके बावजूद भी शासन प्रशासन उस पर एक्शन नहीं लेता है. कई बार ऐसा नहीं होने पर रिपोर्र भी मायूस हो जाते हैं.

किताब में ब्रिजेश राजपूत बताते हैं कि रिपोर्टर को कई बार बहुत सारी चुनौतियों से गुजरना पड़ता है. ब्रेकिंग मिलने के बाद उसकी पुष्टि करना, लोगों को फोन करना, अन्य जगहों से इनपुट लेना, अन्य चैनलों से खबर को जल्दी ब्रेक करना जैसे कई मुश्किल भरे काम होते हैं.

एक रिपोर्टर को कई बार ऐसी मुश्किल से भी गुजरना पड़ता है कि सामने खबर है लेकिन वह शूट नहीं कर सकते हैं. क्योंकि हर जगह कैमरा चलाना ठीक नहीं होता है खासकर संवेदनशील जगहों पर. किताब की कहानियां बताती हैं कि कैसे कई बार रिपोर्टर अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता करता है.

ब्रजेश कई सालों से एबीपी न्यूज से साथ जुड़े हैं. इन्होंने इस किताब के जरिए अपने अनुभव को पन्नों पर उतारा है. आज पत्रकारिता अपने अलग दौर में है. जब मीडिया के एक तबके को गोदी मीडिया कहा जा रहा है तब ब्रजेश की इस किताब को पढ़ना जरूरी है.

किताब ऑफ द स्क्रीन में शुरू से ही एक रिपोर्टर के संघर्ष को दिखाया गया है. इस किताब में उन्होंने 75 कहानियां लिखी हैं, जो कि बहुत ही सरल और आसानी से समझ में आने वाली भाषा में लिखी गईं हैं. इन किस्सों को पढ़कर आपको समझ आएगा कि एक रिपोर्टर की जिंदगी कैसी होती है. रिपोर्टर के लिए ना दिन दिन है ना रात रात. यहां छुट्टी वाले दिन भी बुला लिया जाता है. कई दिन तक लगातार काम करने के बाद भी आपको फिर से कोई स्टोरी पकड़ा दी जाती है. यहां तक की आपकी सलामती की खबर भी परिवार को टीवी के माध्यम से ही पता चलती है.

ब्रजेश ने कहानियों के माध्यम से टीवी रिपोर्टिंग के पीछे की असली कहानियों को बयां किया है. जैसे किसी हादसे के पीछे रिपोर्टर की तैयारी. उत्तराखंड की बाढ, एक आईपीएस की कहानी, ट्रेन हादसे की खबर, किसान आंदोलन जैसी चुनावी कवरेज की कहानियां वास्तविकता को दिखाती हैं.

ब्रजेश ने बिना तामझाम या भाषायी आडंबर के इस किताब के जरिए सच्चाई को पन्नों पर उतारा है. इन पन्नों को पढ़ने में ज्यादा वक्त भी नहीं लगेगा. अगर आप पढ़ने बैठें तो यह नहीं है कि ज्यादातर किताबों की तरह कहानी चलती ही रहती है. यहां हर चार से सात मिनट में कहानी कंपलीट हो रही है. उन्होंने बताने की कोशिश की है कि एक रिपोर्टर कैसे काम करता है. कैसे वह अपनी जान जोखिम में डालकर घर पर आराम फरमा रहे लोगों के लिए रिपोर्टिंग करता है.

इन कहानियों में देखने को मिलता है कि रिपोर्टर और नेताओं के बीच की दोस्ती कितनी अच्छी है. बड़े-बड़े नेताओं के फोन में ब्रिजेश का नंबर सेव है जो यूं ही कभी भी फोन उठा लेते हैं. तो कई बार नेता खुद ही फोन करके जानकारी दे देते हैं. मुख्यमंत्री भी हंसकर बात करते हैं और चाय पीने को कहते हैं. उत्तराखंड में आई बाढ़ की कहानी में एक विधायक खुद ही ब्रजेश को फोन कर कहते हैं कि हेलिकॉप्टर भोपाल में खड़ा है, थोड़ी देर में उड़ान भरेगा आपको चलना है तो आइए. वहीं एक अन्य कहानी में पुलिस के एक बड़े अधिकारी ब्रजेश को सुबह साढ़े चार बजे फोन कर खबर बता रहे हैं. ये बताता है कि एक पत्रकार के राजनेताओं और अधिकारियों के साथ कितने मधुर संबंध हैं. कहानियों में ऐसा बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलता है कि कहीं भी उन्हें रिपोर्टर का डर है या फिर उनके किसी गलत काम को रिपोर्टर द्वारा चुनौती दी जा रही हो. जैसे- भ्रष्टाचार, आपराध, राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं या फिर कोई ऐसा सवाल जिसमें कोई नेता या अधिकारी इनकी रिपोर्ट के चलते फंसता नजर आया हो. यहां सबकुछ बहुत कूल है.

हालांकि ब्रजेश अपनी आखिरी कहानी में खुद कहते हैं कि पत्रकारिता का एक सिद्धांत है कि जितना आप न्यूज सोर्स के करीब रहेंगे, उतनी सही और सटीक आपकी रिपोर्टिंग होगी.

ब्रजेश राजपूत ने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से बीएससी करने के बाद एमए की पढ़ाई की. वह टीवी न्यूज चैनल्स के कंटेंट एनालिसिस पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से पीएचडी भी कर चुके हैं. वह लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं अभी वह एबीपी न्यूज भोपाल में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं.

पत्रकारिता में करियर बनाने वाले बहुत से छात्र अक्सर कहते हैं कि क्या पढ़ा जाए, जिससे पत्रकारिता की समझ बढ़े. इनमें ज्यादातर छात्र वह होते हैं जो टीवी पत्रकारिता में जाना चाहते हैं. दरअसल पत्रकारिता में आने का उनका मकसद ही होता है कि वो टीवी पर दिखें. हालांकि ज्यादातर छात्रों का यह सपना पत्रकारिता के बाद टूट जाता है. खैर मैं कहूंगा कि जो छात्र पत्रकारिता में ही अपना करियर बनाना चाहते हैं उन्हें एबीपी न्यूज के संवाददाता ब्रजेश राजपूत की किताब "ऑफ द स्क्रीन" को पढ़ना चाहिए.

इस किताब में भोपाल के एबीपी न्यूज़ संवाददाता ब्रजेश राजपूत ने टीवी रिपोर्टिंग से जुड़ी कहानियों को संजोया है. कहानियां ऐसी जिन्हें आसानी से समझा जा सके. सरल भाषा में लिखी गई इन छोटी-छोटी कहानियों को पढ़ने के बाद लगेगा कि टीवी पर दिखने वाली रिपोर्टिंग के पीछे जो मेहनत होती है उसका नतीजा यह किताब है. खासतौर पर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे उन छात्रों को पढ़कर पता लगेगा कि टीवी पर दिखने के पीछे कितनी कड़ी मेहनत होती है. सीमित समय में कहानियों को पूरा करने का कितना भारी दबाव होता है. इस दौरान एक रिपोर्टर को दफ्तर का प्रेशर, समय की पाबंदी, अन्य चैनलों से जल्दी, नेटवर्क प्रोब्लम, सही सोर्स, सटीक जानकारी होना, घटनास्थल पर तमाम बधाएं होती हैं.

किताब ‘ऑफ द स्क्रीन’ की पहली कहानी ही बताती है कि एक रिपोर्टर के लिए जिंदगी कैसी होती है. जब कहीं कोई आपदा आ जाती है तो लोग उस जगह को खाली करना चाहते हैं. किसी भी हाल में वहां से भागना चाहते हैं. लेकिन पत्रकारों के साथ उल्टा है, वह उस घटनास्थल पर जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहता है. हालांकि कई बार सुरक्षा की दृष्टि से पत्रकार भी लाख कोशिशों के बाद घटनास्थल पर नहीं पहुंच पाते हैं. लेकिन एक वक्त पर जब उन्हें घटना पर जाने का सिग्नल मिलता है तो लगता है जैसे भगवान ने उनकी सुन ली हो. ऐसी कहानियों का जिक्र भी इस किताब में आपको पढ़ने के लिए मिलेगा.

घटनास्थल पर पहुंचने के बाद चुनौतियां और ज्यादा बढ़ जाती हैं जैसे- सबसे पहले घटना के फोटो और वीडियो भेजने का प्रेशर, यह सब हो भी जाए तो कई बार नेटवर्क की समस्या से निपटना पड़ता है.

इसके बाद दुख होता है कि जब कोई पत्रकार बड़ी रिपोर्ट करता है, उसके लिए जी-जान से मेहनत करता है, शासन प्रशासन को जगाने का काम करता है. वह तथ्यों के साथ बताता है कि कौन सही है और कौन गलत. इसके बावजूद भी शासन प्रशासन उस पर एक्शन नहीं लेता है. कई बार ऐसा नहीं होने पर रिपोर्र भी मायूस हो जाते हैं.

किताब में ब्रिजेश राजपूत बताते हैं कि रिपोर्टर को कई बार बहुत सारी चुनौतियों से गुजरना पड़ता है. ब्रेकिंग मिलने के बाद उसकी पुष्टि करना, लोगों को फोन करना, अन्य जगहों से इनपुट लेना, अन्य चैनलों से खबर को जल्दी ब्रेक करना जैसे कई मुश्किल भरे काम होते हैं.

एक रिपोर्टर को कई बार ऐसी मुश्किल से भी गुजरना पड़ता है कि सामने खबर है लेकिन वह शूट नहीं कर सकते हैं. क्योंकि हर जगह कैमरा चलाना ठीक नहीं होता है खासकर संवेदनशील जगहों पर. किताब की कहानियां बताती हैं कि कैसे कई बार रिपोर्टर अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता करता है.

ब्रजेश कई सालों से एबीपी न्यूज से साथ जुड़े हैं. इन्होंने इस किताब के जरिए अपने अनुभव को पन्नों पर उतारा है. आज पत्रकारिता अपने अलग दौर में है. जब मीडिया के एक तबके को गोदी मीडिया कहा जा रहा है तब ब्रजेश की इस किताब को पढ़ना जरूरी है.

किताब ऑफ द स्क्रीन में शुरू से ही एक रिपोर्टर के संघर्ष को दिखाया गया है. इस किताब में उन्होंने 75 कहानियां लिखी हैं, जो कि बहुत ही सरल और आसानी से समझ में आने वाली भाषा में लिखी गईं हैं. इन किस्सों को पढ़कर आपको समझ आएगा कि एक रिपोर्टर की जिंदगी कैसी होती है. रिपोर्टर के लिए ना दिन दिन है ना रात रात. यहां छुट्टी वाले दिन भी बुला लिया जाता है. कई दिन तक लगातार काम करने के बाद भी आपको फिर से कोई स्टोरी पकड़ा दी जाती है. यहां तक की आपकी सलामती की खबर भी परिवार को टीवी के माध्यम से ही पता चलती है.

ब्रजेश ने कहानियों के माध्यम से टीवी रिपोर्टिंग के पीछे की असली कहानियों को बयां किया है. जैसे किसी हादसे के पीछे रिपोर्टर की तैयारी. उत्तराखंड की बाढ, एक आईपीएस की कहानी, ट्रेन हादसे की खबर, किसान आंदोलन जैसी चुनावी कवरेज की कहानियां वास्तविकता को दिखाती हैं.

ब्रजेश ने बिना तामझाम या भाषायी आडंबर के इस किताब के जरिए सच्चाई को पन्नों पर उतारा है. इन पन्नों को पढ़ने में ज्यादा वक्त भी नहीं लगेगा. अगर आप पढ़ने बैठें तो यह नहीं है कि ज्यादातर किताबों की तरह कहानी चलती ही रहती है. यहां हर चार से सात मिनट में कहानी कंपलीट हो रही है. उन्होंने बताने की कोशिश की है कि एक रिपोर्टर कैसे काम करता है. कैसे वह अपनी जान जोखिम में डालकर घर पर आराम फरमा रहे लोगों के लिए रिपोर्टिंग करता है.

इन कहानियों में देखने को मिलता है कि रिपोर्टर और नेताओं के बीच की दोस्ती कितनी अच्छी है. बड़े-बड़े नेताओं के फोन में ब्रिजेश का नंबर सेव है जो यूं ही कभी भी फोन उठा लेते हैं. तो कई बार नेता खुद ही फोन करके जानकारी दे देते हैं. मुख्यमंत्री भी हंसकर बात करते हैं और चाय पीने को कहते हैं. उत्तराखंड में आई बाढ़ की कहानी में एक विधायक खुद ही ब्रजेश को फोन कर कहते हैं कि हेलिकॉप्टर भोपाल में खड़ा है, थोड़ी देर में उड़ान भरेगा आपको चलना है तो आइए. वहीं एक अन्य कहानी में पुलिस के एक बड़े अधिकारी ब्रजेश को सुबह साढ़े चार बजे फोन कर खबर बता रहे हैं. ये बताता है कि एक पत्रकार के राजनेताओं और अधिकारियों के साथ कितने मधुर संबंध हैं. कहानियों में ऐसा बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलता है कि कहीं भी उन्हें रिपोर्टर का डर है या फिर उनके किसी गलत काम को रिपोर्टर द्वारा चुनौती दी जा रही हो. जैसे- भ्रष्टाचार, आपराध, राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं या फिर कोई ऐसा सवाल जिसमें कोई नेता या अधिकारी इनकी रिपोर्ट के चलते फंसता नजर आया हो. यहां सबकुछ बहुत कूल है.

हालांकि ब्रजेश अपनी आखिरी कहानी में खुद कहते हैं कि पत्रकारिता का एक सिद्धांत है कि जितना आप न्यूज सोर्स के करीब रहेंगे, उतनी सही और सटीक आपकी रिपोर्टिंग होगी.

ब्रजेश राजपूत ने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से बीएससी करने के बाद एमए की पढ़ाई की. वह टीवी न्यूज चैनल्स के कंटेंट एनालिसिस पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से पीएचडी भी कर चुके हैं. वह लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं अभी वह एबीपी न्यूज भोपाल में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं.