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टूलकिट मामला: संविधान बोलता है तो नकली चेहरे ऐसे ही बेपर्दा हो जाते हैं

एक अच्छा, गहरा व तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक या फिर आजाद कलम रखने वाला कोई बे-गोदी पत्रकार चाह कर भी आज की परिस्थिति और उससे उभरते खतरों के बारे में वैसा सधा, गहन विश्लेषण नहीं लिख पाता जैसा दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज धर्मेंद्र राणा ने अपने 14 पृष्ठों के आदेश में लिखा है. इसे राजनीतिक विश्लेषकों व पत्रकारों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. बंगलुरू की 22 साल की लड़की दिशा रवि को जमानत देते हुए राणा साहब ने जो कुछ और जिस तरह लिखा है वह हाल के वर्षों में अदालत की तरफ से सामने आया सबसे शानदार संवैधानिक दस्तावेज है. हमारे सर्वोच्च न्यायालय के तथाकथित न्यायमूर्ति यदि इससे कुछ सीख सकें तो अपने मूर्तिवत अस्तित्व से छुटकारा पा सकते हैं.

कहा जाता है कि जमानत का आदेश अत्यंत संक्षिप्त होना चाहिए क्योंकि मुकदमा तो जमानत के बाद खुलता ही है और वादी-प्रतिवादी-जज तीनों को अपनी बात सविस्तार कहने का मौका मिलता है. लेकिन सारे देश में जैसी जड़ता बनी हुई है उसमें यह किताबी बात बन जाती है. हमारे संविधान की विशेषता ही यह है कि यदि इसका आत्मत: पालन और पूर्ण सम्मान किया जा रहा हो तो इसके किसी भी खंभे को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती है. लोकतंत्र जब राष्ट्र-जीवन की रगों में बहता होता है तो वह अपनी तरह से रोज ही संविधान की व्याख्या करता चलता है. लेकिन जब लोकतंत्र जुमला बना दिया जाता है और उसके सारे खंभे अपने गंदे कपड़ों को टांगने की खूंटी में बदल दिए जाते हैं तब जरूरत पड़ती ही है कि कोई एस मुरलीधरन या कोई धर्मेंद्र राणा बोलें और पूरी बात बोलें. गूंगे न्यायमूर्ति संविधान को भी श्रीहीन कर देते हैं.

दिशा के जगजाहिर मामले के विस्तार में जाने की यहां जरूरत नहीं है. इतना कहने की जरूरत है कि उसकी गिरफ्तारी न केवल असंवैधानिक थी बल्कि सत्ता के इशारे पर दिल्ली पुलिस द्वारा की गई एक आतंकवादी कार्रवाई थी. धर्मेंद्र राणा ने अपने फैसले में कहा कि उनके सामने एक भी ऐसी पुख्ता दलील या सबूत नहीं ला सकी, दिल्ली पुलिस जिससे कहीं दूर से भी यह नतीजा निकाला जा सके कि दिशा या उसका ‘टूलकिट’ हिंसा उकसाने वाला था या 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में हुई हिंसा का प्रेरक था. ऐसा कहते हुए राणा साहब जाने-अनजाने दिल्ली पुलिस और उसके आका गृहमंत्री को एक साथ ही अयोग्यता का प्रमाणपत्र दे रहे थे. दिशा की गिरफ्तारी का औचित्य दिल्ली पुलिस प्रमुख व गृहमंत्री ने टीवी पर आ कर जिस तरह बताया था उसके बाद जरूरी था कि कोई चिल्ला कर व अंगुली दिखाकर वह सब कहे कि जो राणा साहब ने कहा है. जब भी और जहां भी संविधान बोलता है, नकली चेहरे ऐसे ही बेपर्दा हो जाते हैं.

दिशा की गिरफ्तारी बेबुनियाद व असंवैधानिक थी, यह कह कर राणा साहब ने उसे जमानत दे दी. यह तो जरूरी बड़ी बात हुई ही लेकिन इससे अहम हैं उनकी कुछ स्थापनाएं जिसमें वे कहते हैं कि “किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता अपनी सरकार की अंतरात्मा की प्रहरी होती है,” और आप किसी को भी “सिर्फ इसलिए उठा कर सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा दे सकते हैं कि वह राज्य की नीतियों से सहमत नहीं है.” वे यह भी कहते हैं कि “किसी सरकारी मुखौटे की सजावट पर खम पड़ने से आप किसी पर धारा 124ए के तहत देशद्रोह का अपराध नहीं मढ़ दे सकते हैं.” वे यह भी रेखांकित करते हैं कि “किसी संदिग्ध व्यक्ति से संपर्क मात्र को आप अपराध करार नहीं दे सकते. देखना तो यह चाहिए कि क्या उसकी किसी गर्हित गतिविधि में आरोपी की संलग्नता है? मैं काफी छानबीन के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि आरोपी पर ऐसा कोई अभियोग लगाया नहीं जा सकता है.” फिर उन्होंने वह संदर्भ लिया जिसमें दिल्ली पुलिस व गृहमंत्री दोनों ने कहा था कि दिशा ने ‘टूलकिट’ बना कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल संसार में भारत की छवि बिगाड़ी है बल्कि देश के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र भी खड़ा किया.

सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का उल्लेख करते हुए राणा साहब ने कहा कि संविधान की धारा 19 असहमति के अधिकार को पुरजोर तरीके से स्थापित करती है और “बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी में दुनिया भर से उसके लिए समर्थन मांगने की आजादी भी शामिल है.” ऋगवेद को उद्धृत करते हुए राणा साहब ने कहा कि हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता का ऋषि गाता है कि हमारे पास हर तरफ से कल्याणकारी विचार आने चाहिए. हर तरफ कहने से ऋषि का मतलब है संसार के कोने-कोने से. अगर तब यह आदर्श था तो आज इसे अपराध कैसे मान सकते हैं हम?

राणा साहब पांच हजार साल पीछे न जाते तो उन्हें ज्यादा नहीं, कोई 70 साल पहले का अपना आधुनिक ऋषि महात्मा गांधी भी मिल जाता जिसने कहा था- मैं चाहता हूं कि मेरे कमरे के सारे दरवाजे-खिड़कियां खुली रहें ताकि उनसे दुनिया भर की हवाएं मेरे कमरे में आती-जाती रहें लेकिन मेरे पांव मजबूती से मेरी धरती में गड़े हों ताकि कोई मुझे उखाड़ न ले जा सके. लेकिन सवाल तो उनका है जिनका अस्तित्व इसी पर टिका है कि उन्होंने अपने मन-प्राणों की हर खिड़कियां बंद कर रखी हैं ताकि कोई नई रोशनी भीतर उतर न जाए. ये अंधकारजीवी प्राणी हैं. राणा साहब ने इस अंधेरे मन पर भी चोट की है.

सवाल एकदम बुनियादी है. लोकतंत्र में मतभिन्नता तो रहेगी ही. वही उसकी प्राणवायु है. लेकिन भिन्न मत लोकतंत्र में कभी भी अपराध नहीं माना जाएगा, यह उसका अनुशासन है. संविधान इसी की घोषणा करता है और इसके लिए न्यायपालिका नाम का एक तंत्र बनाता है जिसके होने का एकमात्र औचित्य यह है कि वह संविधान के लिए ही जिएगा और संविधान के लिए ही मरेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं सका, हो नहीं रहा है. संविधान के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता वाली न्यायपालिका हम बना नहीं सके हैं क्योंकि ऐसी न्यायपालिका के लिए प्रतिबद्ध समाज नहीं बना है. यह सबसे अंधेरी घड़ी है तो इसलिए कि यहां हर आदमी अपने लिए तो लोकतंत्र चाहता है, दूसरे के किसी भी लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान नहीं करता है. ऐसे नागरिकों को ऐसी ही न्यायपालिका मिल सकती है कि जो संविधान की किताब को बंद कर, किसी सरकारी निर्देश या संकेत पर सुनती-बोलती और फैसले करती है.

दशा रवि मामले को ले कर राणा साहब ने एक बार फिर वह लकीर खींच दी है जो लोक को तंत्र का निशाना बनने से रोकती है. किसी भी लोकतांत्रिक समाज की यही दिशा हो सकती है कि वह लोकतंत्र की नई दिशाएं खोले.

एक अच्छा, गहरा व तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक या फिर आजाद कलम रखने वाला कोई बे-गोदी पत्रकार चाह कर भी आज की परिस्थिति और उससे उभरते खतरों के बारे में वैसा सधा, गहन विश्लेषण नहीं लिख पाता जैसा दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज धर्मेंद्र राणा ने अपने 14 पृष्ठों के आदेश में लिखा है. इसे राजनीतिक विश्लेषकों व पत्रकारों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. बंगलुरू की 22 साल की लड़की दिशा रवि को जमानत देते हुए राणा साहब ने जो कुछ और जिस तरह लिखा है वह हाल के वर्षों में अदालत की तरफ से सामने आया सबसे शानदार संवैधानिक दस्तावेज है. हमारे सर्वोच्च न्यायालय के तथाकथित न्यायमूर्ति यदि इससे कुछ सीख सकें तो अपने मूर्तिवत अस्तित्व से छुटकारा पा सकते हैं.

कहा जाता है कि जमानत का आदेश अत्यंत संक्षिप्त होना चाहिए क्योंकि मुकदमा तो जमानत के बाद खुलता ही है और वादी-प्रतिवादी-जज तीनों को अपनी बात सविस्तार कहने का मौका मिलता है. लेकिन सारे देश में जैसी जड़ता बनी हुई है उसमें यह किताबी बात बन जाती है. हमारे संविधान की विशेषता ही यह है कि यदि इसका आत्मत: पालन और पूर्ण सम्मान किया जा रहा हो तो इसके किसी भी खंभे को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती है. लोकतंत्र जब राष्ट्र-जीवन की रगों में बहता होता है तो वह अपनी तरह से रोज ही संविधान की व्याख्या करता चलता है. लेकिन जब लोकतंत्र जुमला बना दिया जाता है और उसके सारे खंभे अपने गंदे कपड़ों को टांगने की खूंटी में बदल दिए जाते हैं तब जरूरत पड़ती ही है कि कोई एस मुरलीधरन या कोई धर्मेंद्र राणा बोलें और पूरी बात बोलें. गूंगे न्यायमूर्ति संविधान को भी श्रीहीन कर देते हैं.

दिशा के जगजाहिर मामले के विस्तार में जाने की यहां जरूरत नहीं है. इतना कहने की जरूरत है कि उसकी गिरफ्तारी न केवल असंवैधानिक थी बल्कि सत्ता के इशारे पर दिल्ली पुलिस द्वारा की गई एक आतंकवादी कार्रवाई थी. धर्मेंद्र राणा ने अपने फैसले में कहा कि उनके सामने एक भी ऐसी पुख्ता दलील या सबूत नहीं ला सकी, दिल्ली पुलिस जिससे कहीं दूर से भी यह नतीजा निकाला जा सके कि दिशा या उसका ‘टूलकिट’ हिंसा उकसाने वाला था या 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में हुई हिंसा का प्रेरक था. ऐसा कहते हुए राणा साहब जाने-अनजाने दिल्ली पुलिस और उसके आका गृहमंत्री को एक साथ ही अयोग्यता का प्रमाणपत्र दे रहे थे. दिशा की गिरफ्तारी का औचित्य दिल्ली पुलिस प्रमुख व गृहमंत्री ने टीवी पर आ कर जिस तरह बताया था उसके बाद जरूरी था कि कोई चिल्ला कर व अंगुली दिखाकर वह सब कहे कि जो राणा साहब ने कहा है. जब भी और जहां भी संविधान बोलता है, नकली चेहरे ऐसे ही बेपर्दा हो जाते हैं.

दिशा की गिरफ्तारी बेबुनियाद व असंवैधानिक थी, यह कह कर राणा साहब ने उसे जमानत दे दी. यह तो जरूरी बड़ी बात हुई ही लेकिन इससे अहम हैं उनकी कुछ स्थापनाएं जिसमें वे कहते हैं कि “किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता अपनी सरकार की अंतरात्मा की प्रहरी होती है,” और आप किसी को भी “सिर्फ इसलिए उठा कर सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा दे सकते हैं कि वह राज्य की नीतियों से सहमत नहीं है.” वे यह भी कहते हैं कि “किसी सरकारी मुखौटे की सजावट पर खम पड़ने से आप किसी पर धारा 124ए के तहत देशद्रोह का अपराध नहीं मढ़ दे सकते हैं.” वे यह भी रेखांकित करते हैं कि “किसी संदिग्ध व्यक्ति से संपर्क मात्र को आप अपराध करार नहीं दे सकते. देखना तो यह चाहिए कि क्या उसकी किसी गर्हित गतिविधि में आरोपी की संलग्नता है? मैं काफी छानबीन के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि आरोपी पर ऐसा कोई अभियोग लगाया नहीं जा सकता है.” फिर उन्होंने वह संदर्भ लिया जिसमें दिल्ली पुलिस व गृहमंत्री दोनों ने कहा था कि दिशा ने ‘टूलकिट’ बना कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल संसार में भारत की छवि बिगाड़ी है बल्कि देश के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र भी खड़ा किया.

सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का उल्लेख करते हुए राणा साहब ने कहा कि संविधान की धारा 19 असहमति के अधिकार को पुरजोर तरीके से स्थापित करती है और “बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी में दुनिया भर से उसके लिए समर्थन मांगने की आजादी भी शामिल है.” ऋगवेद को उद्धृत करते हुए राणा साहब ने कहा कि हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता का ऋषि गाता है कि हमारे पास हर तरफ से कल्याणकारी विचार आने चाहिए. हर तरफ कहने से ऋषि का मतलब है संसार के कोने-कोने से. अगर तब यह आदर्श था तो आज इसे अपराध कैसे मान सकते हैं हम?

राणा साहब पांच हजार साल पीछे न जाते तो उन्हें ज्यादा नहीं, कोई 70 साल पहले का अपना आधुनिक ऋषि महात्मा गांधी भी मिल जाता जिसने कहा था- मैं चाहता हूं कि मेरे कमरे के सारे दरवाजे-खिड़कियां खुली रहें ताकि उनसे दुनिया भर की हवाएं मेरे कमरे में आती-जाती रहें लेकिन मेरे पांव मजबूती से मेरी धरती में गड़े हों ताकि कोई मुझे उखाड़ न ले जा सके. लेकिन सवाल तो उनका है जिनका अस्तित्व इसी पर टिका है कि उन्होंने अपने मन-प्राणों की हर खिड़कियां बंद कर रखी हैं ताकि कोई नई रोशनी भीतर उतर न जाए. ये अंधकारजीवी प्राणी हैं. राणा साहब ने इस अंधेरे मन पर भी चोट की है.

सवाल एकदम बुनियादी है. लोकतंत्र में मतभिन्नता तो रहेगी ही. वही उसकी प्राणवायु है. लेकिन भिन्न मत लोकतंत्र में कभी भी अपराध नहीं माना जाएगा, यह उसका अनुशासन है. संविधान इसी की घोषणा करता है और इसके लिए न्यायपालिका नाम का एक तंत्र बनाता है जिसके होने का एकमात्र औचित्य यह है कि वह संविधान के लिए ही जिएगा और संविधान के लिए ही मरेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं सका, हो नहीं रहा है. संविधान के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता वाली न्यायपालिका हम बना नहीं सके हैं क्योंकि ऐसी न्यायपालिका के लिए प्रतिबद्ध समाज नहीं बना है. यह सबसे अंधेरी घड़ी है तो इसलिए कि यहां हर आदमी अपने लिए तो लोकतंत्र चाहता है, दूसरे के किसी भी लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान नहीं करता है. ऐसे नागरिकों को ऐसी ही न्यायपालिका मिल सकती है कि जो संविधान की किताब को बंद कर, किसी सरकारी निर्देश या संकेत पर सुनती-बोलती और फैसले करती है.

दशा रवि मामले को ले कर राणा साहब ने एक बार फिर वह लकीर खींच दी है जो लोक को तंत्र का निशाना बनने से रोकती है. किसी भी लोकतांत्रिक समाज की यही दिशा हो सकती है कि वह लोकतंत्र की नई दिशाएं खोले.