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विश्विद्यालयों, कॉलेजों और शोध संस्थानों के लिए एक स्वायत्त नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन के मायने

नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन (एनआरएफ़)- जिसे पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय संबोधन में जगह मिली थी. जिसको नई शिक्षा नीति (NEP2020) के तहत परिकल्पित स्वायत्त निधि का गठन किया जाना है. ये नई नीति के तहत की गयी सबसे बड़ी घोषणाओं में से एक है. यह भारत में गुणवत्ता वाले अनुसंधान को स्थापित करने के लिए वित्तपोषण, परामर्श और नए अनुसंधान संस्थानों के निर्माण को दिखेगा. एनआरएफ का उद्देश्य भारत भर में सभी तरह के कॉलेज, विश्विद्यालय और अनुसंधान संस्थानों में काम करने वाले शोधकर्ताओं को निधि देना होगा. अनुसंधान के गैर- विज्ञान विषयों को अपने दायरे में लाने के लिए, एनआरएफ चार प्रमुख विषयों में अनुसंधान परियोजनाओं को निधि देगा- विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामाजिक विज्ञान और कला एवं मानविकी. लम्बे समय से भारत में शोधकर्ताओं की कमी के पीछे सबसे बड़े कारणों में से एक के रूप में अनुसंधान और नवाचार के लिए फंड आवंटन में कमी का हवाला दिया गया है. एनईपी2020 भी इस बात को स्वीकार करती है. ये कहती है, "भारत में अनुसंधान और नवाचार निवेश वर्तमान समय में जीडीपी का केवल 0.69 प्रतिशत है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में 2.8 प्रतिशत, इज़राइल में 4.3 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 4.2 प्रतिशत है."

हालांकि, ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि धन की कमी ही इस समस्या का एकमात्र कारण है. भारत में शोधार्थियों की संख्या बुनियादी रूप से कम है, और इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ा कर और छात्रों में इसके प्रति रूचि पैदा करने की आवश्यकता है. वर्तमान में, देश में शोधकर्ताओं (प्रति लाख जनसंख्या) की संख्या चीन, अमेरिका के साथ ही इज़राइल सहित कई छोटे देशों से काफ़ी कम है. ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) की रिपोर्ट के अनुसार, "केवल 0.5 फीसदी से भी कम भारतीय छात्र पीएचडी या समकक्ष शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं. अनुसंधान में बढ़ती भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए, एनआरएफ़ स्कूलों में शोध प्रतिभाओं की पहचान करने, विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देने, स्नातक पाठ्यक्रम में अनुसंधान और इंटर्नशिप को अनिवार्य करने, संकाय कैरियर प्रबंधन प्रणाली का सुझाव देता है जो अनुसंधान को उचित भारांक देते हैं. जबकि NEP2020 के ड्राफ्ट में तीन और पांच साल के लिए हर साल 500 राष्ट्रीय पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप (एनपीडीएफ) और 500 राष्ट्रीय डॉक्टोरल फेलोशिप (एनडीएफ) की पेशकश की गयी थी, जबकि अंतिम नीति में अब इसका कहीं उल्लेख नहीं है."

एनईपी2020 में कहा गया है, "एनआरएफ “योग्यता-आधारित लेकिन न्यायसंगत समतुल्य विशेषज्ञों की समीक्षा द्वारा अनुसंधान निधि” का विश्वसनीय आधार प्रदान करेगा, जो “उत्कृष्ट शोध के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन” के माध्यम से देश में अनुसंधान की संस्कृति को विकसित करने में मदद करेगा."

इसमें यह भी उल्लेख किया गया है, "एनआरएफ राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों में अनुसंधान और विकास के लिए बड़ी पहल करेगा, जहां वर्तमान में अनुसंधान क्षमता सीमित या नगण्य है."

केंद्रीय बजट 2021 में अगली पंचवर्षी में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के लिए 50,000 करोड़ रुपये

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एनआरएफ के निर्माण के लिए अगली पंचवर्षी में 50,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्रस्ताव दिया है. सीतारमण ने एनईपी2020 के एक मसौदे में प्रस्तावित होने के बाद पहली बार अपने 2019 के बजट भाषण में एनआरएफ की नींव रखने की घोषणा की थी. यह (एनआरएफ) यह सुनिश्चित करेगा कि देश में समग्र अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र को राष्ट्रोपयोगी शोध के विषयों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ मजबूत किया जाए.

एनआरऍफ़ एक औपचारिक तंत्र के माध्यम से विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अनुसंधान क्षमता का बीजारोपण और निर्माण करेगा. यह उन विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शोध को भी उत्प्रेरित करेगा जो अब तक शोध के क्षेत्र में अभी तक पिछड़े हुए हैं. एनआरएफ एक संस्थागत परामर्श तंत्र के माध्यम से अनुसंधान करने की क्षमता बनाने और उसको बढ़ाने में मदद करेगा.

इस परामर्श तंत्र में देश के प्रमुख संस्थानों के विशेषज्ञ शोधकर्ता शामिल किये जायेंगे. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव प्रोफ़ेसर आशुतोष शर्मा का कहना है, "एनआरएफ एक स्वायत्त एजेंसी होगी और सभी प्रमुख अनुसंधान और शिक्षा संस्थानों के विशेषज्ञों के प्रतिनिधित्व में चलाया जायेगा. अंतः विषय-अनुसंधानों को पहले से ही विज्ञान मंत्रालयों द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है, उसे आगे बढ़ाया जायेगा. जब सभी शोध गतिविधियों को एक ही एजेंसी (एनआरएफ) द्वारा संचालित किया जाएगा तब एक ही तरह के शोध के लिए एक से ज़्यादा बार या एक से ज़्यादा विशेषज्ञों को वित्त-पोषित करने की संभावना से बचा जा सकेगा." इससे संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा.

हालांकि लगातार दो वर्षों के बजट भाषणों में महत्वकांशी एनआरएफ पर घोषणाओं के बावजूद इस वर्ष के बजट में प्रमुख विज्ञान विभागों को आवंटित बजट में कटौती देखी जा सकती है, अधिकांश को मार्च से पहले तक खर्च करने की उम्मीद है. जो पिछले वित्तीय वर्ष में अनुमानित थी. उदाहरण के लिए, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को 2020-21 के लिए 2,074 करोड़ का बजट दिया गया था, लेकिन केवल 1,304 करोड़ खर्च करने की उम्मीद है. इस साल के बजट में इसे 1,901 करोड़ ही आवंटित किए गए हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग को पिछले साल 6,313 करोड़ का बजट दिया गया था, लेकिन संभवतः 5,012 करोड़ ही खर्च होंगे. इस साल इसे 6,071 करोड़ आवंटित किए गए हैं. वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग को 5,385 करोड़ दिए गए थे, लेकिन इसके 4,251 करोड़ ही खर्च होने की संभावना है. इसे इस साल के बजट में 5,241 करोड़ रुपये दिया गया है. जैव प्रौद्योगिकी विभाग के आवंटन में वृद्धि हुई है और उसे 3,502 करोड़ रुपये दिए गए हैं. पिछले साल इसने 2,300 करोड़ खर्च किए थे और 2,786 करोड़ रुपए का बजट था.

एनआरएफ की स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है

एनआरएफ कई हजारों विश्वविद्यालय शोधकर्ताओं को अपनी प्रतिभा विकसित करने में मदद देगी. इसके वास्तुकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार के साथ काम करना चाहिए कि यह वास्तव में स्वायत्त ही रहे. यह एक बड़ा बदलाव होगा, भारत के उपेक्षित विश्वविद्यालयों और कॉलेज के शोधकर्ताओं को एनआरएफ जैसी एक नई फंडिंग एजेंसी मिल रही है. इस साल के बजट में घोषित एनआरएफ, इस साल शुरू होने वाले अपने पहले पांच वर्षों के लिए सालाना 10,000 करोड़ रुपये का वितरण करेगा. एनआरएफ की शुरूआती योजना में गहरे समुद्र में अनुसंधान के लिए अगली पंचवर्षीय में 40 अरब रुपये से अधिक का निवेश करने की योजना शीर्ष पर आती है. चार नए वायरोलॉजी संस्थान स्थापित करना भी है. और हाइड्रोजन ऊर्जा के विकास के लिए भी प्रतिबद्धता प्रकट की गयी है.

भारत के शोधकर्ताओं के लिए ये एक बहुत अच्छी खबर है, लेकिन शिक्षाविदों की एनआरएफ को लेकर सरकार के हस्तक्षेप के बारे में चिंतायें भी हैं. परिवर्तनों का लाभ पूरी तरह से तभी प्राप्त होगा जब एनआरएफ को स्वतंत्र एजेंसी के रूप से कार्य करने की अनुमति होगी. कुछ भी हो लेकिन एनआरएफ बनाने के महत्व को कम नहीं किया जा सकता है. यह कम से कम एक दशक में भारत की अनुसंधान- वित्त नीति में सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा. 70 से अधिक वर्षों के लिए, भारत के कई हजारों कॉलेजों और 1,000 से अधिक विश्वविद्यालयों के हज़ारों शोधकर्ताओं ने इसके द्वारा बड़े अनुदान का एक स्रोत प्राप्त किया है. अब तक भारत की अधिकांश अनुसंधान और विकास निधि सरकारी प्रयोगशालाओं और विज्ञान एवम प्रौद्योगिकी के प्रतिष्ठित संस्थानों के एक खास नेटवर्क पर ही केंद्रित रहा है, जबकि विश्वविद्यालयों का ध्यान केवल शिक्षण पर रहा है.

परिणामस्वरूप, 2017 में भारत में प्रति दस लाख लोगों में सिर्फ 255 शोधकर्ता थे. जबकि कई अन्य देशों में यह संख्या काफी बेहतर थी. उदाहरण के लिए, इज़राइल में 8,342, स्वीडन में 7,597 और दक्षिण कोरिया में 7,498 जो की भारत के मुकाबले काफी छोटे देश हैं. विश्वविद्यालय-आधारित शोधकर्ताओं की पीढ़ी अपने से बेहतर वित्त पोषित सहयोगियों को प्रदान किए गए संसाधनों के साथ एक सामान स्तर पर पहुंचना चाहती है, और इससे पहले भी एनआरएफ जैसी एजेंसी बनाने के बारे में सरकारों ने चर्चा की है. यह महत्वाकांक्षा अब कुछ-कुछ साकार होती दिख रही है. और इस सपने को पुलकित करवाने में जीवविज्ञानी एवं भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णास्वामी विजयराघवन की दूरदर्शिता और कूटनीतिक कौशल का एक बड़ा योगदान माना जा रहा है. विजयराघवन ने कहा कि गरीबी को खत्म करने और स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता, गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए "सामाजिक विज्ञान एवम मानविकी और राष्ट्र के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों" की गहरी समझ की आवश्यकता होगी. सरकार ने अभी तक एनआरएफ की पूर्ण कार्यप्रणाली का विवरण प्रदान नहीं किया है कि एनआरएफ देश के सार्वजनिक प्रशासन, नौकरशाही और कार्यपालिका में कहां फिट बैठेगा.

इसे एक सरकारी मंत्रालय के साथ जोड़ा जा सकता है. जैसा कि यूनाइटेड किंगडम के सबसे बड़े विज्ञान-निधि निकाय मंत्रालय के साथ जुड़े हुए हैं. या यह संसद को सीधा रिपोर्ट कर सकता है, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा. भारत सरकार ने प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है कि एनआरएफ स्वायत्त रूप से काम करेगा, इसका कोई असर नहीं होगा कि यह नौकरशाही और कार्यपालिका के किस खांचे में बैठे. विजयराघवन और उनके सहयोगियों को यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार के साथ काम करने की आवश्यकता है कि अनुदान प्राप्तकर्ता और एजेंसी चलाने वाले दोनों ही निर्णय लेने में सक्षम हों. जैसे कि बिना सरकारी अधिकारियों के हस्तक्षेप के कर्मचारियों या सहकर्मी विशेषज्ञ समीक्षकों की नियुक्ति करना. बिलकुल ऐसे ही तमाम अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान-वित्त नीति एजेंसियां स्वायत्त तरीके से काम करती हैं.

भारत के शोधकर्ता पिछले कुछ समय से सरकार के द्वारा अनुसंधान स्वायत्तता को कम करने पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं. 2017 में, 40 शहरों में विज्ञान के लिए मार्च में लगभग 12,000 शोधकर्ताओं ने भाग लिया था. 2019 में, 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पात्र लिखा था, जिसमे आधिकारिक आंकड़ों- विशेष रूप से आर्थिक आंकड़ों पर राजनीतिक प्रभाव को समाप्त करने का आग्रह किया गया था. अभी पिछले महीने, शिक्षा मंत्रालय ने विश्वविद्यालयों को एक पत्र जारी करके कहा था- "उन्हें अंतर्राष्ट्रीय वक्ताओं के साथ ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी होगी. सरकार का कहना है कि यह व्यवस्था हमेशा से चली आ रही व्यवस्था से अलग नहीं है, जिसमे जब ऑफलाइन कार्यक्रमों के लिए अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों को भारत आने के लिए आमंत्रित करने की अनुमति लेनी होती है, लेकिन शोधकर्ताओं ने ऑनलाइन कार्यक्रमों के लिए ऐसी व्यवस्था को अनावश्यक बताया है."

वे कहते हैं, "इस तरह से एक और लालफीताशाही वाली बाधा को बढ़ा देने से भारत में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय ऑनलाइन कार्यक्रमों के आयोजन ही कम हो जायेंगे. एनआरएफ जैसी एजेंसी का भारत में उद्भव होने में काफी समय लग गया, हलांकि यह देर आये, दुरुस्त आये को चरितार्थ करेगा और भविष्य में इसकी स्थापना महान दूरदर्शिता का परिणाम साबित होगी. अपनी क्षमता का एहसास करने के लिए विद्वानों की नई पीढ़ियों को सक्षम करना देश के लिए इसकी महत्वपूर्ण विरासत होगी. लेकिन इसे एक पक्की नींव के साथ शुरू करने की ज़रूरत है."

इसका मतलब यह है कि, इस एजेंसी को अनुचित प्रभावों मुक्त रख कर केवल वैज्ञानिक उत्कृष्टता के विकास पर ही केंद्रित रखना होगा. इसको किसी भी तरह के राजनैतिक प्रभावों से मुक्त रखना होगा, न केवल वर्तमान सरकार से, बल्कि भविष्य में आने वाले सरकारी उत्तराधिकारियों से भी.

(लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्विद्यालय, लखनऊ, में बायोटेक्नोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन (एनआरएफ़)- जिसे पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय संबोधन में जगह मिली थी. जिसको नई शिक्षा नीति (NEP2020) के तहत परिकल्पित स्वायत्त निधि का गठन किया जाना है. ये नई नीति के तहत की गयी सबसे बड़ी घोषणाओं में से एक है. यह भारत में गुणवत्ता वाले अनुसंधान को स्थापित करने के लिए वित्तपोषण, परामर्श और नए अनुसंधान संस्थानों के निर्माण को दिखेगा. एनआरएफ का उद्देश्य भारत भर में सभी तरह के कॉलेज, विश्विद्यालय और अनुसंधान संस्थानों में काम करने वाले शोधकर्ताओं को निधि देना होगा. अनुसंधान के गैर- विज्ञान विषयों को अपने दायरे में लाने के लिए, एनआरएफ चार प्रमुख विषयों में अनुसंधान परियोजनाओं को निधि देगा- विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामाजिक विज्ञान और कला एवं मानविकी. लम्बे समय से भारत में शोधकर्ताओं की कमी के पीछे सबसे बड़े कारणों में से एक के रूप में अनुसंधान और नवाचार के लिए फंड आवंटन में कमी का हवाला दिया गया है. एनईपी2020 भी इस बात को स्वीकार करती है. ये कहती है, "भारत में अनुसंधान और नवाचार निवेश वर्तमान समय में जीडीपी का केवल 0.69 प्रतिशत है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में 2.8 प्रतिशत, इज़राइल में 4.3 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 4.2 प्रतिशत है."

हालांकि, ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि धन की कमी ही इस समस्या का एकमात्र कारण है. भारत में शोधार्थियों की संख्या बुनियादी रूप से कम है, और इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ा कर और छात्रों में इसके प्रति रूचि पैदा करने की आवश्यकता है. वर्तमान में, देश में शोधकर्ताओं (प्रति लाख जनसंख्या) की संख्या चीन, अमेरिका के साथ ही इज़राइल सहित कई छोटे देशों से काफ़ी कम है. ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) की रिपोर्ट के अनुसार, "केवल 0.5 फीसदी से भी कम भारतीय छात्र पीएचडी या समकक्ष शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं. अनुसंधान में बढ़ती भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए, एनआरएफ़ स्कूलों में शोध प्रतिभाओं की पहचान करने, विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देने, स्नातक पाठ्यक्रम में अनुसंधान और इंटर्नशिप को अनिवार्य करने, संकाय कैरियर प्रबंधन प्रणाली का सुझाव देता है जो अनुसंधान को उचित भारांक देते हैं. जबकि NEP2020 के ड्राफ्ट में तीन और पांच साल के लिए हर साल 500 राष्ट्रीय पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप (एनपीडीएफ) और 500 राष्ट्रीय डॉक्टोरल फेलोशिप (एनडीएफ) की पेशकश की गयी थी, जबकि अंतिम नीति में अब इसका कहीं उल्लेख नहीं है."

एनईपी2020 में कहा गया है, "एनआरएफ “योग्यता-आधारित लेकिन न्यायसंगत समतुल्य विशेषज्ञों की समीक्षा द्वारा अनुसंधान निधि” का विश्वसनीय आधार प्रदान करेगा, जो “उत्कृष्ट शोध के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन” के माध्यम से देश में अनुसंधान की संस्कृति को विकसित करने में मदद करेगा."

इसमें यह भी उल्लेख किया गया है, "एनआरएफ राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों में अनुसंधान और विकास के लिए बड़ी पहल करेगा, जहां वर्तमान में अनुसंधान क्षमता सीमित या नगण्य है."

केंद्रीय बजट 2021 में अगली पंचवर्षी में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के लिए 50,000 करोड़ रुपये

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एनआरएफ के निर्माण के लिए अगली पंचवर्षी में 50,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्रस्ताव दिया है. सीतारमण ने एनईपी2020 के एक मसौदे में प्रस्तावित होने के बाद पहली बार अपने 2019 के बजट भाषण में एनआरएफ की नींव रखने की घोषणा की थी. यह (एनआरएफ) यह सुनिश्चित करेगा कि देश में समग्र अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र को राष्ट्रोपयोगी शोध के विषयों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ मजबूत किया जाए.

एनआरऍफ़ एक औपचारिक तंत्र के माध्यम से विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अनुसंधान क्षमता का बीजारोपण और निर्माण करेगा. यह उन विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शोध को भी उत्प्रेरित करेगा जो अब तक शोध के क्षेत्र में अभी तक पिछड़े हुए हैं. एनआरएफ एक संस्थागत परामर्श तंत्र के माध्यम से अनुसंधान करने की क्षमता बनाने और उसको बढ़ाने में मदद करेगा.

इस परामर्श तंत्र में देश के प्रमुख संस्थानों के विशेषज्ञ शोधकर्ता शामिल किये जायेंगे. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव प्रोफ़ेसर आशुतोष शर्मा का कहना है, "एनआरएफ एक स्वायत्त एजेंसी होगी और सभी प्रमुख अनुसंधान और शिक्षा संस्थानों के विशेषज्ञों के प्रतिनिधित्व में चलाया जायेगा. अंतः विषय-अनुसंधानों को पहले से ही विज्ञान मंत्रालयों द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है, उसे आगे बढ़ाया जायेगा. जब सभी शोध गतिविधियों को एक ही एजेंसी (एनआरएफ) द्वारा संचालित किया जाएगा तब एक ही तरह के शोध के लिए एक से ज़्यादा बार या एक से ज़्यादा विशेषज्ञों को वित्त-पोषित करने की संभावना से बचा जा सकेगा." इससे संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा.

हालांकि लगातार दो वर्षों के बजट भाषणों में महत्वकांशी एनआरएफ पर घोषणाओं के बावजूद इस वर्ष के बजट में प्रमुख विज्ञान विभागों को आवंटित बजट में कटौती देखी जा सकती है, अधिकांश को मार्च से पहले तक खर्च करने की उम्मीद है. जो पिछले वित्तीय वर्ष में अनुमानित थी. उदाहरण के लिए, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को 2020-21 के लिए 2,074 करोड़ का बजट दिया गया था, लेकिन केवल 1,304 करोड़ खर्च करने की उम्मीद है. इस साल के बजट में इसे 1,901 करोड़ ही आवंटित किए गए हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग को पिछले साल 6,313 करोड़ का बजट दिया गया था, लेकिन संभवतः 5,012 करोड़ ही खर्च होंगे. इस साल इसे 6,071 करोड़ आवंटित किए गए हैं. वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग को 5,385 करोड़ दिए गए थे, लेकिन इसके 4,251 करोड़ ही खर्च होने की संभावना है. इसे इस साल के बजट में 5,241 करोड़ रुपये दिया गया है. जैव प्रौद्योगिकी विभाग के आवंटन में वृद्धि हुई है और उसे 3,502 करोड़ रुपये दिए गए हैं. पिछले साल इसने 2,300 करोड़ खर्च किए थे और 2,786 करोड़ रुपए का बजट था.

एनआरएफ की स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है

एनआरएफ कई हजारों विश्वविद्यालय शोधकर्ताओं को अपनी प्रतिभा विकसित करने में मदद देगी. इसके वास्तुकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार के साथ काम करना चाहिए कि यह वास्तव में स्वायत्त ही रहे. यह एक बड़ा बदलाव होगा, भारत के उपेक्षित विश्वविद्यालयों और कॉलेज के शोधकर्ताओं को एनआरएफ जैसी एक नई फंडिंग एजेंसी मिल रही है. इस साल के बजट में घोषित एनआरएफ, इस साल शुरू होने वाले अपने पहले पांच वर्षों के लिए सालाना 10,000 करोड़ रुपये का वितरण करेगा. एनआरएफ की शुरूआती योजना में गहरे समुद्र में अनुसंधान के लिए अगली पंचवर्षीय में 40 अरब रुपये से अधिक का निवेश करने की योजना शीर्ष पर आती है. चार नए वायरोलॉजी संस्थान स्थापित करना भी है. और हाइड्रोजन ऊर्जा के विकास के लिए भी प्रतिबद्धता प्रकट की गयी है.

भारत के शोधकर्ताओं के लिए ये एक बहुत अच्छी खबर है, लेकिन शिक्षाविदों की एनआरएफ को लेकर सरकार के हस्तक्षेप के बारे में चिंतायें भी हैं. परिवर्तनों का लाभ पूरी तरह से तभी प्राप्त होगा जब एनआरएफ को स्वतंत्र एजेंसी के रूप से कार्य करने की अनुमति होगी. कुछ भी हो लेकिन एनआरएफ बनाने के महत्व को कम नहीं किया जा सकता है. यह कम से कम एक दशक में भारत की अनुसंधान- वित्त नीति में सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा. 70 से अधिक वर्षों के लिए, भारत के कई हजारों कॉलेजों और 1,000 से अधिक विश्वविद्यालयों के हज़ारों शोधकर्ताओं ने इसके द्वारा बड़े अनुदान का एक स्रोत प्राप्त किया है. अब तक भारत की अधिकांश अनुसंधान और विकास निधि सरकारी प्रयोगशालाओं और विज्ञान एवम प्रौद्योगिकी के प्रतिष्ठित संस्थानों के एक खास नेटवर्क पर ही केंद्रित रहा है, जबकि विश्वविद्यालयों का ध्यान केवल शिक्षण पर रहा है.

परिणामस्वरूप, 2017 में भारत में प्रति दस लाख लोगों में सिर्फ 255 शोधकर्ता थे. जबकि कई अन्य देशों में यह संख्या काफी बेहतर थी. उदाहरण के लिए, इज़राइल में 8,342, स्वीडन में 7,597 और दक्षिण कोरिया में 7,498 जो की भारत के मुकाबले काफी छोटे देश हैं. विश्वविद्यालय-आधारित शोधकर्ताओं की पीढ़ी अपने से बेहतर वित्त पोषित सहयोगियों को प्रदान किए गए संसाधनों के साथ एक सामान स्तर पर पहुंचना चाहती है, और इससे पहले भी एनआरएफ जैसी एजेंसी बनाने के बारे में सरकारों ने चर्चा की है. यह महत्वाकांक्षा अब कुछ-कुछ साकार होती दिख रही है. और इस सपने को पुलकित करवाने में जीवविज्ञानी एवं भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णास्वामी विजयराघवन की दूरदर्शिता और कूटनीतिक कौशल का एक बड़ा योगदान माना जा रहा है. विजयराघवन ने कहा कि गरीबी को खत्म करने और स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता, गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए "सामाजिक विज्ञान एवम मानविकी और राष्ट्र के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों" की गहरी समझ की आवश्यकता होगी. सरकार ने अभी तक एनआरएफ की पूर्ण कार्यप्रणाली का विवरण प्रदान नहीं किया है कि एनआरएफ देश के सार्वजनिक प्रशासन, नौकरशाही और कार्यपालिका में कहां फिट बैठेगा.

इसे एक सरकारी मंत्रालय के साथ जोड़ा जा सकता है. जैसा कि यूनाइटेड किंगडम के सबसे बड़े विज्ञान-निधि निकाय मंत्रालय के साथ जुड़े हुए हैं. या यह संसद को सीधा रिपोर्ट कर सकता है, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा. भारत सरकार ने प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है कि एनआरएफ स्वायत्त रूप से काम करेगा, इसका कोई असर नहीं होगा कि यह नौकरशाही और कार्यपालिका के किस खांचे में बैठे. विजयराघवन और उनके सहयोगियों को यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार के साथ काम करने की आवश्यकता है कि अनुदान प्राप्तकर्ता और एजेंसी चलाने वाले दोनों ही निर्णय लेने में सक्षम हों. जैसे कि बिना सरकारी अधिकारियों के हस्तक्षेप के कर्मचारियों या सहकर्मी विशेषज्ञ समीक्षकों की नियुक्ति करना. बिलकुल ऐसे ही तमाम अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान-वित्त नीति एजेंसियां स्वायत्त तरीके से काम करती हैं.

भारत के शोधकर्ता पिछले कुछ समय से सरकार के द्वारा अनुसंधान स्वायत्तता को कम करने पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं. 2017 में, 40 शहरों में विज्ञान के लिए मार्च में लगभग 12,000 शोधकर्ताओं ने भाग लिया था. 2019 में, 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पात्र लिखा था, जिसमे आधिकारिक आंकड़ों- विशेष रूप से आर्थिक आंकड़ों पर राजनीतिक प्रभाव को समाप्त करने का आग्रह किया गया था. अभी पिछले महीने, शिक्षा मंत्रालय ने विश्वविद्यालयों को एक पत्र जारी करके कहा था- "उन्हें अंतर्राष्ट्रीय वक्ताओं के साथ ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी होगी. सरकार का कहना है कि यह व्यवस्था हमेशा से चली आ रही व्यवस्था से अलग नहीं है, जिसमे जब ऑफलाइन कार्यक्रमों के लिए अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों को भारत आने के लिए आमंत्रित करने की अनुमति लेनी होती है, लेकिन शोधकर्ताओं ने ऑनलाइन कार्यक्रमों के लिए ऐसी व्यवस्था को अनावश्यक बताया है."

वे कहते हैं, "इस तरह से एक और लालफीताशाही वाली बाधा को बढ़ा देने से भारत में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय ऑनलाइन कार्यक्रमों के आयोजन ही कम हो जायेंगे. एनआरएफ जैसी एजेंसी का भारत में उद्भव होने में काफी समय लग गया, हलांकि यह देर आये, दुरुस्त आये को चरितार्थ करेगा और भविष्य में इसकी स्थापना महान दूरदर्शिता का परिणाम साबित होगी. अपनी क्षमता का एहसास करने के लिए विद्वानों की नई पीढ़ियों को सक्षम करना देश के लिए इसकी महत्वपूर्ण विरासत होगी. लेकिन इसे एक पक्की नींव के साथ शुरू करने की ज़रूरत है."

इसका मतलब यह है कि, इस एजेंसी को अनुचित प्रभावों मुक्त रख कर केवल वैज्ञानिक उत्कृष्टता के विकास पर ही केंद्रित रखना होगा. इसको किसी भी तरह के राजनैतिक प्रभावों से मुक्त रखना होगा, न केवल वर्तमान सरकार से, बल्कि भविष्य में आने वाले सरकारी उत्तराधिकारियों से भी.

(लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्विद्यालय, लखनऊ, में बायोटेक्नोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)