Newslaundry Hindi
उत्तराखंड आपदा: जिन्होंने पावर प्रोजेक्ट्स का विरोध किया वही मलबे के नीचे दबे
आपदा स्थल से लगे रेणी गांव के प्रेमसिंह की मां और पत्नी दोनों रविवार को नदी किनारे खेतों में काम कर रहे थे. सवेरे साढ़े नौ बजे के आसपास अचानक विस्फोट की आवाज़ हुई. प्रेम सिंह की पत्नी गोदाम्बरी कहती हैं कि उन्हें लगा जैसे आसमान टूट पड़ा है. उफनती नदी और पत्थरों को आते देख वह भागीं लेकिन उनकी सास (प्रेम सिंह की मां) को ऋषिगंगा का वह सैलाब बहा ले गया.
“पूरे गांव में धूल मिट्टी का गुबार छा गया. नदी गर्जना कर रही थी. धरती जैसे हिलने लगी. घरों की खिड़कियां बज रही थीं. हमने ऐसा अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा.” प्रेम सिंह ने बताया.
आज प्रेम सिंह के घर सांत्वाना देने के लिये लोगों का आना जारी है और मीडिया उनकी पत्नी से बार-बार पूछ रहा है कि मौके पर क्या हुआ था. रेणी की तरह दर्जनों गांव हैं जो इस घाटी में नदी के आपपास पहाड़ों में बसे हैं. यहां के निवासियों में ऐसी दहशत है कि वह अब यहां नहीं रहना चाहते. आपदा के बाद अंधाधुंध पावर प्रोजेक्ट्स का सवाल एक बार फिर विवादों में है. विडम्बना यह भी है कि यहां गांव के लोगों ने इन दोनों पावर प्रोजेक्ट्स का विरोध किया था जो तबाह हुये हैं और आज इन गांवों के लोग ही मलबे के नीचे दबे हैं.
घर छोड़कर जंगल में सोने पर मजबूर
रेणी गांव को 70 के दशक के चिपको आन्दोलन के लिए जाना जाता है. यहां की गौरा देवी ने पेड़ कटने से बचाने के लिये महिलाओं को संगठित किया और उनका नाम इतिहास में दर्ज है. गौरा देवी के बेटे चन्द्र सिंह का कहना है इस गांव के लोग इतना डरे हैं कि वह घरों से हटकर ऊपर पहाड़ में छानी (अस्थायी टेंट) बनाकर सो रहे हैं.
“मैं रविवार को ही ऊपर (पहाड़ पर) रहने चला गया और आज (मंगलवार को) लौटा हूं. परिवार के कुछ लोगों को हमने सुरक्षित रहने के लिये जोशीमठ भेज दिया है. लोगों को लगता है कि आपदा फिर आ सकती है,” सिंह ने कहा.
हमारी टीम ने पाया कि रेणी गांव में सन्नाटा पसरा है. लोगों को किसी और झील के होने की संभावना लगती है जो फट सकती है लेकिन सरकार या आपदा प्रबंधन की ओर से ऐसी कोई चेतावनी नहीं दी गई है और ऐसे किसी ख़तरे की पुष्टि नहीं है.
“हम कब तक ऐसे डर डर कर जियें. हमें सरकार किसी दूसरी जगह बसा दे तो ठीक रहेगा,” चन्द्र सिंह की पत्नी झूठी देवी का कहना था.
सरकार के मुताबिक करीब 200 लोग लापता हुये हैं. बुधवार सुबह तक 32 शव अलग अलग जगह से बरामद किये गये थे.
पावर प्रोजेक्ट को लेकर सवाल
आपदा के बाद एक बार यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या पावर प्रोजेक्ट और विकास परियोजनायें बिना पूरी प्लानिंग के बेतरतीब तरीके से खड़ी हो रही है. प्रेम सिंह बताते हैं कि गांव वालों को यह ऐहसास था कि इन परियोजनाओं के लिये पहाड़ों में होने वाली ब्लास्टिंग और तोड़फोड़ से नुकसान हो सकता है.
उनके मुताबिक “उस वक़्त कई लोगों ने इस परियोजना का विरोध किया था. फिर हमें समझाया गया कि इससे रोज़गार मिलेगा और यहां खुशहाली आयेगी. बहुत सारे लोग तब सशंकित तो थे लेकिन फिर प्रोजेक्ट शुरू हुआ तो दिल में उम्मीद बंधी.”
प्रेम सिंह ने खुद कुछ साल ऋषिगंगा प्रोजेक्ट में मज़दूरी की. वह बताते हैं कि कैसे इसी गांव के लोग आज मलबे में दबे हैं.
इस बात पर बहस होती रही है कि बड़े-बड़े कितने बांध इन पहाड़ों पर बनने चाहिये. इससे जंगल, पहाड़ों में विस्फोट और सुरंगे खोदने को लेकर सवाल हैं. केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट की नियुक्त की गई विशेषज्ञ समिति का कहना था कि हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का आपदा को बढ़ाने में रोल रहा. फिलहाल जो प्रोजेक्ट प्रभावित हुये हैं वह नन्दा देवी बायो स्फियर रिज़र्व के बफर ज़ोन में हैं.
तपोवन विष्णगाड़ प्रोजेक्ट में एनटीपीसी का 520 मेगावॉट का प्लांट पिछले 15 साल से बन रहा है. गांव वाले बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट के प्रस्ताव पर इतना विरोध हुआ था कि इसका उद्घाटन प्रस्तावित जगह पर नहीं बल्कि राजधानी देहरादून में करना पड़ा. अभी इन दोनों प्रोजेक्ट्स के मलबे में स्थानीय मज़दूर ही नहीं झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल, यूपी और नेपाल के लोग फंसे हैं.
प्रेम सिंह कहते हैं, “हम पढ़े लिखे लोग नहीं हैं. हम बस सरकार से इतना चाहते हैं कि असुरक्षित हो चुके इन गांवों से हटाकर हमें कहीं और बसा दे और कुछ रोज़गार दे. हम दिल्ली देहरादून जाने की मांग नहीं कर रहे पर हमें सुरक्षित जगहों में बसाया जाये क्योंकि यहां रहना अब खतरे से खाली नहीं है.”
आपदा स्थल से लगे रेणी गांव के प्रेमसिंह की मां और पत्नी दोनों रविवार को नदी किनारे खेतों में काम कर रहे थे. सवेरे साढ़े नौ बजे के आसपास अचानक विस्फोट की आवाज़ हुई. प्रेम सिंह की पत्नी गोदाम्बरी कहती हैं कि उन्हें लगा जैसे आसमान टूट पड़ा है. उफनती नदी और पत्थरों को आते देख वह भागीं लेकिन उनकी सास (प्रेम सिंह की मां) को ऋषिगंगा का वह सैलाब बहा ले गया.
“पूरे गांव में धूल मिट्टी का गुबार छा गया. नदी गर्जना कर रही थी. धरती जैसे हिलने लगी. घरों की खिड़कियां बज रही थीं. हमने ऐसा अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा.” प्रेम सिंह ने बताया.
आज प्रेम सिंह के घर सांत्वाना देने के लिये लोगों का आना जारी है और मीडिया उनकी पत्नी से बार-बार पूछ रहा है कि मौके पर क्या हुआ था. रेणी की तरह दर्जनों गांव हैं जो इस घाटी में नदी के आपपास पहाड़ों में बसे हैं. यहां के निवासियों में ऐसी दहशत है कि वह अब यहां नहीं रहना चाहते. आपदा के बाद अंधाधुंध पावर प्रोजेक्ट्स का सवाल एक बार फिर विवादों में है. विडम्बना यह भी है कि यहां गांव के लोगों ने इन दोनों पावर प्रोजेक्ट्स का विरोध किया था जो तबाह हुये हैं और आज इन गांवों के लोग ही मलबे के नीचे दबे हैं.
घर छोड़कर जंगल में सोने पर मजबूर
रेणी गांव को 70 के दशक के चिपको आन्दोलन के लिए जाना जाता है. यहां की गौरा देवी ने पेड़ कटने से बचाने के लिये महिलाओं को संगठित किया और उनका नाम इतिहास में दर्ज है. गौरा देवी के बेटे चन्द्र सिंह का कहना है इस गांव के लोग इतना डरे हैं कि वह घरों से हटकर ऊपर पहाड़ में छानी (अस्थायी टेंट) बनाकर सो रहे हैं.
“मैं रविवार को ही ऊपर (पहाड़ पर) रहने चला गया और आज (मंगलवार को) लौटा हूं. परिवार के कुछ लोगों को हमने सुरक्षित रहने के लिये जोशीमठ भेज दिया है. लोगों को लगता है कि आपदा फिर आ सकती है,” सिंह ने कहा.
हमारी टीम ने पाया कि रेणी गांव में सन्नाटा पसरा है. लोगों को किसी और झील के होने की संभावना लगती है जो फट सकती है लेकिन सरकार या आपदा प्रबंधन की ओर से ऐसी कोई चेतावनी नहीं दी गई है और ऐसे किसी ख़तरे की पुष्टि नहीं है.
“हम कब तक ऐसे डर डर कर जियें. हमें सरकार किसी दूसरी जगह बसा दे तो ठीक रहेगा,” चन्द्र सिंह की पत्नी झूठी देवी का कहना था.
सरकार के मुताबिक करीब 200 लोग लापता हुये हैं. बुधवार सुबह तक 32 शव अलग अलग जगह से बरामद किये गये थे.
पावर प्रोजेक्ट को लेकर सवाल
आपदा के बाद एक बार यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या पावर प्रोजेक्ट और विकास परियोजनायें बिना पूरी प्लानिंग के बेतरतीब तरीके से खड़ी हो रही है. प्रेम सिंह बताते हैं कि गांव वालों को यह ऐहसास था कि इन परियोजनाओं के लिये पहाड़ों में होने वाली ब्लास्टिंग और तोड़फोड़ से नुकसान हो सकता है.
उनके मुताबिक “उस वक़्त कई लोगों ने इस परियोजना का विरोध किया था. फिर हमें समझाया गया कि इससे रोज़गार मिलेगा और यहां खुशहाली आयेगी. बहुत सारे लोग तब सशंकित तो थे लेकिन फिर प्रोजेक्ट शुरू हुआ तो दिल में उम्मीद बंधी.”
प्रेम सिंह ने खुद कुछ साल ऋषिगंगा प्रोजेक्ट में मज़दूरी की. वह बताते हैं कि कैसे इसी गांव के लोग आज मलबे में दबे हैं.
इस बात पर बहस होती रही है कि बड़े-बड़े कितने बांध इन पहाड़ों पर बनने चाहिये. इससे जंगल, पहाड़ों में विस्फोट और सुरंगे खोदने को लेकर सवाल हैं. केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट की नियुक्त की गई विशेषज्ञ समिति का कहना था कि हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का आपदा को बढ़ाने में रोल रहा. फिलहाल जो प्रोजेक्ट प्रभावित हुये हैं वह नन्दा देवी बायो स्फियर रिज़र्व के बफर ज़ोन में हैं.
तपोवन विष्णगाड़ प्रोजेक्ट में एनटीपीसी का 520 मेगावॉट का प्लांट पिछले 15 साल से बन रहा है. गांव वाले बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट के प्रस्ताव पर इतना विरोध हुआ था कि इसका उद्घाटन प्रस्तावित जगह पर नहीं बल्कि राजधानी देहरादून में करना पड़ा. अभी इन दोनों प्रोजेक्ट्स के मलबे में स्थानीय मज़दूर ही नहीं झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल, यूपी और नेपाल के लोग फंसे हैं.
प्रेम सिंह कहते हैं, “हम पढ़े लिखे लोग नहीं हैं. हम बस सरकार से इतना चाहते हैं कि असुरक्षित हो चुके इन गांवों से हटाकर हमें कहीं और बसा दे और कुछ रोज़गार दे. हम दिल्ली देहरादून जाने की मांग नहीं कर रहे पर हमें सुरक्षित जगहों में बसाया जाये क्योंकि यहां रहना अब खतरे से खाली नहीं है.”
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways Indian media missed the Nepal story
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point
-
Hafta letters: Bigg Boss, ‘vote chori’, caste issues, E20 fuel