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कोविड-19 महामारी: अब एक साल बाद एक सताई हुई पीढ़ी
भारत ने 1 जनवरी, 2020 को उम्मीदों और आकांक्षाओं के अलावा एक अन्य वजह के साथ नए साल का स्वागत किया था. इसने इस दिन दुनिया में सबसे अधिक जन्म लेने वाले बच्चों का वैश्विक खिताब अपने नाम किया. इस दिन दुनिया में जन्मे कुल 400,000 बच्चों में से 67,385 भारत में पैदा हुए थे. बच्चों और स्वास्थ्य की तरफ ध्यान खींचने के लिए संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) हर साल इस दिन का यह औपचारिक आंकड़ा जारी करता है. उस दिन यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक, हेनरीएटा फोर ने मीडिया को बताया “एक नए साल और एक नए दशक की शुरुआत न केवल हमारे भविष्य के लिए हमारी उम्मीदों और आकांक्षाओं को, बल्कि हमारे बाद आने वालों के भविष्य को प्रतिबिंबित करने का भी मौका होती हैं.” किसी घटना के होने के बाद उपजी समझदारी में यह सामान्य सा संदेश भविष्य में घटने वाली चीजों की पूर्व चेतावनी के रूप में पढ़ा जा सकता है.
अतीत में झांके तो 31 दिसंबर, 2019 से ठीक एक दिन पहले चीन ने वुहान प्रांत में कोरोना वायरस संक्रमण का पहला मामला दर्ज किया था. इसका कोई औपचारिक नाम नहीं था और ज्यादातर लोगों ने इसे नोवेल कोरोना वायरस या 2019-एनओसीवी नाम दिया था. चीन की अति संरक्षित शासन के बीच से छिट-पुट मामले ही रिसकर बाहर आ पाए थे. 30 जनवरी, 2020 को भारत ने इस बीमारी का पहला मामला सामने आया. 11 फरवरी, 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे नोवेल कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी का औपचारिक नाम दिया, जो कुछ ही हफ्ते में तेजी से फैलने वाली महामारी बन गई. हमने पहली बार इसका डरावना नाम सुना, कोविड-19 जिसमें ‘को’का मतलब कोरोना, ‘वि’का मतलब वायरस और ‘डी’का आशय बीमारी के लिए व ‘19’ का प्रयोग 2019 के लिए है.
भारत में दिसंबर 31, 2020 तक 2.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे जन्म ले चुके होंगे. यानी एक पूरी पीढ़ी ने सदी की सबसे लंबी महामारी के दौरान जन्म ले लिया. जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनकी याददाश्त में महामारी एक निर्णायक मिसाल के तौर पर होगी. और महामारी का सामना करने वाली मौजूदा पीढ़ी के रूप में 0-14 वर्ष आयु वर्ग के 35 करोड़ से ज्यादा बच्चे इसके अलग-अलग तरह के असर को अपनी जिंदगी तक ढोएंगे. इस अभूतपूर्व संकट में महामारी ने हमारे अस्तित्व के सभी पहलू पर असर डाला है; हर कोई भविष्य को ज्यादा अनिश्चितता के साथ देखने लगा है. इसने अक्सर न पूछे जाने वाले असामान्य सवालों को जन्म दिया है. मसलन, महामारी के दौरान जिस नई पीढ़ी ने जन्म लिया है, वह इसे कैसे याद करेगी? प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट कहती है कि “किसी व्यक्ति की आयु उसके स्वभाव और व्यवहार में अंतर का पूर्वानुमान करने वाले सबसे आम उपायों में से एक हैं.” भले ही, 15-25 वर्षों के अंतर पर पैदा होने वाले समूह को “पीढ़ी” मानने की एक सामान्य परिभाषा है, लेकिन हम किसी बड़ी घटना या गतिविधि के संदर्भ के साथ भी किसी एक पीढ़ी की पहचान करते हैं. उदाहरण के लिए, हम भारत में 1991 के बाद जन्म लेने वालों को पीढ़ी कहते हैं, क्योंकि इस साल को “मुक्त बाजार” के लिए पहचाना जाता है, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया था.
इसलिए, हम नवजात शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों को ‘महामारी की पीढ़ी’ कह सकते हैं. जाने या अनजाने में, यह पीढ़ी महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित रही है. यूनिसेफ का अनुमान है कि 91 फीसदी बच्चों ने अपने स्कूल के समय में बदलाव का सामना किया, जिसका उनकी पढ़ाई पर असर पड़ा. भारत के मामले में इसका एक मतलब यह भी था कि अधिकांश बच्चों को स्कूल की कैंटीन में मिलने वाला मिड-डे-मील और आंगनबाड़ी का खाना नहीं मिला, जिसे सही पोषण सुनिश्चित करने के लिए सरकार की ओर से चलाया जाता है. वैश्विक स्तर पर, यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार, लगभग 11.9 करोड़ बच्चों को महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधा और यहां तक कि जीवन-रक्षक टीकाकरण तक नहीं मिल सका. गैर-लाभकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के अलग-अलग सर्वेक्षणों से सामने आया कि सर्वेक्षण में शामिल 50 प्रतिशत बच्चों ने “चिंतित”,और उनमें से एक तिहाई बच्चों ने “भय” महसूस होने की जानकारी दी. ये दोनों ही बातें उलझन और सब कुछ सुखद होने में कमी का इशारा देती हैं. इस पीढ़ी का महत्व इस तथ्य से उभरता है कि 2040 तक वे भारत जैसे देश की कुल कामकाजी आबादी का लगभग 46 प्रतिशत हिस्सा होंगे.
हमारी दुनिया में फैली विकास की असमानता के बावजूद, महामारी में पैदा हुई पीढ़ी पहले से कहीं अधिक सेहतमंद और समृद्ध दुनिया आई है. हमारे विपरीत, अभी-अभी पैदा हुई नई पीढ़ी को यह याद नहीं रहेगा कि इस पैमाने की महामारी को सहने के लिए इसने हमसे क्या कुछ छीन लिया. क्या इसका यह मतलब है कि वे एक सामान्य पीढ़ी होगी, जो महामारी के बारे में इतिहास की किताबों में पढ़ेगी? हमारी तरह जिन्होंने 1918-20 के स्पैनिश फ्लू महामारी के बारे में किताबों में पढ़ा है? इस जवाब को पाने की कोशिश करने से पहले, यहां पर पुरानी महामारियों या ऐसे ही संकटों के कुछ ऐतिहासिक विवरणों को देखना चाहिए. वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि 1918 की महामारी के दौरान पैदा हुए या गर्भ में रहे बच्चों को वयस्क के रूप में कम शिक्षा मिली और वे गरीब भी रहे.
2008 की आर्थिक मंदी के दौरान गर्भवती माताओं, खास तौर पर गरीब परिवारों में, कम वजन के शिशुओं को जन्म दिया. 1998 में, एल नीनो के चलते इक्वाडोर में विनाशकारी बाढ़ आई. इस दौरान यहां पैदा हुए बच्चे कम वजन वाले थे और उनमें बौनेपन की समस्या 5-7 साल तक जारी रही. संकट जैसी इन सभी घटनाओं के बाद पड़े प्रभावों में एक बात आम है कि माली हालत खराब होने से विभिन्न तरह के दुष्प्रभाव बढ़ जाते हैं. इसलिए, उपरोक्त प्रश्न का जबाव डराने वाला है. और हमारे पास इसके शुरुआती संकेत मौजूद हैं कि इस सदी की महामारी में जन्मी पीढ़ी की हालत पिछली महामारी में जन्मी पीढ़ी के मुकाबले अलग नहीं होगी. हाल ही में जारी विश्व बैंक की ओर से तैयार किया गया दुनिया का मानव पूंजी सूचकांक (एचसीआई) बताता है कि महामारी में जन्म लेने वाली पीढ़ी इससे सबसे ज्यादा पीड़ित होगी. 2040 में वयस्क होने वाली पीढ़ी कम लंबाई की होगी; मानव पूंजी के मामले में पीछे रहेगी और दुनिया के लिए सबसे कठिन विकास चुनौती भी हो सकती है. एचसीआई में “मानव पूंजी का आकलन होता है जो आज जन्म लेने वाला एक बच्चा अपने 18वें जन्मदिन तक पाने की उम्मीद कर सकता है.” इसमें अब नवजात शिशु के स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार और इससे उसकी भविष्य की उत्पादकता कैसे प्रभावित होगी यह शामिल है.
कोविड-19 पिछली महामारियों की तरह किसी बच्चे या गर्भवती मां की सेहत को प्रभावित नहीं करेगी. लेकिन, महामारी के आर्थिक प्रभाव इस पीढ़ी को तबाह करने वाले होंगे, जिनमें मां के गर्भ में मौजूद बच्चे भी शामिल हैं. इसकी सबसे सरल वजह है कि एक गरीब परिवार स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा पर ज्यादा खर्च नहीं कर पाएगा. बाल मृत्यु दर ऊंची होगी और जो जीवित बच जाएंगे, उनमें बौनेपन की समस्या होगी. इसके अलावा, व्यवस्था बिगड़ने से लाखों बच्चों और गर्भवती माताओं को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल रहीं. एचसीआई के अनुमानों के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले 118 देशों में बाल मृत्यु दर 45 फीसदी बढ़ जाएगी. विश्लेषण से साफ है कि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फीसदी बढ़ोतरी बाल मृत्यु दर में 4.5 फीसदी गिरावट लाती है. अलग-अलग अनुमानों को देखते हुए साफ है कि अधिकांश देश महामारी की वजह से जीडीपी में बड़ी गिरावट का सामना करने जा रहे हैं. यह इशारा करता है कि बाल मृत्यु दर पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
अक्टूबर, 2020 में संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों ने दुनिया भर में मृत बच्चों का जन्म (स्टिलबर्थ्स)- ऐसे बच्चे का जन्म, जिसमें 28 सप्ताह या इससे ज्यादा की गर्भावस्था पर जीवन का कोई संकेत नहीं है- का संयुक्त अनुमान जारी किया. 2019 में दुनिया भर में कुल 19 लाख मृत बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से 3.4 लाख बच्चे भारत में जन्मे थे, जो इस तरह के बोझ के मामले में भारत को सबसे बड़ा देश बना देता है. भारत ने ऊंची संख्या के बावजूद मृत बच्चों के जन्म में कमी लाने में महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है. लेकिन साझा रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि कोविड-19 महामारी भारत समेत पूरी दुनिया में मृत बच्चों के जन्म की संख्या बढ़ा सकती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में आई दिक्कतों के कारण महामारी महज 12 महीनों के भीतर (2020-21 के दौरान) निम्न और मध्यम आय वाले 117 देशों में 200,000 से ज्यादा मृत बच्चों के जन्म का कारण बन जाएगी.
यह ऐसे वक्त में है, जब दुनिया ने कुपोषण और गरीबी को घटाने के लिए बहुत कुछ किया है. नये सूचकांक ने स्पष्ट रूप से इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि भले ही महामारी एक अस्थायी झटका हो, फिर भी यह अपने पीछे नई पीढ़ी के बच्चों पर कमजोर करने वाले प्रभावों को छोड़ने जा रही है.
जुलाई, 2020 में ग्लोबल हेल्थ साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि कोविड-19 को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से पैदा खाद्य के झटके भारत में कुपोषण का बोझ बढ़ा सकते हैं. यह अध्ययन भरपूर आहार नहीं मिलने के कारण वजन घटने के नतीजों पर आधारित है. वजन में पांच फीसदी का नुकसान होने की स्थिति में, भारत कम वजन के 4,393,178 और अति दुर्बलता (वास्टिंग) के 5,140,396 अतिरिक्त मामलों का सामना करेगा. अध्ययन के मुताबिक, गंभीर रूप से कम वजन और अति दुर्बलता के मामले भी बढ़ने का अनुमान है. अध्ययन में कहा गया है कि बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे और कम वजन और अतिदुर्बलता के अतिरिक्त मामलों में गरीब परिवारों की हिस्सा सबसे ज्यादा होगा.
जिसने अभी-अभी जन्म लिया है, इस पीढ़ी के लिए दुनिया के गंभीर होने का यही वक्त है. हम पहले से ही विकास की कमी से जूझ रही अपनी वंचित पीढ़ियों में और इजाफा नहीं कर सकते.
भारत ने 1 जनवरी, 2020 को उम्मीदों और आकांक्षाओं के अलावा एक अन्य वजह के साथ नए साल का स्वागत किया था. इसने इस दिन दुनिया में सबसे अधिक जन्म लेने वाले बच्चों का वैश्विक खिताब अपने नाम किया. इस दिन दुनिया में जन्मे कुल 400,000 बच्चों में से 67,385 भारत में पैदा हुए थे. बच्चों और स्वास्थ्य की तरफ ध्यान खींचने के लिए संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) हर साल इस दिन का यह औपचारिक आंकड़ा जारी करता है. उस दिन यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक, हेनरीएटा फोर ने मीडिया को बताया “एक नए साल और एक नए दशक की शुरुआत न केवल हमारे भविष्य के लिए हमारी उम्मीदों और आकांक्षाओं को, बल्कि हमारे बाद आने वालों के भविष्य को प्रतिबिंबित करने का भी मौका होती हैं.” किसी घटना के होने के बाद उपजी समझदारी में यह सामान्य सा संदेश भविष्य में घटने वाली चीजों की पूर्व चेतावनी के रूप में पढ़ा जा सकता है.
अतीत में झांके तो 31 दिसंबर, 2019 से ठीक एक दिन पहले चीन ने वुहान प्रांत में कोरोना वायरस संक्रमण का पहला मामला दर्ज किया था. इसका कोई औपचारिक नाम नहीं था और ज्यादातर लोगों ने इसे नोवेल कोरोना वायरस या 2019-एनओसीवी नाम दिया था. चीन की अति संरक्षित शासन के बीच से छिट-पुट मामले ही रिसकर बाहर आ पाए थे. 30 जनवरी, 2020 को भारत ने इस बीमारी का पहला मामला सामने आया. 11 फरवरी, 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे नोवेल कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी का औपचारिक नाम दिया, जो कुछ ही हफ्ते में तेजी से फैलने वाली महामारी बन गई. हमने पहली बार इसका डरावना नाम सुना, कोविड-19 जिसमें ‘को’का मतलब कोरोना, ‘वि’का मतलब वायरस और ‘डी’का आशय बीमारी के लिए व ‘19’ का प्रयोग 2019 के लिए है.
भारत में दिसंबर 31, 2020 तक 2.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे जन्म ले चुके होंगे. यानी एक पूरी पीढ़ी ने सदी की सबसे लंबी महामारी के दौरान जन्म ले लिया. जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनकी याददाश्त में महामारी एक निर्णायक मिसाल के तौर पर होगी. और महामारी का सामना करने वाली मौजूदा पीढ़ी के रूप में 0-14 वर्ष आयु वर्ग के 35 करोड़ से ज्यादा बच्चे इसके अलग-अलग तरह के असर को अपनी जिंदगी तक ढोएंगे. इस अभूतपूर्व संकट में महामारी ने हमारे अस्तित्व के सभी पहलू पर असर डाला है; हर कोई भविष्य को ज्यादा अनिश्चितता के साथ देखने लगा है. इसने अक्सर न पूछे जाने वाले असामान्य सवालों को जन्म दिया है. मसलन, महामारी के दौरान जिस नई पीढ़ी ने जन्म लिया है, वह इसे कैसे याद करेगी? प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट कहती है कि “किसी व्यक्ति की आयु उसके स्वभाव और व्यवहार में अंतर का पूर्वानुमान करने वाले सबसे आम उपायों में से एक हैं.” भले ही, 15-25 वर्षों के अंतर पर पैदा होने वाले समूह को “पीढ़ी” मानने की एक सामान्य परिभाषा है, लेकिन हम किसी बड़ी घटना या गतिविधि के संदर्भ के साथ भी किसी एक पीढ़ी की पहचान करते हैं. उदाहरण के लिए, हम भारत में 1991 के बाद जन्म लेने वालों को पीढ़ी कहते हैं, क्योंकि इस साल को “मुक्त बाजार” के लिए पहचाना जाता है, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया था.
इसलिए, हम नवजात शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों को ‘महामारी की पीढ़ी’ कह सकते हैं. जाने या अनजाने में, यह पीढ़ी महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित रही है. यूनिसेफ का अनुमान है कि 91 फीसदी बच्चों ने अपने स्कूल के समय में बदलाव का सामना किया, जिसका उनकी पढ़ाई पर असर पड़ा. भारत के मामले में इसका एक मतलब यह भी था कि अधिकांश बच्चों को स्कूल की कैंटीन में मिलने वाला मिड-डे-मील और आंगनबाड़ी का खाना नहीं मिला, जिसे सही पोषण सुनिश्चित करने के लिए सरकार की ओर से चलाया जाता है. वैश्विक स्तर पर, यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार, लगभग 11.9 करोड़ बच्चों को महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधा और यहां तक कि जीवन-रक्षक टीकाकरण तक नहीं मिल सका. गैर-लाभकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के अलग-अलग सर्वेक्षणों से सामने आया कि सर्वेक्षण में शामिल 50 प्रतिशत बच्चों ने “चिंतित”,और उनमें से एक तिहाई बच्चों ने “भय” महसूस होने की जानकारी दी. ये दोनों ही बातें उलझन और सब कुछ सुखद होने में कमी का इशारा देती हैं. इस पीढ़ी का महत्व इस तथ्य से उभरता है कि 2040 तक वे भारत जैसे देश की कुल कामकाजी आबादी का लगभग 46 प्रतिशत हिस्सा होंगे.
हमारी दुनिया में फैली विकास की असमानता के बावजूद, महामारी में पैदा हुई पीढ़ी पहले से कहीं अधिक सेहतमंद और समृद्ध दुनिया आई है. हमारे विपरीत, अभी-अभी पैदा हुई नई पीढ़ी को यह याद नहीं रहेगा कि इस पैमाने की महामारी को सहने के लिए इसने हमसे क्या कुछ छीन लिया. क्या इसका यह मतलब है कि वे एक सामान्य पीढ़ी होगी, जो महामारी के बारे में इतिहास की किताबों में पढ़ेगी? हमारी तरह जिन्होंने 1918-20 के स्पैनिश फ्लू महामारी के बारे में किताबों में पढ़ा है? इस जवाब को पाने की कोशिश करने से पहले, यहां पर पुरानी महामारियों या ऐसे ही संकटों के कुछ ऐतिहासिक विवरणों को देखना चाहिए. वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि 1918 की महामारी के दौरान पैदा हुए या गर्भ में रहे बच्चों को वयस्क के रूप में कम शिक्षा मिली और वे गरीब भी रहे.
2008 की आर्थिक मंदी के दौरान गर्भवती माताओं, खास तौर पर गरीब परिवारों में, कम वजन के शिशुओं को जन्म दिया. 1998 में, एल नीनो के चलते इक्वाडोर में विनाशकारी बाढ़ आई. इस दौरान यहां पैदा हुए बच्चे कम वजन वाले थे और उनमें बौनेपन की समस्या 5-7 साल तक जारी रही. संकट जैसी इन सभी घटनाओं के बाद पड़े प्रभावों में एक बात आम है कि माली हालत खराब होने से विभिन्न तरह के दुष्प्रभाव बढ़ जाते हैं. इसलिए, उपरोक्त प्रश्न का जबाव डराने वाला है. और हमारे पास इसके शुरुआती संकेत मौजूद हैं कि इस सदी की महामारी में जन्मी पीढ़ी की हालत पिछली महामारी में जन्मी पीढ़ी के मुकाबले अलग नहीं होगी. हाल ही में जारी विश्व बैंक की ओर से तैयार किया गया दुनिया का मानव पूंजी सूचकांक (एचसीआई) बताता है कि महामारी में जन्म लेने वाली पीढ़ी इससे सबसे ज्यादा पीड़ित होगी. 2040 में वयस्क होने वाली पीढ़ी कम लंबाई की होगी; मानव पूंजी के मामले में पीछे रहेगी और दुनिया के लिए सबसे कठिन विकास चुनौती भी हो सकती है. एचसीआई में “मानव पूंजी का आकलन होता है जो आज जन्म लेने वाला एक बच्चा अपने 18वें जन्मदिन तक पाने की उम्मीद कर सकता है.” इसमें अब नवजात शिशु के स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार और इससे उसकी भविष्य की उत्पादकता कैसे प्रभावित होगी यह शामिल है.
कोविड-19 पिछली महामारियों की तरह किसी बच्चे या गर्भवती मां की सेहत को प्रभावित नहीं करेगी. लेकिन, महामारी के आर्थिक प्रभाव इस पीढ़ी को तबाह करने वाले होंगे, जिनमें मां के गर्भ में मौजूद बच्चे भी शामिल हैं. इसकी सबसे सरल वजह है कि एक गरीब परिवार स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा पर ज्यादा खर्च नहीं कर पाएगा. बाल मृत्यु दर ऊंची होगी और जो जीवित बच जाएंगे, उनमें बौनेपन की समस्या होगी. इसके अलावा, व्यवस्था बिगड़ने से लाखों बच्चों और गर्भवती माताओं को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल रहीं. एचसीआई के अनुमानों के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले 118 देशों में बाल मृत्यु दर 45 फीसदी बढ़ जाएगी. विश्लेषण से साफ है कि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फीसदी बढ़ोतरी बाल मृत्यु दर में 4.5 फीसदी गिरावट लाती है. अलग-अलग अनुमानों को देखते हुए साफ है कि अधिकांश देश महामारी की वजह से जीडीपी में बड़ी गिरावट का सामना करने जा रहे हैं. यह इशारा करता है कि बाल मृत्यु दर पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
अक्टूबर, 2020 में संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों ने दुनिया भर में मृत बच्चों का जन्म (स्टिलबर्थ्स)- ऐसे बच्चे का जन्म, जिसमें 28 सप्ताह या इससे ज्यादा की गर्भावस्था पर जीवन का कोई संकेत नहीं है- का संयुक्त अनुमान जारी किया. 2019 में दुनिया भर में कुल 19 लाख मृत बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से 3.4 लाख बच्चे भारत में जन्मे थे, जो इस तरह के बोझ के मामले में भारत को सबसे बड़ा देश बना देता है. भारत ने ऊंची संख्या के बावजूद मृत बच्चों के जन्म में कमी लाने में महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है. लेकिन साझा रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि कोविड-19 महामारी भारत समेत पूरी दुनिया में मृत बच्चों के जन्म की संख्या बढ़ा सकती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में आई दिक्कतों के कारण महामारी महज 12 महीनों के भीतर (2020-21 के दौरान) निम्न और मध्यम आय वाले 117 देशों में 200,000 से ज्यादा मृत बच्चों के जन्म का कारण बन जाएगी.
यह ऐसे वक्त में है, जब दुनिया ने कुपोषण और गरीबी को घटाने के लिए बहुत कुछ किया है. नये सूचकांक ने स्पष्ट रूप से इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि भले ही महामारी एक अस्थायी झटका हो, फिर भी यह अपने पीछे नई पीढ़ी के बच्चों पर कमजोर करने वाले प्रभावों को छोड़ने जा रही है.
जुलाई, 2020 में ग्लोबल हेल्थ साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि कोविड-19 को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से पैदा खाद्य के झटके भारत में कुपोषण का बोझ बढ़ा सकते हैं. यह अध्ययन भरपूर आहार नहीं मिलने के कारण वजन घटने के नतीजों पर आधारित है. वजन में पांच फीसदी का नुकसान होने की स्थिति में, भारत कम वजन के 4,393,178 और अति दुर्बलता (वास्टिंग) के 5,140,396 अतिरिक्त मामलों का सामना करेगा. अध्ययन के मुताबिक, गंभीर रूप से कम वजन और अति दुर्बलता के मामले भी बढ़ने का अनुमान है. अध्ययन में कहा गया है कि बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे और कम वजन और अतिदुर्बलता के अतिरिक्त मामलों में गरीब परिवारों की हिस्सा सबसे ज्यादा होगा.
जिसने अभी-अभी जन्म लिया है, इस पीढ़ी के लिए दुनिया के गंभीर होने का यही वक्त है. हम पहले से ही विकास की कमी से जूझ रही अपनी वंचित पीढ़ियों में और इजाफा नहीं कर सकते.
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