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हनीफ्रॉड खुलासे का असर: मधुमक्खी पालकों को पांच साल बाद मिल रही शहद की दोगुनी कीमत
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की ओर से बड़ी कंपनियों के शहद मिलावट कारोबार का भंडाफोड़ होने के बाद मधुमक्खी पालक किसानों को बड़ी राहत मिली है. करीब पांच बरस बाद देशभर में सरसों वाली शहद (मस्टर्ड लिक्विड शहद) के दाम में दोगुनी बढ़त हुई है. इससे पहले किसानों को अपने कच्चे शहद की लागत तक निकालने में परेशानी हो रही थी. कोरोनाकाल में जब शहद की मांग चरम पर पहुंची तबभी मधुमक्खीपालकों को कंपनियों को कच्ची शहद 60 रुपये किलो तक बेचनी पड़ी.
राजस्थान के अलवर जिले में करीब 10 हजार किसानों के समूह ऑल इंडियन बी-कीपर्स फेडरेशन के अध्यक्ष नबाब सिंह ने कहा कि वे मधुमक्खी पालकों की तरफ से वे सीएसई-डाउन टू अर्थ की इस मुहीम का शुक्रिया अदा करते हैं क्योंकि मिलावट कारोबार का खुलासा होने के बाद से बीते पांच बरस में पहली बार ऐसा है जब उन्हें कच्चे शहद का प्रति किलो दाम 130 रुपये तक मिल रहा है. जबकि मई, 2020 महीने में प्रति किलो कच्चे शहद का दाम उन्हें महज 60 रुपये ही मिल रहे थे. इस दोगुनी बढोत्तरी की वजह से किसान खुश हैं.
वर्ष 2015 में स्थापित इंडियन बी-कीपर्स एसोसिएशन ने बताया कि वे अब भी मधुमक्खी पालक से लेकर ऊंचे दर्जे तक कड़ी निगरानी व्यवस्था की मांग कर रहे हैं. संगठन के नवाब सिंह ने कहा कि ब्रांडेड कंपनियों को शहद मुहैया कराने वाली पंजाब-हरियाणा और राजस्थान व उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की मदर कंपनियां मधुमक्खी पालकों से रॉ शहद किस दाम में खरीदती हैं, इसका हिसाब और निगरानी रखी जानी चाहिए. क्योंकि किसानों से मदर हनी कंपनियां बेहद कम दाम में कच्चा शहद बीते कई वर्षों से खरीद रही हैं और फिर मिलावटी कारोबार का नेक्सस काम करता है. इसी ने मधुमक्खी पालकों की कमर तोड़ दी है.
ग्लोबल बीटूबी हनी उद्यम और बी-कीपर्स के वेलफेयर से जुड़े दुबई में रहने वाले शहजादा कपूर सिंह ने बताया कि 2013 में उनके पास भारत के अलग-अलग हिस्सों में करीब 50 हजार मधुमक्खी बॉक्स थे और वे इसके जरिए दुनिया भर में शहद सप्लाई करते थे. लेकिन इसके बाद उनकी कंपनी को घाटा हुआ और उसी वर्ष के बाद से शहद में मिलावट के कारोबार ने भी तेजी पकड़ी. अब उनका शहद उद्योग उतना बेहतर नहीं रहा और वे दुबई से व्यापार करते हैं.
शहजादा कपूर ने बताया कि सीएसई के खुलासे के बाद से मधमुक्खी पालकों को बड़ी राहत मिली है. शहद की अगली खेप 15 फरवरी तक आएगी और उम्मीद है कि मधुमक्खी पालकों को 30 से 40 फीसदी अधिक दाम मिलेगा. वहीं, जिन ब्रांड्स के शहद में मिलावट का कारोबार उजागर हुआ है अब शायद वे भी एनएमआर टेस्ट को अपनाने के लिए बाध्य होंगी. और ऐसी सूचना है कि कंपनियां इस बारे में सोच रही हैं. हालांकि, एनएमआर परीक्षणों को भी सरपास करने की तैयारियां भी संभव हैं.
बी-कीपिंग एडवाइजरी समूह के मुताबिक भारत में 70 फीसदी शहद उत्पादन सरसों का शहद होता है. यह शहद क्रीम यानी मक्खन की तरह जम जाता है. इस शहद का ज्यादातर बाहरी देशों में निर्यात किया जाता है. जबकि भारत के भीतर 30 फीसदी शहद विभिन्न स्रोतों से हैं. मसलन इनमें स्वाद के हिसाब से सबसे ज्यादा लोकप्रिय और हिमाचल व जम्मू से मिलने वाली मल्टी फ्लोरा शहद, पांच फीसदी करीब जंगल से मिलने वाली शहद इसके अलावा सौंफ, अजवाइन और आकाशिया, विलायती बबूल जैसे वेराइटी होती हैं. इस 30 फीसदी का अनुमान यह है कि करीब 5,000 टन प्रतिवर्ष शहद उत्पादन होता है. इसमें से करीब 2000 टन ही कंपनियों तक पहुंचता है और बाकी मधुमक्खी पालक खुद बेचते हैं. लेकिन कंपनियां प्रति वर्ष कितना टन शहद बेचती हैं और कहां से लाती हैं, यह मिलावट का भंडाफोड़ होने के बाद एक हद तक उजागर हो चुका है.
जंगलों में से शहद निकालने का सरकारी ठेका हासिल करने वाले उद्यमियों को भी शहद के बेहतर दाम कोरोनाकाल में नहीं मिल पाए. कतर्नियाघांट वन्य अभ्यारण्य और नेपाल के आस-पास जंगलों में शहद का ठेका लेने वाले मुशीर बताते हैं कि 110 रुपये प्रति किलो जंगली शहद उन्होंने बेची थी लेकिन अभी दाम 300 रुपये से ज्यादा का है. जंगल की शहद जो सरकारी ठेकों पर मिलते हैं उनकी कीमतें सरकारी दर पर तय होती हैं. हालांकि जंगल के किनारे आदिवासी समुदायों के जरिए शहद उत्पादन में उन्हें उसी शहद के महज 80 रुपये प्रति किलो तक मिल रहे थे. इस वक्त जरूर सुधार दिख रहा है.
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की ओर से बड़ी कंपनियों के शहद मिलावट कारोबार का भंडाफोड़ होने के बाद मधुमक्खी पालक किसानों को बड़ी राहत मिली है. करीब पांच बरस बाद देशभर में सरसों वाली शहद (मस्टर्ड लिक्विड शहद) के दाम में दोगुनी बढ़त हुई है. इससे पहले किसानों को अपने कच्चे शहद की लागत तक निकालने में परेशानी हो रही थी. कोरोनाकाल में जब शहद की मांग चरम पर पहुंची तबभी मधुमक्खीपालकों को कंपनियों को कच्ची शहद 60 रुपये किलो तक बेचनी पड़ी.
राजस्थान के अलवर जिले में करीब 10 हजार किसानों के समूह ऑल इंडियन बी-कीपर्स फेडरेशन के अध्यक्ष नबाब सिंह ने कहा कि वे मधुमक्खी पालकों की तरफ से वे सीएसई-डाउन टू अर्थ की इस मुहीम का शुक्रिया अदा करते हैं क्योंकि मिलावट कारोबार का खुलासा होने के बाद से बीते पांच बरस में पहली बार ऐसा है जब उन्हें कच्चे शहद का प्रति किलो दाम 130 रुपये तक मिल रहा है. जबकि मई, 2020 महीने में प्रति किलो कच्चे शहद का दाम उन्हें महज 60 रुपये ही मिल रहे थे. इस दोगुनी बढोत्तरी की वजह से किसान खुश हैं.
वर्ष 2015 में स्थापित इंडियन बी-कीपर्स एसोसिएशन ने बताया कि वे अब भी मधुमक्खी पालक से लेकर ऊंचे दर्जे तक कड़ी निगरानी व्यवस्था की मांग कर रहे हैं. संगठन के नवाब सिंह ने कहा कि ब्रांडेड कंपनियों को शहद मुहैया कराने वाली पंजाब-हरियाणा और राजस्थान व उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की मदर कंपनियां मधुमक्खी पालकों से रॉ शहद किस दाम में खरीदती हैं, इसका हिसाब और निगरानी रखी जानी चाहिए. क्योंकि किसानों से मदर हनी कंपनियां बेहद कम दाम में कच्चा शहद बीते कई वर्षों से खरीद रही हैं और फिर मिलावटी कारोबार का नेक्सस काम करता है. इसी ने मधुमक्खी पालकों की कमर तोड़ दी है.
ग्लोबल बीटूबी हनी उद्यम और बी-कीपर्स के वेलफेयर से जुड़े दुबई में रहने वाले शहजादा कपूर सिंह ने बताया कि 2013 में उनके पास भारत के अलग-अलग हिस्सों में करीब 50 हजार मधुमक्खी बॉक्स थे और वे इसके जरिए दुनिया भर में शहद सप्लाई करते थे. लेकिन इसके बाद उनकी कंपनी को घाटा हुआ और उसी वर्ष के बाद से शहद में मिलावट के कारोबार ने भी तेजी पकड़ी. अब उनका शहद उद्योग उतना बेहतर नहीं रहा और वे दुबई से व्यापार करते हैं.
शहजादा कपूर ने बताया कि सीएसई के खुलासे के बाद से मधमुक्खी पालकों को बड़ी राहत मिली है. शहद की अगली खेप 15 फरवरी तक आएगी और उम्मीद है कि मधुमक्खी पालकों को 30 से 40 फीसदी अधिक दाम मिलेगा. वहीं, जिन ब्रांड्स के शहद में मिलावट का कारोबार उजागर हुआ है अब शायद वे भी एनएमआर टेस्ट को अपनाने के लिए बाध्य होंगी. और ऐसी सूचना है कि कंपनियां इस बारे में सोच रही हैं. हालांकि, एनएमआर परीक्षणों को भी सरपास करने की तैयारियां भी संभव हैं.
बी-कीपिंग एडवाइजरी समूह के मुताबिक भारत में 70 फीसदी शहद उत्पादन सरसों का शहद होता है. यह शहद क्रीम यानी मक्खन की तरह जम जाता है. इस शहद का ज्यादातर बाहरी देशों में निर्यात किया जाता है. जबकि भारत के भीतर 30 फीसदी शहद विभिन्न स्रोतों से हैं. मसलन इनमें स्वाद के हिसाब से सबसे ज्यादा लोकप्रिय और हिमाचल व जम्मू से मिलने वाली मल्टी फ्लोरा शहद, पांच फीसदी करीब जंगल से मिलने वाली शहद इसके अलावा सौंफ, अजवाइन और आकाशिया, विलायती बबूल जैसे वेराइटी होती हैं. इस 30 फीसदी का अनुमान यह है कि करीब 5,000 टन प्रतिवर्ष शहद उत्पादन होता है. इसमें से करीब 2000 टन ही कंपनियों तक पहुंचता है और बाकी मधुमक्खी पालक खुद बेचते हैं. लेकिन कंपनियां प्रति वर्ष कितना टन शहद बेचती हैं और कहां से लाती हैं, यह मिलावट का भंडाफोड़ होने के बाद एक हद तक उजागर हो चुका है.
जंगलों में से शहद निकालने का सरकारी ठेका हासिल करने वाले उद्यमियों को भी शहद के बेहतर दाम कोरोनाकाल में नहीं मिल पाए. कतर्नियाघांट वन्य अभ्यारण्य और नेपाल के आस-पास जंगलों में शहद का ठेका लेने वाले मुशीर बताते हैं कि 110 रुपये प्रति किलो जंगली शहद उन्होंने बेची थी लेकिन अभी दाम 300 रुपये से ज्यादा का है. जंगल की शहद जो सरकारी ठेकों पर मिलते हैं उनकी कीमतें सरकारी दर पर तय होती हैं. हालांकि जंगल के किनारे आदिवासी समुदायों के जरिए शहद उत्पादन में उन्हें उसी शहद के महज 80 रुपये प्रति किलो तक मिल रहे थे. इस वक्त जरूर सुधार दिख रहा है.
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