Newslaundry Hindi
किसान और सबसे लायक बेटे के कारनामें
किसान आंदोलन से पहले पिछले जाड़े में हुए उस बड़े आंदोलन की याद जिसे गोदी मीडिया ने 'ओनली मुसलमान' आंदोलन साबित करने के लिए सभी संभव प्रपंच किए थे.
"मेरी सरकार जब से आई है सीएए-एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं हुई है और न देश में कहीं डिटेन्शन सेंटर बनाए गए हैं. यह कांग्रेस और अर्बन नक्सल का फैलाया झूठ है- झूठ है- झूठ है!"
सामान्य नागरिकों के लिए यह अब तक पहेली है कि तब सीएए-एनआरसी के विरोध में भड़के देशव्यापी आंदोलन के बीच, प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में इतनी दृढ़ता से इतना चमकदार झूठ क्यों बोला था? हालांकि उसी समय गृहमंत्री अमित शाह अपनी दो उंगलियों से एकाधिक बार देश को इन दोनों कानूनों की क्रोनोलॉजी बता रहे थे.
यह राजनीति को मनमाफिक नतीजे देने वाली कहानी में बदल देने वाले 'पोस्ट ट्रुथ' का एक नायाब नमूना था. यह भाषण वहां मोदी-मोदी का जाप कर रहे, झूमते भक्तों के लिए नहीं सिर्फ मीडिया के लिए था. इसने एक छलिया भ्रम को दूर देहात के उन लोगों तक पहुंचा दिया जहां जाकर सरकारी नवहिंदुत्व का दमन झेल रहे, संसाधनविहीन आंदोलनकारियों के लिए सच्चाई बता पाना संभव ही नहीं था. पीठ पर संदेश लिए खरगोश और कछुए की एक दौड़ शुरू हुई थी. सरकार को फौरी तौर पर पीछे हटना पड़ा था लेकिन यह भ्रम आज तक बना हुआ है. सब कुछ आंख के सामने होते हुए भी मीडिया ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि क्या इस मसले पर मोदी और शाह के बीच मतभेद था?
दरअसल अब मोदी सरकार का सबसे लायक बेटा गोदी मीडिया है. वह पीएमओ का विस्तार है जहां कॉरपोरेट की असुरक्षा में पार्टी नेताओं से आगे की सोच और कल्पनाशीलता वाले तकनीकी रूप से दक्ष संपादक-पत्रकार काम करते हैं. बदले में सरकार मीडिया कंपनियों को राजस्व देती है, टीआरपी का जुगाड़ खुद करना पड़ता है. वही असल चाणक्य, रणनीतिकार और राजनीति का एजेन्डा सेटर है. इसीलिए 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के बीच में कुछ युवाओं द्वारा लालकिले पर गुरूद्वारे का केसरिया झंडा फहराने के बाद, गोदी मीडिया के मदारियों ने राष्ट्रीय ध्वज का अपमान, किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, धर्मनिरपेक्षता की ऐसी तैसी करने वाले गुंडे और अराजक चित्रित करना शुरू कर दिया ताकि किसानों के आंदोलन की दो महीने से बनी हुई साख खत्म हो और अंबानी-अडानी को भारत के सबसे बड़े जमींदार बनाने वाले तीन कृषि कानूनों के बजाय खालिस्तान मुद्दे पर चखचख शुरू हो जाए.
ये टीवी के मदारी और जमूरे यही काम पहले पिज्जा-जीन्स-मोबाइल-अंग्रेजी की कहानियों के जरिए "ये कैसे किसान!" का सवाल उठाने वाली नौटंकी के मंचन के जरिए कर रहे थे. नया यह था कि सेक्युलर-लिबरल समझे जाने वाले शहरी लोग भी इस बार इमोशनल एजेंडा सेटिंग के झांसे में फंसते नजर आए और किसानों के चरित्र पर फैसला सुनाने लगे.
राजस्थान की एक अदालत पर हिंदूवादी कार्यकर्ताओं द्वारा तिरंगा हटाकर राम मंदिर का ध्वज लगाने, गांधी की तस्वीर को गोली मारने का प्रहसन करने, गोडसे का मंदिर बनाने, अदालत में हलफनामा देने के बावजूद बाबरी मस्जिद गिराकर हर साल छह दिसंबर को शौर्य दिवस मनाने पर गोदी मीडिया की जानी-बूझी, शातिर चुप्पी को छोड़ भी दें तो राष्ट्रीय ध्वज और धर्मनिरपेक्षता इन दो की ऐतिहासिक अवहेलना (जो दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध है) करते हुए ही आरएसएस-भाजपा की हिंसक नवहिंदुत्व की राजनीति का ताना-बाना खड़ा किया गया है.
भाजपा के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है और आरएसएस ने आजादी के 55 साल बाद तक अपने नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया क्योंकि उनके पूज्य गोलवरकर-सावरकर जैसे नेताओं का मानना था कि किसी झंडे में तीन रंगो का होना अशुभ है और हिंदुस्थान (हिंदुस्तान नहीं) का झंडा हिंदुओं का भगवा ही हो सकता है. इस सदी के पहले साल में तीन युवकों ने आरएसएस के रेशमी बाग (नागपुर) मुख्यालय में 26 जनवरी को घुसकर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया था. उसके अगले साल से तिरंगा फहराने के लिए आरएसएस को बाध्य होना पड़ा. इन तीन युवकों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी पर बारह साल मुकदमा चला जिसमें वे बाइज्जत बरी हुए थे. इसे आरएसएस के दायरे में केस नंबर-176 के नाम से जाना जाता है. बहरहाल लालकिले पर राष्ट्रध्वज का अपमान हुआ ही नहीं था.
दो महीने से ठंड में सरकार की उपेक्षा से मर रहे किसान आंदोलनकारियों से धर्मनिरपेक्ष आचरण की उम्मीद करना और सरकार द्वारा हर चीज में धार्मिक प्रतीकों को लाकर भावनात्मक राजनीति (अगर राममंदिर के लिए प्रधानमंत्री के भूमिपूजन को भूल जाएं तो भी इस साल की गणतंत्र दिवस परेड में ही कई धार्मिक रंगत वाली झांकियां शामिल थीं) करने का गुणगान करना गोदी मीडिया की षड्यंत्रकारी चाल है जिसे समझने की जरूरत है. किसान हर फसल के दाने बोने से पहले और काटने के बाद किसी न किसी लोकदेवता की पूजा करता ही है. इस आंदोलन में स्वाभाविक तौर पर 'जो बोले सो निहाल' समेत अनेक धार्मिक नारे प्रमुख हैं. इसे संदर्भों से काटकर किसानों को खालिस्तानी और गणतंत्र दिवस परेड की धार्मिक झांकियों को सरकार की उपलब्धि नहीं बताया जा सकता.
यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राजकाज में धर्म का दखल न होने दे लेकिन जिन लोगों की आंखों में अन्य धर्मों को खदेड़ कर सिर्फ अपने धर्म का राष्ट्र बनाने का सपना बसाया गया है, उन्हें किसान चेतना और सरकारी तंत्र का दुरूपयोग कर की जा रही धर्म की सस्ती राजनीति का अंतर समझा पाना मुश्किल है. उनके लिए झंडे के भाव से अधिक उसकी लंबाई, चौड़ाई और उसका लोगों पर पड़ने वाला बाध्यकारी प्रभाव (जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए बना था) ही प्रमुख है.
जो किसानों को हिंसक और अराजक दिखाने में लगे हैं उन्हें 2016 की फरवरी में हरियाणा के जाटों के आरक्षण आंदोलन को याद करना चाहिए. उसमें 30 लोग मारे गए थे, 350 से अधिक घायल हुए थे, और अरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ था. 26 जनवरी के दिन दिल्ली में बैठे किसानों की जो तादाद थी, (अपुष्ट आंकड़े लाखों में हैं) अगर वह बड़े पैमाने पर संयमी और आत्मनियंत्रित न होता तो जो भयानक नतीजे हो सकते थे उसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. पिछले दो महीने में सरकार के अहंकार और जनता के बजाय कॉरपोरेट घरानों के प्रति पक्षधरता के कारण सौ अधिक किसान मरे हैं, क्या यह बिना हथियार उठाए जान लेने वाली कुटिल हिंसा नहीं है. इससे उपजे गुस्से को जाहिर करने के बजाय अब तक किसानों ने जिस संयम का परिचय दिया है क्या वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की मिसाल नहीं है. क्या इस संघर्ष में नए बनते देश को दिखाना मीडिया का काम नहीं होना चाहिए.
बहरहाल गोदी मीडिया सभी छोटे बड़े आंदोलनों को देशद्रोही बनाने की कल्पनाओं को वीडियो में रुपांतरित कर सरकार की सेवा में लगा हुआ है, देखना है कि किसान कैसे इसका सामना करते हैं क्योंकि सबसे अधिक खतरे में वही हैं. जो इस प्रचार में बहकर उनकी लानत मलानत कर रहे हैं उनका नंबर फिर कभी आएगा. शुभ यह है कि जो आंदोलनकारी कभी मीडियाकर्मियों की इज्जत करते थे, अपनी प्रेसविज्ञप्तियां छपवाने के लिए चक्कर लगाते थे अब इस नए गोदी मीडिया की राजनीति में केंद्रीय विध्वंसक भूमिका को पहचानने लगे हैं. कल कोई रास्ता भी निकलेगा.
किसान आंदोलन से पहले पिछले जाड़े में हुए उस बड़े आंदोलन की याद जिसे गोदी मीडिया ने 'ओनली मुसलमान' आंदोलन साबित करने के लिए सभी संभव प्रपंच किए थे.
"मेरी सरकार जब से आई है सीएए-एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं हुई है और न देश में कहीं डिटेन्शन सेंटर बनाए गए हैं. यह कांग्रेस और अर्बन नक्सल का फैलाया झूठ है- झूठ है- झूठ है!"
सामान्य नागरिकों के लिए यह अब तक पहेली है कि तब सीएए-एनआरसी के विरोध में भड़के देशव्यापी आंदोलन के बीच, प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में इतनी दृढ़ता से इतना चमकदार झूठ क्यों बोला था? हालांकि उसी समय गृहमंत्री अमित शाह अपनी दो उंगलियों से एकाधिक बार देश को इन दोनों कानूनों की क्रोनोलॉजी बता रहे थे.
यह राजनीति को मनमाफिक नतीजे देने वाली कहानी में बदल देने वाले 'पोस्ट ट्रुथ' का एक नायाब नमूना था. यह भाषण वहां मोदी-मोदी का जाप कर रहे, झूमते भक्तों के लिए नहीं सिर्फ मीडिया के लिए था. इसने एक छलिया भ्रम को दूर देहात के उन लोगों तक पहुंचा दिया जहां जाकर सरकारी नवहिंदुत्व का दमन झेल रहे, संसाधनविहीन आंदोलनकारियों के लिए सच्चाई बता पाना संभव ही नहीं था. पीठ पर संदेश लिए खरगोश और कछुए की एक दौड़ शुरू हुई थी. सरकार को फौरी तौर पर पीछे हटना पड़ा था लेकिन यह भ्रम आज तक बना हुआ है. सब कुछ आंख के सामने होते हुए भी मीडिया ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि क्या इस मसले पर मोदी और शाह के बीच मतभेद था?
दरअसल अब मोदी सरकार का सबसे लायक बेटा गोदी मीडिया है. वह पीएमओ का विस्तार है जहां कॉरपोरेट की असुरक्षा में पार्टी नेताओं से आगे की सोच और कल्पनाशीलता वाले तकनीकी रूप से दक्ष संपादक-पत्रकार काम करते हैं. बदले में सरकार मीडिया कंपनियों को राजस्व देती है, टीआरपी का जुगाड़ खुद करना पड़ता है. वही असल चाणक्य, रणनीतिकार और राजनीति का एजेन्डा सेटर है. इसीलिए 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के बीच में कुछ युवाओं द्वारा लालकिले पर गुरूद्वारे का केसरिया झंडा फहराने के बाद, गोदी मीडिया के मदारियों ने राष्ट्रीय ध्वज का अपमान, किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, धर्मनिरपेक्षता की ऐसी तैसी करने वाले गुंडे और अराजक चित्रित करना शुरू कर दिया ताकि किसानों के आंदोलन की दो महीने से बनी हुई साख खत्म हो और अंबानी-अडानी को भारत के सबसे बड़े जमींदार बनाने वाले तीन कृषि कानूनों के बजाय खालिस्तान मुद्दे पर चखचख शुरू हो जाए.
ये टीवी के मदारी और जमूरे यही काम पहले पिज्जा-जीन्स-मोबाइल-अंग्रेजी की कहानियों के जरिए "ये कैसे किसान!" का सवाल उठाने वाली नौटंकी के मंचन के जरिए कर रहे थे. नया यह था कि सेक्युलर-लिबरल समझे जाने वाले शहरी लोग भी इस बार इमोशनल एजेंडा सेटिंग के झांसे में फंसते नजर आए और किसानों के चरित्र पर फैसला सुनाने लगे.
राजस्थान की एक अदालत पर हिंदूवादी कार्यकर्ताओं द्वारा तिरंगा हटाकर राम मंदिर का ध्वज लगाने, गांधी की तस्वीर को गोली मारने का प्रहसन करने, गोडसे का मंदिर बनाने, अदालत में हलफनामा देने के बावजूद बाबरी मस्जिद गिराकर हर साल छह दिसंबर को शौर्य दिवस मनाने पर गोदी मीडिया की जानी-बूझी, शातिर चुप्पी को छोड़ भी दें तो राष्ट्रीय ध्वज और धर्मनिरपेक्षता इन दो की ऐतिहासिक अवहेलना (जो दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध है) करते हुए ही आरएसएस-भाजपा की हिंसक नवहिंदुत्व की राजनीति का ताना-बाना खड़ा किया गया है.
भाजपा के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है और आरएसएस ने आजादी के 55 साल बाद तक अपने नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया क्योंकि उनके पूज्य गोलवरकर-सावरकर जैसे नेताओं का मानना था कि किसी झंडे में तीन रंगो का होना अशुभ है और हिंदुस्थान (हिंदुस्तान नहीं) का झंडा हिंदुओं का भगवा ही हो सकता है. इस सदी के पहले साल में तीन युवकों ने आरएसएस के रेशमी बाग (नागपुर) मुख्यालय में 26 जनवरी को घुसकर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया था. उसके अगले साल से तिरंगा फहराने के लिए आरएसएस को बाध्य होना पड़ा. इन तीन युवकों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी पर बारह साल मुकदमा चला जिसमें वे बाइज्जत बरी हुए थे. इसे आरएसएस के दायरे में केस नंबर-176 के नाम से जाना जाता है. बहरहाल लालकिले पर राष्ट्रध्वज का अपमान हुआ ही नहीं था.
दो महीने से ठंड में सरकार की उपेक्षा से मर रहे किसान आंदोलनकारियों से धर्मनिरपेक्ष आचरण की उम्मीद करना और सरकार द्वारा हर चीज में धार्मिक प्रतीकों को लाकर भावनात्मक राजनीति (अगर राममंदिर के लिए प्रधानमंत्री के भूमिपूजन को भूल जाएं तो भी इस साल की गणतंत्र दिवस परेड में ही कई धार्मिक रंगत वाली झांकियां शामिल थीं) करने का गुणगान करना गोदी मीडिया की षड्यंत्रकारी चाल है जिसे समझने की जरूरत है. किसान हर फसल के दाने बोने से पहले और काटने के बाद किसी न किसी लोकदेवता की पूजा करता ही है. इस आंदोलन में स्वाभाविक तौर पर 'जो बोले सो निहाल' समेत अनेक धार्मिक नारे प्रमुख हैं. इसे संदर्भों से काटकर किसानों को खालिस्तानी और गणतंत्र दिवस परेड की धार्मिक झांकियों को सरकार की उपलब्धि नहीं बताया जा सकता.
यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राजकाज में धर्म का दखल न होने दे लेकिन जिन लोगों की आंखों में अन्य धर्मों को खदेड़ कर सिर्फ अपने धर्म का राष्ट्र बनाने का सपना बसाया गया है, उन्हें किसान चेतना और सरकारी तंत्र का दुरूपयोग कर की जा रही धर्म की सस्ती राजनीति का अंतर समझा पाना मुश्किल है. उनके लिए झंडे के भाव से अधिक उसकी लंबाई, चौड़ाई और उसका लोगों पर पड़ने वाला बाध्यकारी प्रभाव (जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए बना था) ही प्रमुख है.
जो किसानों को हिंसक और अराजक दिखाने में लगे हैं उन्हें 2016 की फरवरी में हरियाणा के जाटों के आरक्षण आंदोलन को याद करना चाहिए. उसमें 30 लोग मारे गए थे, 350 से अधिक घायल हुए थे, और अरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ था. 26 जनवरी के दिन दिल्ली में बैठे किसानों की जो तादाद थी, (अपुष्ट आंकड़े लाखों में हैं) अगर वह बड़े पैमाने पर संयमी और आत्मनियंत्रित न होता तो जो भयानक नतीजे हो सकते थे उसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. पिछले दो महीने में सरकार के अहंकार और जनता के बजाय कॉरपोरेट घरानों के प्रति पक्षधरता के कारण सौ अधिक किसान मरे हैं, क्या यह बिना हथियार उठाए जान लेने वाली कुटिल हिंसा नहीं है. इससे उपजे गुस्से को जाहिर करने के बजाय अब तक किसानों ने जिस संयम का परिचय दिया है क्या वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की मिसाल नहीं है. क्या इस संघर्ष में नए बनते देश को दिखाना मीडिया का काम नहीं होना चाहिए.
बहरहाल गोदी मीडिया सभी छोटे बड़े आंदोलनों को देशद्रोही बनाने की कल्पनाओं को वीडियो में रुपांतरित कर सरकार की सेवा में लगा हुआ है, देखना है कि किसान कैसे इसका सामना करते हैं क्योंकि सबसे अधिक खतरे में वही हैं. जो इस प्रचार में बहकर उनकी लानत मलानत कर रहे हैं उनका नंबर फिर कभी आएगा. शुभ यह है कि जो आंदोलनकारी कभी मीडियाकर्मियों की इज्जत करते थे, अपनी प्रेसविज्ञप्तियां छपवाने के लिए चक्कर लगाते थे अब इस नए गोदी मीडिया की राजनीति में केंद्रीय विध्वंसक भूमिका को पहचानने लगे हैं. कल कोई रास्ता भी निकलेगा.
Also Read
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
I&B proposes to amend TV rating rules, invite more players besides BARC
-
Scapegoat vs systemic change: Why governments can’t just blame a top cop after a crisis
-
Delhi’s war on old cars: Great for headlines, not so much for anything else