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क्रिमिनल जस्टिस-2: चुप्पी की चीख़ों की दास्तान

हालांकि मानव सभ्यता का विकास अब आगे की तरफ नहीं बल्कि पीछे की तरफ हो रहा है और देश की राजनीति हमें काल और सभ्यता के उस मोड़ पर जबरन घसीटकर ले जाना चाहती है जहां नारी की पूजा होती थी और हर घर में रमन्ते तत्र देवता हुए करते थे. पति गृह स्वामी होता था और उसकी मृत्यु का दोष लिए या तो उसके साथ उसी चिंता में भस्म होकर सौभाग्य का वरण किया जा सकता था या रंग-राग विहीन एक अपशगुनी उपस्थिति के साथ भव सागर को पार किया जा सकता था. इन दो शास्त्र-संगत विकल्पों से इतर कई और जो खिड़कियां खुलीं वो इसलिए क्योंकि मानव सभ्यता ने विकास की दिशा आधुनिक होने की तरफ मोड़ दी. यह दिशा कब ‘वाम’ हो गयी, कहना मुश्किल है लेकिन हर काल में दक्षिण में ही खड़े धर्म के स्थापकों ने इसे वापिस उसी शास्त्र संगत युग की तरफ ले जाने का राजनैतिक वीणा उठा लिया. कमाल ये है कि उन्हें पूर्ण बहुमत से स्वीकृति मिली और और इस जनादेश का सम्मान करते हुए उन्होंने आधुनिक होती स्त्री को पुन: उन्हीं सांचों में ढालने की प्रयोगशालाएं खड़ी कर दीं.

‘क्रिमिनल जस्टिस’ इस दौर में आधुनिक हो चुकी उस महिला की कहानी है जिसे सांचे में ढलना भी मंजूर है और उस सांचे में ढालते समय महसूस होती तमाम यातनाओं को चुपचाप सह लेने की आदत भी लेकिन उसके इर्द-गिर्द एक ऐसा सिस्टम मौजूद है उसे यह बोध कराये रहता है कि वह सिस्टम की ज़िम्मेदारी है. ऐसे सिस्टम की जहां सब बराबर हैं. जहां प्रथम दृष्टया आपराधिक लगने वाली घटना के पीछे की मंशा केवल इसलिए टटोली जाएगी क्योंकि घटना एक महिला के हाथों हुई है और महिलाएं इस समाज में खुद यह भी तय करने की हैसियत नहीं रखतीं कि वे कोई अपराध करें. उनके अपराध के पीछे की मंशा को जानकर यह सिस्टम खुद को गलत होने से बचाने के लिए प्रतिबद्ध है. यह सिस्टम है जो सभ्यतागत ढंग से पीछे लौटते समाज को पीछे जाने से रोकना चाहता है.

‘क्रिमिनल जस्टिस’ समाज और आधुनिक व्यवस्था के बीच का द्वंद्व है. यह संघर्ष है जो बराबरी और गैर बराबरी के बीच है, यह संघर्ष है जो शोर और चुप्पियों के बीच है, यह लड़ाई है कमजोर और ताकतवर के बीच है, यह संवाद भी है जो मान्यताओं और हकीकतों के बीच हो रहा है. यह चमक- दमक से जूझती एक जुगनू की अपनी पहचान बचाए रखने की कोशिश है. यह दरअसल बराबरी, न्याय, समता और गरिमा के लिए प्रतिबद्ध एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था और सदियों से भेदभाव और अन्याय पर टिकी धर्म व शस्त्रानुमोदित एक रूढ़िग्रस्त समाज के बीच इक्कीसवीं सदी में खींची हुई रस्सी पर आवाजाही करती एक महिला की दृश्यमान छवि है. दो सिरे या छोर इस तनाव को पैदा करते हैं और इसके बीच एक सिस्टम जो अपने नागरिकों से किए करार को लेकर ईमानदार है.

‘अनु’ या ‘अनुराधा’ इस सीरीज की केंद्रीय पात्र है. उसका केंद्रीय होना ही उसके लिए सबसे तकलीफ़देह है और जो स्थान उसने अपने लिए खुद नहीं चुना बना वह एक ऐसी साजिश का शिकार है जो पीढ़ियों से शस्त्रनुमोदित है और जिसे लेकर समाज में बात भले किसी स्तर तक हो जाये लेकिन उसका प्रतिकार या उस पर सवाल उठाने का चलन तो अभी नहीं है और उसे गुप्त रखना. किसी को कुछ न बताना एक मात्र ‘सुखी’ दाम्पत्य जीवन की कसौटी भी है और गारंटी भी. अनु को केंद्रीय भूमिका में खड़े करने के लिए अनु खुद जिम्मेदार नहीं है और न ही उसमें ऐसा करने की या ऐसा हने की कोई ललक ही है लेकिन वो है और केंद्रीय चरित्र में है.

घटनाएं उसके साथ और उसके इर्द-गिर्द घटती हैं. वो कई घटनाओं की भुक्तभोगी है तो कई घटनाओं के लिए जिम्मेदार भी. कई घटनाएं केवल इसलिए उसके साथ हो रही हैं क्योंकि वो कुछ बोलती नहीं और कई इसलिए भी क्योंकि वो कुछ बोलती है. कई घटनाओं की ज़िम्मेदारी इसलिए उस पर है क्योंकि उसे बताया जाता है कि वो भुलक्कड़ है, भूल जाती है, बीमार है. कई घटनाएं इसलिए उसके साथ हो रही हैं क्योंकि वो बीती रात को जो हुआ उसको भूल नहीं पाती है. घर से बाहर जाने पर या घर से बाहर न जाने पर, शैंपू कम निकालने पर या अलमारी से कुछ कपड़े निकालने या ना निकालने पर, किसी से बात करने पर, किसी से मिलने पर, गाड़ी दो किलोमीटर ज़्यादा चलने पर या किसी भी बात पर एक दिन की दिनचर्या में वो किसी भी बात के लिए बिना खुद जाने वो गंभीर अपराध की दोषी हो सकती है और जिसका भुगतान उसे रात को दंड स्वीकार करके करना है.

हर लम्हे की निगरानी के एक ऐसे तंत्र में उसे घेर लिया गया है ताकि उसे रात को दंडित किया जा सके और उसके साथ वह सब किया जा सके जो ऐसी स्त्री के साथ किया नहीं जा सकता जिसके पास थोड़ा सा भी स्वाभिमान बचे. जो न कह सके.

अनु इसलिए केंद्रीय भूमिका में है क्योंकि वह एक आसान शिकार है. शिकार अपना इतिहास नहीं लिख पाते. लिखना शायद वो चाहते हों पर उनका खुद पर इतना एतबार नहीं बचता कि वो यह भरोसा कर सकें कि जब वो अपनी आप-बीती किसी को सुनाएंगे तो कहीं उनसे ताकतवर शिकारी का अपमान ना हो जाये. अनु शिकार बनना नहीं चाहती है. उसे होना भी नहीं चाहिए. इक्कीसवीं सदी की सुशिक्षित महिला है. अंग्रेज़ी बोलती है. कार ड्राइव करती है. महानगर में रहती है.

शिकारी, जिसके रुतबे को कायम रखने के लिए ये शिकार बना दी गयी महिला अपनी आप बीती को कहीं दर्ज़ नहीं करना चाहती. पूरे होशो-हवाश में चुप्पी का चयन इस सीरीज की अंतर्ध्वनि है जिसे ठीक उसी तरह महसूस किया जा सकता है जैसे अनु अपने पति की अनुपस्थिति को हर समय उपस्थित उपस्थिति की तरह महसूस करती है.

परिस्थितियां और सभी को समान मानने की बुनियाद पर खड़ी एक व्यवस्था उसकी ज़िंदगी में शामिल चुप्पी और अपने पति की अनुपस्थित उपस्थिति को धीरे- धीरे बाहर निकालती है और उसकी ‘खुदी’ लौटाता है. ये सिस्टम है जो धीरे- धीरे उसके जीवन में दखल देता है और बंद कर लिए दरवाजों के जंग लगे तालों को भरोसे की चाभी से खोलने की शिद्दत से कोशिश करता है और जब बंद ताले खुलना शुरू होते हैं तो वहां महज़ एक शिकारी नहीं बल्कि कई कई शिकारी के साथ खड़े दिखलाई देते हैं. यह तय करना एक सुधि दर्शक के लिए मुश्किल भरा हो जाता है कि असल शिकारी कौन है.

एडवोकेट चंद्रा की हैसियत का अंदाज़ा उसके ठाठ-वाट से ही नहीं बल्कि उसकी काबिलियत के किस्सों से लगाया जा सकता है लेकिन उसके व्यक्तित्व के विद्रूप को समझने के लिए 10 महीनों की कालावधि को समेटे इस पूरी सीरीज को पूरे इत्मीनान से देखने की ज़रूरत है.

दिलचस्प है, और यह इस सीरीज की सघनता, उसकी गहराई व तीव्रता से ही संभव है कि इस सफल, काबिल और नामी हस्ती के आंतरिक ‘विद्रूप’ को समझने में एक दर्शक को उतना भी उतना ही समय लगता है जितना इस सजीले काबिल और सफल इंसान को समझने में उसकी बेतहाशा अमानवीय हिंसा की शिकार पत्नी को. यह इस सीरीज का वह मजबूत पक्ष है जहां एक दर्शक के तौर पर आप उतना ही जान पाते हैं जितना आपको निर्देशक और इसके अभिनेता आपको बताना चाहते हैं. आप कुछ अटकलें लगा सकते हैं लेकिन उतनी ही जितने की इजाजत आपका सामाजिक अनुकूलन आपको देता है. गंदगी के ब्यौरों में जाने की शिक्षा आमतौर हमें मिली नहीं होती है और यह सीरीज हमें उस गंदगी के गटर में डूबती उतरती एक एक बदबूदार रेशे को छूकर, सूघकर, देखकर और सुनाकर और लगभग चखकर दिखालने की कोशिश करती है. यह अप्रत्याशित मोड़ पर ले जाती है जिसमें अनु के हाव-भाव से और व्यक्तित्व हीन क्लांत चेहरे को देखकर आपको कुछ कुछ अंदाज़ा हो सकता है लेकिन थ्रिल यह इसलिए ही है क्योंकि जो अंत में होता है वह आपकी तमाम कल्पनाओं के कुल गुणनफल से कुछ बेशी निकलता है.

एक ईमानदार वकील, संवेदनशील पुलिस अफसर, एक महिला न्यायधीश और एक उत्पीड़ित स्त्री का धीरे धीरे कम होता डर और उसके पीछे खड़ा एक न्याय तंत्र एक ऐसा अफसाना रचता है जिसमें न्याय की जीत पर भरोसा होता है और उत्पीड़न के सहयात्री बन चुके दर्शक के तौर पर आप एक चैन की सांस लेते हैं. गम की लंबी शाम के ढलने सा सब्र आपको न्याय के प्रति आश्वस्त करता है.

यह सीरीज दाम्पत्य जीवन के लगभग अनछुए पहलू जिस पर अभी नारीवादी आंदोलन में चर्चा होना शुरू हुई थी और हिंसा के सांस्थानिक स्वरूप के रूप में देखे जाने की पैरवी जन चेतना में आना शुरू हो रही उस ‘मेरिटल रेप’ की परतें उघाड़ने की कोशिश करती है.

यह एक ऐसा मामला है जो ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ के नारे का विस्तार करता है और पितृसत्ता की चारदीवारी में बंद हिंसा को बेपर्दा करता है. जिस शास्त्रानुमोदित व्यवस्था का पूरा वजूद ही परिवार नामक संस्था पर टिका है यह मामला उसमें सेंध लगाता है जिससे सदियों से संरक्षित इस पुरातात्विक लेकिन सनातनी इमारत भरभराकर ढह सकती है. इसलिए इसे बार- बार पुनर्जीवित करने की साजिशें रची जाती रही हैं. ‘लव जिहाद’ और प्रेम पर पहरों की राजनैतिक व सामाजिक कार्यवाहियाँ इसी परिप्रेक्ष्य में देखी जाना चाहिए.

वह स्याह तस्वीर हमारे सामने पेश करता है जिससे हम अपनी आंखों को बचाना चाहते हैं और भर नज़र उन बंद दरवाजों के भीतर झांकना नहीं चाहते भले ही सुबह की दूध रोशनी में बंद दरवाजों के पार की दास्तां चीख-चीख कर हमें बताना चाहती हो. सीरीज के नाम में ‘बिहाइंड द क्लोज्ड डोर्स’ शायद इसीलिए ही है.

प्रत्याशित और अप्रत्याशित घटनाओं की तरतीब से आगे बढ़ती यह सीरीज अपने दर्शकों का साथ एक पल के लिए भी नहीं छोड़ती और आगे का रास्ता भी नहीं बतलाती. जिसे हिन्दी के कवि मुक्तिबोध ने कभी सृजन में लालटेन की रोशनी माना था यह सीरीज उस से भी मंथर गति से आगे का रास्ता सुझाती है. और खूबी यह है कि इस तेज़ रफ्तार दुनिया में हमें यह मंथर गति भाती है, उबाऊ नहीं लगती.

मंझे हुए अभिनय और कसे हुए निर्देशन में इस सीरीज में हल्कापन नहीं आने पाया. अनुराधा चन्द्र या अनु के रूप में कीर्ति कुल्हारी रियलिस्टिक अभिनय की एक और सीढ़ी चढ़ी है. मीता वशिष्ठ, दीप्ति नवल ऐसी भूमिकाओं में आकर पूरी सीरीज को विपथ नहीं होने देतीं. पंकज त्रिपाठी थोड़ा टाइयप्ड हुए जाते लगते हैं लेकिन उनका यही अंदाज़ है जिसे देखने की प्रतीक्षा भी इस गंभीर कहानी में बनी रहती है. विशेष रूप से इनका नया- नया दाम्पत्य जिसे ज़्यादा जीवंत बनाने का काम इनकी पत्नी बनी रत्ना फ्राम पटना उर्फ खुशबू आत्रे ने निभाया.

एक दाम्पत्य खाकी बर्दी में भी पूरी कहानी में हमारे साथ चलता है. जहां ड्यूटी के अलावे महिला-पुरुष होने के अलग अलग सरोकार गहराई से दर्ज़ किए गए हैं. अदालत की करवाही के साथ साथ इन दो पुलिस अफसरों के दाम्पत्य जीवन को भी पुनरपरिभाषित व व्याख्यायित किया गया है. गौरी और हर्ष प्रधान के रूप में क्रमश: कल्याणी मुले व अजीत सिंह पलवात ने बहुत शसक्त अभिनय किया है. इन्हें आने वाले लंबे समय तक देखा व सराहा जाएगा.

आशीष विद्यार्थी ने न्याय तंत्र में सदा वत्सले के सुनियोजित मिश्रण से युक्त एक प्रखर वकील की भूमिका का बढ़िया से निर्वहन किया है.

रोहन शिप्पी के निर्देशन में ठहराव है, समझ है और सलीका है जो कहानी को पूरे तनाव में साध पाया है.

डिज्नी हॉटस्टार पर उपलब्ध इस सीरीज को देखा जाना चाहिए ताकि हम सार्वजनिक जीवन में अनुपस्थित होते जा रहे सवालों को अपने ज़हन में ज़िंदा रख सकें और जब वक़्त बदले तो इन सवालों से जूझने के लिए तैयार हो सकें.

हालांकि मानव सभ्यता का विकास अब आगे की तरफ नहीं बल्कि पीछे की तरफ हो रहा है और देश की राजनीति हमें काल और सभ्यता के उस मोड़ पर जबरन घसीटकर ले जाना चाहती है जहां नारी की पूजा होती थी और हर घर में रमन्ते तत्र देवता हुए करते थे. पति गृह स्वामी होता था और उसकी मृत्यु का दोष लिए या तो उसके साथ उसी चिंता में भस्म होकर सौभाग्य का वरण किया जा सकता था या रंग-राग विहीन एक अपशगुनी उपस्थिति के साथ भव सागर को पार किया जा सकता था. इन दो शास्त्र-संगत विकल्पों से इतर कई और जो खिड़कियां खुलीं वो इसलिए क्योंकि मानव सभ्यता ने विकास की दिशा आधुनिक होने की तरफ मोड़ दी. यह दिशा कब ‘वाम’ हो गयी, कहना मुश्किल है लेकिन हर काल में दक्षिण में ही खड़े धर्म के स्थापकों ने इसे वापिस उसी शास्त्र संगत युग की तरफ ले जाने का राजनैतिक वीणा उठा लिया. कमाल ये है कि उन्हें पूर्ण बहुमत से स्वीकृति मिली और और इस जनादेश का सम्मान करते हुए उन्होंने आधुनिक होती स्त्री को पुन: उन्हीं सांचों में ढालने की प्रयोगशालाएं खड़ी कर दीं.

‘क्रिमिनल जस्टिस’ इस दौर में आधुनिक हो चुकी उस महिला की कहानी है जिसे सांचे में ढलना भी मंजूर है और उस सांचे में ढालते समय महसूस होती तमाम यातनाओं को चुपचाप सह लेने की आदत भी लेकिन उसके इर्द-गिर्द एक ऐसा सिस्टम मौजूद है उसे यह बोध कराये रहता है कि वह सिस्टम की ज़िम्मेदारी है. ऐसे सिस्टम की जहां सब बराबर हैं. जहां प्रथम दृष्टया आपराधिक लगने वाली घटना के पीछे की मंशा केवल इसलिए टटोली जाएगी क्योंकि घटना एक महिला के हाथों हुई है और महिलाएं इस समाज में खुद यह भी तय करने की हैसियत नहीं रखतीं कि वे कोई अपराध करें. उनके अपराध के पीछे की मंशा को जानकर यह सिस्टम खुद को गलत होने से बचाने के लिए प्रतिबद्ध है. यह सिस्टम है जो सभ्यतागत ढंग से पीछे लौटते समाज को पीछे जाने से रोकना चाहता है.

‘क्रिमिनल जस्टिस’ समाज और आधुनिक व्यवस्था के बीच का द्वंद्व है. यह संघर्ष है जो बराबरी और गैर बराबरी के बीच है, यह संघर्ष है जो शोर और चुप्पियों के बीच है, यह लड़ाई है कमजोर और ताकतवर के बीच है, यह संवाद भी है जो मान्यताओं और हकीकतों के बीच हो रहा है. यह चमक- दमक से जूझती एक जुगनू की अपनी पहचान बचाए रखने की कोशिश है. यह दरअसल बराबरी, न्याय, समता और गरिमा के लिए प्रतिबद्ध एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था और सदियों से भेदभाव और अन्याय पर टिकी धर्म व शस्त्रानुमोदित एक रूढ़िग्रस्त समाज के बीच इक्कीसवीं सदी में खींची हुई रस्सी पर आवाजाही करती एक महिला की दृश्यमान छवि है. दो सिरे या छोर इस तनाव को पैदा करते हैं और इसके बीच एक सिस्टम जो अपने नागरिकों से किए करार को लेकर ईमानदार है.

‘अनु’ या ‘अनुराधा’ इस सीरीज की केंद्रीय पात्र है. उसका केंद्रीय होना ही उसके लिए सबसे तकलीफ़देह है और जो स्थान उसने अपने लिए खुद नहीं चुना बना वह एक ऐसी साजिश का शिकार है जो पीढ़ियों से शस्त्रनुमोदित है और जिसे लेकर समाज में बात भले किसी स्तर तक हो जाये लेकिन उसका प्रतिकार या उस पर सवाल उठाने का चलन तो अभी नहीं है और उसे गुप्त रखना. किसी को कुछ न बताना एक मात्र ‘सुखी’ दाम्पत्य जीवन की कसौटी भी है और गारंटी भी. अनु को केंद्रीय भूमिका में खड़े करने के लिए अनु खुद जिम्मेदार नहीं है और न ही उसमें ऐसा करने की या ऐसा हने की कोई ललक ही है लेकिन वो है और केंद्रीय चरित्र में है.

घटनाएं उसके साथ और उसके इर्द-गिर्द घटती हैं. वो कई घटनाओं की भुक्तभोगी है तो कई घटनाओं के लिए जिम्मेदार भी. कई घटनाएं केवल इसलिए उसके साथ हो रही हैं क्योंकि वो कुछ बोलती नहीं और कई इसलिए भी क्योंकि वो कुछ बोलती है. कई घटनाओं की ज़िम्मेदारी इसलिए उस पर है क्योंकि उसे बताया जाता है कि वो भुलक्कड़ है, भूल जाती है, बीमार है. कई घटनाएं इसलिए उसके साथ हो रही हैं क्योंकि वो बीती रात को जो हुआ उसको भूल नहीं पाती है. घर से बाहर जाने पर या घर से बाहर न जाने पर, शैंपू कम निकालने पर या अलमारी से कुछ कपड़े निकालने या ना निकालने पर, किसी से बात करने पर, किसी से मिलने पर, गाड़ी दो किलोमीटर ज़्यादा चलने पर या किसी भी बात पर एक दिन की दिनचर्या में वो किसी भी बात के लिए बिना खुद जाने वो गंभीर अपराध की दोषी हो सकती है और जिसका भुगतान उसे रात को दंड स्वीकार करके करना है.

हर लम्हे की निगरानी के एक ऐसे तंत्र में उसे घेर लिया गया है ताकि उसे रात को दंडित किया जा सके और उसके साथ वह सब किया जा सके जो ऐसी स्त्री के साथ किया नहीं जा सकता जिसके पास थोड़ा सा भी स्वाभिमान बचे. जो न कह सके.

अनु इसलिए केंद्रीय भूमिका में है क्योंकि वह एक आसान शिकार है. शिकार अपना इतिहास नहीं लिख पाते. लिखना शायद वो चाहते हों पर उनका खुद पर इतना एतबार नहीं बचता कि वो यह भरोसा कर सकें कि जब वो अपनी आप-बीती किसी को सुनाएंगे तो कहीं उनसे ताकतवर शिकारी का अपमान ना हो जाये. अनु शिकार बनना नहीं चाहती है. उसे होना भी नहीं चाहिए. इक्कीसवीं सदी की सुशिक्षित महिला है. अंग्रेज़ी बोलती है. कार ड्राइव करती है. महानगर में रहती है.

शिकारी, जिसके रुतबे को कायम रखने के लिए ये शिकार बना दी गयी महिला अपनी आप बीती को कहीं दर्ज़ नहीं करना चाहती. पूरे होशो-हवाश में चुप्पी का चयन इस सीरीज की अंतर्ध्वनि है जिसे ठीक उसी तरह महसूस किया जा सकता है जैसे अनु अपने पति की अनुपस्थिति को हर समय उपस्थित उपस्थिति की तरह महसूस करती है.

परिस्थितियां और सभी को समान मानने की बुनियाद पर खड़ी एक व्यवस्था उसकी ज़िंदगी में शामिल चुप्पी और अपने पति की अनुपस्थित उपस्थिति को धीरे- धीरे बाहर निकालती है और उसकी ‘खुदी’ लौटाता है. ये सिस्टम है जो धीरे- धीरे उसके जीवन में दखल देता है और बंद कर लिए दरवाजों के जंग लगे तालों को भरोसे की चाभी से खोलने की शिद्दत से कोशिश करता है और जब बंद ताले खुलना शुरू होते हैं तो वहां महज़ एक शिकारी नहीं बल्कि कई कई शिकारी के साथ खड़े दिखलाई देते हैं. यह तय करना एक सुधि दर्शक के लिए मुश्किल भरा हो जाता है कि असल शिकारी कौन है.

एडवोकेट चंद्रा की हैसियत का अंदाज़ा उसके ठाठ-वाट से ही नहीं बल्कि उसकी काबिलियत के किस्सों से लगाया जा सकता है लेकिन उसके व्यक्तित्व के विद्रूप को समझने के लिए 10 महीनों की कालावधि को समेटे इस पूरी सीरीज को पूरे इत्मीनान से देखने की ज़रूरत है.

दिलचस्प है, और यह इस सीरीज की सघनता, उसकी गहराई व तीव्रता से ही संभव है कि इस सफल, काबिल और नामी हस्ती के आंतरिक ‘विद्रूप’ को समझने में एक दर्शक को उतना भी उतना ही समय लगता है जितना इस सजीले काबिल और सफल इंसान को समझने में उसकी बेतहाशा अमानवीय हिंसा की शिकार पत्नी को. यह इस सीरीज का वह मजबूत पक्ष है जहां एक दर्शक के तौर पर आप उतना ही जान पाते हैं जितना आपको निर्देशक और इसके अभिनेता आपको बताना चाहते हैं. आप कुछ अटकलें लगा सकते हैं लेकिन उतनी ही जितने की इजाजत आपका सामाजिक अनुकूलन आपको देता है. गंदगी के ब्यौरों में जाने की शिक्षा आमतौर हमें मिली नहीं होती है और यह सीरीज हमें उस गंदगी के गटर में डूबती उतरती एक एक बदबूदार रेशे को छूकर, सूघकर, देखकर और सुनाकर और लगभग चखकर दिखालने की कोशिश करती है. यह अप्रत्याशित मोड़ पर ले जाती है जिसमें अनु के हाव-भाव से और व्यक्तित्व हीन क्लांत चेहरे को देखकर आपको कुछ कुछ अंदाज़ा हो सकता है लेकिन थ्रिल यह इसलिए ही है क्योंकि जो अंत में होता है वह आपकी तमाम कल्पनाओं के कुल गुणनफल से कुछ बेशी निकलता है.

एक ईमानदार वकील, संवेदनशील पुलिस अफसर, एक महिला न्यायधीश और एक उत्पीड़ित स्त्री का धीरे धीरे कम होता डर और उसके पीछे खड़ा एक न्याय तंत्र एक ऐसा अफसाना रचता है जिसमें न्याय की जीत पर भरोसा होता है और उत्पीड़न के सहयात्री बन चुके दर्शक के तौर पर आप एक चैन की सांस लेते हैं. गम की लंबी शाम के ढलने सा सब्र आपको न्याय के प्रति आश्वस्त करता है.

यह सीरीज दाम्पत्य जीवन के लगभग अनछुए पहलू जिस पर अभी नारीवादी आंदोलन में चर्चा होना शुरू हुई थी और हिंसा के सांस्थानिक स्वरूप के रूप में देखे जाने की पैरवी जन चेतना में आना शुरू हो रही उस ‘मेरिटल रेप’ की परतें उघाड़ने की कोशिश करती है.

यह एक ऐसा मामला है जो ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ के नारे का विस्तार करता है और पितृसत्ता की चारदीवारी में बंद हिंसा को बेपर्दा करता है. जिस शास्त्रानुमोदित व्यवस्था का पूरा वजूद ही परिवार नामक संस्था पर टिका है यह मामला उसमें सेंध लगाता है जिससे सदियों से संरक्षित इस पुरातात्विक लेकिन सनातनी इमारत भरभराकर ढह सकती है. इसलिए इसे बार- बार पुनर्जीवित करने की साजिशें रची जाती रही हैं. ‘लव जिहाद’ और प्रेम पर पहरों की राजनैतिक व सामाजिक कार्यवाहियाँ इसी परिप्रेक्ष्य में देखी जाना चाहिए.

वह स्याह तस्वीर हमारे सामने पेश करता है जिससे हम अपनी आंखों को बचाना चाहते हैं और भर नज़र उन बंद दरवाजों के भीतर झांकना नहीं चाहते भले ही सुबह की दूध रोशनी में बंद दरवाजों के पार की दास्तां चीख-चीख कर हमें बताना चाहती हो. सीरीज के नाम में ‘बिहाइंड द क्लोज्ड डोर्स’ शायद इसीलिए ही है.

प्रत्याशित और अप्रत्याशित घटनाओं की तरतीब से आगे बढ़ती यह सीरीज अपने दर्शकों का साथ एक पल के लिए भी नहीं छोड़ती और आगे का रास्ता भी नहीं बतलाती. जिसे हिन्दी के कवि मुक्तिबोध ने कभी सृजन में लालटेन की रोशनी माना था यह सीरीज उस से भी मंथर गति से आगे का रास्ता सुझाती है. और खूबी यह है कि इस तेज़ रफ्तार दुनिया में हमें यह मंथर गति भाती है, उबाऊ नहीं लगती.

मंझे हुए अभिनय और कसे हुए निर्देशन में इस सीरीज में हल्कापन नहीं आने पाया. अनुराधा चन्द्र या अनु के रूप में कीर्ति कुल्हारी रियलिस्टिक अभिनय की एक और सीढ़ी चढ़ी है. मीता वशिष्ठ, दीप्ति नवल ऐसी भूमिकाओं में आकर पूरी सीरीज को विपथ नहीं होने देतीं. पंकज त्रिपाठी थोड़ा टाइयप्ड हुए जाते लगते हैं लेकिन उनका यही अंदाज़ है जिसे देखने की प्रतीक्षा भी इस गंभीर कहानी में बनी रहती है. विशेष रूप से इनका नया- नया दाम्पत्य जिसे ज़्यादा जीवंत बनाने का काम इनकी पत्नी बनी रत्ना फ्राम पटना उर्फ खुशबू आत्रे ने निभाया.

एक दाम्पत्य खाकी बर्दी में भी पूरी कहानी में हमारे साथ चलता है. जहां ड्यूटी के अलावे महिला-पुरुष होने के अलग अलग सरोकार गहराई से दर्ज़ किए गए हैं. अदालत की करवाही के साथ साथ इन दो पुलिस अफसरों के दाम्पत्य जीवन को भी पुनरपरिभाषित व व्याख्यायित किया गया है. गौरी और हर्ष प्रधान के रूप में क्रमश: कल्याणी मुले व अजीत सिंह पलवात ने बहुत शसक्त अभिनय किया है. इन्हें आने वाले लंबे समय तक देखा व सराहा जाएगा.

आशीष विद्यार्थी ने न्याय तंत्र में सदा वत्सले के सुनियोजित मिश्रण से युक्त एक प्रखर वकील की भूमिका का बढ़िया से निर्वहन किया है.

रोहन शिप्पी के निर्देशन में ठहराव है, समझ है और सलीका है जो कहानी को पूरे तनाव में साध पाया है.

डिज्नी हॉटस्टार पर उपलब्ध इस सीरीज को देखा जाना चाहिए ताकि हम सार्वजनिक जीवन में अनुपस्थित होते जा रहे सवालों को अपने ज़हन में ज़िंदा रख सकें और जब वक़्त बदले तो इन सवालों से जूझने के लिए तैयार हो सकें.