Newslaundry Hindi
बाइडन का यह छोटा सा वाक्य घायल अमेरिकी मन पर मरहम की तरह लगा
राजनीतिक रूप से अत्यंत अप्रभावी, सामाजिक रूप से बेहद विच्छिन्न और आर्थिक रूप से लड़खड़ाते अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति बनने के बाद कैपिटल हिल की ऐतिहासिक सीढ़ियों पर खड़े होकर जो बाइडन ने जो कुछ कहा उसका ऐतिहासिक महत्व है. क्यों? इसलिए कि अमेरिका के इतिहास का ट्रंप-काल बीतने के बाद बाइडन को जो कुछ भी कहना था वह अपने अमेरिका से ही कहना था, और ऐसे में वे जो भी कहते वह ऐतिहासिक ही हो सकता था. जब इतिहास अपने काले पन्ने पलटता है तब सामने खुला नया पन्ना अधिकांशत: उजला व चांदनी समान दिखाई देता है. इसलिए तब खूब तालियां बजीं जब बाइडन के कहा कि यह अमेरिका का दिन है, यह लोकतंत्र का दिन है. यह एकदम सामान्य-सा वाक्य था जो ऐतिहासिक लगने लगा क्योंकि पिछले पांच सालों से अमेरिका ऐसे वाक्य सुनना और गुनगुना भूल ही गया था. यह वाक्य घायल अमेरिकी मन पर मरहम की तरह लगा. उनके ही नहीं जिन्होंने बाइडन को वोट दिया था बल्कि उनके लिए भी यह मरहम था जो पिछले पांच सालों से चुप थे क्योंकि वह सब बोल रहे थे जो उन्हें बोलना नहीं था, जिसका मतलब भी वे नहीं जानते थे.
जिन लोगों को उन्मत्त कर ट्रंप ने अमरीकी संसद में घुसा दिया था और जिन्हें लगा था कि एक दिन की इस बादशाहत का मजा लूट लें उन्हें भी नई हवा में सांस लेने का संतोष मिल रहा होगा. लोकतंत्र है ही ऐसी दोधारी तलवार जो कलुष को काटती है, शुभ को चालना देती है. यह अलग बात है कि तमाम दुनिया में लोकतंत्र की आत्मा पर सत्ता के भूख की ऐसी गर्द पड़ी है कि वह खुली सांस नहीं ले पा रहा है. तंत्र ने उसका गला दबोच रखा है.
हम पहले से जानते थे कि जो बाइडन ‘अपने राष्ट्रपति’ बराक ओबामा की तरह मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ता नहीं हैं, न वे उस दर्जे के बौद्धिक हैं. वे एक मेहनती राजनेता हैं जो कई कोशिशों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति का मुकाम छू पाए हैं. वह भी शायद इसलिए कि अमेरिका को ट्रंप से मुक्ति चाहिए थी. इतिहास ने इस भूमिका के लिए बाइडन का कंधा चुना. ट्रंप का पूरा काल एक शैतान आत्मा का शापित काल रहा. उन्होंने एक प्रबुद्ध राष्ट्र के रूप में अमेरिका की जैसी किरकिरी करवाई वैसा उदाहरण अमेरिका के इतिहास में दूसरा नहीं है. तो दूसरा कोई राष्ट्रपति भी तो नहीं है जिस पर दो-दो बार माहाभियोग का मामला चलाया गया हो.
ट्रंप बौद्धिक रूप से इतने सक्षम थे ही नहीं कि यह समझ सकें कि जैसे हर राष्ट्रपति का अधिकार होता है कि वह अपनी तरह से अपने देश की नीतियां बनाएं, वैसे ही उस पर यह स्वाभाविक व पदसिद्ध जिम्मेवारी भी होती है कि वे अपने देश की सांस्कृतिक विरासत व राजनीति शील का पालन करे, उसे समुन्नत करे. इन दोनों को समझने व उनका रक्षण करने में विफल कितने ही महानुभाव हमें इतिहास के कूड़ाघर में मिलते हैं. डंपिंग ग्राउंड केवल नगरपालिकाओं के पास नहीं होता है, इतिहास के पास भी होता है.
बाइडन ने दुनिया से कुछ भी नहीं कहा. यह उनके शपथ-ग्रहण भाषण का सबसे विवेकपूर्ण हिस्सा था. इसके लिए अमेरिका को भारतीय मूल के विनय रेड्डी और उनकी टीम को धन्यवाद देना चाहिए जो ओबामा से बाइडन-कमला हैरिस तक के भाषणों का खाका बनाते रहे हैं. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद राष्ट्र को संबोधित करने की यह परंपरा अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने 30 अप्रैल 1789 को शुरू की थी और ‘स्वतंत्रता की पवित्र अग्नि’ की सौगंध खाकर ‘एक नई व आजाद ख्याल सरकार’ का वादा किया था. अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रपतियों द्वारा दिया गया अब तक का सबसे छोटा भाषण दिया था- मात्र 135 शब्दों का. सबसे लंबा उद्घाटन भाषण राष्ट्रपति वीलियम हेनरी हैरिसन ने दिया था- 8455 शब्दों का दो घंटे चला भाषण. यह राजनीतिक परंपरा आज अमेरिका की सांस्कृतिक परंपरा में बदल गई है.
अमेरिका आज भी याद करता है राष्ट्रपति केनेडी का वह भाषण जब उन्होंने अमेरिका की आत्मा को छूते हुए कहा था, “मेरे अमेरिकन साथियो, यह मत पूछिए कि अमेरिका आपके लिए क्या करेगा बल्कि यह बताइए कि आप अमेरिका के लिए क्या करेंगे?” 1933 में भयंकर आर्थिक मंदी में डूबे अमेरिका से राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था, “ आज हमें एक ही चीज से भयभीत रहना चाहिए और वह है भय!” 1861 में गृहयुद्ध से जर्जर अमेरिका से राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था, “मेरे असंतुष्ट देशवासियो, मेरी एक ही इल्तजा है आपसे कि दोस्त बनिए, दुश्मन नहीं!” 2009 में ओबामा ने अपने अमेरिका से कहा था, “यह नई जिम्मेदारियों को कबूल करने का दौर है, हमें अपने प्रति अपना कर्तव्य निभाना है. देश और दुनिया के प्रति अपना कर्तव्य निभाना है और यह सब नाक-भौं सिकोड़ते हुए नहीं बल्कि अल्हादित होकर करना है.” यह सब दूसरा कुछ नहीं, राष्ट्र-मन को छूने और उसे उद्दात्त बनाने की कोशिश है.
बाइडन जब कहते हैं कि हम एक महान राष्ट्र हैं, हम अच्छे लोग हैं तब वे अमेरिका के मन को ट्रंप के दौर की संकीर्णता से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं. जब उन्होंने कहा कि मैं सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति हूं- सारे अमेरिकियों का, हमें एक-दूसरे की इज्जत करनी होगी और यह सावधानी रखनी होगी कि सियासत ऐसी आग न बन जाए जो सबको जलाकर राख कर दे तो वे गहरे बंटे हुए अपने समाज के बीच पुल भी बना रहे थे और अमेरिकियों को सत्ता व राजनीति की मर्यादा भी समझा रहे थे. उन्होंने अमेरिकी सीमा के बाहर के लोगों से यानी दुनिया से सिर्फ इतना ही कहा कि हमें भविष्य की चुनौतियों से ही नहीं, आज की चुनौतियों से भी निबटना है. ट्रंप ने आज को ही तो इतना विद्रूप कर दिया है कि भविष्य की बातों का बहुत संदर्भ नहीं रह गया है.
बाइडन के इस सामान्य भाषण में असामान्य था अनुभव की लकीरों से भरे उनके आयुवृद्ध चेहरे से झलकती ईमानदारी. वे जो कह रहे थे मन से कह रहे थे और अपने मन को अमेरिका का मन बनाना चाहते थे. वहां शांति, धीरज व जिम्मेदारी के अहसास से भरा माहौल था. उन्होंने गलती से भी ट्रंप का नाम नहीं लिया जैसे उस पूरे दौर को पोंछ डालना चाहते हों. चुनावी उथलापन, खोखली बयानबाजी, अपनी पीठ ठोकने और अपना सीना दिखाने की कोई छिछोरी हरकत उन्होंने नहीं की. यह सब हमारे यहां से कितना अलग था! गीत-संगीत व संस्कृति का मोहक मेल था लेकिन कहीं चापलूसी और क्षुद्रता का लेश भी नहीं था. यह एक अच्छी शुरुआत थी. लेकिन बाइडन न भूल सकते हैं न अमरीका उन्हें भूलने देगा कि भाषण का मंच समेटा जा चुका है. अब वे हैं और कठोर सच्चाइयों के सामने खुला उनका सीना है. इनका मुकाबला वे कैसे करते हैं और अमेरिका का मानवीय चेहरा दीपित करते हैं, यह हम भी और दुनिया भी देखना चाहती है. हम भी बाइडन की आवाज में आवाज मिला कर कहते हैं- ईश्वर हमें राह दिखाए और हमारे लोगों को बचाए.
राजनीतिक रूप से अत्यंत अप्रभावी, सामाजिक रूप से बेहद विच्छिन्न और आर्थिक रूप से लड़खड़ाते अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति बनने के बाद कैपिटल हिल की ऐतिहासिक सीढ़ियों पर खड़े होकर जो बाइडन ने जो कुछ कहा उसका ऐतिहासिक महत्व है. क्यों? इसलिए कि अमेरिका के इतिहास का ट्रंप-काल बीतने के बाद बाइडन को जो कुछ भी कहना था वह अपने अमेरिका से ही कहना था, और ऐसे में वे जो भी कहते वह ऐतिहासिक ही हो सकता था. जब इतिहास अपने काले पन्ने पलटता है तब सामने खुला नया पन्ना अधिकांशत: उजला व चांदनी समान दिखाई देता है. इसलिए तब खूब तालियां बजीं जब बाइडन के कहा कि यह अमेरिका का दिन है, यह लोकतंत्र का दिन है. यह एकदम सामान्य-सा वाक्य था जो ऐतिहासिक लगने लगा क्योंकि पिछले पांच सालों से अमेरिका ऐसे वाक्य सुनना और गुनगुना भूल ही गया था. यह वाक्य घायल अमेरिकी मन पर मरहम की तरह लगा. उनके ही नहीं जिन्होंने बाइडन को वोट दिया था बल्कि उनके लिए भी यह मरहम था जो पिछले पांच सालों से चुप थे क्योंकि वह सब बोल रहे थे जो उन्हें बोलना नहीं था, जिसका मतलब भी वे नहीं जानते थे.
जिन लोगों को उन्मत्त कर ट्रंप ने अमरीकी संसद में घुसा दिया था और जिन्हें लगा था कि एक दिन की इस बादशाहत का मजा लूट लें उन्हें भी नई हवा में सांस लेने का संतोष मिल रहा होगा. लोकतंत्र है ही ऐसी दोधारी तलवार जो कलुष को काटती है, शुभ को चालना देती है. यह अलग बात है कि तमाम दुनिया में लोकतंत्र की आत्मा पर सत्ता के भूख की ऐसी गर्द पड़ी है कि वह खुली सांस नहीं ले पा रहा है. तंत्र ने उसका गला दबोच रखा है.
हम पहले से जानते थे कि जो बाइडन ‘अपने राष्ट्रपति’ बराक ओबामा की तरह मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ता नहीं हैं, न वे उस दर्जे के बौद्धिक हैं. वे एक मेहनती राजनेता हैं जो कई कोशिशों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति का मुकाम छू पाए हैं. वह भी शायद इसलिए कि अमेरिका को ट्रंप से मुक्ति चाहिए थी. इतिहास ने इस भूमिका के लिए बाइडन का कंधा चुना. ट्रंप का पूरा काल एक शैतान आत्मा का शापित काल रहा. उन्होंने एक प्रबुद्ध राष्ट्र के रूप में अमेरिका की जैसी किरकिरी करवाई वैसा उदाहरण अमेरिका के इतिहास में दूसरा नहीं है. तो दूसरा कोई राष्ट्रपति भी तो नहीं है जिस पर दो-दो बार माहाभियोग का मामला चलाया गया हो.
ट्रंप बौद्धिक रूप से इतने सक्षम थे ही नहीं कि यह समझ सकें कि जैसे हर राष्ट्रपति का अधिकार होता है कि वह अपनी तरह से अपने देश की नीतियां बनाएं, वैसे ही उस पर यह स्वाभाविक व पदसिद्ध जिम्मेवारी भी होती है कि वे अपने देश की सांस्कृतिक विरासत व राजनीति शील का पालन करे, उसे समुन्नत करे. इन दोनों को समझने व उनका रक्षण करने में विफल कितने ही महानुभाव हमें इतिहास के कूड़ाघर में मिलते हैं. डंपिंग ग्राउंड केवल नगरपालिकाओं के पास नहीं होता है, इतिहास के पास भी होता है.
बाइडन ने दुनिया से कुछ भी नहीं कहा. यह उनके शपथ-ग्रहण भाषण का सबसे विवेकपूर्ण हिस्सा था. इसके लिए अमेरिका को भारतीय मूल के विनय रेड्डी और उनकी टीम को धन्यवाद देना चाहिए जो ओबामा से बाइडन-कमला हैरिस तक के भाषणों का खाका बनाते रहे हैं. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद राष्ट्र को संबोधित करने की यह परंपरा अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने 30 अप्रैल 1789 को शुरू की थी और ‘स्वतंत्रता की पवित्र अग्नि’ की सौगंध खाकर ‘एक नई व आजाद ख्याल सरकार’ का वादा किया था. अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रपतियों द्वारा दिया गया अब तक का सबसे छोटा भाषण दिया था- मात्र 135 शब्दों का. सबसे लंबा उद्घाटन भाषण राष्ट्रपति वीलियम हेनरी हैरिसन ने दिया था- 8455 शब्दों का दो घंटे चला भाषण. यह राजनीतिक परंपरा आज अमेरिका की सांस्कृतिक परंपरा में बदल गई है.
अमेरिका आज भी याद करता है राष्ट्रपति केनेडी का वह भाषण जब उन्होंने अमेरिका की आत्मा को छूते हुए कहा था, “मेरे अमेरिकन साथियो, यह मत पूछिए कि अमेरिका आपके लिए क्या करेगा बल्कि यह बताइए कि आप अमेरिका के लिए क्या करेंगे?” 1933 में भयंकर आर्थिक मंदी में डूबे अमेरिका से राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था, “ आज हमें एक ही चीज से भयभीत रहना चाहिए और वह है भय!” 1861 में गृहयुद्ध से जर्जर अमेरिका से राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था, “मेरे असंतुष्ट देशवासियो, मेरी एक ही इल्तजा है आपसे कि दोस्त बनिए, दुश्मन नहीं!” 2009 में ओबामा ने अपने अमेरिका से कहा था, “यह नई जिम्मेदारियों को कबूल करने का दौर है, हमें अपने प्रति अपना कर्तव्य निभाना है. देश और दुनिया के प्रति अपना कर्तव्य निभाना है और यह सब नाक-भौं सिकोड़ते हुए नहीं बल्कि अल्हादित होकर करना है.” यह सब दूसरा कुछ नहीं, राष्ट्र-मन को छूने और उसे उद्दात्त बनाने की कोशिश है.
बाइडन जब कहते हैं कि हम एक महान राष्ट्र हैं, हम अच्छे लोग हैं तब वे अमेरिका के मन को ट्रंप के दौर की संकीर्णता से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं. जब उन्होंने कहा कि मैं सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति हूं- सारे अमेरिकियों का, हमें एक-दूसरे की इज्जत करनी होगी और यह सावधानी रखनी होगी कि सियासत ऐसी आग न बन जाए जो सबको जलाकर राख कर दे तो वे गहरे बंटे हुए अपने समाज के बीच पुल भी बना रहे थे और अमेरिकियों को सत्ता व राजनीति की मर्यादा भी समझा रहे थे. उन्होंने अमेरिकी सीमा के बाहर के लोगों से यानी दुनिया से सिर्फ इतना ही कहा कि हमें भविष्य की चुनौतियों से ही नहीं, आज की चुनौतियों से भी निबटना है. ट्रंप ने आज को ही तो इतना विद्रूप कर दिया है कि भविष्य की बातों का बहुत संदर्भ नहीं रह गया है.
बाइडन के इस सामान्य भाषण में असामान्य था अनुभव की लकीरों से भरे उनके आयुवृद्ध चेहरे से झलकती ईमानदारी. वे जो कह रहे थे मन से कह रहे थे और अपने मन को अमेरिका का मन बनाना चाहते थे. वहां शांति, धीरज व जिम्मेदारी के अहसास से भरा माहौल था. उन्होंने गलती से भी ट्रंप का नाम नहीं लिया जैसे उस पूरे दौर को पोंछ डालना चाहते हों. चुनावी उथलापन, खोखली बयानबाजी, अपनी पीठ ठोकने और अपना सीना दिखाने की कोई छिछोरी हरकत उन्होंने नहीं की. यह सब हमारे यहां से कितना अलग था! गीत-संगीत व संस्कृति का मोहक मेल था लेकिन कहीं चापलूसी और क्षुद्रता का लेश भी नहीं था. यह एक अच्छी शुरुआत थी. लेकिन बाइडन न भूल सकते हैं न अमरीका उन्हें भूलने देगा कि भाषण का मंच समेटा जा चुका है. अब वे हैं और कठोर सच्चाइयों के सामने खुला उनका सीना है. इनका मुकाबला वे कैसे करते हैं और अमेरिका का मानवीय चेहरा दीपित करते हैं, यह हम भी और दुनिया भी देखना चाहती है. हम भी बाइडन की आवाज में आवाज मिला कर कहते हैं- ईश्वर हमें राह दिखाए और हमारे लोगों को बचाए.
Also Read
-
Two years on, ‘peace’ in Gaza is at the price of dignity and freedom
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians