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पारिस्थितिकी और वायरस का विकास

प्रकृति में सभी जीवित प्राणियों के पास एक या एक से अधिक प्राकृतिक शिकारी होते हैं. कुछ खुद ‘शीर्ष’ शिकारी होते हैं. लेकिन हम मानव जाति, ने ऐसे बहुत से शिकारियों पर अपने वर्चस्व का ऐलान कर दिया है. औद्योगिकीकरण के दौरान संसाधनों की खपत के स्तर में कई गुना इजाफा हुआ. अत्यधिक खपत ने पर्यावरण में जहरीले तत्वों को छोड़ा, जिससे स्थानीय स्तर (उदाहरण के लिए, नदी प्रदूषण) से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक संकट तक के नकारात्मक प्रभावों को पैदा किया.

बीमारियों, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं, अपराध और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वेष में ‘विकास’ हमारे हिस्से में वापस लौट आया है. क्या हम प्रकृति में एक श्रेष्ठ प्रजाति के रूप में अपनी जिम्मेदारी को पहचान सकते हैं? यहां तक कि अगर हम अपनी मानव प्रजाति को बचाने के बारे में स्वार्थी होकर भी सोचते हैं, तो भी क्या हम निरंतरता और सह-जीवन के फायदों को ध्यान में रख सकते हैं? आइए इसे नोवल कोरोनवायरस वायरस (कोविड-19) महामारी के आधार पर समझें.

पारिस्थितिकी और जैव विविधता को बचाने के महत्व को नोवल कोरोना वायरस सार्स-कोव-2 के उभार और प्रसार के आधार पर बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता है. दुनिया की लगभग 60 फीसदी बीमारियां जानवरों (जूनोसिस) से आती हैं, जिनमें से 72 फीसदी जंगली जानवरों से होती हैं.

ऐसे जानवरों को ‘रिजर्वायर’(जमाकर्ता) प्रजाति कहा जाता है. वे साथ-साथ विकसित होते हैं, और अकसर वायरस मनुष्यों को सीधे संक्रमित नहीं करते हैं. इसमें एक अन्य जानवर मध्यस्थ होता है. इसे ‘स्पिल ओवर’ (छलकना) कहा जाता है.

नए जानवरों में जाने पर वायरस के लक्षणों में उत्परिवर्तन’(म्यूटेशन) के माध्यम से बदलाव आ जाता है, जो इसे संक्रामक बना देता है. म्यूटेशन वायरस की नई प्रतियां (कॉपी) बनने के दौरान होने वाली चूक या गलती जैसा होता है.

यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो जीन के स्तर पर होती है, और इसलिए यह टाली नहीं जा सकती है. हालांकि, यह तय करना संभव है कि इसका स्पिल ओवर न होने पाए, यानी किसी मध्यस्थ प्रजाति के माध्यम से इंसानों तक न पहुंचे. अधिकांश वैज्ञानिकों ने इसे बदलते हुए पारिस्थितिक तंत्रों से जोड़ा है. स्पिल ओवर या छलकने की घटनाएं समान परिस्थितियों जैसे अनछुए वन क्षेत्रों या संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र में सीमित रहती हैं. लेकिन जमीन के उपयोग में बदलाव नई और अलग स्थितियों को जन्म देता है. उदाहरण के लिए, खनन, पशुपालन या व्यवसायिक खेती के लिए वनों की कटाई मौजूदा जैव विविधता, प्रजातियों की संख्या और जनसंख्या घनत्व में फेरबदल कर देती हैं. नई स्थिति वायरस के लिए फैलने, उत्परिवर्तित होने और विस्तार करने के लिए अवसर तैयार करती है.

यहां संख्या महत्वपूर्ण है. एक विशिष्ट प्रकार के जानवरों की संख्या जितनी बड़ी होगी, वायरस उतनी ही तेजी से फैलेंगे और उनके उत्परिवर्तन की संभावना भी ज्यादा होगी. डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के अनुसार, यह प्रक्रिया वायरस की उग्रता में योगदान करती है. यह प्रक्रिया अधिक विषाक्त और एक जैसे लक्षणों वाले संक्रामक वायरस के निर्माण को बढ़ावा देती है.

अंत में, ये संक्रामक नस्लें (स्ट्रेन्स) मनुष्यों से चिपक जाती हैं, और वायरस का प्रसार बीमारी के फैलाव में मदद करता है. संक्षेप में, जब हम प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की संपूर्णता को तोड़ते हैं या उसकी जगह पर एकल कृषि को लाते हैं, तो हम अपने लिए महामारी को बुलाने वाले हालात पैदा करते हैं.

संभावित वायरस के लिए मध्यस्थ उपलब्ध कराना प्रसार को आमंत्रित कर रहा है. बड़े पैमाने पर औद्योगिक पशुपालन में वनों की कटाई इन वायरस को हमारे भविष्य में बुलाने जैसा है. अभी मांस खाने वाले लोगों को लेकर सबसे ज्यादा चिंता जताई जा रही है, जो वायरस के प्रसार का अवसर बढ़ा सकते हैं. लेकिन इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं. अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खदानों से निकाली गई धातुओं जैसे तांबा, निकल, चांदी और कोबाल्ट से बनते हैं. इनमें से ज्यादातर खदानें जंगलों में हैं. वहां पर खनन शुरू करने के लिए पुराने जंगलों को हटाना और आवासीय क्षेत्रों को नष्ट करना होता है. इस तरह से यह वायरस को हमारे करीब लाकर खत्म होता है.

इस बारे में सवाल करना हमारी जिम्मेदारी है कि हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं और क्या इस्तेमाल करते हैं. 100 साल पहले महामारियों के दौरान मौत के मामले ज्यादा हो सकते हैं, और ऐसी महामारी के दोहराव की दर में बढ़ोतरी हुई है. इसे आसानी से हमारे औद्योगिक समाजों और बदलती जीवनशैलियों से जोड़ा जा सकता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से बहुत सी चीजों को उलट पाना मुश्किल है. यह लगभग असंभव है कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल बंद कर दिया जाए. औद्योगीकरण पर कई श्रमिकों की आजीविका टिकी है. ऐसे में सीमित उपयोग और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को दोबारा बहाल करना ही उपाय है. इसका मतलब यह होगा कि संसाधनों का जिम्मेदारी से उपयोग हो और दोहन खत्म होने के बाद क्षेत्रों को उनकी मूल चमक लौटाने का काम हो. शहरीकरण बढ़ रहा है और जैव विविधता सिमट रही है. जीवन शैलियां भी बदल रही हैं. ये बदलाव प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करते हैं. शरीर के अंदरूनी और बाहरी दोनों वातावरण प्रतिरक्षा विकसित करने में महत्वपूर्ण होते हैं. स्वच्छता के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है, लेकिन अत्यधिक सफाई और तेजी से होने वाले उपचार हमारे शरीर के अंदरूनी वातावरण को बदल देते हैं. हमारा प्रतिरक्षा तंत्र सैकड़ों वर्षों से इन आंतरिक वातावरण के साथ-साथ विकसित हुआ है, और इसे अचानक से बदलने से हमारा शरीर रोगों के प्रति कमजोर हो जाता है.

जब तक ये बैक्टीरिया और वायरस हमारे साथ मिलकर विकसित होते हैं, तब तक वे कोई परेशानी नहीं बनते हैं. इसे ही वैज्ञानिक ‘पुराने मित्र की परिकल्पना’कहते हैं. लेकिन अगर हम अपने शरीर के वातावरण को बदलते हैं, तो वे अलग तरह से प्रतिक्रिया करेंगे. यदि बाहरी वातावरण बदलता है, तो यह हमारे स्वास्थ्य पर असर डालेगा. शोध से पता चलता है कि अगर आसपास कोई जैव विविधता नहीं है तो ठंड, दमा, त्वचा रोग जैसी चीजों से होने वाली एलर्जी बढ़ जाती है. यह ‘जैव विविधता परिकल्पना’ है.

पोलैंड की कहानी यहां पर जिक्र करने लायक अच्छा मामला है. 2004 में पोलैंड यूरोपीय संघ का सदस्य बना और उसकी कृषि नीतियां बदल गईं. कुछ शोधकर्ताओं ने 2003 और 2012 के बीच नागरिकों में अस्थमा और अन्य एलर्जी के प्रसार की जांच की. इसमें 8 से 18 फीसदी बढ़ोतरी पाई गई. इसका मुख्य कारण खेती से दूरी, गायों और अन्य जानवरों से संपर्क में कमी थी और इसके नतीजे में प्रतिरक्षा तंत्र का कमजोर पड़ा और बीमारियों में उभार आ गया. हालांकि, वायरल संक्रमण और एलर्जी दो अलग-अलग बीमारियां हैं, लेकिन दोनों में प्रतिरक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. और इसलिए, प्रतिरक्षा बनाए रखने के लिए घर के आसपास जैव विविधता होना जरूरी है.

हमें जरूर ध्यान देना चाहिए कि संक्रमण होने के बावजूद अच्छे प्रतिरक्षा तंत्र वाले बहुत से लोग बीमार नहीं पड़ते हैं. भले ही प्रतिरक्षा तंत्र आनुवंशिक है, लेकिन इसे कुछ तरीकों से बढ़ाया जा सकता है. भारत में, अलग-अलग संस्कृतियों में से हर किसी के पास स्वस्थ जीवनशैली के लिए साहित्य का अपना समूह या अलिखित आचार संहिता है. लेकिन तेजी वैश्वीकरण के कारण विविधता को एकरूप बनाया जा रहा है. खाद्य विविधता का नुकसान एक मुद्दा है. जैसे औद्योगीकरण का विस्तार हुआ, फसलें, पारंपरिक खाद्य के प्रकारों और फलस्वरूप पोषण में बदलाव आया. बाहरी वातावरण के साथ हमारे आहार में बदलाव ने हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर दिया.

कोविड-19 महामारी के चलते बनी वर्तमान स्थिति ने स्वास्थ्य और पोषण के महत्व को उभारा है. पारंपरिक और आधुनिक प्रथाओं को मिलाकर, हम अपने को भविष्य में महामारियों के लिए तैयार रख सकते हैं.

प्रकृति में सभी जीवित प्राणियों के पास एक या एक से अधिक प्राकृतिक शिकारी होते हैं. कुछ खुद ‘शीर्ष’ शिकारी होते हैं. लेकिन हम मानव जाति, ने ऐसे बहुत से शिकारियों पर अपने वर्चस्व का ऐलान कर दिया है. औद्योगिकीकरण के दौरान संसाधनों की खपत के स्तर में कई गुना इजाफा हुआ. अत्यधिक खपत ने पर्यावरण में जहरीले तत्वों को छोड़ा, जिससे स्थानीय स्तर (उदाहरण के लिए, नदी प्रदूषण) से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक संकट तक के नकारात्मक प्रभावों को पैदा किया.

बीमारियों, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं, अपराध और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वेष में ‘विकास’ हमारे हिस्से में वापस लौट आया है. क्या हम प्रकृति में एक श्रेष्ठ प्रजाति के रूप में अपनी जिम्मेदारी को पहचान सकते हैं? यहां तक कि अगर हम अपनी मानव प्रजाति को बचाने के बारे में स्वार्थी होकर भी सोचते हैं, तो भी क्या हम निरंतरता और सह-जीवन के फायदों को ध्यान में रख सकते हैं? आइए इसे नोवल कोरोनवायरस वायरस (कोविड-19) महामारी के आधार पर समझें.

पारिस्थितिकी और जैव विविधता को बचाने के महत्व को नोवल कोरोना वायरस सार्स-कोव-2 के उभार और प्रसार के आधार पर बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता है. दुनिया की लगभग 60 फीसदी बीमारियां जानवरों (जूनोसिस) से आती हैं, जिनमें से 72 फीसदी जंगली जानवरों से होती हैं.

ऐसे जानवरों को ‘रिजर्वायर’(जमाकर्ता) प्रजाति कहा जाता है. वे साथ-साथ विकसित होते हैं, और अकसर वायरस मनुष्यों को सीधे संक्रमित नहीं करते हैं. इसमें एक अन्य जानवर मध्यस्थ होता है. इसे ‘स्पिल ओवर’ (छलकना) कहा जाता है.

नए जानवरों में जाने पर वायरस के लक्षणों में उत्परिवर्तन’(म्यूटेशन) के माध्यम से बदलाव आ जाता है, जो इसे संक्रामक बना देता है. म्यूटेशन वायरस की नई प्रतियां (कॉपी) बनने के दौरान होने वाली चूक या गलती जैसा होता है.

यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो जीन के स्तर पर होती है, और इसलिए यह टाली नहीं जा सकती है. हालांकि, यह तय करना संभव है कि इसका स्पिल ओवर न होने पाए, यानी किसी मध्यस्थ प्रजाति के माध्यम से इंसानों तक न पहुंचे. अधिकांश वैज्ञानिकों ने इसे बदलते हुए पारिस्थितिक तंत्रों से जोड़ा है. स्पिल ओवर या छलकने की घटनाएं समान परिस्थितियों जैसे अनछुए वन क्षेत्रों या संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र में सीमित रहती हैं. लेकिन जमीन के उपयोग में बदलाव नई और अलग स्थितियों को जन्म देता है. उदाहरण के लिए, खनन, पशुपालन या व्यवसायिक खेती के लिए वनों की कटाई मौजूदा जैव विविधता, प्रजातियों की संख्या और जनसंख्या घनत्व में फेरबदल कर देती हैं. नई स्थिति वायरस के लिए फैलने, उत्परिवर्तित होने और विस्तार करने के लिए अवसर तैयार करती है.

यहां संख्या महत्वपूर्ण है. एक विशिष्ट प्रकार के जानवरों की संख्या जितनी बड़ी होगी, वायरस उतनी ही तेजी से फैलेंगे और उनके उत्परिवर्तन की संभावना भी ज्यादा होगी. डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के अनुसार, यह प्रक्रिया वायरस की उग्रता में योगदान करती है. यह प्रक्रिया अधिक विषाक्त और एक जैसे लक्षणों वाले संक्रामक वायरस के निर्माण को बढ़ावा देती है.

अंत में, ये संक्रामक नस्लें (स्ट्रेन्स) मनुष्यों से चिपक जाती हैं, और वायरस का प्रसार बीमारी के फैलाव में मदद करता है. संक्षेप में, जब हम प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की संपूर्णता को तोड़ते हैं या उसकी जगह पर एकल कृषि को लाते हैं, तो हम अपने लिए महामारी को बुलाने वाले हालात पैदा करते हैं.

संभावित वायरस के लिए मध्यस्थ उपलब्ध कराना प्रसार को आमंत्रित कर रहा है. बड़े पैमाने पर औद्योगिक पशुपालन में वनों की कटाई इन वायरस को हमारे भविष्य में बुलाने जैसा है. अभी मांस खाने वाले लोगों को लेकर सबसे ज्यादा चिंता जताई जा रही है, जो वायरस के प्रसार का अवसर बढ़ा सकते हैं. लेकिन इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं. अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खदानों से निकाली गई धातुओं जैसे तांबा, निकल, चांदी और कोबाल्ट से बनते हैं. इनमें से ज्यादातर खदानें जंगलों में हैं. वहां पर खनन शुरू करने के लिए पुराने जंगलों को हटाना और आवासीय क्षेत्रों को नष्ट करना होता है. इस तरह से यह वायरस को हमारे करीब लाकर खत्म होता है.

इस बारे में सवाल करना हमारी जिम्मेदारी है कि हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं और क्या इस्तेमाल करते हैं. 100 साल पहले महामारियों के दौरान मौत के मामले ज्यादा हो सकते हैं, और ऐसी महामारी के दोहराव की दर में बढ़ोतरी हुई है. इसे आसानी से हमारे औद्योगिक समाजों और बदलती जीवनशैलियों से जोड़ा जा सकता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से बहुत सी चीजों को उलट पाना मुश्किल है. यह लगभग असंभव है कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल बंद कर दिया जाए. औद्योगीकरण पर कई श्रमिकों की आजीविका टिकी है. ऐसे में सीमित उपयोग और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को दोबारा बहाल करना ही उपाय है. इसका मतलब यह होगा कि संसाधनों का जिम्मेदारी से उपयोग हो और दोहन खत्म होने के बाद क्षेत्रों को उनकी मूल चमक लौटाने का काम हो. शहरीकरण बढ़ रहा है और जैव विविधता सिमट रही है. जीवन शैलियां भी बदल रही हैं. ये बदलाव प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करते हैं. शरीर के अंदरूनी और बाहरी दोनों वातावरण प्रतिरक्षा विकसित करने में महत्वपूर्ण होते हैं. स्वच्छता के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है, लेकिन अत्यधिक सफाई और तेजी से होने वाले उपचार हमारे शरीर के अंदरूनी वातावरण को बदल देते हैं. हमारा प्रतिरक्षा तंत्र सैकड़ों वर्षों से इन आंतरिक वातावरण के साथ-साथ विकसित हुआ है, और इसे अचानक से बदलने से हमारा शरीर रोगों के प्रति कमजोर हो जाता है.

जब तक ये बैक्टीरिया और वायरस हमारे साथ मिलकर विकसित होते हैं, तब तक वे कोई परेशानी नहीं बनते हैं. इसे ही वैज्ञानिक ‘पुराने मित्र की परिकल्पना’कहते हैं. लेकिन अगर हम अपने शरीर के वातावरण को बदलते हैं, तो वे अलग तरह से प्रतिक्रिया करेंगे. यदि बाहरी वातावरण बदलता है, तो यह हमारे स्वास्थ्य पर असर डालेगा. शोध से पता चलता है कि अगर आसपास कोई जैव विविधता नहीं है तो ठंड, दमा, त्वचा रोग जैसी चीजों से होने वाली एलर्जी बढ़ जाती है. यह ‘जैव विविधता परिकल्पना’ है.

पोलैंड की कहानी यहां पर जिक्र करने लायक अच्छा मामला है. 2004 में पोलैंड यूरोपीय संघ का सदस्य बना और उसकी कृषि नीतियां बदल गईं. कुछ शोधकर्ताओं ने 2003 और 2012 के बीच नागरिकों में अस्थमा और अन्य एलर्जी के प्रसार की जांच की. इसमें 8 से 18 फीसदी बढ़ोतरी पाई गई. इसका मुख्य कारण खेती से दूरी, गायों और अन्य जानवरों से संपर्क में कमी थी और इसके नतीजे में प्रतिरक्षा तंत्र का कमजोर पड़ा और बीमारियों में उभार आ गया. हालांकि, वायरल संक्रमण और एलर्जी दो अलग-अलग बीमारियां हैं, लेकिन दोनों में प्रतिरक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. और इसलिए, प्रतिरक्षा बनाए रखने के लिए घर के आसपास जैव विविधता होना जरूरी है.

हमें जरूर ध्यान देना चाहिए कि संक्रमण होने के बावजूद अच्छे प्रतिरक्षा तंत्र वाले बहुत से लोग बीमार नहीं पड़ते हैं. भले ही प्रतिरक्षा तंत्र आनुवंशिक है, लेकिन इसे कुछ तरीकों से बढ़ाया जा सकता है. भारत में, अलग-अलग संस्कृतियों में से हर किसी के पास स्वस्थ जीवनशैली के लिए साहित्य का अपना समूह या अलिखित आचार संहिता है. लेकिन तेजी वैश्वीकरण के कारण विविधता को एकरूप बनाया जा रहा है. खाद्य विविधता का नुकसान एक मुद्दा है. जैसे औद्योगीकरण का विस्तार हुआ, फसलें, पारंपरिक खाद्य के प्रकारों और फलस्वरूप पोषण में बदलाव आया. बाहरी वातावरण के साथ हमारे आहार में बदलाव ने हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर दिया.

कोविड-19 महामारी के चलते बनी वर्तमान स्थिति ने स्वास्थ्य और पोषण के महत्व को उभारा है. पारंपरिक और आधुनिक प्रथाओं को मिलाकर, हम अपने को भविष्य में महामारियों के लिए तैयार रख सकते हैं.