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लोकतंत्र के नागरिकों को भीड़ में तब्दील करना वह घृणित अपराध है जिसकी एक ही सजा हो सकती है

अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन ट्रंप अब केवल 10 दिनों के राष्ट्रपति बचे हैं लेकिन सवाल यह बचा है कि वे कितना बचे हैं? आज वे हैं फिर भी वे कहीं नहीं हैं. अमेरिका भी और दुनिया भी उन्हें आज ही और अभी ही भुला देने को तैयार बैठी है. राष्ट्रपति बनने से लेकर राष्ट्रपति का चुनाव हारने तक उनका एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब उन्होंने अमेरिका को शर्मिंदा और दुनिया को हतप्रभ न किया हो. ऐसा इसलिए नहीं कि अमेरिका की आधी आबादी उनसे सहमत नहीं थी. सहमति-असहमति लोकतंत्र में हवा की तरह आती-जाती रहती है. कुछ असहमतियां जरूर ही इतनी गहरी होती हैं कि जो कभी जाती नहीं हैं. तो लोकतंत्र का मानी ही यह होता है कि ऐसी असहमतियों से जनता को सहमत किया जाए और उस सहमति की ताकत से, जिससे असहमति है, उसे शासन से हटाया जाए. डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने यही किया और रिपब्लिकनों को चुनाव में मात दी. पिछली बार यही काम ट्रंप ने किया था और डेमोक्रेटों को सत्ता से बाहर किया था. यह लोकतंत्र का खेल है जिसे चलते रहना चाहिए.

लेकिन ट्रंप को यह खेल पसंद नहीं है. इसलिए उन्होंने पिछली बार जैसी अशोभनीय अहमन्यता से अपनी जीत का डंका बजाया था, उतनी ही दरिद्रता से इस बार अपनी हार को कबूल करने से इंकार कर दिया. उन्हें यह अहसास ही नहीं है कि वे व्हाइट हाउस में अमेरिकी जन व संविधान के बल पर मेहमान हैं, उन्होंने व्हाइट हाउस खरीद नहीं लिया है. वैसे भी आम अमेरिकी खरीदने-बेचने की भाषा ही समझता है. ट्रंप तो इसके अलावा दूसरा कुछ जानते-समझते ही नहीं हैं. इसलिए बाइडेन से अपनी हार को जीत बता-बता कर वे पिछले दिनों में वह सब करते रहे जिसे करने की हिम्मत या कल्पना किसी दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं की थी. उन्होंने नये साल को ठीक से आंख खोलने का मौका भी नहीं दिया और उसकी आंख में धूल झोंकने का शर्मनाक काम किया.

बुधवार 6 जनवरी 2021 को उन्होंने जो किया और करवाया वह सिर्फ असंवैधानिक नहीं है बल्कि घोर अलोकतांत्रिक है. . क्या है उनका अपराध? लोकतंत्र के नागरिकों को भीड़ में तब्दील करना वह घृणित अपराध है जिसकी एक ही सजा हो सकती है कि उन्हें उन लोकतांत्रिक अधिकारों व सहूलियतों से वंचित कर दिया जाए जिसके सहारे वे राष्ट्रपति बने फिर रहे हैं.

अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी तथा मैसाच्यूसेट्स की सांसद कैथरीन क्लार्क ने इसकी ही बात की है जब उन्होंने कहा कि यदि आज के उप-राष्ट्रपति माइक पेंस संशोधित धारा 25 का इस्तेमाल कर ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में काम करने से रोकते नहीं हैं तो हम उन पर दूसरी बार महाभियोग का मामला चलाएंगे. अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप को अस्वीकार करे यही उनकी सबसे उपयुक्त लोकतांत्रिक सजा है.

यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है. अमेरिकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइट हाउस में खमोश बैठे रहे. उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में प्रवेश की, हिंसा व लूट-मार की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए लेकिन वे ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब उन्हें यह अहसास कराया गया कि अमेरिकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए और बड़े बेमन से, काफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए जो उनके नाम से दुनिया के सामने अब आया है. यह हमारी आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है.

उन्होंने यह भी कहा है कि वे 20 जनवरी को नये राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे लेकिन यह काम तो अमेरिकी संसद को करना चाहिए कि वह राष्ट्रपति ट्रंप, उप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों को, जो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं, इस समारोह का आमंत्रण भेजने से मना कर दे. यह अमेरिका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होगी कि जब संसद किसी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति मानने से इंकार दे.

यह क्यों जरूरी है? सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल कर, येनकेनप्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है और फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है. वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है और खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा कर, उसे भीड़ में बदल लेता है. यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं. लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने व सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है बल्कि इसकी आत्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताओं से ऊपर उठा कर, भीड़ से नागरिक बनाया जाए और उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए. ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए.

अपराधी वे नहीं हैं जो 8 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे. वह तो उन्मत्त बनाई गई वह भीड़ थी जिसका आयोजन ट्रंप ने किया था. हमारे यहां ‘बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है. ट्रंप ने यही किया था. अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता है, राष्ट्रपति भवन में नहीं.

अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन ट्रंप अब केवल 10 दिनों के राष्ट्रपति बचे हैं लेकिन सवाल यह बचा है कि वे कितना बचे हैं? आज वे हैं फिर भी वे कहीं नहीं हैं. अमेरिका भी और दुनिया भी उन्हें आज ही और अभी ही भुला देने को तैयार बैठी है. राष्ट्रपति बनने से लेकर राष्ट्रपति का चुनाव हारने तक उनका एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब उन्होंने अमेरिका को शर्मिंदा और दुनिया को हतप्रभ न किया हो. ऐसा इसलिए नहीं कि अमेरिका की आधी आबादी उनसे सहमत नहीं थी. सहमति-असहमति लोकतंत्र में हवा की तरह आती-जाती रहती है. कुछ असहमतियां जरूर ही इतनी गहरी होती हैं कि जो कभी जाती नहीं हैं. तो लोकतंत्र का मानी ही यह होता है कि ऐसी असहमतियों से जनता को सहमत किया जाए और उस सहमति की ताकत से, जिससे असहमति है, उसे शासन से हटाया जाए. डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने यही किया और रिपब्लिकनों को चुनाव में मात दी. पिछली बार यही काम ट्रंप ने किया था और डेमोक्रेटों को सत्ता से बाहर किया था. यह लोकतंत्र का खेल है जिसे चलते रहना चाहिए.

लेकिन ट्रंप को यह खेल पसंद नहीं है. इसलिए उन्होंने पिछली बार जैसी अशोभनीय अहमन्यता से अपनी जीत का डंका बजाया था, उतनी ही दरिद्रता से इस बार अपनी हार को कबूल करने से इंकार कर दिया. उन्हें यह अहसास ही नहीं है कि वे व्हाइट हाउस में अमेरिकी जन व संविधान के बल पर मेहमान हैं, उन्होंने व्हाइट हाउस खरीद नहीं लिया है. वैसे भी आम अमेरिकी खरीदने-बेचने की भाषा ही समझता है. ट्रंप तो इसके अलावा दूसरा कुछ जानते-समझते ही नहीं हैं. इसलिए बाइडेन से अपनी हार को जीत बता-बता कर वे पिछले दिनों में वह सब करते रहे जिसे करने की हिम्मत या कल्पना किसी दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं की थी. उन्होंने नये साल को ठीक से आंख खोलने का मौका भी नहीं दिया और उसकी आंख में धूल झोंकने का शर्मनाक काम किया.

बुधवार 6 जनवरी 2021 को उन्होंने जो किया और करवाया वह सिर्फ असंवैधानिक नहीं है बल्कि घोर अलोकतांत्रिक है. . क्या है उनका अपराध? लोकतंत्र के नागरिकों को भीड़ में तब्दील करना वह घृणित अपराध है जिसकी एक ही सजा हो सकती है कि उन्हें उन लोकतांत्रिक अधिकारों व सहूलियतों से वंचित कर दिया जाए जिसके सहारे वे राष्ट्रपति बने फिर रहे हैं.

अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी तथा मैसाच्यूसेट्स की सांसद कैथरीन क्लार्क ने इसकी ही बात की है जब उन्होंने कहा कि यदि आज के उप-राष्ट्रपति माइक पेंस संशोधित धारा 25 का इस्तेमाल कर ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में काम करने से रोकते नहीं हैं तो हम उन पर दूसरी बार महाभियोग का मामला चलाएंगे. अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप को अस्वीकार करे यही उनकी सबसे उपयुक्त लोकतांत्रिक सजा है.

यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है. अमेरिकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइट हाउस में खमोश बैठे रहे. उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में प्रवेश की, हिंसा व लूट-मार की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए लेकिन वे ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब उन्हें यह अहसास कराया गया कि अमेरिकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए और बड़े बेमन से, काफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए जो उनके नाम से दुनिया के सामने अब आया है. यह हमारी आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है.

उन्होंने यह भी कहा है कि वे 20 जनवरी को नये राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे लेकिन यह काम तो अमेरिकी संसद को करना चाहिए कि वह राष्ट्रपति ट्रंप, उप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों को, जो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं, इस समारोह का आमंत्रण भेजने से मना कर दे. यह अमेरिका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होगी कि जब संसद किसी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति मानने से इंकार दे.

यह क्यों जरूरी है? सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल कर, येनकेनप्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है और फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है. वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है और खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा कर, उसे भीड़ में बदल लेता है. यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं. लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने व सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है बल्कि इसकी आत्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताओं से ऊपर उठा कर, भीड़ से नागरिक बनाया जाए और उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए. ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए.

अपराधी वे नहीं हैं जो 8 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे. वह तो उन्मत्त बनाई गई वह भीड़ थी जिसका आयोजन ट्रंप ने किया था. हमारे यहां ‘बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है. ट्रंप ने यही किया था. अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता है, राष्ट्रपति भवन में नहीं.