Newslaundry Hindi
'जाति, वर्ग और लिंग की श्रेणियां मिलकर महिलाओं के लिए बनाती है खौफनाक माहौल'
वर्ष 1992 के भंवरी देवी बलात्कार मामले और खैरलांजी में 2006 में हुए बलात्कार व हत्याकांड से लेकर 2020 के हाथरस प्रकरण तक केंद्र और राज्य सरकारें यौन हिंसा को बहुआयामी मुद्दे के रूप में देखने में असफल रही हैं. जाति, वर्ग और लिंग की श्रेणियां मिलकर ग्रामीण भारत की महिलाओं के लिए खौफनाक माहौल बनाती हैं. देश में लिंग आधारित हिंसा के सार्थक समाधान के लिए किसी नीति को निर्धारित करते हुए हमें इसकी बारीकियों को समझना होगा.
जाति की दरार समूचे ग्रामीण भारत में व्याप्त है. मेरा निर्वाचन क्षेत्र ग्रामीण और कृषि प्रधान आंबेडकर नगर जिले में है. इसके कुछ हिस्से पड़ोस के प्रसिद्ध अयोध्या में हैं. मैं अस्सी के दशक के आंबेडकर नगर (तब वह फैजाबाद जिले का हिस्सा था) में पला-बढ़ा, जब वहां गुंडा राज ही एकमात्र राज था. अब बहुत कुछ बदल चुका है. अन्य कारकों के साथ इसमें पुलिस के ज्यादा बंदोबस्त और लोगों की आकांक्षाओं के लगातार नगरीकरण होने का योगदान भी है.
लेकिन जो चीज नहीं बदली है, वह है ग्रामीण भारत में जाति व्यवस्था के प्रति सनक. हमारा समाज हजारों सालों से ऐसे ही चला आ रहा है- निम्न जातियों ने अपने कौशल और मेहनत से ऊंची जातियों की सेवा की है, जबकि ऊंची जातियों ने निम्न जातियों के कई परिवारों को दुनिया के सबसे पुराने सामंती व्यवस्था में दास के रूप में रखकर यथास्थिति को बनाये रखने का प्रयास किया है.
स्वतंत्र भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ग्रामीण इलाकों में भूमि सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति है. भूमि वर्ग, शक्ति और सम्मान है. इसका विशिष्ट स्वामित्व जाति व्यवस्था को बनाये रखने का आधार है. इस क्षेत्र विशेष में वर्चस्वशाली जातियों के पास परंपरागत रूप से भूमि का सर्वाधिक स्वामित्व रहा है तथा हरित क्रांति और नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के लाभ भी उन्हें ही अधिक मिले. मुख्य रूप से निम्न जातियों से आने वाले भूमिहीन कामगारों को इन क्रांतियों से शायद ही कुछ हासिल हो सका.
लेकिन स्वतंत्र भारत में बहुजन-दलित लामबंदी की राजनीति ने इन प्राचीन वर्गीकरणों को चुनौती देना शुरू किया. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्रदत्त आरक्षण ने देश के हर राज्य में राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली दलितों के उपवर्ग का उभार सुनिश्चित किया. उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति के उद्भव के साथ उत्पीड़ित जातियों को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिला. यह स्थापित व्यवस्था को बड़ी चुनौती थी. बहुत अधिक महत्वपूर्ण संसाधन होने के नाते भूमि इस संघर्ष का मुख्य बिंदु है. खैरलांजी में एक अनुसूचित जाति परिवार द्वारा भूमि विवाद में पुलिस से शिकायत करने पर ऊंची जातियों ने बर्बर और पाशविक हमला कर बलात्कार और हत्याकांड को अंजाम दिया था.
पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाजों में औरत सामाजिक प्रतिष्ठा का एक मानक है. परिवार, समुदाय और जाति का सम्मान उनकी महिलाओं का सम्मान, उनकी पवित्रता, उनकी नैतिकता, उनकी शुचिता के साथ पूरी तरह से जुड़ा होता है. यौन हिंसा भूमि, जाति और पितृसत्ता के गठजोड़ से क्रियाशील होती है. वह भूमि और जाति की यथास्थिति को बनाये रखने का औजार बनती है. निम्न जाति के समुदायों की महिलाओं के विरुद्ध होने वाली यौन हिंसा सिर्फ एक महिला के साथ होने वाला अपराध नहीं है, अक्सर यह एक समुदाय, एक जाति, एक परिवार के मानमर्दन का मामला होता है.
भूमि और जाति की जंग में स्त्री बंधक भी होती है और हथियार भी. शक्ति और प्रभाव में असमान दो जाति समूहों के बीच भूमि विवाद में स्त्री का शरीर भी निशाने पर रहता है. लेकिन जाति व वर्ग व्यवस्था में अपेक्षाकृत लगभग समान जाति समूहों के बीच के विवादों में स्थिति इससे भिन्न होती है. यदि एक समूह का कोई ताकतवर व्यक्ति दूसरे समूह की संपत्ति पर धमकी देने जाता है, तो दूसरा समूह अपने परिवार की स्त्रियों को आगे कर देता है. यह एक रक्षात्मक रणनीति होती है. यदि वह आक्रामक व्यक्ति महिलाओं को धमकी देता है या उन्हें चोट पहुंचाता है, तो उस व्यक्ति पर भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (किसी स्त्री के शीलभंग के आशय से हमला करना) के तहत मुकदमा हो सकता है.
दबंग जाति समूहों को पुलिस अधिकारियों की शह मिलने के वाकये भी देखने को मिलते हैं. लेकिन प्रशासन के दबाव के कारण थानेदार और पुलिस अधीक्षक यौन अपराधों की शिकायत दर्ज नहीं करते क्योंकि ऐसे मामलों की वजह से उन पर तबादले या निलंबन का खतरा मंडराने लगता है. नौकरशाही के इस डर के कारण ऐसे मामलों की जांच में उदासीन रवैया अपनाया जाता है. भूमि विवाद में बदले के इरादे से औरतों के विरुद्ध हिंसा के दर्ज मामले यौन हमलों के वास्तविक मामलों को अंजाम तक पहुंचाने में बाधक बनते हैं.
इस स्थिति के समाधान का कोई प्रयास अकेले केवल पुलिस सुधार, जातिगत भेदभाव, पितृसत्ता या भूमि स्वामित्व में सुधार पर ही केंद्रित नहीं हो सकता है. हमें ऐसा व्यापक रुख अपनाना चाहिए, जिससे इन सभी मुद्दों के समाधान हो सके.
भूमि स्वामित्व में सुधार की प्रक्रिया में चकबंदी में अनियमितता और समुचित दस्तावेजों के अभाव को दूर किया जाना चाहिए. आबाद और बंजर जमीन पर बने अवैध निर्माणों के बारे में भी सभी संबद्ध पक्षों को ठोस फैसला करना चाहिए. शिक्षा व पेशेगत स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रयास तथा स्वास्थ्य सेवा, न्यायपालिका, शिक्षा, मनोरंजन और खेल समेत हर क्षेत्र में निम्न जातियों के सामाजिक जुड़ाव को सुनिश्चित किये बिना जाति के उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है.
भूमि और जाति सुधारों के साथ हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्ता का समाधान करना होगा. 'नारी सशक्तीकरण' राजनीति और कॉरपोरेट संस्थानों के लिए एक चर्चित मुहावरा है, लेकिन हमें इन वादों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा. बीते कुछ केंद्रीय बजटों में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सशक्तीकरण के उद्देश्य से चलाये जा रहे कई कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन को खर्च नहीं किया. हमें सत्ता के प्रतिष्ठानों में महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करनी चाहिए तथा यह सांसद, विधायक या विधान परिषद चुनाव, न्यायपालिका और कॉरपोरेट बोर्डों में आरक्षित सीटों के जरिये किया जाना चाहिए.
हमें गुणवत्तापूर्ण यौन शिक्षा और सहमति के बारे में युवाओं को प्रशिक्षित करने पर जोर देना चाहिए. यह केवल यौन हिंसा को रोकने के इरादे से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि विभिन्न लिंगों के लोगों के बीच स्वस्थ संबंधों को समान व सामान्य बनाने के लिए भी किया जाना चाहिए. हमें उपभोक्ता तकनीक के परिवर्तनकारी और मुक्तिकारी शक्ति तक पहुंच में यौन विषमता को भी दूर करना चाहिए.
(लेखक लोकसभा सदस्य हैं)
वर्ष 1992 के भंवरी देवी बलात्कार मामले और खैरलांजी में 2006 में हुए बलात्कार व हत्याकांड से लेकर 2020 के हाथरस प्रकरण तक केंद्र और राज्य सरकारें यौन हिंसा को बहुआयामी मुद्दे के रूप में देखने में असफल रही हैं. जाति, वर्ग और लिंग की श्रेणियां मिलकर ग्रामीण भारत की महिलाओं के लिए खौफनाक माहौल बनाती हैं. देश में लिंग आधारित हिंसा के सार्थक समाधान के लिए किसी नीति को निर्धारित करते हुए हमें इसकी बारीकियों को समझना होगा.
जाति की दरार समूचे ग्रामीण भारत में व्याप्त है. मेरा निर्वाचन क्षेत्र ग्रामीण और कृषि प्रधान आंबेडकर नगर जिले में है. इसके कुछ हिस्से पड़ोस के प्रसिद्ध अयोध्या में हैं. मैं अस्सी के दशक के आंबेडकर नगर (तब वह फैजाबाद जिले का हिस्सा था) में पला-बढ़ा, जब वहां गुंडा राज ही एकमात्र राज था. अब बहुत कुछ बदल चुका है. अन्य कारकों के साथ इसमें पुलिस के ज्यादा बंदोबस्त और लोगों की आकांक्षाओं के लगातार नगरीकरण होने का योगदान भी है.
लेकिन जो चीज नहीं बदली है, वह है ग्रामीण भारत में जाति व्यवस्था के प्रति सनक. हमारा समाज हजारों सालों से ऐसे ही चला आ रहा है- निम्न जातियों ने अपने कौशल और मेहनत से ऊंची जातियों की सेवा की है, जबकि ऊंची जातियों ने निम्न जातियों के कई परिवारों को दुनिया के सबसे पुराने सामंती व्यवस्था में दास के रूप में रखकर यथास्थिति को बनाये रखने का प्रयास किया है.
स्वतंत्र भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ग्रामीण इलाकों में भूमि सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति है. भूमि वर्ग, शक्ति और सम्मान है. इसका विशिष्ट स्वामित्व जाति व्यवस्था को बनाये रखने का आधार है. इस क्षेत्र विशेष में वर्चस्वशाली जातियों के पास परंपरागत रूप से भूमि का सर्वाधिक स्वामित्व रहा है तथा हरित क्रांति और नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के लाभ भी उन्हें ही अधिक मिले. मुख्य रूप से निम्न जातियों से आने वाले भूमिहीन कामगारों को इन क्रांतियों से शायद ही कुछ हासिल हो सका.
लेकिन स्वतंत्र भारत में बहुजन-दलित लामबंदी की राजनीति ने इन प्राचीन वर्गीकरणों को चुनौती देना शुरू किया. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्रदत्त आरक्षण ने देश के हर राज्य में राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली दलितों के उपवर्ग का उभार सुनिश्चित किया. उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति के उद्भव के साथ उत्पीड़ित जातियों को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिला. यह स्थापित व्यवस्था को बड़ी चुनौती थी. बहुत अधिक महत्वपूर्ण संसाधन होने के नाते भूमि इस संघर्ष का मुख्य बिंदु है. खैरलांजी में एक अनुसूचित जाति परिवार द्वारा भूमि विवाद में पुलिस से शिकायत करने पर ऊंची जातियों ने बर्बर और पाशविक हमला कर बलात्कार और हत्याकांड को अंजाम दिया था.
पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाजों में औरत सामाजिक प्रतिष्ठा का एक मानक है. परिवार, समुदाय और जाति का सम्मान उनकी महिलाओं का सम्मान, उनकी पवित्रता, उनकी नैतिकता, उनकी शुचिता के साथ पूरी तरह से जुड़ा होता है. यौन हिंसा भूमि, जाति और पितृसत्ता के गठजोड़ से क्रियाशील होती है. वह भूमि और जाति की यथास्थिति को बनाये रखने का औजार बनती है. निम्न जाति के समुदायों की महिलाओं के विरुद्ध होने वाली यौन हिंसा सिर्फ एक महिला के साथ होने वाला अपराध नहीं है, अक्सर यह एक समुदाय, एक जाति, एक परिवार के मानमर्दन का मामला होता है.
भूमि और जाति की जंग में स्त्री बंधक भी होती है और हथियार भी. शक्ति और प्रभाव में असमान दो जाति समूहों के बीच भूमि विवाद में स्त्री का शरीर भी निशाने पर रहता है. लेकिन जाति व वर्ग व्यवस्था में अपेक्षाकृत लगभग समान जाति समूहों के बीच के विवादों में स्थिति इससे भिन्न होती है. यदि एक समूह का कोई ताकतवर व्यक्ति दूसरे समूह की संपत्ति पर धमकी देने जाता है, तो दूसरा समूह अपने परिवार की स्त्रियों को आगे कर देता है. यह एक रक्षात्मक रणनीति होती है. यदि वह आक्रामक व्यक्ति महिलाओं को धमकी देता है या उन्हें चोट पहुंचाता है, तो उस व्यक्ति पर भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (किसी स्त्री के शीलभंग के आशय से हमला करना) के तहत मुकदमा हो सकता है.
दबंग जाति समूहों को पुलिस अधिकारियों की शह मिलने के वाकये भी देखने को मिलते हैं. लेकिन प्रशासन के दबाव के कारण थानेदार और पुलिस अधीक्षक यौन अपराधों की शिकायत दर्ज नहीं करते क्योंकि ऐसे मामलों की वजह से उन पर तबादले या निलंबन का खतरा मंडराने लगता है. नौकरशाही के इस डर के कारण ऐसे मामलों की जांच में उदासीन रवैया अपनाया जाता है. भूमि विवाद में बदले के इरादे से औरतों के विरुद्ध हिंसा के दर्ज मामले यौन हमलों के वास्तविक मामलों को अंजाम तक पहुंचाने में बाधक बनते हैं.
इस स्थिति के समाधान का कोई प्रयास अकेले केवल पुलिस सुधार, जातिगत भेदभाव, पितृसत्ता या भूमि स्वामित्व में सुधार पर ही केंद्रित नहीं हो सकता है. हमें ऐसा व्यापक रुख अपनाना चाहिए, जिससे इन सभी मुद्दों के समाधान हो सके.
भूमि स्वामित्व में सुधार की प्रक्रिया में चकबंदी में अनियमितता और समुचित दस्तावेजों के अभाव को दूर किया जाना चाहिए. आबाद और बंजर जमीन पर बने अवैध निर्माणों के बारे में भी सभी संबद्ध पक्षों को ठोस फैसला करना चाहिए. शिक्षा व पेशेगत स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रयास तथा स्वास्थ्य सेवा, न्यायपालिका, शिक्षा, मनोरंजन और खेल समेत हर क्षेत्र में निम्न जातियों के सामाजिक जुड़ाव को सुनिश्चित किये बिना जाति के उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है.
भूमि और जाति सुधारों के साथ हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्ता का समाधान करना होगा. 'नारी सशक्तीकरण' राजनीति और कॉरपोरेट संस्थानों के लिए एक चर्चित मुहावरा है, लेकिन हमें इन वादों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा. बीते कुछ केंद्रीय बजटों में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सशक्तीकरण के उद्देश्य से चलाये जा रहे कई कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन को खर्च नहीं किया. हमें सत्ता के प्रतिष्ठानों में महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करनी चाहिए तथा यह सांसद, विधायक या विधान परिषद चुनाव, न्यायपालिका और कॉरपोरेट बोर्डों में आरक्षित सीटों के जरिये किया जाना चाहिए.
हमें गुणवत्तापूर्ण यौन शिक्षा और सहमति के बारे में युवाओं को प्रशिक्षित करने पर जोर देना चाहिए. यह केवल यौन हिंसा को रोकने के इरादे से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि विभिन्न लिंगों के लोगों के बीच स्वस्थ संबंधों को समान व सामान्य बनाने के लिए भी किया जाना चाहिए. हमें उपभोक्ता तकनीक के परिवर्तनकारी और मुक्तिकारी शक्ति तक पहुंच में यौन विषमता को भी दूर करना चाहिए.
(लेखक लोकसभा सदस्य हैं)
Also Read
-
2 convoys, narrow road, a ‘murder’: Bihar’s politics of muscle and fear is back in focus
-
Argument over seats to hate campaign: The story behind the Mumbai Press Club row
-
Delhi AQI ‘fraud’: Water sprinklers cleaning the data, not the air?
-
How a $20 million yacht for Tina Ambani became a case study in ‘corporate sleight’
-
पटना में बीजेपी का गढ़ कुम्हरार: बदहाली के बावजूद अटूट वफादारी, केसी सिन्हा बदल पाएंगे इतिहास?