Newslaundry Hindi
लोकतंत्र से नेपाल का आमना-सामना
हालिया इतिहास का सबसे अजूबा मंजर यह है कि नेपाल के लोकतंत्र के संरक्षण के लिए दूसरा कोई नहीं, चीन सिपाही बन कर नेपाल के आंगन में उतरा है. लोकतंत्र से चीन का नाता कभी उतना भी नहीं रहा है जितना कौवे का कोयल से होता है. इधर नेपाल के लोकतंत्र का हाल यह है कि उसके 58 साल के इतिहास में अब तक 49 प्रधानमंत्रियों ने उसकी कुंडली लिखी है. दुखद यह है कि इन 49 प्रधानमंत्रियों में से शायद ही किसी का कोई लोकतांत्रिक इतिहास रहा है.
लोकतांत्रिक इतिहास जरूरी इसलिए होता है कि लोकतंत्र में नियम-कानूनों से कहीं-कहीं ज्यादा महत्ता स्वस्थ्य परंपराओं व उनमें जीवंत आस्था की होती है. इसे समझना भारत और नेपाल दोनों के लिए जरूरी है. शासन-तंत्र के रूप में लोकतंत्र एक बेहद बोदी प्रणाली है लेकिन वही अत्यंत प्राणवान बन जाती है जब वह जीवन-शैली में ढल जाती है. आज हम भी और नेपाल भी इसी कमी के संकट से गुजर रहे हैं. फर्क यह है कि जहां हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र की जड़ें अत्यंत गहरी हैं, नेपाल में अभी उसने जमीन भी नहीं पकड़ी है. उसने 237 साल लंबे शुद्ध राजतंत्र का स्वाद चखा है. राजशाही के नेतृत्व में प्रातिनिधिक सरकार भी देखी, पंचायती राज भी देखा, संवैधानिक राजशाही भी देखी और फिर कम्युनिस्ट नेतृत्व का लोकतंत्र देखा. इन दिनों वह शुद्ध लोकतंत्र का स्वाद पहचानने की कोशिश कर रहा है.
2018 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने कम्युनिस्ट केपी शर्मा ओली अपनी पार्टी और अपनी सरकार के बीच लंबी रस्साकशी से परेशान चल रहे थे. इससे निजात पाने का उन्होंने रास्ता यह निकाला कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी से संसद के विघटन की सिफारिश कर दी जबकि अभी उसका कार्यकाल करीब ढाई साल बाकी था. नेपाल के संविधान में संसद के विघटन का प्रावधान नहीं है. संविधान ने इसे राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री ओली के राष्ट्रपति भंडारी से ऐसे मधुर रिश्ते रहे हैं कि इस मामले में दोनों का विवेक एक ही आवाज में बोल उठा और संसद भंग हो गई.
नेपाल आज लोकतंत्र के उस चौराहे पर खड़ा है जहां से यदि कोई रास्ता निकलता है तो नये चुनाव से ही निकलता है. प्रधानमंत्री ओली ने यही किया है भले सरकार व पार्टी में उनके कई सहयोगी उन पर वादाखिलाफी का व पार्टी को तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं.
2018 का आम चुनाव नेपाल को ऐसे ही अजीब-से मोड़ पर खड़ा कर गया है. तब किसी भी दल को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था. वहां की दो वामपंथी पार्टियों, ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) तथा पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के बीच वोट इस तरह बंट गये कि दोनों सत्ता से दूर छूट गये. लंबी अनुपस्थिति तथा ‘प्रचंड’ की अगुवाई में हुई क्रूर गुरिल्ला हिंसा में से नेपाल में लोकतंत्र का पुनरागमन हुआ था. ‘प्रचंड’ पहले 2008-09 में और फिर 2016-17 में प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन इस बार पासा उल्टा पड़ा. अंतत: दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को साथ आना पड़ा. फिर दोनों का विलय हो गया.
कुछ दूसरे छोटे साम्यवादी दल भी आ जुड़े और 275 सदस्यों वाली लोकसभा में दो तिहाई बहुमत (175 सीटों) के साथ नेपाल में तीसरी बार साम्यवादी सरकार बनी. समझौता यह हुआ कि पहले ओली प्रधानमंत्री बनेंगे और आधा कार्यकाल पूरा कर वे ‘प्रचंड’ को सत्ता सौंप देंगे. इसमें न कहीं साम्य था, न वाद, यह शुद्ध सत्ता का सौदा था.
‘प्रचंड’ जब पहले दो बार प्रधानमंत्री बने थे तब भी, और ओली जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से भी दोनों ही भारत के साथ शतरंज खेलने में लगे रहे. अपनी साम्यवादी पहचान को मजबूत बनाने में इनकी कोशिश यह रही कि चीनी वजीर की चाल से भारत को मात दी जाए. चीन के लिए इन्होंने नेपाल को इस तरह खोल दिया जिस तरह कभी वह भारत के लिए खुला होता था.
स्वतंत्र भारत ने ऐसा तेवर रखा कि नेपाल को ‘बड़े भाई’ भारत के कुछ कहने के बजाए उसका इशारा समझ कर चलना चाहिए. यह रिश्ता न चलने लायक था, न चला. फिर आई मोदी सरकार. उसने नेपाल को ‘संसार का एकमात्र हिंदू राष्ट्र’ का जामा पहना कर, अपने आंचल में समेटना चाहा. यह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को न स्वीकार्य होना चाहिए था, न हुआ. फिर तो नेपाल के साथ भारत के रिश्ते इतने बुरे हुए जैसे पहले नहीं हुए थे. इसलिए भी भारत-नेपाल के फटे में अपना पांव डालने का चीन को मौका मिला. ‘प्रचंड’ और ओली ने उसे आसान बनाया. लेकिन दोनों यह भूलते रहे कि भारत-नेपाल का रिश्ता राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं है. वहां के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन में भारतवंशियों यानी मधेसियों की बड़ी मजबूत उपस्थिति है. ये वे भारतीय हैं जो कभी नेपाल जा बसे और दोनों देशों के बीच मजबूत पुल बन कर, भारत-नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहते रहे हैं. समय के साथ-साथ अपनी राजनीतिक शक्ति का उनका अहसास मजबूत होता गया. इनका अपना राजनीतिक दल बना जो कई नामों से गुजरता हुआ आज जनता समाजवादी पार्टी कहलाता है. यह पार्टी संसद में मधेसियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करती है और नेपाल के संविधान में कुछ खास परिवर्तन की मांग भी करती है. यह संगठित भी है, मुखर भी है और दोनों साम्यवादी पार्टियों के बीच की खाई का अच्छा इस्तेमाल भी करती है.
इन तीन खिलाड़ियों को नेपाल में लोकतंत्र का वह खेल खेलना है जिसे खेलना अभी इन्होंने सीखा नहीं है. जब कभी लोकतंत्र की गाड़ी इस तरह फंसे तो चुनाव- स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव- सबसे वैधानिक व स्वाभाविक विकल्प होता है. ओली ने भले अपना राजनीतिक हित देख कर संसद को भंग करने का फैसला किया हो, और उससे कम्युनिस्ट पार्टियों में टूट हो रही हो लेकिन यह चुनाव तीनों ही दलों के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोलता है. ओली को अलोकतांत्रिक बताने से कहीं बेहतर यह है कि उन्हें चुनाव में बदतर साबित किया जाए. आखिर तो महान नेपाल की महान जनता ही फैसला करेगी कि इन तीनों में से वह किसे नेपाल को आगे ले जाने के अधिक योग्य मानती है. यही लोकतंत्र है.
हालिया इतिहास का सबसे अजूबा मंजर यह है कि नेपाल के लोकतंत्र के संरक्षण के लिए दूसरा कोई नहीं, चीन सिपाही बन कर नेपाल के आंगन में उतरा है. लोकतंत्र से चीन का नाता कभी उतना भी नहीं रहा है जितना कौवे का कोयल से होता है. इधर नेपाल के लोकतंत्र का हाल यह है कि उसके 58 साल के इतिहास में अब तक 49 प्रधानमंत्रियों ने उसकी कुंडली लिखी है. दुखद यह है कि इन 49 प्रधानमंत्रियों में से शायद ही किसी का कोई लोकतांत्रिक इतिहास रहा है.
लोकतांत्रिक इतिहास जरूरी इसलिए होता है कि लोकतंत्र में नियम-कानूनों से कहीं-कहीं ज्यादा महत्ता स्वस्थ्य परंपराओं व उनमें जीवंत आस्था की होती है. इसे समझना भारत और नेपाल दोनों के लिए जरूरी है. शासन-तंत्र के रूप में लोकतंत्र एक बेहद बोदी प्रणाली है लेकिन वही अत्यंत प्राणवान बन जाती है जब वह जीवन-शैली में ढल जाती है. आज हम भी और नेपाल भी इसी कमी के संकट से गुजर रहे हैं. फर्क यह है कि जहां हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र की जड़ें अत्यंत गहरी हैं, नेपाल में अभी उसने जमीन भी नहीं पकड़ी है. उसने 237 साल लंबे शुद्ध राजतंत्र का स्वाद चखा है. राजशाही के नेतृत्व में प्रातिनिधिक सरकार भी देखी, पंचायती राज भी देखा, संवैधानिक राजशाही भी देखी और फिर कम्युनिस्ट नेतृत्व का लोकतंत्र देखा. इन दिनों वह शुद्ध लोकतंत्र का स्वाद पहचानने की कोशिश कर रहा है.
2018 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने कम्युनिस्ट केपी शर्मा ओली अपनी पार्टी और अपनी सरकार के बीच लंबी रस्साकशी से परेशान चल रहे थे. इससे निजात पाने का उन्होंने रास्ता यह निकाला कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी से संसद के विघटन की सिफारिश कर दी जबकि अभी उसका कार्यकाल करीब ढाई साल बाकी था. नेपाल के संविधान में संसद के विघटन का प्रावधान नहीं है. संविधान ने इसे राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री ओली के राष्ट्रपति भंडारी से ऐसे मधुर रिश्ते रहे हैं कि इस मामले में दोनों का विवेक एक ही आवाज में बोल उठा और संसद भंग हो गई.
नेपाल आज लोकतंत्र के उस चौराहे पर खड़ा है जहां से यदि कोई रास्ता निकलता है तो नये चुनाव से ही निकलता है. प्रधानमंत्री ओली ने यही किया है भले सरकार व पार्टी में उनके कई सहयोगी उन पर वादाखिलाफी का व पार्टी को तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं.
2018 का आम चुनाव नेपाल को ऐसे ही अजीब-से मोड़ पर खड़ा कर गया है. तब किसी भी दल को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था. वहां की दो वामपंथी पार्टियों, ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) तथा पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के बीच वोट इस तरह बंट गये कि दोनों सत्ता से दूर छूट गये. लंबी अनुपस्थिति तथा ‘प्रचंड’ की अगुवाई में हुई क्रूर गुरिल्ला हिंसा में से नेपाल में लोकतंत्र का पुनरागमन हुआ था. ‘प्रचंड’ पहले 2008-09 में और फिर 2016-17 में प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन इस बार पासा उल्टा पड़ा. अंतत: दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को साथ आना पड़ा. फिर दोनों का विलय हो गया.
कुछ दूसरे छोटे साम्यवादी दल भी आ जुड़े और 275 सदस्यों वाली लोकसभा में दो तिहाई बहुमत (175 सीटों) के साथ नेपाल में तीसरी बार साम्यवादी सरकार बनी. समझौता यह हुआ कि पहले ओली प्रधानमंत्री बनेंगे और आधा कार्यकाल पूरा कर वे ‘प्रचंड’ को सत्ता सौंप देंगे. इसमें न कहीं साम्य था, न वाद, यह शुद्ध सत्ता का सौदा था.
‘प्रचंड’ जब पहले दो बार प्रधानमंत्री बने थे तब भी, और ओली जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से भी दोनों ही भारत के साथ शतरंज खेलने में लगे रहे. अपनी साम्यवादी पहचान को मजबूत बनाने में इनकी कोशिश यह रही कि चीनी वजीर की चाल से भारत को मात दी जाए. चीन के लिए इन्होंने नेपाल को इस तरह खोल दिया जिस तरह कभी वह भारत के लिए खुला होता था.
स्वतंत्र भारत ने ऐसा तेवर रखा कि नेपाल को ‘बड़े भाई’ भारत के कुछ कहने के बजाए उसका इशारा समझ कर चलना चाहिए. यह रिश्ता न चलने लायक था, न चला. फिर आई मोदी सरकार. उसने नेपाल को ‘संसार का एकमात्र हिंदू राष्ट्र’ का जामा पहना कर, अपने आंचल में समेटना चाहा. यह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को न स्वीकार्य होना चाहिए था, न हुआ. फिर तो नेपाल के साथ भारत के रिश्ते इतने बुरे हुए जैसे पहले नहीं हुए थे. इसलिए भी भारत-नेपाल के फटे में अपना पांव डालने का चीन को मौका मिला. ‘प्रचंड’ और ओली ने उसे आसान बनाया. लेकिन दोनों यह भूलते रहे कि भारत-नेपाल का रिश्ता राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं है. वहां के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन में भारतवंशियों यानी मधेसियों की बड़ी मजबूत उपस्थिति है. ये वे भारतीय हैं जो कभी नेपाल जा बसे और दोनों देशों के बीच मजबूत पुल बन कर, भारत-नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहते रहे हैं. समय के साथ-साथ अपनी राजनीतिक शक्ति का उनका अहसास मजबूत होता गया. इनका अपना राजनीतिक दल बना जो कई नामों से गुजरता हुआ आज जनता समाजवादी पार्टी कहलाता है. यह पार्टी संसद में मधेसियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करती है और नेपाल के संविधान में कुछ खास परिवर्तन की मांग भी करती है. यह संगठित भी है, मुखर भी है और दोनों साम्यवादी पार्टियों के बीच की खाई का अच्छा इस्तेमाल भी करती है.
इन तीन खिलाड़ियों को नेपाल में लोकतंत्र का वह खेल खेलना है जिसे खेलना अभी इन्होंने सीखा नहीं है. जब कभी लोकतंत्र की गाड़ी इस तरह फंसे तो चुनाव- स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव- सबसे वैधानिक व स्वाभाविक विकल्प होता है. ओली ने भले अपना राजनीतिक हित देख कर संसद को भंग करने का फैसला किया हो, और उससे कम्युनिस्ट पार्टियों में टूट हो रही हो लेकिन यह चुनाव तीनों ही दलों के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोलता है. ओली को अलोकतांत्रिक बताने से कहीं बेहतर यह है कि उन्हें चुनाव में बदतर साबित किया जाए. आखिर तो महान नेपाल की महान जनता ही फैसला करेगी कि इन तीनों में से वह किसे नेपाल को आगे ले जाने के अधिक योग्य मानती है. यही लोकतंत्र है.
Also Read
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point
-
India’s health systems need to prepare better for rising climate risks
-
Muslim women in Parliament: Ranee Narah’s journey from sportswoman to politician
-
नेपाल: युवाओं के उग्र प्रदर्शन के बीच प्रधानमंत्री का इस्तीफा
-
No bath, no food, no sex: NDTV & Co. push lunacy around blood moon