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सिकुड़ते न्यूजरूम में सिकुड़ता लोकतंत्र

बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी के साथ देश भर में अधिकांश न्यूज मीडिया समूहों/संस्थानों में न्यूजरूम्स सिकुड़ रहे हैं. लेकिन यह केवल कुछ पत्रकारों की नौकरी या आजीविका भर का सवाल नहीं है. यह उससे कहीं ज्यादा गंभीर और चिंता का विषय है क्योंकि इसका सीधा संबंध भारतीय पत्रकारिता और लोकतंत्र की गुणवत्ता, गतिशीलता और उनके भविष्य से है. सिकुड़ते न्यूजरूम्स का असर कई स्तरों पर होगा और परोक्ष रूप से उसकी कीमत आम नागरिकों को भी चुकानी पड़ सकती है.

पहली बात यह है कि सिकुड़ते न्यूजरूम्स में पत्रकारीय स्टाफ की संख्या में कमी से डेस्क (संपादन) और रिपोर्टिंग की गुणवत्ता सीधे तौर पर प्रभावित होगी क्योंकि एक तो बचे हुए डेस्क स्टाफ पर काम का बोझ ज्यादा होगा और इसका सीधा असर संपादन की गुणवत्ता पर पड़ेगा. डेस्क पर काम का बोझ अधिक होने से उनके पास ख़बरों के तथ्यों और दूसरे पहलुओं की जांच-पड़ताल और उसे सम्पादित करने का समय कम होगा. इस कारण न सिर्फ तथ्यों की गलतियां बढेंगी बल्कि उसकी भाषा और प्रस्तुति से भी समझौता होगा. ‘फेक न्यूज’ और प्रोपेगंडा न्यूज से लेकर व्हाट्सएप्प ‘ख़बरों’ और फॉरवर्ड के लिए गेटकीपर्स को धोखा/झांसा देकर अखबार/न्यूज चैनल में जगह बनाने में और आसानी हो जायेगी.

यही नहीं, कम समय में ज्यादा काम के दबाव से डेस्क के पत्रकारों को अत्यधिक तनाव में काम करना होगा जो न सिर्फ उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होगा बल्कि इससे उनकी सृजनात्मकता भी प्रभावित होगी. साथ ही, छंटनी की मार से बचा हुआ डेस्क स्टाफ हमेशा इस डर और दबाव में रहेगा कि उसकी भी नौकरी जा सकती है. इस मानसिक अवस्था में बचा हुआ स्टाफ न सिर्फ प्रबंधन के अत्यधिक दबाव में रहेगा बल्कि उस पर प्रबंधन के निर्देशों के मुताबिक कई अनुचित और अनैतिक समझौते करने का दबाव भी होगा.

दूसरी ओर, इससे रिपोर्टिंग भी बुरी तरह प्रभावित होगी क्योंकि रिपोर्टरों की छंटनी के बाद कई बीट्स पर रिपोर्टर नहीं रह जायेंगे या एक ही रिपोर्टर को कई बीट्स कवर करने होंगे. दोनों ही स्थितियों में इससे रिपोर्टिंग की गुणवत्ता प्रभावित होगी. एक रिपोर्टर कई बीट्स के साथ न्याय नहीं कर सकता है. एक साथ कई बीट्स की और तय समय सीमा के अन्दर ख़बरें करने के दबाव में रिपोर्टिंग न सिर्फ रूटीन, घटना- प्रधान, सतही, बेजान, पीआर/प्रेस रिलीज पर आधारित और बिना छानबीन और जांच-पड़ताल के होगी बल्कि उसमें तथ्यों की भूलों से लेकर खबरों की बारीकी, सन्दर्भ/पृष्ठभूमि और छुपे हुए तथ्यों को

अनदेखा कर दिया जा सकता है.

यही नहीं, अनेकों दबी-छुपी ख़बरें हमेशा के लिए दबी-छुपी रह जायेंगी क्योंकि सिकुड़े हुए न्यूजरूम में इसकी बहुत कम सम्भावना है कि खोजी रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर रह जाएं. इसकी वजह यह है कि घटे हुए स्टाफ के साथ किसी भी न्यूजरूम के लिए ऐसे खोजी रिपोर्टर रखना बहुत मुश्किल होगा जो कई सप्ताहों या महीनों की खोजबीन के बाद एक रिपोर्ट करता है. इसी तरह खर्चों में कटौती के दबाव और घटे हुए रिपोर्टिंग टीम के लिए किसी रिपोर्टर को सप्ताह भर के लिए एक असाइनमेंट पर फील्ड रिपोर्टिंग के लिए भेजना संभव नहीं रह जाता. दूसरी ओर, लेबर, कृषि, स्वास्थ्य, आदिवासी, महिलाएं जैसे जरूरी और बुनियादी लेकिन न्यूजरूम्स की प्राथमिकता में हमेशा नीचे रहे बीट्स को पूरी तरह से अनदेखा कर देने की आशंका बढ़ जाती है.

आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर मीडिया संस्थानों/समूहों के लगातार सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच देश में खोजी पत्रकारिता का कोई नामलेवा नहीं रह गया है. याद कीजिए, आपने आखिरी बार कब कोई बड़ी और धमाकेदार खोजी रिपोर्ट पढ़ी थी? इसी तरह ज्यादातर अखबारों/न्यूज चैनलों से शोधपरक और बारीक नज़र से की गई मौलिक फील्ड रिपोर्टिंग भी न के बराबर दिखती है. यही हाल उन उपेक्षित और अनदेखे बीट्स- लेबर, कृषि, जन स्वास्थ्य, आदिवासी, उत्तर पूर्व, कश्मीर और पिछड़े इलाकों की रिपोर्टिंग का भी है जो पहले से ही अखबारों/न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग के हाशिये पर थे और जिनके अब पूरी तरह से गुमनामी में ढकेल दिए जाने का खतरा बढ़ गया है.

घटते पत्रकार और तेजी से बढ़ता पीआर/इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार

इन सबके बीच एक बहुत महत्वपूर्ण परिघटना आकार ले रही है जिसका पत्रकारिता और लोकतंत्र के लिए गहरे निहितार्थ हैं. हो यह रहा है कि एक ओर पत्रकारों की छंटनी हो रही है, न्यूजरूम्स लगातार सिकुड़ रहे है लेकिन दूसरी ओर, पीआर और इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है. हालांकि भारत में पत्रकारों और पीआर प्रोफेशनल्स की कुल संख्या के सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन सहित कई विकसित देशों में लम्बे समय से उभर रहे ट्रेंड्स पर गौर करें तो हैरान और चिंतित करने वाली तस्वीर सामने आती है.

रिपोर्टों के मुताबिक, अमेरिका में सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच पीआर प्रोफेशनल्स की संख्या पिछले कई सालों से तेजी से बढ़ रही है. यूएस सेन्सस ब्यूरो के मुताबिक, इस समय अमेरिका में हर एक पत्रकार पर 6.4 पीआर प्रोफेशनल्स काम रहे हैं. दो दशक पहले अमेरिका में हर एक पत्रकार के पीछे 1.9 पीआर प्रोफेशनल्स थे जो इस बीच तीन गुने से भी ज्यादा बढ़ गए हैं. यही नहीं, अनुमान है कि अगले एक दशक में यानी वर्ष 2026 तक पीआर के धंधे में रोजगार 9 फीसदी की दर से बढ़कर 2,82,600 तक पहुंच जाएगा जबकि इसी बीच पत्रकारिता में रोजगार 9 फीसदी की दर से घटकर सिर्फ 45,900 रह जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भी यह ट्रेंड तेजी से आगे बढ़ रहा है. छंटनी के शिकार अनेकों पत्रकार सहित पत्रकारिता की डिग्री लेकर नए युवा कॉरपोरेट पीआर और लॉबीइंग से लेकर राजनीतिक पीआर, सरकारी/पीएसयू पीआर, सोशल मीडिया प्रबंधन, चुनाव प्रबंधन/कंसल्टेंसी, इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों का रुख कर रहे हैं. ‘जनमत’ (पब्लिक ओपिनियन) के बढ़ते महत्त्व के बीच उसे ‘मैनेज’ और मैनिपुलेट करने में पीआर/इवेंट मैनेजमेंट की बढ़ती भूमिका को देखते हुए कॉर्पोरेट्स और सरकार सहित अन्य ताकतवर संस्थाएं, समूह और व्यक्ति उसमें पर्याप्त पैसा झोंक रहे हैं.

इसका नतीजा यह है कि देश में देशी-विदेशी बड़ी-छोटी पीआर कंपनियों, कंसल्टेंट्स, पीआर स्ट्रेटेजिस्ट के साथ-साथ लॉबीइंग, चुनाव प्रबंधन और इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार खूब फल-फूल रहा है. मोटे अनुमानों के मुताबिक, आज देश में हर एक पत्रकार के पीछे कम से कम तीन-चार पीआर प्रोफेशनल्स उसे मैनेज और मैनिपुलेट करने में लगे हैं. इन पीआर एजेंसियों और उनके हाई-प्रोफाइल पीआर प्रोफेशनल्स की पहुंच, दबदबे और प्रभाव का अंदाज़ा रिलायंस और टाटा की पीआर हैंडल करने वाली एजेंसी- वैष्णवी कॉर्पोरेट्स कम्युनिकेशंस और उसकी प्रमुख नीरा राडिया प्रकरण से लगाया जा सकता है.

सच पूछिए तो नीरा राडिया स्कैंडल ने यह साफ़ कर दिया था कि पीआर एजेंसियों और अधिकारियों की पहुंच और प्रभाव किस स्तर तक पहुंच चुकी है. अब वे सिर्फ रिपोर्टर नहीं बल्कि सीधे संपादकों/प्रबंधकों/मालिकों से बात कर रहे हैं. उन्हें प्रभावित और मैनेज कर रहे हैं. उनकी ख़बरों को फिक्स और मैनेज/मैनिपुलेट करने की ताकत बहुत बढ़ गई है. तथ्य यह है कि वे आज बड़ी सफाई और चतुराई से ‘ख़बरें’ बना/गढ़ (मैन्युफैक्चर) रहे हैं, ख़बरों को स्पिन कर रहे हैं, ख़बरें प्लांट कर या ख़बरों को दबा या उछाल रहे हैं और काम के बोझ से दबे रिपोर्टर के लिए उसे पहचान/समझ पाना इतना आसान नहीं है.

हालांकि पीआर एजेंसियों और अधिकारीयों के बढ़ते दबदबे के पीछे कई और कारण भी जिम्मेदार हैं लेकिन उनमें एक कारण न्यूजरूम्स का सिकुड़ना और दबाव में काम करना भी है. अधिक से अधिक ख़बरें करने और काम के दबाव के कारण एक रिपोर्टर की कॉरपोरेट पीआर, एजेंसियों और पीआर अधिकारियों पर निर्भरता बढ़ती जाती है क्योंकि वहां से उन्हें बिना किसी मेहनत के और आसानी से ‘ख़बरें’ मिल जाती हैं. यही नहीं, रिपोर्टर्स की पीआर पर बढ़ती निर्भरता का एक नतीजा यह भी होता है कि वे उनके क्लाइंट्स के खिलाफ नकारात्मक ख़बरें नहीं चला सकते क्योंकि उस स्थिति में उन्हें पीआर से ‘ख़बरें’ मिलनी बंद हो सकती हैं या उनकी पहुंच बाधित हो सकती है.

जाहिर है कि इसका सीधा असर पत्रकारिता और रिपोर्टिंग की गुणवत्ता पर पड़ रहा है. जानेमाने लेखक-पत्रकार जार्ज आर्वेल के मुताबिक, “खबर वह है जिसे कहीं कोई दबाने-छुपाने की कोशिश कर रहा है. बाकी सब प्रचार/विज्ञापन (पीआर) है.” लेकिन सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच पीआर का बढ़ता दबदबा न सिर्फ असली ख़बरों को पब्लिक स्फीयर में आने नहीं दे रहा है बल्कि ‘खबर’ के नाम पर पीआर की भरमार है. इसमें सबसे बड़ा नुकसान आम पाठकों/दर्शकों (नागरिकों) का है जिन्हें ‘खबर’ के नाम पर पीआर, स्पिन, प्लांट और प्रोपेगंडा मिल रहा है और जिन्हें अंधेरे में रखा जा रहा है.

संकट में है विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल

इस साल कोविड19 के साथ आये आर्थिक संकट और नतीजे में विज्ञापन आय के ध्वस्त होने से पैदा हुए संकट ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों का विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल गंभीर संकट में है. यही नहीं, इस संकट ने एक बार फिर स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया के लिए विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल की सीमाएं और खामियां उजागर कर दी हैं. यह दिन पर दिन साफ़ होता जा रहा है कि स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया की विज्ञापन आय पर अति निर्भरता उसकी स्वतंत्रता और आलोचनात्मकता के लिए घातक है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विज्ञापन आय पर निर्भर कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह संकट नया नहीं है और पिछले दो दशकों से अधिक समय से खासकर विकसित पश्चिमी पूंजीवादी देशों में यह संकट लगातार गहरा रहा है. इसे नए डिजिटल मीडिया ने और बढ़ा दिया है. इस कारण अमेरिका जैसे देशों में पारंपरिक माध्यम खासकर अखबार/पत्रिकाओं का सर्कुलेशन और विज्ञापन राजस्व लगातार गिर रहा है जिससे निपटने के लिए वे स्टाफ में कटौती यानी पत्रकारों की छंटनी कर रहे हैं और उनके न्यूजरूम्स सिकुड़ रहे हैं. इससे उनका कवरेज और उसकी गुणवत्ता प्रभावित हो रही है जिसका नतीजा यह हो रहा है कि उनके पाठक उन्हें छोड़ रहे और लगातार घट रहे हैं और उसी अनुपात में विज्ञापन राजस्व में भी और गिरावट आ रही है.

इस तरह यह एक तरह दुष्चक्र सा बन गया है जहां कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां मौजूदा बिजनेस मॉडल की असफलता से पैदा आर्थिक-वित्तीय संकट से निपटने के लिए जिस समाधान यानी पत्रकारीय स्टाफ में कटौती की ओर जा रही हैं, उससे संकट हल होने के बजाय और बढ़ रहा है. यही नहीं, कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां इस संकट से बाहर निकलने और अपने मुनाफे को बचाने के लिए विज्ञापनदाताओं को रिझाने और खुश करने की कोशिश में अनैतिक समझौते कर रही हैं. विज्ञापनदाता कंपनियों और सरकारों का दबाव कारपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों पर इतना अधिक बढ़ गया है कि वे उनके कंटेंट/रिपोर्टिंग को निर्देशित और नियंत्रित करने लगे हैं.

आश्चर्य नहीं कि अधिकांश कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियां और उनके अखबार/न्यूज चैनल कंपनियों के प्रवक्ता बन गए हैं. वे न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की खुलकर पैरोकारी करते हैं बल्कि उन्हें बाज़ार हर मर्ज की दवा दिखाई देते हैं. यही नहीं, उन्हें निजी क्षेत्र स्वर्ग और कॉर्पोरेट्स जगत में कोई कमी या गड़बड़ी नहीं दिखाई देती है. हैरानी की बात नहीं है कि बड़ी कंपनियों के अन्दर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर खोजी रिपोर्टें नहीं होती हैं और समाचार कक्षों में इसे “नो गो एरिया” माना जाता है. इसी तरह कारपोरेट क्षेत्र और बड़ी कंपनियों के कामकाज को क्रिटिकली जांचा-परखा नहीं जाता है.

लेकिन इससे कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की साख पर बुरा असर पड़ा है. उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है. वे पाठकों/दर्शकों का भरोसा खो रही हैं जिसका सीधा असर उनकी घटती पाठक/दर्शक संख्या में दिखाई दे रहा है. लेकिन पाठकों/दर्शकों की घटती संख्या और गिरती साख के कारण कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके अखबारों/न्यूज चैनलों आदि में खुद कॉरपोरेट क्षेत्र की रूचि धीरे-धीरे घट रही है. उसे कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की बहुत परवाह नहीं रह गई है और न ही वह उन्हें मौजूदा संकट से उबारने में कोई दिलचस्पी ले रहा है. कॉरपोरेट क्षेत्र अपने विज्ञापन बजट में न सिर्फ कटौती कर रहा है बल्कि उसे ज्यादा विश्वसनीय डिजिटल माध्यमों की ओर मोड़ रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक और दुश्चक्र है जिसमें कॉरपोरेट न्यूज मीडिया फंस गया है और उसकी कीमत चुका रहा है.

मुनाफे पर दबाव के बीच सरकार पर बढ़ती निर्भरता

लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाय संकट में फंसा कॉरपोरेट न्यूज मीडिया एक और दुष्चक्र में फंसता जा रहा है. कॉरपोरेट क्षेत्र से घटते विज्ञापन राजस्व की भरपाई के लिए उसकी सरकार पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. ध्यान रहे कि केंद्र और राज्य सरकारें पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ी विज्ञापनदाता के रूप में उभरी हैं. कॉरपोरेट विज्ञापनों के घटने और उसके नए डिजिटल माध्यमों की ओर शिफ्ट होने के कारण सरकारी विज्ञापन पारम्परिक न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके अखबारों/न्यूज चैनलों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात सरकारों को भी पता है. आश्चर्य नहीं कि केंद्र और राज्य सरकारें कॉरपोरेट क्षेत्र की तरह ही विज्ञापन के भारी-भरकम बजट को न्यूज मीडिया कंपनियों से ‘अनुकूल और ‘पाजिटिव’ कवरेज’ के लिए मोलभाव के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भी विज्ञापनों, दूसरी सरकारी सहायताओं और अन्य कारोबारी हितों को पूरा करने के लिए सरकारों के ज्यादा से ज्यादा करीब होने की कोशिश कर रही हैं. इस प्रक्रिया में वे न सिर्फ सरकार के साथ नत्थी (एम्बेड) हो रही हैं बल्कि “हिज मास्टर्स वायस” बनती जा रही हैं.

इसकी स्वाभाविक परिणति ‘गोदी मीडिया’ की परिघटना के रूप में सामने आई है जहां मुख्यधारा के कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता का भोंपू और उसका वैचारिक प्रोपेगंडा मशीन बन गया है. यह ठीक है कि ‘गोदी मीडिया’ की परिघटना के पीछे राजनीतिक- वैचारिक कारणों से लेकर मीडिया कंपनियों के मालिकों/प्रोमोटर्स के निजी और दूसरे कारोबारी हित भी जुड़े हैं. सत्ता की नाराजगी का भय भी है जो उनके कारोबारी हितों को नुकसान पहुंचा सकता है. लेकिन इन सबके साथ एक बड़ा कारण कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों का सरकारी विज्ञापनों का लालच भी है. यही कारण है कि कई राज्य सरकारें भी क्षेत्रीय मीडिया को काबू में रखने और उसे अपने भोंपू की तरह इस्तेमाल करने में कामयाब हैं.

इसका नतीजा भी सबके सामने हैं. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भले ही तमाम अनैतिक समझौते और अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखकर तात्कालिक तौर पर अपने गिरते मुनाफे को बनाए रखने और आर्थिक- वित्तीय संकट को टालने में कामयाब दिख रही हैं लेकिन यह आत्महंता रणनीति उनकी बची-खुची साख को ख़त्म कर रही है. इसके अनेकों उदाहरण सामने हैं. साल के इन आखिरी महीनों में कड़ाके की ठण्ड में दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हजारों किसान आन्दोलनकारी खुलेआम ‘गोदी मीडिया’ के बहिष्कार के नारे लगा रहे हैं. वे केंद्र सरकार ही नहीं, कॉरपोरेट ‘गोदी मीडिया’ से भी उतने ही नाराज हैं.

यह एक चेतावनी है. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया अपने विज्ञापन आधारित कारोबारी माडल के बढ़ते संकट से निपटने के लिए पत्रकारों की छंटनी से लेकर कॉर्पोरेट्स और सरकार के भोंपू बनने जैसे आत्मघाती और अनैतिक समझौते कर रहा है, वह न सिर्फ उसकी साख को खत्म कर रहा है बल्कि उसके संकट को भी गहरा कर रहा है. लेकिन क्या वह इस चेतावनी को सुन पा रहा है?

न्यूज़रूम में कत्लेआम के बीच श्रमजीवी पत्रकार कानून की विदाई

इस साल की एक त्रासद विडम्बना यह भी रही कि जब न्यूजरूम में पत्रकारों की छंटनी, वेतन-भत्तों में कटौती अपने चरम पर था उसी समय केंद्र सरकार ने श्रम सुधारों के तहत एक झटके में 29 श्रम कानूनों को समाप्त करके उन्हें चार नए लेबर कोड में समाहित कर दिया. इनमें से एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) विविध प्रावधान अधिनियम, 1955 (संक्षेप में- श्रमजीवी पत्रकार कानून) भी था. यह कानून वर्ष 1955 में बना था, जब स्वतंत्रता आन्दोलन के कुछ आदर्श सरकार और संसद में बचे थे.

यह कानून अखबारों/पत्रिकाओं/न्यूज़ एजेंसी में काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों को स्थाई नौकरी, बेहतर सेवा शर्तों, वेतन आयोग द्वारा निश्चित वेतन और भत्ते, ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार और उनकी स्वतंत्रता को एक हद तक कानूनी संरक्षण देने के लिए बना था. इसका उद्देश्य प्रेस की आज़ादी को प्रेस के मालिकों की आज़ादी बनने से रोकना और पत्रकारों/संपादकों को उनकी नौकरी और सेवा शर्तों को एक हद तक सुरक्षा देना था ताकि वे अपना काम बिना डर-भय के कर सकें.

हालांकि व्यावहारिक अर्थों में केंद्र और राज्य सरकारों के परोक्ष सहयोग और ताकतवर कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया (अखबार) कंपनियों के खुलेआम उल्लंघन के कारण इस कानून की मौत बहुत पहले ही हो चुकी थी लेकिन त्रासद संयोग देखिए कि इस साल जब न्यूजरूम में कत्लेआम चल रहा था, इस कानून को भी चुपचाप दफना दिया गया. यह ऐतिहासिक कानून अब इतिहास का हिस्सा हो चुका है.

निश्चय ही, बड़ी कॉरपोरेट अखबार कंपनियों ने राहत की सांस ली होगी. इस कानून के प्रति उनका खुला विरोध किसी से छुपा नहीं था. इन कम्पनियों ने पिछले सालों में इस कानून को खत्म करने के लिए राजनीतिक लॉबीइंग करने, उसके खिलाफ प्रचार अभियान चलाने से लेकर उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने तक हर कोशिश की. एक दर्जन से ज्यादा बड़ी अखबार कंपनियों ने इस कानून की संवैधानिकता को वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी लेकिन कोर्ट ने लम्बी सुनवाई के बाद 2014 में न सिर्फ उनकी अपील ख़ारिज कर दी बल्कि इन कंपनियों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने और वर्ष 2011 से एरियर देने का आदेश दिया.

लेकिन इन कंपनियों ने मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं करने के लिए हर तिकड़म की. इन बड़ी अखबार कंपनियों ने इस कानून को हर तरह से नाकाम करने के लिए अपने अखबारों में ट्रेड यूनियनों को ख़रीदने और तोड़ने से लेकर पत्रकारों को इस कानून यानी वेज बोर्ड के तहत स्थाई नियुक्ति देने के बजाय जबरन निश्चित अवधि के अनुबंध पर बहाल करने की परिपाटी और पत्रकारों के वेज बोर्ड की सिफारिशों को खुलेआम ठेंगा दिखाने में कोई शर्म नहीं महसूस की. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशक में सभी मीडिया कंपनियों में पत्रकारों की निश्चित अवधि के अनुबंध और ठेके पर नियुक्तियां होने लगीं जिसमें नौकरी की कोई गारंटी नहीं है और सेवा शर्तों का कोई मतलब नहीं रह गया है.

इसका नतीजा सामने है. आज 95 फीसदी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कंपनियों में पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की कोई ट्रेड यूनियन नहीं है. पत्रकारों की संगठित आवाज़ और कंपनियों से वेतन/सेवा शर्तों के बारे में संगठित बारगेनिंग की कोई गुंजाइश नहीं है. बिना अपवाद के सभी नियुक्तियां निश्चित अवधि के अनुबंध पर होती हैं. कई कंपनियों ने तो अब पत्रकारों को सीधे हायर करने के बजाय परोक्ष रूप से एक ठेकेदार के जरिये नियुक्त करना शुरू कर दिया है. सेवा शर्तों का आलम यह है कि किसी भी पत्रकार या पत्रकारों के समूह को कभी भी निकाला जा सकता है. कामकाजी घंटे 8 के बजाय 10-12 घंटे हैं, साप्ताहिक छुट्टियों का कोई तय नहीं है, मेडिकल छुट्टी तो दूर की बात है. कोई सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान नहीं है.

सच यह है कि आर्थिक-समाज विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली में जिसे “अनिश्चित और जोखिम भरा पेशा” (प्रीकेरियस जॉब) कहा जाता है और जिसकी पहचान नौकरी का अनिश्चितता, कम वेतन और बदतर सेवा शर्तें होती हैं, क्या पत्रकारिता का पेशा भी अब उसी श्रेणी में नहीं गिना जाना चाहिए? मानिए या मत मानिए लेकिन श्रमजीवी पत्रकार कानून के अंत और कोरोना महामारी में 50 से ज्यादा पत्रकारों की मौत ने इस साल पत्रकारों की नौकरियों को, सचमुच में “प्रीकेरियस जॉब” की श्रेणी में ला खड़ा किया है.

बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी के साथ देश भर में अधिकांश न्यूज मीडिया समूहों/संस्थानों में न्यूजरूम्स सिकुड़ रहे हैं. लेकिन यह केवल कुछ पत्रकारों की नौकरी या आजीविका भर का सवाल नहीं है. यह उससे कहीं ज्यादा गंभीर और चिंता का विषय है क्योंकि इसका सीधा संबंध भारतीय पत्रकारिता और लोकतंत्र की गुणवत्ता, गतिशीलता और उनके भविष्य से है. सिकुड़ते न्यूजरूम्स का असर कई स्तरों पर होगा और परोक्ष रूप से उसकी कीमत आम नागरिकों को भी चुकानी पड़ सकती है.

पहली बात यह है कि सिकुड़ते न्यूजरूम्स में पत्रकारीय स्टाफ की संख्या में कमी से डेस्क (संपादन) और रिपोर्टिंग की गुणवत्ता सीधे तौर पर प्रभावित होगी क्योंकि एक तो बचे हुए डेस्क स्टाफ पर काम का बोझ ज्यादा होगा और इसका सीधा असर संपादन की गुणवत्ता पर पड़ेगा. डेस्क पर काम का बोझ अधिक होने से उनके पास ख़बरों के तथ्यों और दूसरे पहलुओं की जांच-पड़ताल और उसे सम्पादित करने का समय कम होगा. इस कारण न सिर्फ तथ्यों की गलतियां बढेंगी बल्कि उसकी भाषा और प्रस्तुति से भी समझौता होगा. ‘फेक न्यूज’ और प्रोपेगंडा न्यूज से लेकर व्हाट्सएप्प ‘ख़बरों’ और फॉरवर्ड के लिए गेटकीपर्स को धोखा/झांसा देकर अखबार/न्यूज चैनल में जगह बनाने में और आसानी हो जायेगी.

यही नहीं, कम समय में ज्यादा काम के दबाव से डेस्क के पत्रकारों को अत्यधिक तनाव में काम करना होगा जो न सिर्फ उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होगा बल्कि इससे उनकी सृजनात्मकता भी प्रभावित होगी. साथ ही, छंटनी की मार से बचा हुआ डेस्क स्टाफ हमेशा इस डर और दबाव में रहेगा कि उसकी भी नौकरी जा सकती है. इस मानसिक अवस्था में बचा हुआ स्टाफ न सिर्फ प्रबंधन के अत्यधिक दबाव में रहेगा बल्कि उस पर प्रबंधन के निर्देशों के मुताबिक कई अनुचित और अनैतिक समझौते करने का दबाव भी होगा.

दूसरी ओर, इससे रिपोर्टिंग भी बुरी तरह प्रभावित होगी क्योंकि रिपोर्टरों की छंटनी के बाद कई बीट्स पर रिपोर्टर नहीं रह जायेंगे या एक ही रिपोर्टर को कई बीट्स कवर करने होंगे. दोनों ही स्थितियों में इससे रिपोर्टिंग की गुणवत्ता प्रभावित होगी. एक रिपोर्टर कई बीट्स के साथ न्याय नहीं कर सकता है. एक साथ कई बीट्स की और तय समय सीमा के अन्दर ख़बरें करने के दबाव में रिपोर्टिंग न सिर्फ रूटीन, घटना- प्रधान, सतही, बेजान, पीआर/प्रेस रिलीज पर आधारित और बिना छानबीन और जांच-पड़ताल के होगी बल्कि उसमें तथ्यों की भूलों से लेकर खबरों की बारीकी, सन्दर्भ/पृष्ठभूमि और छुपे हुए तथ्यों को

अनदेखा कर दिया जा सकता है.

यही नहीं, अनेकों दबी-छुपी ख़बरें हमेशा के लिए दबी-छुपी रह जायेंगी क्योंकि सिकुड़े हुए न्यूजरूम में इसकी बहुत कम सम्भावना है कि खोजी रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर रह जाएं. इसकी वजह यह है कि घटे हुए स्टाफ के साथ किसी भी न्यूजरूम के लिए ऐसे खोजी रिपोर्टर रखना बहुत मुश्किल होगा जो कई सप्ताहों या महीनों की खोजबीन के बाद एक रिपोर्ट करता है. इसी तरह खर्चों में कटौती के दबाव और घटे हुए रिपोर्टिंग टीम के लिए किसी रिपोर्टर को सप्ताह भर के लिए एक असाइनमेंट पर फील्ड रिपोर्टिंग के लिए भेजना संभव नहीं रह जाता. दूसरी ओर, लेबर, कृषि, स्वास्थ्य, आदिवासी, महिलाएं जैसे जरूरी और बुनियादी लेकिन न्यूजरूम्स की प्राथमिकता में हमेशा नीचे रहे बीट्स को पूरी तरह से अनदेखा कर देने की आशंका बढ़ जाती है.

आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर मीडिया संस्थानों/समूहों के लगातार सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच देश में खोजी पत्रकारिता का कोई नामलेवा नहीं रह गया है. याद कीजिए, आपने आखिरी बार कब कोई बड़ी और धमाकेदार खोजी रिपोर्ट पढ़ी थी? इसी तरह ज्यादातर अखबारों/न्यूज चैनलों से शोधपरक और बारीक नज़र से की गई मौलिक फील्ड रिपोर्टिंग भी न के बराबर दिखती है. यही हाल उन उपेक्षित और अनदेखे बीट्स- लेबर, कृषि, जन स्वास्थ्य, आदिवासी, उत्तर पूर्व, कश्मीर और पिछड़े इलाकों की रिपोर्टिंग का भी है जो पहले से ही अखबारों/न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग के हाशिये पर थे और जिनके अब पूरी तरह से गुमनामी में ढकेल दिए जाने का खतरा बढ़ गया है.

घटते पत्रकार और तेजी से बढ़ता पीआर/इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार

इन सबके बीच एक बहुत महत्वपूर्ण परिघटना आकार ले रही है जिसका पत्रकारिता और लोकतंत्र के लिए गहरे निहितार्थ हैं. हो यह रहा है कि एक ओर पत्रकारों की छंटनी हो रही है, न्यूजरूम्स लगातार सिकुड़ रहे है लेकिन दूसरी ओर, पीआर और इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है. हालांकि भारत में पत्रकारों और पीआर प्रोफेशनल्स की कुल संख्या के सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन सहित कई विकसित देशों में लम्बे समय से उभर रहे ट्रेंड्स पर गौर करें तो हैरान और चिंतित करने वाली तस्वीर सामने आती है.

रिपोर्टों के मुताबिक, अमेरिका में सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच पीआर प्रोफेशनल्स की संख्या पिछले कई सालों से तेजी से बढ़ रही है. यूएस सेन्सस ब्यूरो के मुताबिक, इस समय अमेरिका में हर एक पत्रकार पर 6.4 पीआर प्रोफेशनल्स काम रहे हैं. दो दशक पहले अमेरिका में हर एक पत्रकार के पीछे 1.9 पीआर प्रोफेशनल्स थे जो इस बीच तीन गुने से भी ज्यादा बढ़ गए हैं. यही नहीं, अनुमान है कि अगले एक दशक में यानी वर्ष 2026 तक पीआर के धंधे में रोजगार 9 फीसदी की दर से बढ़कर 2,82,600 तक पहुंच जाएगा जबकि इसी बीच पत्रकारिता में रोजगार 9 फीसदी की दर से घटकर सिर्फ 45,900 रह जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भी यह ट्रेंड तेजी से आगे बढ़ रहा है. छंटनी के शिकार अनेकों पत्रकार सहित पत्रकारिता की डिग्री लेकर नए युवा कॉरपोरेट पीआर और लॉबीइंग से लेकर राजनीतिक पीआर, सरकारी/पीएसयू पीआर, सोशल मीडिया प्रबंधन, चुनाव प्रबंधन/कंसल्टेंसी, इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों का रुख कर रहे हैं. ‘जनमत’ (पब्लिक ओपिनियन) के बढ़ते महत्त्व के बीच उसे ‘मैनेज’ और मैनिपुलेट करने में पीआर/इवेंट मैनेजमेंट की बढ़ती भूमिका को देखते हुए कॉर्पोरेट्स और सरकार सहित अन्य ताकतवर संस्थाएं, समूह और व्यक्ति उसमें पर्याप्त पैसा झोंक रहे हैं.

इसका नतीजा यह है कि देश में देशी-विदेशी बड़ी-छोटी पीआर कंपनियों, कंसल्टेंट्स, पीआर स्ट्रेटेजिस्ट के साथ-साथ लॉबीइंग, चुनाव प्रबंधन और इवेंट मैनेजमेंट का कारोबार खूब फल-फूल रहा है. मोटे अनुमानों के मुताबिक, आज देश में हर एक पत्रकार के पीछे कम से कम तीन-चार पीआर प्रोफेशनल्स उसे मैनेज और मैनिपुलेट करने में लगे हैं. इन पीआर एजेंसियों और उनके हाई-प्रोफाइल पीआर प्रोफेशनल्स की पहुंच, दबदबे और प्रभाव का अंदाज़ा रिलायंस और टाटा की पीआर हैंडल करने वाली एजेंसी- वैष्णवी कॉर्पोरेट्स कम्युनिकेशंस और उसकी प्रमुख नीरा राडिया प्रकरण से लगाया जा सकता है.

सच पूछिए तो नीरा राडिया स्कैंडल ने यह साफ़ कर दिया था कि पीआर एजेंसियों और अधिकारियों की पहुंच और प्रभाव किस स्तर तक पहुंच चुकी है. अब वे सिर्फ रिपोर्टर नहीं बल्कि सीधे संपादकों/प्रबंधकों/मालिकों से बात कर रहे हैं. उन्हें प्रभावित और मैनेज कर रहे हैं. उनकी ख़बरों को फिक्स और मैनेज/मैनिपुलेट करने की ताकत बहुत बढ़ गई है. तथ्य यह है कि वे आज बड़ी सफाई और चतुराई से ‘ख़बरें’ बना/गढ़ (मैन्युफैक्चर) रहे हैं, ख़बरों को स्पिन कर रहे हैं, ख़बरें प्लांट कर या ख़बरों को दबा या उछाल रहे हैं और काम के बोझ से दबे रिपोर्टर के लिए उसे पहचान/समझ पाना इतना आसान नहीं है.

हालांकि पीआर एजेंसियों और अधिकारीयों के बढ़ते दबदबे के पीछे कई और कारण भी जिम्मेदार हैं लेकिन उनमें एक कारण न्यूजरूम्स का सिकुड़ना और दबाव में काम करना भी है. अधिक से अधिक ख़बरें करने और काम के दबाव के कारण एक रिपोर्टर की कॉरपोरेट पीआर, एजेंसियों और पीआर अधिकारियों पर निर्भरता बढ़ती जाती है क्योंकि वहां से उन्हें बिना किसी मेहनत के और आसानी से ‘ख़बरें’ मिल जाती हैं. यही नहीं, रिपोर्टर्स की पीआर पर बढ़ती निर्भरता का एक नतीजा यह भी होता है कि वे उनके क्लाइंट्स के खिलाफ नकारात्मक ख़बरें नहीं चला सकते क्योंकि उस स्थिति में उन्हें पीआर से ‘ख़बरें’ मिलनी बंद हो सकती हैं या उनकी पहुंच बाधित हो सकती है.

जाहिर है कि इसका सीधा असर पत्रकारिता और रिपोर्टिंग की गुणवत्ता पर पड़ रहा है. जानेमाने लेखक-पत्रकार जार्ज आर्वेल के मुताबिक, “खबर वह है जिसे कहीं कोई दबाने-छुपाने की कोशिश कर रहा है. बाकी सब प्रचार/विज्ञापन (पीआर) है.” लेकिन सिकुड़ते न्यूजरूम्स के बीच पीआर का बढ़ता दबदबा न सिर्फ असली ख़बरों को पब्लिक स्फीयर में आने नहीं दे रहा है बल्कि ‘खबर’ के नाम पर पीआर की भरमार है. इसमें सबसे बड़ा नुकसान आम पाठकों/दर्शकों (नागरिकों) का है जिन्हें ‘खबर’ के नाम पर पीआर, स्पिन, प्लांट और प्रोपेगंडा मिल रहा है और जिन्हें अंधेरे में रखा जा रहा है.

संकट में है विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल

इस साल कोविड19 के साथ आये आर्थिक संकट और नतीजे में विज्ञापन आय के ध्वस्त होने से पैदा हुए संकट ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों का विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल गंभीर संकट में है. यही नहीं, इस संकट ने एक बार फिर स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया के लिए विज्ञापन आय पर आधारित बिजनेस मॉडल की सीमाएं और खामियां उजागर कर दी हैं. यह दिन पर दिन साफ़ होता जा रहा है कि स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया की विज्ञापन आय पर अति निर्भरता उसकी स्वतंत्रता और आलोचनात्मकता के लिए घातक है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विज्ञापन आय पर निर्भर कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह संकट नया नहीं है और पिछले दो दशकों से अधिक समय से खासकर विकसित पश्चिमी पूंजीवादी देशों में यह संकट लगातार गहरा रहा है. इसे नए डिजिटल मीडिया ने और बढ़ा दिया है. इस कारण अमेरिका जैसे देशों में पारंपरिक माध्यम खासकर अखबार/पत्रिकाओं का सर्कुलेशन और विज्ञापन राजस्व लगातार गिर रहा है जिससे निपटने के लिए वे स्टाफ में कटौती यानी पत्रकारों की छंटनी कर रहे हैं और उनके न्यूजरूम्स सिकुड़ रहे हैं. इससे उनका कवरेज और उसकी गुणवत्ता प्रभावित हो रही है जिसका नतीजा यह हो रहा है कि उनके पाठक उन्हें छोड़ रहे और लगातार घट रहे हैं और उसी अनुपात में विज्ञापन राजस्व में भी और गिरावट आ रही है.

इस तरह यह एक तरह दुष्चक्र सा बन गया है जहां कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां मौजूदा बिजनेस मॉडल की असफलता से पैदा आर्थिक-वित्तीय संकट से निपटने के लिए जिस समाधान यानी पत्रकारीय स्टाफ में कटौती की ओर जा रही हैं, उससे संकट हल होने के बजाय और बढ़ रहा है. यही नहीं, कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां इस संकट से बाहर निकलने और अपने मुनाफे को बचाने के लिए विज्ञापनदाताओं को रिझाने और खुश करने की कोशिश में अनैतिक समझौते कर रही हैं. विज्ञापनदाता कंपनियों और सरकारों का दबाव कारपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों पर इतना अधिक बढ़ गया है कि वे उनके कंटेंट/रिपोर्टिंग को निर्देशित और नियंत्रित करने लगे हैं.

आश्चर्य नहीं कि अधिकांश कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियां और उनके अखबार/न्यूज चैनल कंपनियों के प्रवक्ता बन गए हैं. वे न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की खुलकर पैरोकारी करते हैं बल्कि उन्हें बाज़ार हर मर्ज की दवा दिखाई देते हैं. यही नहीं, उन्हें निजी क्षेत्र स्वर्ग और कॉर्पोरेट्स जगत में कोई कमी या गड़बड़ी नहीं दिखाई देती है. हैरानी की बात नहीं है कि बड़ी कंपनियों के अन्दर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर खोजी रिपोर्टें नहीं होती हैं और समाचार कक्षों में इसे “नो गो एरिया” माना जाता है. इसी तरह कारपोरेट क्षेत्र और बड़ी कंपनियों के कामकाज को क्रिटिकली जांचा-परखा नहीं जाता है.

लेकिन इससे कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की साख पर बुरा असर पड़ा है. उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है. वे पाठकों/दर्शकों का भरोसा खो रही हैं जिसका सीधा असर उनकी घटती पाठक/दर्शक संख्या में दिखाई दे रहा है. लेकिन पाठकों/दर्शकों की घटती संख्या और गिरती साख के कारण कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके अखबारों/न्यूज चैनलों आदि में खुद कॉरपोरेट क्षेत्र की रूचि धीरे-धीरे घट रही है. उसे कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की बहुत परवाह नहीं रह गई है और न ही वह उन्हें मौजूदा संकट से उबारने में कोई दिलचस्पी ले रहा है. कॉरपोरेट क्षेत्र अपने विज्ञापन बजट में न सिर्फ कटौती कर रहा है बल्कि उसे ज्यादा विश्वसनीय डिजिटल माध्यमों की ओर मोड़ रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक और दुश्चक्र है जिसमें कॉरपोरेट न्यूज मीडिया फंस गया है और उसकी कीमत चुका रहा है.

मुनाफे पर दबाव के बीच सरकार पर बढ़ती निर्भरता

लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाय संकट में फंसा कॉरपोरेट न्यूज मीडिया एक और दुष्चक्र में फंसता जा रहा है. कॉरपोरेट क्षेत्र से घटते विज्ञापन राजस्व की भरपाई के लिए उसकी सरकार पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. ध्यान रहे कि केंद्र और राज्य सरकारें पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ी विज्ञापनदाता के रूप में उभरी हैं. कॉरपोरेट विज्ञापनों के घटने और उसके नए डिजिटल माध्यमों की ओर शिफ्ट होने के कारण सरकारी विज्ञापन पारम्परिक न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके अखबारों/न्यूज चैनलों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात सरकारों को भी पता है. आश्चर्य नहीं कि केंद्र और राज्य सरकारें कॉरपोरेट क्षेत्र की तरह ही विज्ञापन के भारी-भरकम बजट को न्यूज मीडिया कंपनियों से ‘अनुकूल और ‘पाजिटिव’ कवरेज’ के लिए मोलभाव के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भी विज्ञापनों, दूसरी सरकारी सहायताओं और अन्य कारोबारी हितों को पूरा करने के लिए सरकारों के ज्यादा से ज्यादा करीब होने की कोशिश कर रही हैं. इस प्रक्रिया में वे न सिर्फ सरकार के साथ नत्थी (एम्बेड) हो रही हैं बल्कि “हिज मास्टर्स वायस” बनती जा रही हैं.

इसकी स्वाभाविक परिणति ‘गोदी मीडिया’ की परिघटना के रूप में सामने आई है जहां मुख्यधारा के कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता का भोंपू और उसका वैचारिक प्रोपेगंडा मशीन बन गया है. यह ठीक है कि ‘गोदी मीडिया’ की परिघटना के पीछे राजनीतिक- वैचारिक कारणों से लेकर मीडिया कंपनियों के मालिकों/प्रोमोटर्स के निजी और दूसरे कारोबारी हित भी जुड़े हैं. सत्ता की नाराजगी का भय भी है जो उनके कारोबारी हितों को नुकसान पहुंचा सकता है. लेकिन इन सबके साथ एक बड़ा कारण कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों का सरकारी विज्ञापनों का लालच भी है. यही कारण है कि कई राज्य सरकारें भी क्षेत्रीय मीडिया को काबू में रखने और उसे अपने भोंपू की तरह इस्तेमाल करने में कामयाब हैं.

इसका नतीजा भी सबके सामने हैं. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भले ही तमाम अनैतिक समझौते और अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखकर तात्कालिक तौर पर अपने गिरते मुनाफे को बनाए रखने और आर्थिक- वित्तीय संकट को टालने में कामयाब दिख रही हैं लेकिन यह आत्महंता रणनीति उनकी बची-खुची साख को ख़त्म कर रही है. इसके अनेकों उदाहरण सामने हैं. साल के इन आखिरी महीनों में कड़ाके की ठण्ड में दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हजारों किसान आन्दोलनकारी खुलेआम ‘गोदी मीडिया’ के बहिष्कार के नारे लगा रहे हैं. वे केंद्र सरकार ही नहीं, कॉरपोरेट ‘गोदी मीडिया’ से भी उतने ही नाराज हैं.

यह एक चेतावनी है. कॉरपोरेट न्यूज मीडिया अपने विज्ञापन आधारित कारोबारी माडल के बढ़ते संकट से निपटने के लिए पत्रकारों की छंटनी से लेकर कॉर्पोरेट्स और सरकार के भोंपू बनने जैसे आत्मघाती और अनैतिक समझौते कर रहा है, वह न सिर्फ उसकी साख को खत्म कर रहा है बल्कि उसके संकट को भी गहरा कर रहा है. लेकिन क्या वह इस चेतावनी को सुन पा रहा है?

न्यूज़रूम में कत्लेआम के बीच श्रमजीवी पत्रकार कानून की विदाई

इस साल की एक त्रासद विडम्बना यह भी रही कि जब न्यूजरूम में पत्रकारों की छंटनी, वेतन-भत्तों में कटौती अपने चरम पर था उसी समय केंद्र सरकार ने श्रम सुधारों के तहत एक झटके में 29 श्रम कानूनों को समाप्त करके उन्हें चार नए लेबर कोड में समाहित कर दिया. इनमें से एक श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) विविध प्रावधान अधिनियम, 1955 (संक्षेप में- श्रमजीवी पत्रकार कानून) भी था. यह कानून वर्ष 1955 में बना था, जब स्वतंत्रता आन्दोलन के कुछ आदर्श सरकार और संसद में बचे थे.

यह कानून अखबारों/पत्रिकाओं/न्यूज़ एजेंसी में काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों को स्थाई नौकरी, बेहतर सेवा शर्तों, वेतन आयोग द्वारा निश्चित वेतन और भत्ते, ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार और उनकी स्वतंत्रता को एक हद तक कानूनी संरक्षण देने के लिए बना था. इसका उद्देश्य प्रेस की आज़ादी को प्रेस के मालिकों की आज़ादी बनने से रोकना और पत्रकारों/संपादकों को उनकी नौकरी और सेवा शर्तों को एक हद तक सुरक्षा देना था ताकि वे अपना काम बिना डर-भय के कर सकें.

हालांकि व्यावहारिक अर्थों में केंद्र और राज्य सरकारों के परोक्ष सहयोग और ताकतवर कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया (अखबार) कंपनियों के खुलेआम उल्लंघन के कारण इस कानून की मौत बहुत पहले ही हो चुकी थी लेकिन त्रासद संयोग देखिए कि इस साल जब न्यूजरूम में कत्लेआम चल रहा था, इस कानून को भी चुपचाप दफना दिया गया. यह ऐतिहासिक कानून अब इतिहास का हिस्सा हो चुका है.

निश्चय ही, बड़ी कॉरपोरेट अखबार कंपनियों ने राहत की सांस ली होगी. इस कानून के प्रति उनका खुला विरोध किसी से छुपा नहीं था. इन कम्पनियों ने पिछले सालों में इस कानून को खत्म करने के लिए राजनीतिक लॉबीइंग करने, उसके खिलाफ प्रचार अभियान चलाने से लेकर उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने तक हर कोशिश की. एक दर्जन से ज्यादा बड़ी अखबार कंपनियों ने इस कानून की संवैधानिकता को वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी लेकिन कोर्ट ने लम्बी सुनवाई के बाद 2014 में न सिर्फ उनकी अपील ख़ारिज कर दी बल्कि इन कंपनियों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने और वर्ष 2011 से एरियर देने का आदेश दिया.

लेकिन इन कंपनियों ने मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं करने के लिए हर तिकड़म की. इन बड़ी अखबार कंपनियों ने इस कानून को हर तरह से नाकाम करने के लिए अपने अखबारों में ट्रेड यूनियनों को ख़रीदने और तोड़ने से लेकर पत्रकारों को इस कानून यानी वेज बोर्ड के तहत स्थाई नियुक्ति देने के बजाय जबरन निश्चित अवधि के अनुबंध पर बहाल करने की परिपाटी और पत्रकारों के वेज बोर्ड की सिफारिशों को खुलेआम ठेंगा दिखाने में कोई शर्म नहीं महसूस की. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशक में सभी मीडिया कंपनियों में पत्रकारों की निश्चित अवधि के अनुबंध और ठेके पर नियुक्तियां होने लगीं जिसमें नौकरी की कोई गारंटी नहीं है और सेवा शर्तों का कोई मतलब नहीं रह गया है.

इसका नतीजा सामने है. आज 95 फीसदी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कंपनियों में पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की कोई ट्रेड यूनियन नहीं है. पत्रकारों की संगठित आवाज़ और कंपनियों से वेतन/सेवा शर्तों के बारे में संगठित बारगेनिंग की कोई गुंजाइश नहीं है. बिना अपवाद के सभी नियुक्तियां निश्चित अवधि के अनुबंध पर होती हैं. कई कंपनियों ने तो अब पत्रकारों को सीधे हायर करने के बजाय परोक्ष रूप से एक ठेकेदार के जरिये नियुक्त करना शुरू कर दिया है. सेवा शर्तों का आलम यह है कि किसी भी पत्रकार या पत्रकारों के समूह को कभी भी निकाला जा सकता है. कामकाजी घंटे 8 के बजाय 10-12 घंटे हैं, साप्ताहिक छुट्टियों का कोई तय नहीं है, मेडिकल छुट्टी तो दूर की बात है. कोई सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान नहीं है.

सच यह है कि आर्थिक-समाज विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली में जिसे “अनिश्चित और जोखिम भरा पेशा” (प्रीकेरियस जॉब) कहा जाता है और जिसकी पहचान नौकरी का अनिश्चितता, कम वेतन और बदतर सेवा शर्तें होती हैं, क्या पत्रकारिता का पेशा भी अब उसी श्रेणी में नहीं गिना जाना चाहिए? मानिए या मत मानिए लेकिन श्रमजीवी पत्रकार कानून के अंत और कोरोना महामारी में 50 से ज्यादा पत्रकारों की मौत ने इस साल पत्रकारों की नौकरियों को, सचमुच में “प्रीकेरियस जॉब” की श्रेणी में ला खड़ा किया है.