Newslaundry Hindi
इस साल कुछ और सतही और सस्ता हुआ मीडिया का संसार
साल 2020 में टीवी मीडिया का जो रवैया कई मामलों में शर्मनाक रहा, लेकिन वह अचानक इस साल पैदा हुआ रवैया नहीं है. यह पुराने रूप का ही नया विस्तार है. हर चीज को सनसनीखेज बनाकर देखने का काम, हर बहस को बहुत ही सतही तौर पर गिरा देने का काम यह पहले से करता रहा है. हाल के वर्षो में उसके बड़े हिस्से के दक्षिणपंथी रुझान चिंतानजक ढंग से उभरे और कई बार मीडिया बड़ी बेशर्मी में उसे सत्ता के साथ खड़ा हुआ नज़र आया.
इस साल दो-तीन प्रसंग ऐसे रहे जहां मीडिया की भूमिका बहुत संदिग्ध और सवालों से घिरी रही. इसमें सबसे शर्मनाक था सुशांत सिंह राजूपत की ख़ुदकुशी का प्रसंग. इसका मीडिया ने बेशर्मी से दोहन किया. इस काम में इत्तेफ़ाक से सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि सुशांत सिंह का परिवार भी शामिल था और दो-दो राज्य सरकारें (महाराष्ट्र और बिहार) भी शामिल हो गई. इन सब ने मिलकर एक बहुत अच्छे अभिनेता, जिसकी जिस भी परिस्थितियों में मौत हुई हो, की मौत को घटिया राजनीति का मोहरा बना दिया. यह प्रमुखता से मीडिया में स्थान पाती रही, बल्कि कहें कि मीडिया ही उसे अलग-अलग रंग देता रहा.
सुशांत सिंह राजपूत मामले में करीब तीन महीने तक टीवी चैनलों पर हर दिन बहस चलती रही. इन वाकयों ने टीवी पत्रकारिता को मज़ाक बना कर रख दिया. इसका कारण एक और भी हैं कि अब टीवी पत्रकारिता सरोकार से ज्यादा मनोरंजन का मामला हो गया है. दर्शक भी अब यह देखना पसंद करते हैं कि कौन सा टीवी एंकर आज बहस में कितनी ऊंची आवाज में जाकर बात करेगा, वह अपने मेहमानों से कैसे सवाल करेगा? हालांकि यह सब सिर्फ अभी नहीं हो रहा हैं, बल्कि पहले से होता आ रहा है.
दरअसल नकली सनसनी और सवाल मीडिया पिछले कई वर्षों से पेश करता रहा है। जब कुछ नहीं होता तो उत्तर कोरिया के तानाशाह की कहानियां दिखाई जाती हैं- उसके मिसाइलों की कहानियां, पाकिस्तान को चूर-चूर कर देने वाली कहानियां, तबाह हो गया पाकिस्तान, टूट जाएगा पाकिस्तान आदि- आदि. उस समय भी देशभक्ति के उन्माद में तथ्यों को परे रखकर रिपोर्टिंग की जा रही था. यानी टीवी पर चल रहा यह तमाशा नया नहीं है. यह साल भर चलने वाला तमाशा है.
तो सुशांत सिंह राजपूत का मामला इस सिलसिले की कड़ी है जो साल भर अलग-अलग विषयों पर चलता रहता है. दुर्भाग्य से इस तमाशे में इस बार सुशांत का परिवार भी शामिल नज़र आया. उसके पिता और बहनों की भूमिका हैरान करने वाली रही.
इन सब में सबसे शर्मनाक था रिया चक्रवर्ती का मामला जिसे मीडिया विलेन बनाने में लगा रहा. बिना किसी सबूत के, बिना किसी प्रमाण के. उसके खिलाफ लगातार झूठी ख़बरें गढ़ता रहा. असल में यह सिर्फ रिया चक्रवर्ती के खिलाफ नहीं बल्कि आजाद भारतीय लड़की के खिलाफ जो पुरानी मानसिकता बनी हुई है, वह मीडिया में दिखाई पड़ी.
दरअसल मीडिया लगातार सरोकार से सनसनी की ओर बढ़ा है। लोगों को भी यही रास आता है. जो नया उच्च मध्यवर्ग है, वह नहीं चाहता कि उसकी चाय फीकी हो या किसी खबर से उसका डिनर बदज़ायका हो जाए. मध्यवर्गीय परिवारों के पास वास्तविक सरोकारों के लिए अवकाश नहीं है. लोगों को लगता हैं कि एनजीओ में कुछ रुपए दे देने से, फेसबुक और ट्विटर पर लिख देने से उनका सरोकार पूरा हो गया है, उससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं चाहिए.
एकपक्षीय मीडिया रिपोर्टिंग का दूसरा उदाहरण है उत्तर-पूर्व दिल्ली के दंगे. इसमें मीडिया का एक बड़ा धड़ा एकपक्षीय रिपोर्टिंग करता रहा और इस मामले में हो रही पुलिस की जांच पर जितने सवाल खड़े होने चाहिए वह भी मीडिया सही से खड़ा नहीं कर पाया. यह देखने को मिला कि पुलिस ने दंगों की आड़ में सीएए-एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ केस दर्ज कर गिरफ्तार करना शुरू कर दिया. शाहीनबाग आंदोलन को लेकर जो कीचड़ उछालने का काम हुआ वह भी मीडिया का ही एक चेहरा है.
इन सब मामलों के बरक्स हम अचानक पा रहे हैं कि जो जनतांत्रिक आंदोलन हैं, इसमें हम किसान आंदोलन को भी शामिल कर लें, उसके प्रति मीडिया की भूमिका बिल्कुल एकपक्षीय और नकारात्मक है. वह चीजों को सरकार के पक्ष में और एक खास विचारधारा के पक्ष में मोड़ने की पत्रकारिता कर रहा है. यह मीडिया का बहुत ही चिंताजनक पहलू है.
नए साल में मीडिया में बदलाव की उम्मीद
मीडिया किसी शून्य से नहीं आता, यह समाज की पैदाइश है. अगर समाज बदलेगा तो उसका मीडिया भी बदलेगा वरना अगर बहुसंख्यक समाज इसी तरह से धनलोभी बना रहा, इसी तरह सरोकारविहीन बना रहा और इसी तरह खुलकर सांप्रदायिक बना रहा तो मीडिया के लिए भी बदलने की गुंजाइश नहीं रहेगी. जो मीडिया बहुसंख्यकवाद के खिलाफ है, लोग उसे देखते ही नहीं हैं, उसके पास साधन नहीं है.
दूसरी बात यह भी है कि लोगों को मीडिया में बदलाव की उम्मीद को छोड़ना नहीं चाहिए. समाज के किस हिस्से से यह बदलाव की उम्मीद आएगी, इस सवाल पर लगता हैं कि समाज के दलित, पिछड़े, किसान आंदोलन के बीच मोहभंग से उपजे लोग, अल्पसंख्यक, पलायन के बाद के मजदूर और एक बहुत बड़ा हिंदुस्तान बहुत बेचैन हैं. उसका अपना खुद का मीडिया हो सके. वह सब मिलकर एक परस्पर मीडिया बना सकते हैं. ऑनलाइन मीडिया के जमाने में छोटी पूंजी से अब शुरुआत की जा सकती है. जिस दिन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब किसान और मज़दूरों की अभिव्यक्ति इतनी मजबूत हो जाएगी कि वह ऊपर बैठे लोगों को झकझोर सके तो उस दिन से मीडिया बदल जाएगा.
आईटी सेल की चुनौती
ऑनलाइन मीडिया के आ जाने के बाद हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी का सांप्रदायीकरण हो रहा है. इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव आईटी सेल का पड़ा है. राजनीतिक पार्टियों के आईटी सेल ने सोशल मीडिया पर कब्ज़ा जमा लिया है. सोशल मीडिया खासकर व्हाटसएप में तमाम फर्जी तरीके के मैसेज पढ़े और भेजे जाते है. यह मैसेज बेहद ही सरल तरीके के होते हैं लेकिन वह आप को एक विचारधारा की तरफ खींचते हैं.
मीडिया के सामने आईटी सेल एक बहुत बड़ी चुनौती बन गया है क्योंकि जितनी जल्दी झूठ को सोशल मीडिया के जरिए फैलाया जाता है उसके मुकाबले सच्चाई को पहुंचने में काफी देर लग जाती है. जिसके कारण हमने देखा की किसान आंदोलन में किसानों ने अपना खुद का अखबार ट्रॉली टाइम्स आरंभ किया. इस अखबार की शुरुआत इसलिए करनी पड़ी क्योंकि मीडिया में उनके बारे में गलत ख़बरें फैलाई जा रही थी. उनके आंदोलन को खालिस्तानी, माओवादी आदि कहा जा रहा था.
गोदी मीडिया वर्सेस लेफ्ट मीडिया
पत्रकारिता का काम हैं सरकार के खिलाफ खड़ा होना. सरकार अगर कोई अच्छा काम कर रही है तो यह बताना पत्रकारिता का काम नहीं है क्योंकि वह इसी काम के लिए है. जनता ने बेहतर काम करने के लिए ही सरकार को चुना है, और सरकार बेहतर काम करते हुए जनता पर कोई एहसान नहीं कर रही है. अगर सरकार कुछ गड़बड़ कर रही है तो उसे बताने का काम मीडिया का है. इसीलिए मीडिया को वॉचडाग भी कहा गया है. दुर्भाग्य से मीडिया के एक हिस्से ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया इसलिए ‘गोदी मीडिया’ जैसी शब्दावली का उपयोग किया गया और कहीं ना कहीं वह लोग भी खुद इसे सही साबित कर रहे हैं.
इस मीडिया के समानांतर एक मीडिया है जो अपने पत्रकारिता के धर्म को निभा रहा है, अपना काम ईमानदारी से कर रहा है. इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हैं जिसमें प्रमुख नाम है लेफ्ट मीडिया. लेकिन सवाल उठता हैं कि अगर देश में लेफ्ट इतना मजबूत होता तो शायद वह इतना सिकुड़ता नहीं जितना आज वह है. आज किसान आंदोलन को माओवादी, लेफ्ट आंदोलन कहा जा रहा है. सवाल है कि अगर यह लोग इतने मजबूत हैं कि वह इतना बड़ा आंदोलन कर ले रहे हैं तो आखिर इन लोगों की सियासत खत्म क्यों हो रही है? इनका राजनीतिक दायरा इतना सिकुड़ क्यों गया है?
टीवी मीडिया का रेवेन्यू मॉडल
टीवी मीडिया का जो वर्तमान रेवेन्यू मॉडल है उसके लिए एक बड़ी पूंजी चाहिए. उस पूंजी के लिए टीवी मीडिया चाहे सरकार के साथ खड़ा हो या व्यापारिक घरानों के साथ बात एक ही है. भारत जैसे देश में मीडिया का राजस्व मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा है. इस पर बातचीत की जानी चाहिए. लेकिन ऑनलाइन मीडिया के समय में अगर टीवी मीडिया अपने रेवेन्यू मॉडल का उपाय नहीं ढूंढ़ पाई तो वह आप्रसंगिक होने की कगार पर पहुंच जाएगा.
आज के समय में स्वतंत्र मीडिया एक बड़ा मुद्दा है. इस स्वतंत्रता के लिए आप को अपने दर्शकों और पाठकों पर निर्भर होना पड़ेगा. लेकिन टीवी पत्रकारिता में यह मुमकिन नहीं है क्योंकि वहां उसे चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ बड़े व्यापारिक घरानों से या सरकारों से मिल सकती है. लेकिन लगता हैं कि जिस तरह से ऑनलाइन मीडिया अपने पैर पसार रहा है उससे आने वालों दिनो में टीवी मीडिया इस न्यू मीडिया का सहायक बन कर रह जाएगा.
अंत में
साल दर साल सतही पत्रकारिता बढ़ती जा रही है. यह पिछले 10-20 सालों से चली आ रही पत्रकारिता है. यह इस साल की उपजी नई समस्या नहीं है. इसलिए आप की पिछले साल जो पत्रकारिता से शिकायत थी वह इस साल भी बनी रहेगी. सीएए-एनआरसी, शाहीनबाग, दिल्ली दंगा, किसान आंदोलन इन सभी में मीडिया की भूमिका जन विरोधी और जनतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थी. उसकी रिपोर्टिंग एक व्यवस्था के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी, वह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी. मानों किसी की शह पर ऐसी रिपोर्टिंग हो रही हो.
इस तरह की रिपोर्टिंग देश के भयानक सांप्रदायीकरण का मूल कारण है. अगर सौ में से 90 लोग इस तरह की रिपोर्टिंग ना देखना चाहें तो चैनल उस तरह की रिपोर्टिंग नहीं दिखाएगा, क्योंकि अंत में चैनलों को व्यापार करना है. लेकिन अपने आसपास देखने पर हम पाते हैं कि किस तरह से टीवी पत्रकारिता में नकारात्मक मूल्यों को तवज्जो दी जा रही है, जनतांत्रिक आंदोलनों को शक की नज़र से देखा जा रहा है.
राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर दुनिया में सबसे ज्यादा खून बहाया गया है और दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों में भारत में राष्ट्रवाद और धर्म का उन्माद बहुत तेजी से बढ़ाया गया है, जिसके कारण बहुत से लोगों की सोचने की दिशा शून्य हो गई है. देश में समाजिक सांप्रदायीकरण हो चुका है, इसलिए हम टीवी पर जो न्यूज़ रिपोर्टिंग देखते हैं वह सब इसका ही परिणाम है.
(अश्विनी कुमार सिंह से बातचीत के आधार पर)
साल 2020 में टीवी मीडिया का जो रवैया कई मामलों में शर्मनाक रहा, लेकिन वह अचानक इस साल पैदा हुआ रवैया नहीं है. यह पुराने रूप का ही नया विस्तार है. हर चीज को सनसनीखेज बनाकर देखने का काम, हर बहस को बहुत ही सतही तौर पर गिरा देने का काम यह पहले से करता रहा है. हाल के वर्षो में उसके बड़े हिस्से के दक्षिणपंथी रुझान चिंतानजक ढंग से उभरे और कई बार मीडिया बड़ी बेशर्मी में उसे सत्ता के साथ खड़ा हुआ नज़र आया.
इस साल दो-तीन प्रसंग ऐसे रहे जहां मीडिया की भूमिका बहुत संदिग्ध और सवालों से घिरी रही. इसमें सबसे शर्मनाक था सुशांत सिंह राजूपत की ख़ुदकुशी का प्रसंग. इसका मीडिया ने बेशर्मी से दोहन किया. इस काम में इत्तेफ़ाक से सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि सुशांत सिंह का परिवार भी शामिल था और दो-दो राज्य सरकारें (महाराष्ट्र और बिहार) भी शामिल हो गई. इन सब ने मिलकर एक बहुत अच्छे अभिनेता, जिसकी जिस भी परिस्थितियों में मौत हुई हो, की मौत को घटिया राजनीति का मोहरा बना दिया. यह प्रमुखता से मीडिया में स्थान पाती रही, बल्कि कहें कि मीडिया ही उसे अलग-अलग रंग देता रहा.
सुशांत सिंह राजपूत मामले में करीब तीन महीने तक टीवी चैनलों पर हर दिन बहस चलती रही. इन वाकयों ने टीवी पत्रकारिता को मज़ाक बना कर रख दिया. इसका कारण एक और भी हैं कि अब टीवी पत्रकारिता सरोकार से ज्यादा मनोरंजन का मामला हो गया है. दर्शक भी अब यह देखना पसंद करते हैं कि कौन सा टीवी एंकर आज बहस में कितनी ऊंची आवाज में जाकर बात करेगा, वह अपने मेहमानों से कैसे सवाल करेगा? हालांकि यह सब सिर्फ अभी नहीं हो रहा हैं, बल्कि पहले से होता आ रहा है.
दरअसल नकली सनसनी और सवाल मीडिया पिछले कई वर्षों से पेश करता रहा है। जब कुछ नहीं होता तो उत्तर कोरिया के तानाशाह की कहानियां दिखाई जाती हैं- उसके मिसाइलों की कहानियां, पाकिस्तान को चूर-चूर कर देने वाली कहानियां, तबाह हो गया पाकिस्तान, टूट जाएगा पाकिस्तान आदि- आदि. उस समय भी देशभक्ति के उन्माद में तथ्यों को परे रखकर रिपोर्टिंग की जा रही था. यानी टीवी पर चल रहा यह तमाशा नया नहीं है. यह साल भर चलने वाला तमाशा है.
तो सुशांत सिंह राजपूत का मामला इस सिलसिले की कड़ी है जो साल भर अलग-अलग विषयों पर चलता रहता है. दुर्भाग्य से इस तमाशे में इस बार सुशांत का परिवार भी शामिल नज़र आया. उसके पिता और बहनों की भूमिका हैरान करने वाली रही.
इन सब में सबसे शर्मनाक था रिया चक्रवर्ती का मामला जिसे मीडिया विलेन बनाने में लगा रहा. बिना किसी सबूत के, बिना किसी प्रमाण के. उसके खिलाफ लगातार झूठी ख़बरें गढ़ता रहा. असल में यह सिर्फ रिया चक्रवर्ती के खिलाफ नहीं बल्कि आजाद भारतीय लड़की के खिलाफ जो पुरानी मानसिकता बनी हुई है, वह मीडिया में दिखाई पड़ी.
दरअसल मीडिया लगातार सरोकार से सनसनी की ओर बढ़ा है। लोगों को भी यही रास आता है. जो नया उच्च मध्यवर्ग है, वह नहीं चाहता कि उसकी चाय फीकी हो या किसी खबर से उसका डिनर बदज़ायका हो जाए. मध्यवर्गीय परिवारों के पास वास्तविक सरोकारों के लिए अवकाश नहीं है. लोगों को लगता हैं कि एनजीओ में कुछ रुपए दे देने से, फेसबुक और ट्विटर पर लिख देने से उनका सरोकार पूरा हो गया है, उससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं चाहिए.
एकपक्षीय मीडिया रिपोर्टिंग का दूसरा उदाहरण है उत्तर-पूर्व दिल्ली के दंगे. इसमें मीडिया का एक बड़ा धड़ा एकपक्षीय रिपोर्टिंग करता रहा और इस मामले में हो रही पुलिस की जांच पर जितने सवाल खड़े होने चाहिए वह भी मीडिया सही से खड़ा नहीं कर पाया. यह देखने को मिला कि पुलिस ने दंगों की आड़ में सीएए-एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ केस दर्ज कर गिरफ्तार करना शुरू कर दिया. शाहीनबाग आंदोलन को लेकर जो कीचड़ उछालने का काम हुआ वह भी मीडिया का ही एक चेहरा है.
इन सब मामलों के बरक्स हम अचानक पा रहे हैं कि जो जनतांत्रिक आंदोलन हैं, इसमें हम किसान आंदोलन को भी शामिल कर लें, उसके प्रति मीडिया की भूमिका बिल्कुल एकपक्षीय और नकारात्मक है. वह चीजों को सरकार के पक्ष में और एक खास विचारधारा के पक्ष में मोड़ने की पत्रकारिता कर रहा है. यह मीडिया का बहुत ही चिंताजनक पहलू है.
नए साल में मीडिया में बदलाव की उम्मीद
मीडिया किसी शून्य से नहीं आता, यह समाज की पैदाइश है. अगर समाज बदलेगा तो उसका मीडिया भी बदलेगा वरना अगर बहुसंख्यक समाज इसी तरह से धनलोभी बना रहा, इसी तरह सरोकारविहीन बना रहा और इसी तरह खुलकर सांप्रदायिक बना रहा तो मीडिया के लिए भी बदलने की गुंजाइश नहीं रहेगी. जो मीडिया बहुसंख्यकवाद के खिलाफ है, लोग उसे देखते ही नहीं हैं, उसके पास साधन नहीं है.
दूसरी बात यह भी है कि लोगों को मीडिया में बदलाव की उम्मीद को छोड़ना नहीं चाहिए. समाज के किस हिस्से से यह बदलाव की उम्मीद आएगी, इस सवाल पर लगता हैं कि समाज के दलित, पिछड़े, किसान आंदोलन के बीच मोहभंग से उपजे लोग, अल्पसंख्यक, पलायन के बाद के मजदूर और एक बहुत बड़ा हिंदुस्तान बहुत बेचैन हैं. उसका अपना खुद का मीडिया हो सके. वह सब मिलकर एक परस्पर मीडिया बना सकते हैं. ऑनलाइन मीडिया के जमाने में छोटी पूंजी से अब शुरुआत की जा सकती है. जिस दिन दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब किसान और मज़दूरों की अभिव्यक्ति इतनी मजबूत हो जाएगी कि वह ऊपर बैठे लोगों को झकझोर सके तो उस दिन से मीडिया बदल जाएगा.
आईटी सेल की चुनौती
ऑनलाइन मीडिया के आ जाने के बाद हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी का सांप्रदायीकरण हो रहा है. इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव आईटी सेल का पड़ा है. राजनीतिक पार्टियों के आईटी सेल ने सोशल मीडिया पर कब्ज़ा जमा लिया है. सोशल मीडिया खासकर व्हाटसएप में तमाम फर्जी तरीके के मैसेज पढ़े और भेजे जाते है. यह मैसेज बेहद ही सरल तरीके के होते हैं लेकिन वह आप को एक विचारधारा की तरफ खींचते हैं.
मीडिया के सामने आईटी सेल एक बहुत बड़ी चुनौती बन गया है क्योंकि जितनी जल्दी झूठ को सोशल मीडिया के जरिए फैलाया जाता है उसके मुकाबले सच्चाई को पहुंचने में काफी देर लग जाती है. जिसके कारण हमने देखा की किसान आंदोलन में किसानों ने अपना खुद का अखबार ट्रॉली टाइम्स आरंभ किया. इस अखबार की शुरुआत इसलिए करनी पड़ी क्योंकि मीडिया में उनके बारे में गलत ख़बरें फैलाई जा रही थी. उनके आंदोलन को खालिस्तानी, माओवादी आदि कहा जा रहा था.
गोदी मीडिया वर्सेस लेफ्ट मीडिया
पत्रकारिता का काम हैं सरकार के खिलाफ खड़ा होना. सरकार अगर कोई अच्छा काम कर रही है तो यह बताना पत्रकारिता का काम नहीं है क्योंकि वह इसी काम के लिए है. जनता ने बेहतर काम करने के लिए ही सरकार को चुना है, और सरकार बेहतर काम करते हुए जनता पर कोई एहसान नहीं कर रही है. अगर सरकार कुछ गड़बड़ कर रही है तो उसे बताने का काम मीडिया का है. इसीलिए मीडिया को वॉचडाग भी कहा गया है. दुर्भाग्य से मीडिया के एक हिस्से ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया इसलिए ‘गोदी मीडिया’ जैसी शब्दावली का उपयोग किया गया और कहीं ना कहीं वह लोग भी खुद इसे सही साबित कर रहे हैं.
इस मीडिया के समानांतर एक मीडिया है जो अपने पत्रकारिता के धर्म को निभा रहा है, अपना काम ईमानदारी से कर रहा है. इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हैं जिसमें प्रमुख नाम है लेफ्ट मीडिया. लेकिन सवाल उठता हैं कि अगर देश में लेफ्ट इतना मजबूत होता तो शायद वह इतना सिकुड़ता नहीं जितना आज वह है. आज किसान आंदोलन को माओवादी, लेफ्ट आंदोलन कहा जा रहा है. सवाल है कि अगर यह लोग इतने मजबूत हैं कि वह इतना बड़ा आंदोलन कर ले रहे हैं तो आखिर इन लोगों की सियासत खत्म क्यों हो रही है? इनका राजनीतिक दायरा इतना सिकुड़ क्यों गया है?
टीवी मीडिया का रेवेन्यू मॉडल
टीवी मीडिया का जो वर्तमान रेवेन्यू मॉडल है उसके लिए एक बड़ी पूंजी चाहिए. उस पूंजी के लिए टीवी मीडिया चाहे सरकार के साथ खड़ा हो या व्यापारिक घरानों के साथ बात एक ही है. भारत जैसे देश में मीडिया का राजस्व मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा है. इस पर बातचीत की जानी चाहिए. लेकिन ऑनलाइन मीडिया के समय में अगर टीवी मीडिया अपने रेवेन्यू मॉडल का उपाय नहीं ढूंढ़ पाई तो वह आप्रसंगिक होने की कगार पर पहुंच जाएगा.
आज के समय में स्वतंत्र मीडिया एक बड़ा मुद्दा है. इस स्वतंत्रता के लिए आप को अपने दर्शकों और पाठकों पर निर्भर होना पड़ेगा. लेकिन टीवी पत्रकारिता में यह मुमकिन नहीं है क्योंकि वहां उसे चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ बड़े व्यापारिक घरानों से या सरकारों से मिल सकती है. लेकिन लगता हैं कि जिस तरह से ऑनलाइन मीडिया अपने पैर पसार रहा है उससे आने वालों दिनो में टीवी मीडिया इस न्यू मीडिया का सहायक बन कर रह जाएगा.
अंत में
साल दर साल सतही पत्रकारिता बढ़ती जा रही है. यह पिछले 10-20 सालों से चली आ रही पत्रकारिता है. यह इस साल की उपजी नई समस्या नहीं है. इसलिए आप की पिछले साल जो पत्रकारिता से शिकायत थी वह इस साल भी बनी रहेगी. सीएए-एनआरसी, शाहीनबाग, दिल्ली दंगा, किसान आंदोलन इन सभी में मीडिया की भूमिका जन विरोधी और जनतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थी. उसकी रिपोर्टिंग एक व्यवस्था के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी, वह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी. मानों किसी की शह पर ऐसी रिपोर्टिंग हो रही हो.
इस तरह की रिपोर्टिंग देश के भयानक सांप्रदायीकरण का मूल कारण है. अगर सौ में से 90 लोग इस तरह की रिपोर्टिंग ना देखना चाहें तो चैनल उस तरह की रिपोर्टिंग नहीं दिखाएगा, क्योंकि अंत में चैनलों को व्यापार करना है. लेकिन अपने आसपास देखने पर हम पाते हैं कि किस तरह से टीवी पत्रकारिता में नकारात्मक मूल्यों को तवज्जो दी जा रही है, जनतांत्रिक आंदोलनों को शक की नज़र से देखा जा रहा है.
राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर दुनिया में सबसे ज्यादा खून बहाया गया है और दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों में भारत में राष्ट्रवाद और धर्म का उन्माद बहुत तेजी से बढ़ाया गया है, जिसके कारण बहुत से लोगों की सोचने की दिशा शून्य हो गई है. देश में समाजिक सांप्रदायीकरण हो चुका है, इसलिए हम टीवी पर जो न्यूज़ रिपोर्टिंग देखते हैं वह सब इसका ही परिणाम है.
(अश्विनी कुमार सिंह से बातचीत के आधार पर)
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