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सत्ता से नत्थी पत्रकारिता, न्यूजरूम में कत्लेआम और मुनाफाखोरी का साल

यह साल न्यूजरूम में कत्लेआम का साल था. पिछले सौ साल में सबसे बड़ी महामारी की मार के बीच देश के अधिकांश न्यूजरूम में ख़बरों और महामारी की कवरेज से ज्यादा पत्रकारों की छंटनी, तालाबंदी, वेतन/भत्तों में कटौती और बिना वेतन के छुट्टी (फर्लो) पर भेजने की खबरें सामने आईं. हालांकि पत्रकारों की छंटनी की यह प्रक्रिया नई नहीं है और पिछले कुछ सालों से जारी है लेकिन इस महामारी के साल में इसने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. मोटे अनुमानों के मुताबिक इस साल देश भर में हजारों पत्रकारों की नौकरियां चली गईं और जो बच गए, उन पर न सिर्फ अब भी छंटनी की तलवार लटक रही है बल्कि बिना अपवाद उन सभी की तनख्वाहों/भत्तों में 10 से लेकर 40 फीसदी तक की कटौती हो गई है.

देश में इस साल कुल कितने पत्रकारों की नौकरियां गईं हैं, इसका सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है क्योंकि पत्रकारों की भर्ती और छंटनी की प्रक्रिया मीडिया संस्थानों में पारदर्शी नहीं है. मोटी-मोटा अनुमान है कि देश भर में कोई 12 से 15 हजार पत्रकारों की नौकरियां गईं हैं. अधिकांश समाचारकक्षों में 10 से 40 फीसदी पत्रकारों की नौकरियों पर गाज गिरी है. न्यूजरूम में कत्लेआम का आलम यह था कि शायद ही कोई अख़बार, न्यूज चैनल, डिजिटल न्यूज़ प्लेटफार्म बचा हो जहां कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के बीच पत्रकारों की नौकरियां न गईं हों, उनके वेतन/भत्तों में कटौती न हुई हो या उन्हें बिना वेतन के छुट्टी पर न भेजा गया हो.

पिछले कई दशकों में यह पहला ऐसा साल था जब एक साथ इतने अधिक पत्रकारों की नौकरियां गईं हों. यहां तक कि 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भी इतनी नौकरियां नहीं गईं थीं. यही नहीं, इस साल कई छोटे-बड़े अखबार बंद हो गए या उनके कई एडिशन बंद कर दिए गए. कुछ न्यूज चैनल बंद हो गए, कई डिजिटल प्लेटफार्म बंद हो गए, कई अख़बारों/चैनलों के ब्यूरो बंद कर दिए गए या उन्हें छोटा कर दिया गया.

विडम्बना देखिए कि इस दौरान पत्रकारों को ‘कोरोना योद्धा’ बताया जा रहा था और अब तक कोई 50 से ज्यादा पत्रकारों की मौत कोरोना से हो चुकी है. उससे भी बड़ी विडम्बना यह कि न्यूजरूम में यह कत्लेआम तब हो रहा था, जब एक ओर कोरोना महामारी के बढ़ते मामलों और लॉकडाउन के बीच लोग इससे जुड़ी तथ्यपूर्ण ख़बरें जानने के लिए सबसे ज्यादा न्यूज़ चैनल देख रहे थे या न्यूज साइट्स सर्फ़ कर रहे थे और उनकी टीआरपी आसमान छू रही थी. दूसरी ओर, प्रधानमंत्री से लेकर वित्त-गृह-श्रम मंत्रालय तक कारपोरेट और उद्योगपतियों से दया दिखाने और इस मानवीय संकट के समय नौकरियों से न निकालने की अपीलें कर रहे थे.

कारपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने ढूंढ़ा आपदा में अवसर

प्रधानमंत्री की अपील और श्रम मंत्रालय के निर्देशों से भी कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसा लगता है कि कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों को ‘दयालुता’ से ज्यादा अपने मुनाफ़े की चिंता थी. नतीजा, ज्यादातर न्यूज मीडिया कंपनियों ने कोविड-19 की आपदा को अवसर में बदलने में देरी नहीं की. अधिकांश न्यूज मीडिया कंपनियों और संस्थानों ने कोविड के कारण शुरू हुए लॉकडाउन के बाद महीने-दो महीने भी इंतजार नहीं किया. लोगों की नौकरियां जानी शुरू हो गईं.

कई बड़ी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कम्पनियों के उतावलेपन से यह साफ़ था कि वे इस तरह की किसी आपदा के ताक में थीं, जब बिना किसी प्रतिरोध, हिचक या शर्म के बड़ी संख्या में पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा सकें. यह ‘आपदा पूंजीवाद’ का खुला प्रदर्शन था जिसमें संकट के चरम पर जब लोग घबराहट, चिंता और अवसाद में होते हैं, शॉक थेरेपी यानी अचानक और बड़े फैसले के जरिए लोगों को निहायत कड़वी गोली दी जाती है ताकि वे न सिर्फ बिना किसी प्रतिरोध के उसे स्वीकार कर लें बल्कि उसे संकट से निपटने का एकमात्र और उचित तरीका भी मान लें.

कोविड-19 महामारी एक बड़ी और अभूतपूर्व आपदा के रूप में आई जिसका असर राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों पर पड़ा. यह भी सही है कि लम्बे, बिना पर्याप्त तैयारी और सोच-विचार के लगाए गए लॉकडाउन से भारतीय अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण सेक्टर्स लगभग ध्वस्त हो गए जिनमें कई और उद्योगों और सेवाओं के साथ मीडिया और मनोरंजन उद्योग भी शामिल हैं. यह तथ्य है कि दुनिया की अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था भी मंदी की चपेट में है और इस वित्तीय वर्ष के पहले दोनों तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर नकारात्मक रही है.

यह भी सही है कि देश में अर्थव्यवस्था के संकट की सबसे अधिक मार नौकरियों पर पड़ी है और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में लाखों कार्मिकों की नौकरियां गईं हैं. न्यूज मीडिया कंपनियां और संस्थान भी इसके अपवाद नहीं हैं. उनके कारोबार पर भी नकारात्मक असर पड़ा है. लॉकडाउन के दौरान अख़बारों की बिक्री में कई कारणों से भारी गिरावट आई. हालांकि इस दौरान कोविड-19 महामारी से जुड़ी जानकारियों के लिए लोग टीवी न्यूज चैनल खूब देख रहे थे या अख़बारों की साइट्स और दूसरे न्यूज पोर्टल्स के विजिटर्स की संख्या में भारी उछाल दिखाई पड़ा लेकिन उनकी आय के सबसे प्रमुख स्रोत- विज्ञापन लगभग सूख गए.

इससे न्यूज मीडिया कंपनियों का विज्ञापन आय पर आधारित कारोबारी मॉडल संकट में आ गया. विज्ञापनों से होने वाली आय के इस तरह ध्वस्त होने और कोविड-19 महामारी की अनिश्चितता के बीच बड़ी कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों को अपने मुनाफे की चिंता सताने लगी. यह किसी से छुपा नहीं है कि किसी भी और कॉरपोरेट कंपनी की तरह कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भी खुद को सबसे पहले अपने निवेशकों के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह मानती हैं. इन न्यूज़ मीडिया कंपनियों की चिंता और सरोकार में उनके यहां काम करने वाले पत्रकार और कर्मचारी बहुत नीचे आते हैं.

आश्चर्य नहीं कि इस गंभीर संकट के समय इन कंपनियों की चिंता पत्रकारों की नौकरियां बचाने की नहीं थी. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके प्रबंधन ने आर्थिक-वित्तीय संकट से निपटने के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करने या थोड़ा इंतजार करने की जरूरत नहीं समझी. इसके उलट इन कंपनियों ने अपने संस्थानों में पत्रकारों की छंटनी, वेतन/भत्तों में कटौती, बिना वेतन के छुट्टी पर भेजने जैसे फैसले करने में देर नहीं लगाई.

यही नहीं, कई कंपनियों और मीडिया संस्थानों ने पत्रकारों को निकालते हुए उनके साथ सहानुभूति और मानवीयता दिखाने के बजाय बेदर्दी दिखाई. अगर किसी पत्रकार ने थोड़ा भी प्रतिरोध किया या सवाल पूछने की कोशिश की तो उन्हें अपमानित किया गया. कंपनियों के प्रबंधन के आक्रामक व्यवहार और तौर-तरीकों से ऐसा लग रहा था, जैसे महामारी से पैदा हुए संकट ने उन्हें श्रम कानूनों और अनुबंध के नियमों की अनदेखी करने का लाइसेंस दे दिया है.

संकट में नौकरियां नहीं, मुनाफा बचाने पर जोर

लेकिन क्या कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों के पास, सचमुच, इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी और वेतन/भत्तों में कटौती के अलावा और कोई विकल्प नहीं था? क्या न्यूज़ मीडिया कम्पनियां इस संकट के दौरान वित्तीय रूप से इस स्थिति में पहुंच गईं थीं कि इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी नहीं करतीं तो उन्हें इस साल भारी घाटा हो जाता? क्या ये कम्पनियां दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गईं थीं?

तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं? हालांकि कई बड़ी और मंझोली कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां शेयर बाज़ार में लिस्टेड नहीं हैं और उनके इस साल के वित्तीय नतीजे आने में समय लगेगा लेकिन कई बड़ी कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की इस वित्तीय वर्ष (2020-21) की पहली दो तिमाहियों (अप्रैल से जून और जुलाई से सितम्बर, 2020) के नतीजे उपलब्ध हैं. इन पर सरसरी तौर पर निगाह डालने से ऊपर के कई प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे.

उदाहरण के लिए, इस साल सितम्बर में ख़त्म हुई दूसरी तिमाही में जागरण प्रकाशन का टैक्स भुगतान के बाद नेट मुनाफा 26.3 करोड़ रुपये, डीबी कार्प (दैनिक भास्कर समूह) का 28.5 करोड़ रुपये, टीवी टुडे (इंडिया टुडे और आज तक आदि) का 27.4 करोड़ रुपये, टीवी-18 ब्रॉडकास्ट (टीवी 18 समूह) का 20.6 करोड़ रुपये, जी मीडिया (ज़ी न्यूज आदि) का 13.06 करोड़ रुपये और हिंदुस्तान मीडिया (दैनिक हिंदुस्तान) का नेट मुनाफा 4.71 करोड़ रुपये रहा.

यहां तक कि आमतौर पर घाटे में रहने वाले एनडीटीवी को भी सितम्बर में समाप्त हुई तिमाही में 5.29 करोड़ रुपये और जून में खत्म हुई पहली तिमाही में 11.7 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा हुआ था. न्यूज मीडिया कंपनियों में केवल एचटी मीडिया (हिंदुस्तान टाइम्स और मिंट आदि) और बीएज़ी फिल्म्स (न्यूज 24) को ही पहली दोनों तिमाही में घाटा हुआ है.

यह सही है कि इन सभी कंपनियों के मुनाफ़े में पिछले साल की तुलना में गिरावट आई है लेकिन इसे रेखांकित किया जाना चाहिए कि इनमें से किसी को घाटा नहीं हुआ है और न ही कोई दिवालिया होने के कगार पर है. साथ ही, इनमें से कई कंपनियों को पहली और दूसरी तिमाही दोनों में मुनाफा हुआ है जबकि कई को पहली तिमाही में मामूली घाटा लेकिन दूसरी तिमाही में मुनाफा हुआ है. दूसरी बात यह गौर करने वाली है कि इन सभी कंपनियों ने तब मुनाफा कमाया है जब कोविड-19 का सबसे ज्यादा असर था, लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था बिलकुल बैठ गई थी और उसके बाद दूसरी तिमाही में भी जीडीपी की वृद्धि दर नकारात्मक रही.

यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि ज्यादातर बड़ी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कम्पनियों और क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत भाषाई न्यूज मीडिया कम्पनियों की बैलेंसशीट कुछ कमजोरियों और दबावों के बावजूद ऐसी थी कि वे कोविड-19 महामारी और अर्थव्यवस्था के संकट के कारण ध्वस्त हो गए विज्ञापन और सर्कुलेशन राजस्व की वजह से होने वाले नुकसान का बोझ कुछ महीनों तक उठा सकती थीं और संकट के समय में पत्रकारों की नौकरियां बचा सकती थीं. इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा न्यूज मीडिया कंपनियों को वित्तीय वर्ष 2019-20 में पर्याप्त मुनाफा हुआ था.

उदाहरण के लिए, जागरण प्रकाशन का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 262.28 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 219.91 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 266 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 316 करोड़ रुपये था. इसी तरह डीबी कार्प (दैनिक भास्कर समूह) का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 274.88 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 273.93 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 324.46 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 377.31 करोड़ रुपये था. साफ़ है कि हिंदी के दोनों शीर्ष प्रकाशन समूह लगातार मोटा मुनाफा कमा रहे थे. यही नहीं, उनके पास पर्याप्त कैश रिज़र्व भी था.

दूसरी ओर, टीवी न्यूज चैनलों में टीवी टुडे नेटवर्क का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 140.6 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 129.9 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 123.47 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 107.88 करोड़ रुपये था. इसी तरह टीवी-18 ब्रॉडकास्ट (सीएनएन-टीवी 18 समूह) का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 21.76 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 85 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 96.37 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 101.46 करोड़ रुपये था. टीवी कंपनियों के बैलेंसशीट से भी साफ़ है कि उनका धंधा भी अच्छा चल रहा था और वे साल-दर-साल अच्छा मुनाफा कमा रही थीं.

शेयर बाज़ार से बाहर की बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों जैसे बेनेट कोलमैन एंड कंपनी (टाइम्स आफ इंडिया समूह), आनंद बाज़ार पत्रिका समूह, कस्तूरी एंड संस (हिन्दू समूह), अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, लोकमत, इंडियन एक्सप्रेस समूह, मलयाला मनोरमा समूह, डेक्कन हेराल्ड समूह आदि के ताजा वित्तीय नतीजे जानना मुश्किल है क्योंकि उन्हें आने में वक्त लगता है. लेकिन अगर शेयर बाज़ार में लिस्टेड कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की दूसरी तिमाही के नतीजों को कुछ अपवादों और भिन्नता के साथ मोटे तौर पर पूरे न्यूज मीडिया उद्योग के लिए एक ट्रेंड की तरह मान लिया जाए तो इसका अर्थ यह है कि ज्यादातर न्यूज मीडिया कंपनियों को मुनाफे में होना चाहिए.

इसके बावजूद इन सभी कंपनियों ने बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी और बचे पत्रकारों के वेतन/भत्तों में कटौती का फैसला किया. यह इन कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों के कार्मिक खर्च में आई कमी में साफ़ दिखाई देता है. उदाहरण के लिए, जागरण प्रकाशन का कार्मिक खर्च सितम्बर’19 के 82.9 करोड़ रुपये की तुलना में 10 फीसदी घटकर सितम्बर’20 में 74.4 करोड़ रुपये, डीबी कार्प का 103.6 करोड़ रुपये की तुलना में 13 फीसदी घटकर 89.9 करोड़ रुपये, टीवी टुडे का 61.3 करोड़ रुपये की तुलना में 2.6 फीसदी घटकर 59.7 करोड़ रुपये, टीवी-18 ब्रॉडकास्ट का 106.44 करोड़ रुपये की तुलना में 18 फीसदी घटकर 87.29 करोड़ रुपये, एनडीटीवी का 16.4 करोड़ रुपये की तुलना में 23 फीसदी घटकर 12.68 करोड़ रुपये और एचटी मीडिया का 72.25 करोड़ रुपये की तुलना में 37.8 फीसदी घटकर 44.90 करोड़ रुपये रह गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सिर्फ गिनी-चुनी कंपनियों के आंकड़े हैं और दूसरे, इसमें पत्रकारों की तुलना में कहीं ज्यादा ऊंची तनख्वाहें और भत्ते पाने वाले मैनेजरों की तनख्वाहें भी शामिल हैं. लेकिन पत्रकारों की तुलना में मैनेजरों की छंटनी बहुत कम हुई है. यही कारण है कि जितने बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी और वेतन/भत्तों में कटौती हुई है, उसकी तीव्रता ऊपर के आंकड़ों में कार्मिक खर्च में आई कमी में नहीं दिखाई देती है. इसके बावजूद कार्मिक खर्च में आई कमी से साफ़ है कि इन कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए कार्मिक खर्च को घटाने की रणनीति पर जोर दिया जिसकी कीमत हजारों पत्रकारों को चुकानी पड़ी है.

ऐसे में, यह स्वाभाविक सवाल है कि इन बड़ी और मुनाफ़े में चलने वाली कंपनियों ने कोविड-19 महामारी के बीच सैकड़ों पत्रकारों को नौकरियों से निकालने का फैसला सिर्फ इसलिए किया ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे? क्या ये कम्पनियां इतने बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी और उनके वेतन/भत्तों का बोझ कम नहीं करतीं तो डूब जातीं या उनका मुनाफा कुछ कम हो जाता? क्या इन कंपनियों ने इन पत्रकारों की छंटनी करते हुए इसका आकलन किया कि इसका उनके अखबारों/न्यूज चैनलों/न्यूज पोर्टल्स के संपादन, रिपोर्टिंग और उनकी पत्रकारीय गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा?

यह पार्ट-1 है, अगला पार्ट जल्द ही प्रकाशित किया जाएगा.

यह साल न्यूजरूम में कत्लेआम का साल था. पिछले सौ साल में सबसे बड़ी महामारी की मार के बीच देश के अधिकांश न्यूजरूम में ख़बरों और महामारी की कवरेज से ज्यादा पत्रकारों की छंटनी, तालाबंदी, वेतन/भत्तों में कटौती और बिना वेतन के छुट्टी (फर्लो) पर भेजने की खबरें सामने आईं. हालांकि पत्रकारों की छंटनी की यह प्रक्रिया नई नहीं है और पिछले कुछ सालों से जारी है लेकिन इस महामारी के साल में इसने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. मोटे अनुमानों के मुताबिक इस साल देश भर में हजारों पत्रकारों की नौकरियां चली गईं और जो बच गए, उन पर न सिर्फ अब भी छंटनी की तलवार लटक रही है बल्कि बिना अपवाद उन सभी की तनख्वाहों/भत्तों में 10 से लेकर 40 फीसदी तक की कटौती हो गई है.

देश में इस साल कुल कितने पत्रकारों की नौकरियां गईं हैं, इसका सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है क्योंकि पत्रकारों की भर्ती और छंटनी की प्रक्रिया मीडिया संस्थानों में पारदर्शी नहीं है. मोटी-मोटा अनुमान है कि देश भर में कोई 12 से 15 हजार पत्रकारों की नौकरियां गईं हैं. अधिकांश समाचारकक्षों में 10 से 40 फीसदी पत्रकारों की नौकरियों पर गाज गिरी है. न्यूजरूम में कत्लेआम का आलम यह था कि शायद ही कोई अख़बार, न्यूज चैनल, डिजिटल न्यूज़ प्लेटफार्म बचा हो जहां कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के बीच पत्रकारों की नौकरियां न गईं हों, उनके वेतन/भत्तों में कटौती न हुई हो या उन्हें बिना वेतन के छुट्टी पर न भेजा गया हो.

पिछले कई दशकों में यह पहला ऐसा साल था जब एक साथ इतने अधिक पत्रकारों की नौकरियां गईं हों. यहां तक कि 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भी इतनी नौकरियां नहीं गईं थीं. यही नहीं, इस साल कई छोटे-बड़े अखबार बंद हो गए या उनके कई एडिशन बंद कर दिए गए. कुछ न्यूज चैनल बंद हो गए, कई डिजिटल प्लेटफार्म बंद हो गए, कई अख़बारों/चैनलों के ब्यूरो बंद कर दिए गए या उन्हें छोटा कर दिया गया.

विडम्बना देखिए कि इस दौरान पत्रकारों को ‘कोरोना योद्धा’ बताया जा रहा था और अब तक कोई 50 से ज्यादा पत्रकारों की मौत कोरोना से हो चुकी है. उससे भी बड़ी विडम्बना यह कि न्यूजरूम में यह कत्लेआम तब हो रहा था, जब एक ओर कोरोना महामारी के बढ़ते मामलों और लॉकडाउन के बीच लोग इससे जुड़ी तथ्यपूर्ण ख़बरें जानने के लिए सबसे ज्यादा न्यूज़ चैनल देख रहे थे या न्यूज साइट्स सर्फ़ कर रहे थे और उनकी टीआरपी आसमान छू रही थी. दूसरी ओर, प्रधानमंत्री से लेकर वित्त-गृह-श्रम मंत्रालय तक कारपोरेट और उद्योगपतियों से दया दिखाने और इस मानवीय संकट के समय नौकरियों से न निकालने की अपीलें कर रहे थे.

कारपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने ढूंढ़ा आपदा में अवसर

प्रधानमंत्री की अपील और श्रम मंत्रालय के निर्देशों से भी कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसा लगता है कि कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों को ‘दयालुता’ से ज्यादा अपने मुनाफ़े की चिंता थी. नतीजा, ज्यादातर न्यूज मीडिया कंपनियों ने कोविड-19 की आपदा को अवसर में बदलने में देरी नहीं की. अधिकांश न्यूज मीडिया कंपनियों और संस्थानों ने कोविड के कारण शुरू हुए लॉकडाउन के बाद महीने-दो महीने भी इंतजार नहीं किया. लोगों की नौकरियां जानी शुरू हो गईं.

कई बड़ी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कम्पनियों के उतावलेपन से यह साफ़ था कि वे इस तरह की किसी आपदा के ताक में थीं, जब बिना किसी प्रतिरोध, हिचक या शर्म के बड़ी संख्या में पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा सकें. यह ‘आपदा पूंजीवाद’ का खुला प्रदर्शन था जिसमें संकट के चरम पर जब लोग घबराहट, चिंता और अवसाद में होते हैं, शॉक थेरेपी यानी अचानक और बड़े फैसले के जरिए लोगों को निहायत कड़वी गोली दी जाती है ताकि वे न सिर्फ बिना किसी प्रतिरोध के उसे स्वीकार कर लें बल्कि उसे संकट से निपटने का एकमात्र और उचित तरीका भी मान लें.

कोविड-19 महामारी एक बड़ी और अभूतपूर्व आपदा के रूप में आई जिसका असर राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों पर पड़ा. यह भी सही है कि लम्बे, बिना पर्याप्त तैयारी और सोच-विचार के लगाए गए लॉकडाउन से भारतीय अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण सेक्टर्स लगभग ध्वस्त हो गए जिनमें कई और उद्योगों और सेवाओं के साथ मीडिया और मनोरंजन उद्योग भी शामिल हैं. यह तथ्य है कि दुनिया की अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था भी मंदी की चपेट में है और इस वित्तीय वर्ष के पहले दोनों तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर नकारात्मक रही है.

यह भी सही है कि देश में अर्थव्यवस्था के संकट की सबसे अधिक मार नौकरियों पर पड़ी है और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में लाखों कार्मिकों की नौकरियां गईं हैं. न्यूज मीडिया कंपनियां और संस्थान भी इसके अपवाद नहीं हैं. उनके कारोबार पर भी नकारात्मक असर पड़ा है. लॉकडाउन के दौरान अख़बारों की बिक्री में कई कारणों से भारी गिरावट आई. हालांकि इस दौरान कोविड-19 महामारी से जुड़ी जानकारियों के लिए लोग टीवी न्यूज चैनल खूब देख रहे थे या अख़बारों की साइट्स और दूसरे न्यूज पोर्टल्स के विजिटर्स की संख्या में भारी उछाल दिखाई पड़ा लेकिन उनकी आय के सबसे प्रमुख स्रोत- विज्ञापन लगभग सूख गए.

इससे न्यूज मीडिया कंपनियों का विज्ञापन आय पर आधारित कारोबारी मॉडल संकट में आ गया. विज्ञापनों से होने वाली आय के इस तरह ध्वस्त होने और कोविड-19 महामारी की अनिश्चितता के बीच बड़ी कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों को अपने मुनाफे की चिंता सताने लगी. यह किसी से छुपा नहीं है कि किसी भी और कॉरपोरेट कंपनी की तरह कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां भी खुद को सबसे पहले अपने निवेशकों के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह मानती हैं. इन न्यूज़ मीडिया कंपनियों की चिंता और सरोकार में उनके यहां काम करने वाले पत्रकार और कर्मचारी बहुत नीचे आते हैं.

आश्चर्य नहीं कि इस गंभीर संकट के समय इन कंपनियों की चिंता पत्रकारों की नौकरियां बचाने की नहीं थी. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके प्रबंधन ने आर्थिक-वित्तीय संकट से निपटने के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करने या थोड़ा इंतजार करने की जरूरत नहीं समझी. इसके उलट इन कंपनियों ने अपने संस्थानों में पत्रकारों की छंटनी, वेतन/भत्तों में कटौती, बिना वेतन के छुट्टी पर भेजने जैसे फैसले करने में देर नहीं लगाई.

यही नहीं, कई कंपनियों और मीडिया संस्थानों ने पत्रकारों को निकालते हुए उनके साथ सहानुभूति और मानवीयता दिखाने के बजाय बेदर्दी दिखाई. अगर किसी पत्रकार ने थोड़ा भी प्रतिरोध किया या सवाल पूछने की कोशिश की तो उन्हें अपमानित किया गया. कंपनियों के प्रबंधन के आक्रामक व्यवहार और तौर-तरीकों से ऐसा लग रहा था, जैसे महामारी से पैदा हुए संकट ने उन्हें श्रम कानूनों और अनुबंध के नियमों की अनदेखी करने का लाइसेंस दे दिया है.

संकट में नौकरियां नहीं, मुनाफा बचाने पर जोर

लेकिन क्या कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों के पास, सचमुच, इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी और वेतन/भत्तों में कटौती के अलावा और कोई विकल्प नहीं था? क्या न्यूज़ मीडिया कम्पनियां इस संकट के दौरान वित्तीय रूप से इस स्थिति में पहुंच गईं थीं कि इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी नहीं करतीं तो उन्हें इस साल भारी घाटा हो जाता? क्या ये कम्पनियां दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गईं थीं?

तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं? हालांकि कई बड़ी और मंझोली कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कम्पनियां शेयर बाज़ार में लिस्टेड नहीं हैं और उनके इस साल के वित्तीय नतीजे आने में समय लगेगा लेकिन कई बड़ी कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की इस वित्तीय वर्ष (2020-21) की पहली दो तिमाहियों (अप्रैल से जून और जुलाई से सितम्बर, 2020) के नतीजे उपलब्ध हैं. इन पर सरसरी तौर पर निगाह डालने से ऊपर के कई प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे.

उदाहरण के लिए, इस साल सितम्बर में ख़त्म हुई दूसरी तिमाही में जागरण प्रकाशन का टैक्स भुगतान के बाद नेट मुनाफा 26.3 करोड़ रुपये, डीबी कार्प (दैनिक भास्कर समूह) का 28.5 करोड़ रुपये, टीवी टुडे (इंडिया टुडे और आज तक आदि) का 27.4 करोड़ रुपये, टीवी-18 ब्रॉडकास्ट (टीवी 18 समूह) का 20.6 करोड़ रुपये, जी मीडिया (ज़ी न्यूज आदि) का 13.06 करोड़ रुपये और हिंदुस्तान मीडिया (दैनिक हिंदुस्तान) का नेट मुनाफा 4.71 करोड़ रुपये रहा.

यहां तक कि आमतौर पर घाटे में रहने वाले एनडीटीवी को भी सितम्बर में समाप्त हुई तिमाही में 5.29 करोड़ रुपये और जून में खत्म हुई पहली तिमाही में 11.7 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा हुआ था. न्यूज मीडिया कंपनियों में केवल एचटी मीडिया (हिंदुस्तान टाइम्स और मिंट आदि) और बीएज़ी फिल्म्स (न्यूज 24) को ही पहली दोनों तिमाही में घाटा हुआ है.

यह सही है कि इन सभी कंपनियों के मुनाफ़े में पिछले साल की तुलना में गिरावट आई है लेकिन इसे रेखांकित किया जाना चाहिए कि इनमें से किसी को घाटा नहीं हुआ है और न ही कोई दिवालिया होने के कगार पर है. साथ ही, इनमें से कई कंपनियों को पहली और दूसरी तिमाही दोनों में मुनाफा हुआ है जबकि कई को पहली तिमाही में मामूली घाटा लेकिन दूसरी तिमाही में मुनाफा हुआ है. दूसरी बात यह गौर करने वाली है कि इन सभी कंपनियों ने तब मुनाफा कमाया है जब कोविड-19 का सबसे ज्यादा असर था, लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था बिलकुल बैठ गई थी और उसके बाद दूसरी तिमाही में भी जीडीपी की वृद्धि दर नकारात्मक रही.

यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि ज्यादातर बड़ी कॉरपोरेट न्यूज़ मीडिया कम्पनियों और क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत भाषाई न्यूज मीडिया कम्पनियों की बैलेंसशीट कुछ कमजोरियों और दबावों के बावजूद ऐसी थी कि वे कोविड-19 महामारी और अर्थव्यवस्था के संकट के कारण ध्वस्त हो गए विज्ञापन और सर्कुलेशन राजस्व की वजह से होने वाले नुकसान का बोझ कुछ महीनों तक उठा सकती थीं और संकट के समय में पत्रकारों की नौकरियां बचा सकती थीं. इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा न्यूज मीडिया कंपनियों को वित्तीय वर्ष 2019-20 में पर्याप्त मुनाफा हुआ था.

उदाहरण के लिए, जागरण प्रकाशन का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 262.28 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 219.91 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 266 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 316 करोड़ रुपये था. इसी तरह डीबी कार्प (दैनिक भास्कर समूह) का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 274.88 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 273.93 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 324.46 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 377.31 करोड़ रुपये था. साफ़ है कि हिंदी के दोनों शीर्ष प्रकाशन समूह लगातार मोटा मुनाफा कमा रहे थे. यही नहीं, उनके पास पर्याप्त कैश रिज़र्व भी था.

दूसरी ओर, टीवी न्यूज चैनलों में टीवी टुडे नेटवर्क का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 140.6 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 129.9 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 123.47 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 107.88 करोड़ रुपये था. इसी तरह टीवी-18 ब्रॉडकास्ट (सीएनएन-टीवी 18 समूह) का वर्ष 19-20 में टैक्स के बाद शुद्ध मुनाफा 21.76 करोड़ रुपये, वर्ष 18-19 में 85 करोड़ रुपये, वर्ष 17-18 में 96.37 करोड़ रुपये, वर्ष 16-17 में 101.46 करोड़ रुपये था. टीवी कंपनियों के बैलेंसशीट से भी साफ़ है कि उनका धंधा भी अच्छा चल रहा था और वे साल-दर-साल अच्छा मुनाफा कमा रही थीं.

शेयर बाज़ार से बाहर की बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों जैसे बेनेट कोलमैन एंड कंपनी (टाइम्स आफ इंडिया समूह), आनंद बाज़ार पत्रिका समूह, कस्तूरी एंड संस (हिन्दू समूह), अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, लोकमत, इंडियन एक्सप्रेस समूह, मलयाला मनोरमा समूह, डेक्कन हेराल्ड समूह आदि के ताजा वित्तीय नतीजे जानना मुश्किल है क्योंकि उन्हें आने में वक्त लगता है. लेकिन अगर शेयर बाज़ार में लिस्टेड कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों की दूसरी तिमाही के नतीजों को कुछ अपवादों और भिन्नता के साथ मोटे तौर पर पूरे न्यूज मीडिया उद्योग के लिए एक ट्रेंड की तरह मान लिया जाए तो इसका अर्थ यह है कि ज्यादातर न्यूज मीडिया कंपनियों को मुनाफे में होना चाहिए.

इसके बावजूद इन सभी कंपनियों ने बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी और बचे पत्रकारों के वेतन/भत्तों में कटौती का फैसला किया. यह इन कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों के कार्मिक खर्च में आई कमी में साफ़ दिखाई देता है. उदाहरण के लिए, जागरण प्रकाशन का कार्मिक खर्च सितम्बर’19 के 82.9 करोड़ रुपये की तुलना में 10 फीसदी घटकर सितम्बर’20 में 74.4 करोड़ रुपये, डीबी कार्प का 103.6 करोड़ रुपये की तुलना में 13 फीसदी घटकर 89.9 करोड़ रुपये, टीवी टुडे का 61.3 करोड़ रुपये की तुलना में 2.6 फीसदी घटकर 59.7 करोड़ रुपये, टीवी-18 ब्रॉडकास्ट का 106.44 करोड़ रुपये की तुलना में 18 फीसदी घटकर 87.29 करोड़ रुपये, एनडीटीवी का 16.4 करोड़ रुपये की तुलना में 23 फीसदी घटकर 12.68 करोड़ रुपये और एचटी मीडिया का 72.25 करोड़ रुपये की तुलना में 37.8 फीसदी घटकर 44.90 करोड़ रुपये रह गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सिर्फ गिनी-चुनी कंपनियों के आंकड़े हैं और दूसरे, इसमें पत्रकारों की तुलना में कहीं ज्यादा ऊंची तनख्वाहें और भत्ते पाने वाले मैनेजरों की तनख्वाहें भी शामिल हैं. लेकिन पत्रकारों की तुलना में मैनेजरों की छंटनी बहुत कम हुई है. यही कारण है कि जितने बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी और वेतन/भत्तों में कटौती हुई है, उसकी तीव्रता ऊपर के आंकड़ों में कार्मिक खर्च में आई कमी में नहीं दिखाई देती है. इसके बावजूद कार्मिक खर्च में आई कमी से साफ़ है कि इन कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए कार्मिक खर्च को घटाने की रणनीति पर जोर दिया जिसकी कीमत हजारों पत्रकारों को चुकानी पड़ी है.

ऐसे में, यह स्वाभाविक सवाल है कि इन बड़ी और मुनाफ़े में चलने वाली कंपनियों ने कोविड-19 महामारी के बीच सैकड़ों पत्रकारों को नौकरियों से निकालने का फैसला सिर्फ इसलिए किया ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे? क्या ये कम्पनियां इतने बड़े पैमाने पर पत्रकारों की छंटनी और उनके वेतन/भत्तों का बोझ कम नहीं करतीं तो डूब जातीं या उनका मुनाफा कुछ कम हो जाता? क्या इन कंपनियों ने इन पत्रकारों की छंटनी करते हुए इसका आकलन किया कि इसका उनके अखबारों/न्यूज चैनलों/न्यूज पोर्टल्स के संपादन, रिपोर्टिंग और उनकी पत्रकारीय गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा?

यह पार्ट-1 है, अगला पार्ट जल्द ही प्रकाशित किया जाएगा.