Book Review

पुस्तक समीक्षा: 'संघम् शरणम् गच्छामि- आरएसएस के सफर का एक ईमानादार दस्तावेज़'

चर्चित पत्रकार विजय त्रिवेदी की हाल ही में किताब आई है — "संघम् शरणम् गच्छामि- आरएसएस के सफर का एक ईमानादार दस्तावेज़." इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है, आरएसएस की पृष्ठभूमि के भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा भारत सरकार में मंत्री नितिन गडकरी ने.

यह 13 अध्यायों में वर्गीकृत छोटे-बड़े आख्यानों से बनी 437 पन्नों की किताब है, इस किताब में लेखक, संघ की विचारधारा को पर्याय मानकर राजनीति और विचारधारा के बीच के अंतर्संबंधों से जुड़े हुए प्रचलित प्रश्नों से शुरू करते हैं, इसी क्रम के मध्य में राम मंदिर के निर्माण, और आखिरी के हिस्से में आरएसएस की कार्यशैली में आये हुए परिवर्तनों की जबरदस्त तरीके से पड़ताल करते हैं.

यहां इस बात का उल्लेख इसलिए आवश्यक है, क्योंकि संघ के 95 साल पूरे होते समय भी बार–बार यह सवाल पूछा जाता है कि,

क्या संघ बदल रहा है?

क्या संघ वक्त के साथ बदलाव के लिए तैयार है?

क्या संघ फ्लेक्सिबल संगठन है या कट्टरपंथी संगठन है?

विजय त्रिवेदी इन “अनेकडॉट्स” का जिक्र भर करते हुए उसके बिना पर जो वितान रचते हैं, जो वैचारिक दस्तावेज हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, विमर्शों की जिन दरिया में हमें उतारते हैं, वह आज के समय की जरूरत है. एक ख़ास पहलू जो इस किताब को अलग महत्व देता है, वह है लेखक के स्पष्ट विचार. लेखक समावेशी है लेकिन वह कहीं भी गलत को गलत कहने से हिचकता नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. एक संगठन के रूप में आरएसएस के द्वारा इन सवालों के ठोस जवाब देने की कभी कोशिश भी नहीं की गयी, यही कारण है कि, एक समेकित विमर्श में हमेशा उसे संदेह की नज़र से ही देखा गया है. और यह अनायास नहीं है, इसके पीछे कई प्रत्यक्ष कारण भी हैं, यथा,

महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी?

"हिंदू राष्ट्र" वाक्यांश का उपयोग संघ परिवार और उसके अनुयायियों द्वारा किया जाता है, तो इसके वास्तविक मायने क्या हैं ?

हिन्दू दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को लेकर संघ की अस्पष्ट निति?

देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना?

और लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश?

ये कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं जो संघ के समक्ष अपने जन्मकाल से ही जुड़े हुए हैं. यह पुस्तक, आरएसएस के अब तक के पूरे सफर के तथाकथित मील के पत्थरों को बताते हुए, एक ‘विचारधारा’ की ऐतिहासिकता का आभास देता हुआ आख्यान है.

किताब कि शरुआत में ही, लेखक बहुत बारीकी से बताते हैं कि, 1925 में डॉ. हेडगेवार ने भारत को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखने के सपने के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी थी. यह निर्विवाद है कि कैसे, हिन्दुत्व में राष्ट्रवाद के मेल ने सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लंबे सफ़र को आसान किया. इसमें नेता नहीं, विचारधारा महत्वपूर्ण है. संघ को सिर्फ़ शाखा के रास्ते समझना “पंचतंत्र के हाथी” को एक तरफ से महसूस करना भर है. ऐसा दवा किया जाता है कि, संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है. लेखक ने भी कमाल यह किया है कि शिल्प से शुरू की हुई बात कब कथ्य का रूप ले लेती है यह पता आपको तब चलता है जब आप एक से दूसरे और अन्य अध्याय पर पहुंचते हैं.

लेखक हमें आंकड़ों के माध्यम से बताते हैं कि, संघ के आज करीब 1,75,000 प्रकल्प और 60,000 से ज़्यादा शाखाएं चलती हैं. देश के बाहर 40 से अधिक देशों में उसके संगठन हैं. 95 वर्षों की अपनी यात्रा में संघ, उपेक्षा और विरोध की स्थितियों को पार कर अब क्रमशः स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है. लोगों में संघ को लेकर न केवल नज़रिया बदला है बल्कि उसमें शामिल होने वालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है.

विजय त्रिवेदी ने, अपने गहन शोध से किताब में आरएसएस के मुलभूत अवयवों से जुड़ी हुई साक्ष्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का सफलता पूर्वक प्रयास किया है. किताब में, लेखक संघ की विचारधारा, उसके संविधान, अबतक के सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बड़े ही विस्तार से समझने का काम किया है.

आरएसएस “फीनिक्स” पक्षी की तरह है. विजय बहुत सरलता से हमें बताते हैं, किसी भी संगठन के लिए करीब 100 साल का सफर अहम होता है. एक जमाने तक आरएसएस पर रायसीना हिल से एक बार नहीं तीन-तीन बार पाबंदी लगी है. लेकिन वक्त का पहिया घूमा, समय चक्र तेजी से चल रहा था. आज संघ के लोग रायसीना हिल पर काबिज़ हैं.

आज आरएसएस कोई हाशिये का संगठन नहीं बल्कि भारत की सत्ता को नियंत्रित करने वाला संगठन है. राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री और दर्जनों मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और कई महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनकी राजनीतिक और सामाजिक कार्यों की ट्रेनिंग संघ में हुई. वर्तमान राजनीतिक परिदृदश्य में हम इस पूरे विमर्श को देखेंगे तो हमें आरएसएस के उत्कर्ष के ठोस कारण का भी पता चलता है. कांग्रेस के कमज़ोर होने, समाजवादियों में परिवारवाद का वर्चस्व और लेफ्ट के लगभग गायब होने से राजनीति के क्षेत्र में जो खालीपन आया, वैक्यूम बना, संघ ने उसे भर दिया है.

करीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है?

इस किताब के माध्यम से विजय हमें बताते हैं कि कैसे, संघ यह मानता है कि, परिवर्तन ही स्थायी है. अब ज़िन्दगी का शायद ही कोई पहलू हो जिसे संघ नहीं छूता. बदलते वक़्त के साथ संघ ने सिर्फ़ अपना गणवेश ही नहीं बदला, नज़रिए को भी व्यापक बनाया है. और शायद यही कारण है कि, तीन-तीन बार सरकार के प्रतिबंधों के बाद भी उसे ख़त्म नहीं किया जा सका, बल्कि उसका सतत विस्तार हुआ.

इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है. संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है. संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं.

इस किताब में तथ्यों के साथ, लेखक हमें अवगत करवाते हैं कि कैसे आरएसएस में बदलाव को चुनौती की तरह लेने का हिम्मत भरा काम सबसे पहले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने किया था. अब आरएसएस को एक रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता है, उसने अपने दरवाज़े खोले हैं, ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह हो गया है. संघ अब अपने विरोधियों को तो स्पष्ट तौर पर जवाब देता ही है, अपने कार्यक्रमों और विचारों को भी सार्वजनिक तौर पर रखने में उसे हिचकिचाहट नहीं होती.

इसी क्रम में विजय हमें बताते हैं कि, कैसे संघ ने समाज के बदलावों को समझा है और उनके साथ चलने की कोशिश की है. जो लोग संघ को पुरातनपंथी संगठन समझते हैं उन्होंने उसके सफ़र और बदलावों को गहराई से समझने का प्रयास नहीं किया है. समय के साथ यहां तक कि समाज में परिवार के स्तर और सामाजिक स्तर पर हुए बदलावों को संघ ने स्वीकार किया है.

विजय त्रिवेदी ने बहुत स्पष्टता के साथ आरएसएस की कार्यशैली में आये बदलावों को हमारे सामने रखा है.

संघ औरत और पुरुष को परिवार में बराबरी के हक के पक्ष में है और महिलाओं के योगदान को कम नहीं आंकता. संघ पारिवारिक हिंसा और महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ है.

संघ अंतरजातीय विवाहों के पक्ष में है लेकिन फिलहाल ‘लिव–इन-रिलेशनशिप’ के विरोध में खड़ा दिखाई देता है.

ट्रांसजेंडर यानी किन्नरों के साथ सामाजिक भेदभाव के खिलाफ है.

अब संघ ने नया कार्यक्रम पर्यावरण और जल संकट को लेकर शुरू किया है, इस वक्त संघ के प्रमुख एजेंडे में ग्राम विकास है.

आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेज़ी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी उसने समझा है. इक्कीसवीं सदी के हिसाब से आरएसएस ने ना केवल खुद के स्वरूप को बदला है बल्कि अपने कार्यक्रमों और मुद्दों के फोकस में भी बदलाव किया है. लेखक अपने भाषा शिल्प और पत्रकरिता के अनुभव से बताते हैं कि, किस प्रकार से आरएसएस ने पिछले 25 सालों में अपने सहयोगी संगठनों के विस्तार पर काम किया, साथ ही कोशिश की है कि इन संगठनों का काम ना केवल सामाजिक कार्य और सेवा हो बल्कि उनका असर सरकारों के नीतिगत फैसलों पर भी पड़े और सरकारें इसके लिए ज़रूरी बदलाव करें. हर संगठन अपने क्षेत्र के काम के लिए राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है. इस प्रकार का विकास, भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना सही है, यह एक अलग विमर्श का विषय है.

लेखक विजय त्रिवेदी ने इस किताब में संघ की यात्रा के माध्यम से वह भारतीय राजनीति के कुछ अनकहे क़िस्सों की परतें भी उघाड़ते हैं. संघ के लगभग सभी पहलुओं को छूने वाली यह किताब न सिर्फ़ अतीत का दस्तावेज़ है, बल्कि भविष्य का संकेत भी है.

संघम् शरणम् गच्छामि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कई मायनों में एक संपूर्ण किताब है जो उसके समर्थकों के साथ-साथ उसके आलोचकों को भी पढ़नी चाहिए, क्योंकि हकीकत यह है कि आप संघ को पसंद कर सकते हैं या फिर नापसंद, लेकिन उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है.

प्रकाशक : वेस्टलैंड एका

भाषा : हिंदी

पृष्ठ : 437

मूल्य : 599

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यह 13 अध्यायों में वर्गीकृत छोटे-बड़े आख्यानों से बनी 437 पन्नों की किताब है, इस किताब में लेखक, संघ की विचारधारा को पर्याय मानकर राजनीति और विचारधारा के बीच के अंतर्संबंधों से जुड़े हुए प्रचलित प्रश्नों से शुरू करते हैं, इसी क्रम के मध्य में राम मंदिर के निर्माण, और आखिरी के हिस्से में आरएसएस की कार्यशैली में आये हुए परिवर्तनों की जबरदस्त तरीके से पड़ताल करते हैं.

यहां इस बात का उल्लेख इसलिए आवश्यक है, क्योंकि संघ के 95 साल पूरे होते समय भी बार–बार यह सवाल पूछा जाता है कि,

क्या संघ बदल रहा है?

क्या संघ वक्त के साथ बदलाव के लिए तैयार है?

क्या संघ फ्लेक्सिबल संगठन है या कट्टरपंथी संगठन है?

विजय त्रिवेदी इन “अनेकडॉट्स” का जिक्र भर करते हुए उसके बिना पर जो वितान रचते हैं, जो वैचारिक दस्तावेज हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, विमर्शों की जिन दरिया में हमें उतारते हैं, वह आज के समय की जरूरत है. एक ख़ास पहलू जो इस किताब को अलग महत्व देता है, वह है लेखक के स्पष्ट विचार. लेखक समावेशी है लेकिन वह कहीं भी गलत को गलत कहने से हिचकता नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. एक संगठन के रूप में आरएसएस के द्वारा इन सवालों के ठोस जवाब देने की कभी कोशिश भी नहीं की गयी, यही कारण है कि, एक समेकित विमर्श में हमेशा उसे संदेह की नज़र से ही देखा गया है. और यह अनायास नहीं है, इसके पीछे कई प्रत्यक्ष कारण भी हैं, यथा,

महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी?

"हिंदू राष्ट्र" वाक्यांश का उपयोग संघ परिवार और उसके अनुयायियों द्वारा किया जाता है, तो इसके वास्तविक मायने क्या हैं ?

हिन्दू दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को लेकर संघ की अस्पष्ट निति?

देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना?

और लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश?

ये कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं जो संघ के समक्ष अपने जन्मकाल से ही जुड़े हुए हैं. यह पुस्तक, आरएसएस के अब तक के पूरे सफर के तथाकथित मील के पत्थरों को बताते हुए, एक ‘विचारधारा’ की ऐतिहासिकता का आभास देता हुआ आख्यान है.

किताब कि शरुआत में ही, लेखक बहुत बारीकी से बताते हैं कि, 1925 में डॉ. हेडगेवार ने भारत को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखने के सपने के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी थी. यह निर्विवाद है कि कैसे, हिन्दुत्व में राष्ट्रवाद के मेल ने सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लंबे सफ़र को आसान किया. इसमें नेता नहीं, विचारधारा महत्वपूर्ण है. संघ को सिर्फ़ शाखा के रास्ते समझना “पंचतंत्र के हाथी” को एक तरफ से महसूस करना भर है. ऐसा दवा किया जाता है कि, संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है. लेखक ने भी कमाल यह किया है कि शिल्प से शुरू की हुई बात कब कथ्य का रूप ले लेती है यह पता आपको तब चलता है जब आप एक से दूसरे और अन्य अध्याय पर पहुंचते हैं.

लेखक हमें आंकड़ों के माध्यम से बताते हैं कि, संघ के आज करीब 1,75,000 प्रकल्प और 60,000 से ज़्यादा शाखाएं चलती हैं. देश के बाहर 40 से अधिक देशों में उसके संगठन हैं. 95 वर्षों की अपनी यात्रा में संघ, उपेक्षा और विरोध की स्थितियों को पार कर अब क्रमशः स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है. लोगों में संघ को लेकर न केवल नज़रिया बदला है बल्कि उसमें शामिल होने वालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है.

विजय त्रिवेदी ने, अपने गहन शोध से किताब में आरएसएस के मुलभूत अवयवों से जुड़ी हुई साक्ष्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का सफलता पूर्वक प्रयास किया है. किताब में, लेखक संघ की विचारधारा, उसके संविधान, अबतक के सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बड़े ही विस्तार से समझने का काम किया है.

आरएसएस “फीनिक्स” पक्षी की तरह है. विजय बहुत सरलता से हमें बताते हैं, किसी भी संगठन के लिए करीब 100 साल का सफर अहम होता है. एक जमाने तक आरएसएस पर रायसीना हिल से एक बार नहीं तीन-तीन बार पाबंदी लगी है. लेकिन वक्त का पहिया घूमा, समय चक्र तेजी से चल रहा था. आज संघ के लोग रायसीना हिल पर काबिज़ हैं.

आज आरएसएस कोई हाशिये का संगठन नहीं बल्कि भारत की सत्ता को नियंत्रित करने वाला संगठन है. राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री और दर्जनों मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और कई महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनकी राजनीतिक और सामाजिक कार्यों की ट्रेनिंग संघ में हुई. वर्तमान राजनीतिक परिदृदश्य में हम इस पूरे विमर्श को देखेंगे तो हमें आरएसएस के उत्कर्ष के ठोस कारण का भी पता चलता है. कांग्रेस के कमज़ोर होने, समाजवादियों में परिवारवाद का वर्चस्व और लेफ्ट के लगभग गायब होने से राजनीति के क्षेत्र में जो खालीपन आया, वैक्यूम बना, संघ ने उसे भर दिया है.

करीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है?

इस किताब के माध्यम से विजय हमें बताते हैं कि कैसे, संघ यह मानता है कि, परिवर्तन ही स्थायी है. अब ज़िन्दगी का शायद ही कोई पहलू हो जिसे संघ नहीं छूता. बदलते वक़्त के साथ संघ ने सिर्फ़ अपना गणवेश ही नहीं बदला, नज़रिए को भी व्यापक बनाया है. और शायद यही कारण है कि, तीन-तीन बार सरकार के प्रतिबंधों के बाद भी उसे ख़त्म नहीं किया जा सका, बल्कि उसका सतत विस्तार हुआ.

इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है. संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है. संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं.

इस किताब में तथ्यों के साथ, लेखक हमें अवगत करवाते हैं कि कैसे आरएसएस में बदलाव को चुनौती की तरह लेने का हिम्मत भरा काम सबसे पहले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने किया था. अब आरएसएस को एक रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता है, उसने अपने दरवाज़े खोले हैं, ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह हो गया है. संघ अब अपने विरोधियों को तो स्पष्ट तौर पर जवाब देता ही है, अपने कार्यक्रमों और विचारों को भी सार्वजनिक तौर पर रखने में उसे हिचकिचाहट नहीं होती.

इसी क्रम में विजय हमें बताते हैं कि, कैसे संघ ने समाज के बदलावों को समझा है और उनके साथ चलने की कोशिश की है. जो लोग संघ को पुरातनपंथी संगठन समझते हैं उन्होंने उसके सफ़र और बदलावों को गहराई से समझने का प्रयास नहीं किया है. समय के साथ यहां तक कि समाज में परिवार के स्तर और सामाजिक स्तर पर हुए बदलावों को संघ ने स्वीकार किया है.

विजय त्रिवेदी ने बहुत स्पष्टता के साथ आरएसएस की कार्यशैली में आये बदलावों को हमारे सामने रखा है.

संघ औरत और पुरुष को परिवार में बराबरी के हक के पक्ष में है और महिलाओं के योगदान को कम नहीं आंकता. संघ पारिवारिक हिंसा और महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ है.

संघ अंतरजातीय विवाहों के पक्ष में है लेकिन फिलहाल ‘लिव–इन-रिलेशनशिप’ के विरोध में खड़ा दिखाई देता है.

ट्रांसजेंडर यानी किन्नरों के साथ सामाजिक भेदभाव के खिलाफ है.

अब संघ ने नया कार्यक्रम पर्यावरण और जल संकट को लेकर शुरू किया है, इस वक्त संघ के प्रमुख एजेंडे में ग्राम विकास है.

आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेज़ी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी उसने समझा है. इक्कीसवीं सदी के हिसाब से आरएसएस ने ना केवल खुद के स्वरूप को बदला है बल्कि अपने कार्यक्रमों और मुद्दों के फोकस में भी बदलाव किया है. लेखक अपने भाषा शिल्प और पत्रकरिता के अनुभव से बताते हैं कि, किस प्रकार से आरएसएस ने पिछले 25 सालों में अपने सहयोगी संगठनों के विस्तार पर काम किया, साथ ही कोशिश की है कि इन संगठनों का काम ना केवल सामाजिक कार्य और सेवा हो बल्कि उनका असर सरकारों के नीतिगत फैसलों पर भी पड़े और सरकारें इसके लिए ज़रूरी बदलाव करें. हर संगठन अपने क्षेत्र के काम के लिए राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है. इस प्रकार का विकास, भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना सही है, यह एक अलग विमर्श का विषय है.

लेखक विजय त्रिवेदी ने इस किताब में संघ की यात्रा के माध्यम से वह भारतीय राजनीति के कुछ अनकहे क़िस्सों की परतें भी उघाड़ते हैं. संघ के लगभग सभी पहलुओं को छूने वाली यह किताब न सिर्फ़ अतीत का दस्तावेज़ है, बल्कि भविष्य का संकेत भी है.

संघम् शरणम् गच्छामि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कई मायनों में एक संपूर्ण किताब है जो उसके समर्थकों के साथ-साथ उसके आलोचकों को भी पढ़नी चाहिए, क्योंकि हकीकत यह है कि आप संघ को पसंद कर सकते हैं या फिर नापसंद, लेकिन उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है.

प्रकाशक : वेस्टलैंड एका

भाषा : हिंदी

पृष्ठ : 437

मूल्य : 599

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