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पुष्कर मेला: इस मेले का बेसब्री से इंतजार करने वाले क्यों हैं उदास
पुष्कर, गनेड़ा गांव से करीब चार किलोमीटर दूर मिट्टी के धोरों में ऊंटों का टोला बैठा हैं. जिसमें भिलवाड़ा से आये हरीप्रसाद उम्र करीब 70 वर्ष, के पास 10 ऊंट हैं. टोंक से आये चन्दालाल उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास आठ ऊंट हैं. बूंदी ज़िलें के जाकोली से आये जगन्नाथ उम्र करीब 65-70 वर्ष के पास 13 ऊंट हैं, शंकर उम्र करीब 55 वर्ष के पास 17 ऊंट हैं, खेजड़ा, बूंदी के रहितर उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास 12 ऊंट हैं. बाड़मेर से आये बगडाराम उम्र करीब 70 वर्ष के पास 15 ऊंट हैं. पाली जिले से आये हुकमाराम उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास 9 ऊंट हैं.
इस टोलें के सभी पशुपालकों के चेहरे पर गहन उदासी छाई हुई है. उनके कपड़े देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे वे पिछले एक महीने से नहाए नहीं हों. बगड़ाराम चिलम का सुट्टा मारते हुए हुकमाराम से कुछ बाते कर रहे हैं. उनके नजदीक हरीप्रसाद,चन्दालाला और जगन्नाथ बैठे हैं. नजदीक टीले की ओर शंकर और रहितर मिंगणो की आंच पर बाटी बना रहे हैं.
हुकमाराम के माथे की लकीर देखकर ऐसा लगता है कि उनकी बातें जरूर उनके निकट जीवन से जुड़ी हुई हैं. हमें वहां आता हुआ देखकर वो जरा ठहर जाते हैं. आपसी परिचय होने के बाद, जब उनको ये एहसास हो गया कि हम पुलिस वाले नहीं हैं तो उन्होंने अपने दुख दर्द को हमसे साझा किया. वे इस मेले को स्थगित करने से ज्यादा अन्य कई मुद्दों और उसके तरीकों से दुखी थे.
बगडाराम हमसे कहते हैं कि "हम बाड़मेर से दो महीने पहले चले थे. मैंने 6 हज़ार रुपए 10 टका ब्याज पर उधारी लिया था. हम साल भर से इस मेले की आशा में थे कि यहां तो ऊंट बिकेंगे ही. जब हमें पता चला कि सरोवर में स्नान हो रहा है तो हमारी उम्मीद को बल मिला कि अब हमारे ऊंट भी बिकेंगे. हम यहां 11 नवम्बर को आ गए थे. सरकार ने तो तब भी कुछ नहीं कहा. अभी दो दिन पहले पुलिस आई कि तुम यहां से वापस जाओ."
बगड़ाराम आगे कहते हैं कि "हमे ऐसे कैसे जायें, हमारा क्या होगा, हम पिछले दो महीने में मुश्किल से 10 दिन ऐसे आये होंगे जब हमने दो टाइम ख़ाना खाया हो. हमने जैसे तैसे करके इस समय को जिया है. हमारी तो ये आखिरी उम्मीद थी. पूरा साल बीत गया एक भी मेला नहीं लगा. हमारा ऊंट और गधा ये बीमारी नहीं फ़ैलाते. फिर भी हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो, हम तो गरीब लोग हैं."
पिछले 23 वर्षों से ऊंट संरक्षण में लगे पुष्कर के सामजिक कार्यकर्ता अशोक टांक, अजमेर जिला प्रशासन व पशुपालन विभाग के नकारेपन पर उलूल जुलूल कार्यवाही पर बात करते हुए सरकार के साथ हुई अपनी पत्रावली को दिखाते हुए कहते हैं कि, "मैंने पिछले एक महीने में तीन पत्र लिखे. पहला पत्र दो नवम्बर को जिला कलेक्टर महोदय को दिया, जिसमें मैंने उनसे ये गुजारिश की थी मैं हर वर्ष की तरह से इस बार भी ऊंट का श्रंगार करके मेले की शोभा बढ़ाऊंगा और साथ में कोरोना महामारी की जानकारी भी बांटूगा. दूसरा पत्र 9 नवम्बर को पुष्कर नगर पालिका को लिखा था कि मेला ग्राउंड की सफाई करवाई जाए, शिविर का पानी इधर उधर लीकेज कर रहा है कृप्या इस ओर ध्यान दें, अधिकारी ने पत्र ले लिया. जबकी तीसरा पत्र उपखंड अधिकारी पुष्कर को 10 नवम्बर को दिया. किसी ने भी ये नही कहा कि इस बार मेला नही लगेगा."
अशोक हमें आगे बताते हैं कि "ये कितना गैर जिम्मेदारी भरा काम है. प्रशासन की पूरी तरह से ट्यूब ही फट चुकी है, पंचर का तो समाधान है किंतु टायर को तो बदलना ही पड़ता है. जिस पुष्कर मेले की ख्याति पूरे विश्व में फैली है. वो होगा या नहीं ये ठीक दो दिन पहले बताया जाता है. जब हजारों पशुपालक व अन्य लोग आ जाते हैं."
अशोक सवाल उठाते हुए आगे कहते हैं कि, "पशुपालन विभाग का काम क्या है? जिला प्रशासन ने क्या किया? सारी मशीनरी क्या कर रही थी? क्या इनको पता नहीं था पुष्कर मेला होगा? जब हम उनको पत्र दे रहे थे तो उन्होंने उनको देखा- सुना नहीं? पर्यटन विभाग ने क्या किया? पर्यटन, जिला प्रशासन व पशुपालन. ये तीन विभाग इससे जुड़े हैं. किसी ने एक नोटिफिकेशन तक नहीं निकाला जिससे पहले ही सूचना मिल जाती तो ये लोग यहां नहीं आते."
अशोक के ये तर्क गम्भीर हैं, जिनको ऐसे ही नहीं छोड़ा जा सकता. राजस्थान सरकार को इस बात का जवाब देना चाहिए. यदि सरकार को मेला नहीं भी करवाना था तो कम से कम एक महीने पहले ही नोटिफिकेशन निकाल देती. विभिन्न जिलाधिकारियों के जरिये जिलों तक ये सूचना भिजवाई जा सकती थी. जिससे ये पशुपालक समुदाय यहां नहीं आते. जब इन अधिकारियों को ट्वीट करने, अपने वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड करने की फुर्सत है तो क्या ये चार शब्द लिखकर अन्य जिलों में नहीं भिजवाये जा सकते थे?
हम इस विषय पर पुष्कर, पशुपालन विभाग के अधिकारी डॉक्टर विष्णु के पास पुष्कर स्थित उनके कार्यालय में गए. वे वहां नहीं थे तो उनसे फ़ोन पर बात की. उनका जवाब बड़ा ही विचलित करने वाला था. उन्होंने मुझे बताया कि "कलेक्टर साहब ने हमारे साथ तो कोई मीटिंग नहीं की जबकि हर बार कलेक्टर हमसे मीटिंग्स करते हैं. पूरी व्यवस्था के सम्बंध में जानकारी एकत्रित की जाती है. जो किया वो जिला कलेक्टर अजमेर ने किया है."
ये कितनी हैरान करने वाली बात है कि जिला कलेक्टर ने पशुपालन विभाग से कुछ नहीं पूछा. कोई सुझाव या अन्य जानकारी नहीं मांगी. कोई नोटिफिकेशन जारी नहीं किया. इसका सीधा सा अर्थ है कि उनके लिए ये लोग कोई मायने ही नहीं रखते.
जब इस विषय को लेकर मैंने एसडीएम पुष्कर से बात की तो उनका कहना था कि, "हम तो नीचे के स्तर के अधिकारी हैं, जो आदेश निकलता है उसका पालन करना हमारा काम है. हमने परोक्ष रूप से ये बात दूर-दूर तक पहुंचा दी थी इस बार मेला नहीं होगा. हम नहाने आने वाले लोगों को भी डिमोटिवेट कर रहे हैं." जब उनसे मैंने पूछा कि आप नहाने वालों को कैसे देख रहे हैं तो उनका कहना था कि हम कोरोना की सभी गाइडलाइन्स का प्रयोग कर रहे हैं. पुष्कर सरोवर के 52 घाट हैं. हमने एक सिविल फ़ोर्स भी तैयार की है जो बगैर मास्क लगाये लोगों का चालान काटेगी.
जब मैने एसडीएम पुष्कर से पूछा कि आपने अन्य जिलों में नोटिफिकेशन क्यों नहीं भिजवाया, इस सवाल पर वे खामोश थे. नोटिफिकेशन किस दिन निकाला वो कहां है, उसका भी कोई जवाब नहीं था. जो लोग मेले में आ गए हैं, उनके लिए क्या व्यवस्था की इसका भी एसडीएम ने कोई जवाब नहीं दिया.
बात यहीं नहीं थमी थी. मेला मैदान से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर छोटे-छोटे सेंकडों की संख्या में तम्बू लगे हैं जिनमे अलग- अलग समुदाय के लोग रुके हैं. ऐसे ही एक टोलें मे निर्मला, मोशमी ओर दिलबर बहरूपियों के परिवार रुके हैं. ये लोग जालौर ज़िलें से यहां आये हैं. ये चार भाइयों का परिवार हैं. इनके परिवार में 14 बच्चे हैं. ये लोग हर वर्ष इस मेले में आते हैं.
निर्मला अपना दर्द हमसे साझा करती हैं कि, "बहुत उम्मीद थी कि मेले से साल भर की आमदनी होगी लेकिन हमारी सब उम्मीदों पर पानी फिर गया. ये सब हुआ सो हुआ. अब हमें यहां से हटा रहे हैं. अब हम कहां जायें और क्या खायें?"
निर्मला हमें आगे बताती हैं कि, "हम तो मेले में विभिन्न भेष, रूप बनाकर घूमेंगे. जब इतने लोगों के स्नान करने से कुछ नहीं होता तो क्या हमारे भेष बना लेने से ये बीमारी फैलेगी? हम न तो किसी को छुते हैं और न ही किसी के करीब जाते हैं. हमारी कला में तो स्वत ही सामाजिक दूरी है."
निर्मला अपने खर्चे पर बात करते हुए हमें कहती हैं कि, "हमने दो हज़ार रुपए तो मेकअप सामग्री पर खर्च किए. 1500 रुपये के कपड़े बनवाये. यदि हमें पता होता कि मेला नहीं लगेगा तो हम इस मेकअप पर इतना खर्च क्यों करते."
समस्या यहीं समाप्त नहीं होती बहरूपिये के टोलें से कुछ दूरी पर छत्तीसगढ़ के चांपा ज़िलें से अशोक दण्डचग्गा (दण्डचग्गा : दंड का अर्थ होता है रस्सी ओर चग्गा का अर्थ होता है, उसके ऊपर चलने वाला) का तम्बू लगा है. अपने यहां इन्हें बजानियां नटों के नाम से जानते हैं.
अशोक दण्डचग्गा उम्र करीब 40 वर्ष. हर वर्ष की भांति ही वे इस वर्ष भी पुष्कर मेले में आये हैं. अशोक के साथ उसकी पत्नी व तीन बेटियां, उसका छोटा भाई, उसकी पत्नी और उसके दो बच्चे हैं. उनके पास एक झबरू कुत्ता भी है.
अशोक के तम्बू के बगल में एक साइकिल खड़ी है. जिसके साथ एक धुतरा (पुराने समय का लाउड स्पीकर) रस्सी और चार बांस की लंबी लकड़ी बंधी हुई हैं. अशोक के पास ढपली है. अशोक अपने परिवार समेत पुष्कर मेले से तीन महीने पहले ही छत्तीसगढ़ से निकल लेते है. वो गांव और सड़क किनारे नट की कलाबाजियां दिखलाते हुए आगे बढ़ते है. जिससे उनके आजीविका की व्यवस्था हो सके.
अशोक से बात करने पर वो हमें बताते हैं कि, "वो अपने बचपन से अपने पिता के साथ पुष्कर आते रहे हैं. यहां से उनके पुरखों का रिश्ता जुड़ा है. हमारे बाप- दादा सब यहां आते रहे हैं. कोई समय में तो हमारे ब्याह शादी में यहां होते थे. धीरे-धीरे सब जा रहा है. यहां से बहुत उम्मीद थी किन्तु सब उम्मीद समाप्त हो गई. पिछले वर्ष भी हमारे साथ ऐसा ही हुआ था. हम कोई चोर उचक्के तो हैं नहीं जो पुलिस हमें यहां से खदेड़ रही है. अगले वर्ष हम यहां नहीं आयेंगे."
दरअसल हमारा पुष्कर मेले की सदियों पुरानी संस्क्रति, इतिहास, स्मृद्ध परम्परा और स्थापित मान्यताओं से कोई वास्ता नहीं है. आज ये मेला महज गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का जरिया मात्र हैं.
अभी उत्तराखंड सरकार ने भी हरिद्वार कुम्भ मेले में स्नान की अनुमति दी है. इसके लिए 50 स्पेशल ट्रेन की भी व्यवस्था की है. शायद इन लाखों लोगों के स्नान से कोरोना महामारी नहीं फैलेगी? जबकि ऊंट, गधे ओर घोड़े कोरोना फैला देते. बिहार में लाखों लोग एकत्रित हो सकते हैं. रैली कर सकते हैं. सचिन पायलट के जन्मदिन पर लॉकडाउन के बीच में हज़ारों लोगों को एक साथ एकत्रित होने की छूट मिल सकती हैं, राजस्थान के नगर पालिका चुनाव हो सकते हैं, वहां लाखों सभाएं हो सकती हैं. बस ऊंट, गधे, घोड़े व भेड़ बकरियां नहीं एकत्रित करना हैं ये कोरोना फैला देंगे.
पुष्कर की पहचान
विश्व मे पुष्कर की पहचान सबसे बड़े पशु मेले के रूप में है. यहां हिंदुस्तान के कोने-कोने से ख़ास नस्ल के पशुओं की खरीद और बिक्री के साथ-साथ पशुओं का आदान- प्रदान भी किया जाता है. पुष्कर मेले में रायका- रैबारी के ऊंट, बंजारों के खास नस्ल के गधे, ओड़ समुदाय के खच्चर, साठिया के बैल, बागरी की भेड़- बकरियों के साथ-साथ वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के आने से पहले कलन्दर अपने भालू के साथ, मदारी अपने बन्दर, कालबेलिया सांपों और शिकारी कुत्तों को लेकर मेले में पहुचता था. हालाकिं अभी भी मदारी बन्दर लेकर और कालबेलिये सांप के साथ चोरी- छिपे मेले में आते हैं.
पुष्कर को हिन्दू धार्मिक आस्था का केंद्र भी माना जाता है. यहां ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है और साथ में पवित्र सरोवर स्थित हैं. जहां श्रद्धालु उसमें आस्था की डुबकी लगाते हैं. कोई अपनी मन्नत पूरी होने पर डुबकी लगाता है तो कोई डुबकी लगाकर मन्नत मांगता है. गड़ गंगा, काशी और उड़ीसा में पूरी के अलावा पुष्कर सरोवर में भी लोग अपने प्रियजनों की अस्थियां विसर्जित करते हैं. हर बार की भांति इस वर्ष भी शरद पूर्णिमा (30 अक्टूबर) से शुरू हुई ये डुबकी कार्तिक पूर्णिमा (30 नवम्बर) तक चलती है.
पुष्कर की अन्य पहचान भी है जिसे आज हमने पूरी तरह से भुला दिया है. वर्ष भर निरंतर घूमने वाले घुमन्तू समुदायों के मिलने और दुख- सुख साझा करने का ये अवसर हुआ करता है. यहां से उनके शादी- विवाह तय होते हैं. यहां उनके मुद्दे सुलाझने के लिए प्रसिद्ध 'बारहवाली पंचायत' होती है. इन पहलुओं को हम निरंतर नजरअंदाज करते जा रहे हैं. हम पुष्कर को महज स्नान करने का ठिकाना बनाने में लगे हैं.
मेले की परम्परा
पुष्कर मेले का इतिहास आज का नहीं है और न ही ये अंग्रेजों के आने से जुड़ा है. इसका इतिहास खैबर पास और ऊंट के इतिहास से जुड़ा है. इनको जाने बैगर मेले के इतिहास को नहीं समझ सकते.
राजस्थान के चर्चित लोक कलाकार हरी सिंह बालोटिया मेले की पुरानी परम्परा को हमें बताते हैं कि, "पुष्कर मेले में पहले 20 कोश में केवल ऊंट, गधे, खच्चर, गाय -बैल ओर घोड़ों से लेकर तमाम जानवर रहा करते थे. मेले की शुरूआत में ऊंटों पर नगाड़ा आता था जिसके साथ रायका-रैबारी चलते थे. पूजा, आरती होने के साथ मेला शुरू हो जाता था.
विभिन्न पशुओं की सुंदरता की प्रतियोगिता में उनकी दौड़ करवाई जाती. उनके नृत्य होते थे. रात में भोपे (राजस्थान में एक घुमन्तू समुदाय है. जो अपने लोक वाद्य 'रावनहत्थे' के जरिये वहां के लोक देवी-देवता की कहानी सुनाते हैं.) रावनहत्थे की मधुर धुन पर पाबूजी की फड़ बाचते. कालबेलिये बीन की धुन पर लहरिया सुनाता. साथ ही बंजारियों के गोदना (टैटू) करने की प्रतियोगिता होती."
हरी सिंह बालोटिया आगे बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बगैर सर पैर के निर्णय लिए जा रहे हैं. मिट्टी के धोरों में जहां सदियों से ऊंट बैठते थे. उस स्थान पर हेलीपैड बना दिया जैसे कि रेगिस्तान का जहाज अब उड़न खटोले पर बैठकर आएगा. जंगल की बेड़ाबंधी कर दी. अब ये लोग अपने पशुओं को लेकर 10 से 15 दिन इधर रुकते हैं, उस दौरान चराये क्या? घुमन्तू समुदायों के इवेंट्स के स्थान पर विदेशी सैलानियों के साफा बांधने की प्रतियोगिता होती है, कालबेलियों के स्थान पर कॉलेज का घूमर नृत्य होता है."
इस मेले की समृद्ध परम्परा को समाप्त करने में मुख्य भूमिका इवेंट कम्पनी ने भी निभाई है. इवेंट कम्पनी के आने के बाद कलेक्टर का ध्यान गिनीज बुक में नाम दर्ज करवाने में रहता है. पिछले वर्ष भी यही हुआ था. इस वर्ष कम्पनी का टेंडर समाप्त हो गया है किंतु सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी हमें बताते हैं कि सरकार दोबारा से इसे इवेंट कम्पनी को देने जा रही है.
विभिन्न संस्कृतियों की आपसदारी
ये मेला साल भर घुमते रहने वाले घुमन्तू व आदिवासी समुदायों का आपस में मिलने, दुख सुख साझा करने व अपने पुरखों के सदियों पुराने ज्ञान को सहेजने उसे नई पीढ़ी से परिचय करवाने का अवसर भी है. सबसे बड़ी बात है कि इस मेले का प्रबन्धन के रूप में यही समुदाय हुआ करते थे, जिनको राजे रजवाड़ों का संरक्षण प्राप्त था.
इस मेले में भाग लेने के लिए छत्तीसगढ़ से दण्डचग्गा जिसे हम यहां नटों के नाम से जानते हैं व बपोरी जिसे हम यहां बंजारे कहते हैं. मध्य-प्रदेश से बड़ी संख्या में भील व बैदु समुदाय, बंगाल से तलवार नट व बंशीधर, झारखंड से तुरी समुदाय, उड़ीसा से ओड़ लोग, गुजरात से रैबारी व बहरूपिये, उत्तर प्रदेश से मनिहारी, बजानिया नट, सपेरा, बिहार से गुवारिया, गाड़िया लुहार, हरियाणा व दिल्ली से कंजर- पेरना, भाट व राजस्थान भर के घुमन्तू समुदाय व आदिवासी लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं. इस मेले से घुमन्तू समुदायों के शादी विवाह तय होते हैं.
घुमन्तू समुदाय के उत्थान में काम कर रहे, टोंक के कलन्दर नूर महोम्मद का कहना है कि, "पुष्कर में वे अपनो झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्व प्रसिद्ध 'बारहवाली' पंचायत लगाया करते हैं. बारहवाली पंचायत की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इसमें वो सब लोग पंच बन सकते हैं जो तीन ठिये पर भोजन पकाते है. (तीन ईंटों या तीन पत्थरों को रखकर उन पर खाना बनाने वाले समुदाय. सामान्यतः आदिवासी और घुमन्तू समुदाय ही ऐसे जीवन जीते हैं)
अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर
ये मेला हमारे ग्रामीण आजीविका का बैरोमीटर भी है. ग्रामीण आजीविका का मुख्य आधार खेती किसानी है जो बगैर पशुओं के असंभव हैं. यदि राजस्थान, गुजरात समेत उत्तर भारत में किसान आत्महत्या नहीं करते इसका सबसे बड़ा कारण पशुपालन की स्थिति का अच्छा होना है. यदि किसान की फसल अच्छी नहीं भी हुई तो वे पशुओं से अपनी रोजी रोटी चला पाते हैं. ये पशु उनके पोषण की जरूरतों को भी पूरा करते हैं.
ये पशुचारक समुदाय आये दिन अपने पशुओं को नहीं बेचते. ये केवल पशु मेलों पर ही अपने पशुओं को बेचते हैं. नागौर, बालोतरा और पुष्कर जैसे मेले इनके प्रमुख पशु मेले होते हैं. इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण मार्च के महीने से सभी पशु मेले बन्द हैं. अब तो ये अंतिम उम्मीद भी जाती रही.
हिंदुस्तान में ऊंट पालने का काम सभी जतियां करती हैं किंतु उनके ब्रीडिंग करवाने का काम एकमात्र रायका- रैबारी समुदाय के लोग ही करते हैं. इन ऊंटों और गाय- बैल को साल भर दुहने और विभिन्न काम लेने के कारण जब ये पशु कमजोर हो जाते हैं तो किसान लोग अपने इन पशुओं को लेकर मेले में आते हैं, जहां वे इन पशुचारकों को ये ऊंट व गाय बैल इत्यादि पशु दे देते हैं और बदले में हष्ट पुष्ट पशु लेते हैं, साथ मे कुछ पैसा भी देते हैं. पशुचारक समुदाय इन पशुओं को खुले टोलें में एक वर्ष तक चरायेंगे तो वो पशु वापस वैसा ही बन जायेगा.
राजस्थान में केवल वर्षा के मौसम में घास-फूस या ज्वार-बाजरे की खेती होती है. रेगिस्तान में केवल एक ही फसल हो पाती है वो भी महज इतनी ही कि घर का खाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है. यहां हर व्यक्ति के पास दो-चार बकरी, एक-दो भेड़ और एक-दो ऊंट अवश्य मिलेंगे. ये भेड़, बकरी और ऊंट यहां की परिस्थितियों के अनुरूप है. जो आंकड़े, कैर, जांटी, कीकर और बेरी की झाड़ियों को खाकर अपना गुजारा कर लेते हैं.
भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितना बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में एक से दो लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.
ऊंट को 2014 में राजस्थान का राजकीय पशु का दर्जा देना भी इन पशुचारकों के लिए बड़ा अहितकारी कदम रहा हैं. 2015 में एक कानून बना दिया गया कि राजकीय पशु को राज्य की सीमा से बाहर नहीं ले जा सकते जिसके कारण उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रेदेश व पंजाब के किसान यहां ऊंट खरीदने नहीं आ रहे. ऊंट पालकों के पास ले देकर ये पशु मेले बचे थे वो भी बन्द हो गए.
सिरोही जिले में छोटी डूंगरी के पास रहने वाले पशुचारक प्रकाश रायका के पास 35 ऊंट हैं. वे अन्य टोलें के साथ साल भर अपना ये पशुचारकों का काम करते हैं. अब वे भी पुरखों से सीखे पशुपालन के इस काम को छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनके पास दूसरा कोई उपाय भी नहीं है.
प्रकाश हमें बताते हैं कि, "ऊंटनी का एक बच्चा 18 महीने में होता है. जिसमे अंतिम तीन महीने और बच्चे के जन्म के एक महीने तक ऊंटनी से कोई काम नहीं ले सकते. साथ में ऊंटनी की खुराक भी अलग देनी पड़ती है जिसका खर्चा अलग से. राजस्थान सरकार ने 2016 में एक ऊंटनी के बच्चे को पालने पर तीन किस्तों में 10 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद देने का प्रावधान किया था. किंतु वो भी अब पूरी तरह से बन्द हो गया है."
अकेले मारवाड़ (राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र) में करीब दो लाख ऊंट, 90 लाख से ज्यादा भेड़-बकरियां तथा 60 हज़ार से ज्यादा गधे हैं. ऐसे ही गुजरात के कच्छ क्षेत्र के तैरने वाले ऊंट काफी मशहूर हैं. ऊंट, गधे और भेड़-बकरियों के बिना रेगिस्तान में जीवन की कल्पना करना सम्भव नहीं है.
पशुपालन विभाग का मतलब क्या है जब न तो पशुपालकों के अपने पशुओं के लिए स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था है और न ही चारे-पानी की कोई आपूर्ति. सब कागजों में चलता है. लॉकडाउन में इन पशुओं की आवाजाही को तो रोक दिया किन्तु ये नहीं देखा कि ये अपने पशुओं को चरायेंगे क्या?
मैंने लॉकडाउन के दौरान, जब पशुचारक जातियों के मूवमेंट पर रोक लग गई थी. तब राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह से पूछा था कि आपके पास इन पशुचारक जातियों के लिए क्या व्यवस्था है? वीरेंद्र सिंह का कहना था कि, "हमारे पास इन पशुचारकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इनके पशुओं के लिए कोई चारे पानी की व्यवस्था."
पशुधन के नाम पर पिछले वर्ष (2019) 80 गाय, 61 भैंस ही शामिल की गई जबकि गधा, भेड़- बकरी और ख़च्चर एक भी नही आया. घोड़ों की संख्या 3556 है, इसमें देशी घोड़े नाम मात्र को हैं. ऊंटों की संख्या में भारी गिरावट आई है. जहां 2001 में 15460 ऊंट आए थे, 2019 में वो आंकड़ा महज 3298 पर आकर सिमट गया और जो लोग आए भी वे भी अपने ऊंटों को लेकर वापस लौट गये.
कितने ही ऊंटों ने दम तोड़ दिया और कितने ही ऊंट मरने की स्थिति में हैं. जिन ऊंटों की कीमत 30 से 70 हजार हुआ करती थी, उसे 1500 रुपये में भी कोई खरीदने वाला नही हैं. 2001 में जहां पशुओं की बिक्री से 20- 25 करोड़ उगाहे जाते थे, वो आंकड़ा 2019 में महज 4.21 करोड़ पर सिमट गया, जबकि इन 18 साल में इसे 90- 95 करोड़ होना चाहिए था.
लोक संस्कृति को खो देंगे
ये मेला आज के समय मे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, जब समाज जाति, धर्म में बंटा है, चारों और हिंसा का बोलबाला है. चारागाह सिमट रहे हैं, पर्यावरणीय निम्नीकरण से लेकर, लोक स्वास्थ्य का संकट, कृषि की पैदावार और मिट्टी की उर्वरता में कमी, पानी का कुप्रबंधन मुख्य समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है.
हम ये भूल गए हैं कि ये पशुचारक समुदाय हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहे हैं. इनके बगैर हमारी लोक- संस्कृति अधूरी है. इन्होंने हमारे लोक जीवन को बुना है. इनकी कलाएं, संगीत, कथा- कहानियां और कहावतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं. इनके गीतों में प्रकृति के विभिन्न रंगों का वर्णन मिलता हैं. इनकी कथा कहानियों में यहां के भूगोल से लेकर हमारे इतिहास और परम्परा की गहराइयों का उल्लेख है. इनकी कलाएं हमारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रेखांकित करती हैं.
आज विदेशों में हिंदुस्तान कि पहचान में यहां की लोक संस्कृति को उच्च दर्जा दिया जाता है. इसका मुख्य कारण यही हैं. हमारे यहां लोक जीवन ने जो संस्कृति गढ़ी हैं, हमने उसको जिया है. गोरबन्द, मोरुडा, कुरजां, पापीहा (पपीहा) जैसे सेंकडों गीत हैं. जिनको सुनकर लोग झूमने लगते हैं.
ऐसे ही एक गीत है 'गोरबन्द'. इसका मतलब होता है 'गले का हार' लेकिन ये हार इंसान के लिए नहीं हैं बल्कि ऊंट के लिए है. इस गीत में नायिका कहती है कि-
'लड़ली लूमा झुमा ऐ,
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ऐ गायां चरावती गोरबन्द गुंथियों, तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज,
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
जब ये ऊंट मेरे पति को सही सलामत वापस ले आएगा तो मैं उसके गले में ये गोरबन्द बांदुगी. गोरबन्द उस ऊंट के लिए है, जिस पर बैठकर नायक सिंध, मुल्तान में व्यापार करने के लिए गया है. नायिका इसमें रेगिस्तान के हिस्सों का वर्णन करती है कि राजसमंद और बीकानेर से इसके लिए ये लड़ियां मंगवाई हैं. जिनको देवरानी ओर जेठानी ने गाय- भैंसों को चराते हुए मनकों में पिरोया है. यहां डूंगर (पहाड़) प्रकर्ति के विभिन्न रंग दिखलाई पड़ते हैं. इस गीत में उस समय की आजीविका, व्यापार ओर उसके मार्गों का वर्णन मिलता है.
जन्मजात अपराधी कानून, 1871 पारित होने और भारत विभाजन (1947) से पहले रेगिस्तान से ऊंटों, गधों और गाय- बैलों के कारवां सिंध, मुल्तान होते हुए अफ्रीका तक जाया करते थे. इस कारवां में ये पशुचारक जातियां और उनके हज़ारों ऊंट, गधे, गाय बैल और भेड़- बकरियां हुआ करते थे. प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफान हबीब ने इस व्यापार को बहुत ही सुंदर तरीके से इतिहास में सहेजा है.
इन गीतों को बनाने और उसे स्थान तक पहुचाने में यही घुमन्तू पशु चरवाहे रहे हैं. इनके लोक वाद्य भी उसी लोकल पारिस्थितिकी से बने होते हैं. इनके लोक वाद्य में आम और आड़ू की लकड़ी, भेड़- बकरी की खाल और नारियल की टोपली, लौ का खोल इत्यादि हैं जो आसानी से उपलब्ध हैं. यदि रेगिस्तान से इन पशुचारकों को हटा देंगे तो बचेगा क्या?
पुष्कर मेले को पशुपालन विभाग, जिला प्रशासन व पर्यटन विभाग मिलकर आयोजित करते है. पर्यटन विभाग के तो दो चर्चित वाक्य भी हैं. 'पधारो म्हारे देश' और 'न जाने क्या दिख जाये' किन्तु पर्यटन विभाग की निरन्तर इन समुदायों की अवहेलना और इवेंट कम्पनियों को टेंडर देने से ये मेले बर्बाद हो रहे हैं.
आखिर पर्यटन विभाग ने पुष्कर मेले के स्थगन का नोटिफिकेशन जारी क्यों नहीं किया? पशु मेलों पर चलने वाले पर्यटन विभाग के पास इन समुदायों के लिए पिछले एक वर्ष से क्या कार्य नीति है? पुष्कर मेले के इवेंट क्यों समाप्त किये गए और आगे उनका क्या रुख है? ये सवाल तो ज्यों के त्यों बरकरार रहेंगे, जब तक वे ये नहीं बताते की पर्यटन विभाग, इवेंट कम्पनियों पर इतना मेहरबान क्यों हैं?
हमने इस विषय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सचिव गायत्री एस राठौड़ से भी बात की क्योंकि विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला इन पशुचारकों और घुमन्तू समुदायों का मेला हैं. गायत्री राठौड़ का कहना था कि "हम इस विषय में सम्बंधित विभाग से बात करेंगे. पुष्कर मेले को पिछले वर्ष की तरहं से नहीं होने देंगे. इन समुदायों की जैसे परम्परा रही हैं. हम उन परम्पराओं को वापस स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे." किन्तु इस बार पुष्कर मेले में केवल स्नान हुआ तो उनको दखल देने की आवश्यकता ही नही हुई."
पुष्कर मेला तो हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहा है. इन्हीं स्मृतियों ने हमें बुना है. यदि ये मेला नही रहेगा तो ये स्मृतियां भी धुंधली पड़ जायेंगी. किसी भी सभ्यता की एक खूबी ये भी रहती है कि उसके पास अपने पुरखों की कितनी धरोहर अभी जिंदा है. यदि हम ऐसे ही उलूल- जुलूल निर्णय करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढियां हमसे शर्मिंदा होंगी.
पुष्कर, गनेड़ा गांव से करीब चार किलोमीटर दूर मिट्टी के धोरों में ऊंटों का टोला बैठा हैं. जिसमें भिलवाड़ा से आये हरीप्रसाद उम्र करीब 70 वर्ष, के पास 10 ऊंट हैं. टोंक से आये चन्दालाल उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास आठ ऊंट हैं. बूंदी ज़िलें के जाकोली से आये जगन्नाथ उम्र करीब 65-70 वर्ष के पास 13 ऊंट हैं, शंकर उम्र करीब 55 वर्ष के पास 17 ऊंट हैं, खेजड़ा, बूंदी के रहितर उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास 12 ऊंट हैं. बाड़मेर से आये बगडाराम उम्र करीब 70 वर्ष के पास 15 ऊंट हैं. पाली जिले से आये हुकमाराम उम्र करीब 60-65 वर्ष के पास 9 ऊंट हैं.
इस टोलें के सभी पशुपालकों के चेहरे पर गहन उदासी छाई हुई है. उनके कपड़े देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे वे पिछले एक महीने से नहाए नहीं हों. बगड़ाराम चिलम का सुट्टा मारते हुए हुकमाराम से कुछ बाते कर रहे हैं. उनके नजदीक हरीप्रसाद,चन्दालाला और जगन्नाथ बैठे हैं. नजदीक टीले की ओर शंकर और रहितर मिंगणो की आंच पर बाटी बना रहे हैं.
हुकमाराम के माथे की लकीर देखकर ऐसा लगता है कि उनकी बातें जरूर उनके निकट जीवन से जुड़ी हुई हैं. हमें वहां आता हुआ देखकर वो जरा ठहर जाते हैं. आपसी परिचय होने के बाद, जब उनको ये एहसास हो गया कि हम पुलिस वाले नहीं हैं तो उन्होंने अपने दुख दर्द को हमसे साझा किया. वे इस मेले को स्थगित करने से ज्यादा अन्य कई मुद्दों और उसके तरीकों से दुखी थे.
बगडाराम हमसे कहते हैं कि "हम बाड़मेर से दो महीने पहले चले थे. मैंने 6 हज़ार रुपए 10 टका ब्याज पर उधारी लिया था. हम साल भर से इस मेले की आशा में थे कि यहां तो ऊंट बिकेंगे ही. जब हमें पता चला कि सरोवर में स्नान हो रहा है तो हमारी उम्मीद को बल मिला कि अब हमारे ऊंट भी बिकेंगे. हम यहां 11 नवम्बर को आ गए थे. सरकार ने तो तब भी कुछ नहीं कहा. अभी दो दिन पहले पुलिस आई कि तुम यहां से वापस जाओ."
बगड़ाराम आगे कहते हैं कि "हमे ऐसे कैसे जायें, हमारा क्या होगा, हम पिछले दो महीने में मुश्किल से 10 दिन ऐसे आये होंगे जब हमने दो टाइम ख़ाना खाया हो. हमने जैसे तैसे करके इस समय को जिया है. हमारी तो ये आखिरी उम्मीद थी. पूरा साल बीत गया एक भी मेला नहीं लगा. हमारा ऊंट और गधा ये बीमारी नहीं फ़ैलाते. फिर भी हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो, हम तो गरीब लोग हैं."
पिछले 23 वर्षों से ऊंट संरक्षण में लगे पुष्कर के सामजिक कार्यकर्ता अशोक टांक, अजमेर जिला प्रशासन व पशुपालन विभाग के नकारेपन पर उलूल जुलूल कार्यवाही पर बात करते हुए सरकार के साथ हुई अपनी पत्रावली को दिखाते हुए कहते हैं कि, "मैंने पिछले एक महीने में तीन पत्र लिखे. पहला पत्र दो नवम्बर को जिला कलेक्टर महोदय को दिया, जिसमें मैंने उनसे ये गुजारिश की थी मैं हर वर्ष की तरह से इस बार भी ऊंट का श्रंगार करके मेले की शोभा बढ़ाऊंगा और साथ में कोरोना महामारी की जानकारी भी बांटूगा. दूसरा पत्र 9 नवम्बर को पुष्कर नगर पालिका को लिखा था कि मेला ग्राउंड की सफाई करवाई जाए, शिविर का पानी इधर उधर लीकेज कर रहा है कृप्या इस ओर ध्यान दें, अधिकारी ने पत्र ले लिया. जबकी तीसरा पत्र उपखंड अधिकारी पुष्कर को 10 नवम्बर को दिया. किसी ने भी ये नही कहा कि इस बार मेला नही लगेगा."
अशोक हमें आगे बताते हैं कि "ये कितना गैर जिम्मेदारी भरा काम है. प्रशासन की पूरी तरह से ट्यूब ही फट चुकी है, पंचर का तो समाधान है किंतु टायर को तो बदलना ही पड़ता है. जिस पुष्कर मेले की ख्याति पूरे विश्व में फैली है. वो होगा या नहीं ये ठीक दो दिन पहले बताया जाता है. जब हजारों पशुपालक व अन्य लोग आ जाते हैं."
अशोक सवाल उठाते हुए आगे कहते हैं कि, "पशुपालन विभाग का काम क्या है? जिला प्रशासन ने क्या किया? सारी मशीनरी क्या कर रही थी? क्या इनको पता नहीं था पुष्कर मेला होगा? जब हम उनको पत्र दे रहे थे तो उन्होंने उनको देखा- सुना नहीं? पर्यटन विभाग ने क्या किया? पर्यटन, जिला प्रशासन व पशुपालन. ये तीन विभाग इससे जुड़े हैं. किसी ने एक नोटिफिकेशन तक नहीं निकाला जिससे पहले ही सूचना मिल जाती तो ये लोग यहां नहीं आते."
अशोक के ये तर्क गम्भीर हैं, जिनको ऐसे ही नहीं छोड़ा जा सकता. राजस्थान सरकार को इस बात का जवाब देना चाहिए. यदि सरकार को मेला नहीं भी करवाना था तो कम से कम एक महीने पहले ही नोटिफिकेशन निकाल देती. विभिन्न जिलाधिकारियों के जरिये जिलों तक ये सूचना भिजवाई जा सकती थी. जिससे ये पशुपालक समुदाय यहां नहीं आते. जब इन अधिकारियों को ट्वीट करने, अपने वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड करने की फुर्सत है तो क्या ये चार शब्द लिखकर अन्य जिलों में नहीं भिजवाये जा सकते थे?
हम इस विषय पर पुष्कर, पशुपालन विभाग के अधिकारी डॉक्टर विष्णु के पास पुष्कर स्थित उनके कार्यालय में गए. वे वहां नहीं थे तो उनसे फ़ोन पर बात की. उनका जवाब बड़ा ही विचलित करने वाला था. उन्होंने मुझे बताया कि "कलेक्टर साहब ने हमारे साथ तो कोई मीटिंग नहीं की जबकि हर बार कलेक्टर हमसे मीटिंग्स करते हैं. पूरी व्यवस्था के सम्बंध में जानकारी एकत्रित की जाती है. जो किया वो जिला कलेक्टर अजमेर ने किया है."
ये कितनी हैरान करने वाली बात है कि जिला कलेक्टर ने पशुपालन विभाग से कुछ नहीं पूछा. कोई सुझाव या अन्य जानकारी नहीं मांगी. कोई नोटिफिकेशन जारी नहीं किया. इसका सीधा सा अर्थ है कि उनके लिए ये लोग कोई मायने ही नहीं रखते.
जब इस विषय को लेकर मैंने एसडीएम पुष्कर से बात की तो उनका कहना था कि, "हम तो नीचे के स्तर के अधिकारी हैं, जो आदेश निकलता है उसका पालन करना हमारा काम है. हमने परोक्ष रूप से ये बात दूर-दूर तक पहुंचा दी थी इस बार मेला नहीं होगा. हम नहाने आने वाले लोगों को भी डिमोटिवेट कर रहे हैं." जब उनसे मैंने पूछा कि आप नहाने वालों को कैसे देख रहे हैं तो उनका कहना था कि हम कोरोना की सभी गाइडलाइन्स का प्रयोग कर रहे हैं. पुष्कर सरोवर के 52 घाट हैं. हमने एक सिविल फ़ोर्स भी तैयार की है जो बगैर मास्क लगाये लोगों का चालान काटेगी.
जब मैने एसडीएम पुष्कर से पूछा कि आपने अन्य जिलों में नोटिफिकेशन क्यों नहीं भिजवाया, इस सवाल पर वे खामोश थे. नोटिफिकेशन किस दिन निकाला वो कहां है, उसका भी कोई जवाब नहीं था. जो लोग मेले में आ गए हैं, उनके लिए क्या व्यवस्था की इसका भी एसडीएम ने कोई जवाब नहीं दिया.
बात यहीं नहीं थमी थी. मेला मैदान से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर छोटे-छोटे सेंकडों की संख्या में तम्बू लगे हैं जिनमे अलग- अलग समुदाय के लोग रुके हैं. ऐसे ही एक टोलें मे निर्मला, मोशमी ओर दिलबर बहरूपियों के परिवार रुके हैं. ये लोग जालौर ज़िलें से यहां आये हैं. ये चार भाइयों का परिवार हैं. इनके परिवार में 14 बच्चे हैं. ये लोग हर वर्ष इस मेले में आते हैं.
निर्मला अपना दर्द हमसे साझा करती हैं कि, "बहुत उम्मीद थी कि मेले से साल भर की आमदनी होगी लेकिन हमारी सब उम्मीदों पर पानी फिर गया. ये सब हुआ सो हुआ. अब हमें यहां से हटा रहे हैं. अब हम कहां जायें और क्या खायें?"
निर्मला हमें आगे बताती हैं कि, "हम तो मेले में विभिन्न भेष, रूप बनाकर घूमेंगे. जब इतने लोगों के स्नान करने से कुछ नहीं होता तो क्या हमारे भेष बना लेने से ये बीमारी फैलेगी? हम न तो किसी को छुते हैं और न ही किसी के करीब जाते हैं. हमारी कला में तो स्वत ही सामाजिक दूरी है."
निर्मला अपने खर्चे पर बात करते हुए हमें कहती हैं कि, "हमने दो हज़ार रुपए तो मेकअप सामग्री पर खर्च किए. 1500 रुपये के कपड़े बनवाये. यदि हमें पता होता कि मेला नहीं लगेगा तो हम इस मेकअप पर इतना खर्च क्यों करते."
समस्या यहीं समाप्त नहीं होती बहरूपिये के टोलें से कुछ दूरी पर छत्तीसगढ़ के चांपा ज़िलें से अशोक दण्डचग्गा (दण्डचग्गा : दंड का अर्थ होता है रस्सी ओर चग्गा का अर्थ होता है, उसके ऊपर चलने वाला) का तम्बू लगा है. अपने यहां इन्हें बजानियां नटों के नाम से जानते हैं.
अशोक दण्डचग्गा उम्र करीब 40 वर्ष. हर वर्ष की भांति ही वे इस वर्ष भी पुष्कर मेले में आये हैं. अशोक के साथ उसकी पत्नी व तीन बेटियां, उसका छोटा भाई, उसकी पत्नी और उसके दो बच्चे हैं. उनके पास एक झबरू कुत्ता भी है.
अशोक के तम्बू के बगल में एक साइकिल खड़ी है. जिसके साथ एक धुतरा (पुराने समय का लाउड स्पीकर) रस्सी और चार बांस की लंबी लकड़ी बंधी हुई हैं. अशोक के पास ढपली है. अशोक अपने परिवार समेत पुष्कर मेले से तीन महीने पहले ही छत्तीसगढ़ से निकल लेते है. वो गांव और सड़क किनारे नट की कलाबाजियां दिखलाते हुए आगे बढ़ते है. जिससे उनके आजीविका की व्यवस्था हो सके.
अशोक से बात करने पर वो हमें बताते हैं कि, "वो अपने बचपन से अपने पिता के साथ पुष्कर आते रहे हैं. यहां से उनके पुरखों का रिश्ता जुड़ा है. हमारे बाप- दादा सब यहां आते रहे हैं. कोई समय में तो हमारे ब्याह शादी में यहां होते थे. धीरे-धीरे सब जा रहा है. यहां से बहुत उम्मीद थी किन्तु सब उम्मीद समाप्त हो गई. पिछले वर्ष भी हमारे साथ ऐसा ही हुआ था. हम कोई चोर उचक्के तो हैं नहीं जो पुलिस हमें यहां से खदेड़ रही है. अगले वर्ष हम यहां नहीं आयेंगे."
दरअसल हमारा पुष्कर मेले की सदियों पुरानी संस्क्रति, इतिहास, स्मृद्ध परम्परा और स्थापित मान्यताओं से कोई वास्ता नहीं है. आज ये मेला महज गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का जरिया मात्र हैं.
अभी उत्तराखंड सरकार ने भी हरिद्वार कुम्भ मेले में स्नान की अनुमति दी है. इसके लिए 50 स्पेशल ट्रेन की भी व्यवस्था की है. शायद इन लाखों लोगों के स्नान से कोरोना महामारी नहीं फैलेगी? जबकि ऊंट, गधे ओर घोड़े कोरोना फैला देते. बिहार में लाखों लोग एकत्रित हो सकते हैं. रैली कर सकते हैं. सचिन पायलट के जन्मदिन पर लॉकडाउन के बीच में हज़ारों लोगों को एक साथ एकत्रित होने की छूट मिल सकती हैं, राजस्थान के नगर पालिका चुनाव हो सकते हैं, वहां लाखों सभाएं हो सकती हैं. बस ऊंट, गधे, घोड़े व भेड़ बकरियां नहीं एकत्रित करना हैं ये कोरोना फैला देंगे.
पुष्कर की पहचान
विश्व मे पुष्कर की पहचान सबसे बड़े पशु मेले के रूप में है. यहां हिंदुस्तान के कोने-कोने से ख़ास नस्ल के पशुओं की खरीद और बिक्री के साथ-साथ पशुओं का आदान- प्रदान भी किया जाता है. पुष्कर मेले में रायका- रैबारी के ऊंट, बंजारों के खास नस्ल के गधे, ओड़ समुदाय के खच्चर, साठिया के बैल, बागरी की भेड़- बकरियों के साथ-साथ वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के आने से पहले कलन्दर अपने भालू के साथ, मदारी अपने बन्दर, कालबेलिया सांपों और शिकारी कुत्तों को लेकर मेले में पहुचता था. हालाकिं अभी भी मदारी बन्दर लेकर और कालबेलिये सांप के साथ चोरी- छिपे मेले में आते हैं.
पुष्कर को हिन्दू धार्मिक आस्था का केंद्र भी माना जाता है. यहां ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है और साथ में पवित्र सरोवर स्थित हैं. जहां श्रद्धालु उसमें आस्था की डुबकी लगाते हैं. कोई अपनी मन्नत पूरी होने पर डुबकी लगाता है तो कोई डुबकी लगाकर मन्नत मांगता है. गड़ गंगा, काशी और उड़ीसा में पूरी के अलावा पुष्कर सरोवर में भी लोग अपने प्रियजनों की अस्थियां विसर्जित करते हैं. हर बार की भांति इस वर्ष भी शरद पूर्णिमा (30 अक्टूबर) से शुरू हुई ये डुबकी कार्तिक पूर्णिमा (30 नवम्बर) तक चलती है.
पुष्कर की अन्य पहचान भी है जिसे आज हमने पूरी तरह से भुला दिया है. वर्ष भर निरंतर घूमने वाले घुमन्तू समुदायों के मिलने और दुख- सुख साझा करने का ये अवसर हुआ करता है. यहां से उनके शादी- विवाह तय होते हैं. यहां उनके मुद्दे सुलाझने के लिए प्रसिद्ध 'बारहवाली पंचायत' होती है. इन पहलुओं को हम निरंतर नजरअंदाज करते जा रहे हैं. हम पुष्कर को महज स्नान करने का ठिकाना बनाने में लगे हैं.
मेले की परम्परा
पुष्कर मेले का इतिहास आज का नहीं है और न ही ये अंग्रेजों के आने से जुड़ा है. इसका इतिहास खैबर पास और ऊंट के इतिहास से जुड़ा है. इनको जाने बैगर मेले के इतिहास को नहीं समझ सकते.
राजस्थान के चर्चित लोक कलाकार हरी सिंह बालोटिया मेले की पुरानी परम्परा को हमें बताते हैं कि, "पुष्कर मेले में पहले 20 कोश में केवल ऊंट, गधे, खच्चर, गाय -बैल ओर घोड़ों से लेकर तमाम जानवर रहा करते थे. मेले की शुरूआत में ऊंटों पर नगाड़ा आता था जिसके साथ रायका-रैबारी चलते थे. पूजा, आरती होने के साथ मेला शुरू हो जाता था.
विभिन्न पशुओं की सुंदरता की प्रतियोगिता में उनकी दौड़ करवाई जाती. उनके नृत्य होते थे. रात में भोपे (राजस्थान में एक घुमन्तू समुदाय है. जो अपने लोक वाद्य 'रावनहत्थे' के जरिये वहां के लोक देवी-देवता की कहानी सुनाते हैं.) रावनहत्थे की मधुर धुन पर पाबूजी की फड़ बाचते. कालबेलिये बीन की धुन पर लहरिया सुनाता. साथ ही बंजारियों के गोदना (टैटू) करने की प्रतियोगिता होती."
हरी सिंह बालोटिया आगे बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बगैर सर पैर के निर्णय लिए जा रहे हैं. मिट्टी के धोरों में जहां सदियों से ऊंट बैठते थे. उस स्थान पर हेलीपैड बना दिया जैसे कि रेगिस्तान का जहाज अब उड़न खटोले पर बैठकर आएगा. जंगल की बेड़ाबंधी कर दी. अब ये लोग अपने पशुओं को लेकर 10 से 15 दिन इधर रुकते हैं, उस दौरान चराये क्या? घुमन्तू समुदायों के इवेंट्स के स्थान पर विदेशी सैलानियों के साफा बांधने की प्रतियोगिता होती है, कालबेलियों के स्थान पर कॉलेज का घूमर नृत्य होता है."
इस मेले की समृद्ध परम्परा को समाप्त करने में मुख्य भूमिका इवेंट कम्पनी ने भी निभाई है. इवेंट कम्पनी के आने के बाद कलेक्टर का ध्यान गिनीज बुक में नाम दर्ज करवाने में रहता है. पिछले वर्ष भी यही हुआ था. इस वर्ष कम्पनी का टेंडर समाप्त हो गया है किंतु सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी हमें बताते हैं कि सरकार दोबारा से इसे इवेंट कम्पनी को देने जा रही है.
विभिन्न संस्कृतियों की आपसदारी
ये मेला साल भर घुमते रहने वाले घुमन्तू व आदिवासी समुदायों का आपस में मिलने, दुख सुख साझा करने व अपने पुरखों के सदियों पुराने ज्ञान को सहेजने उसे नई पीढ़ी से परिचय करवाने का अवसर भी है. सबसे बड़ी बात है कि इस मेले का प्रबन्धन के रूप में यही समुदाय हुआ करते थे, जिनको राजे रजवाड़ों का संरक्षण प्राप्त था.
इस मेले में भाग लेने के लिए छत्तीसगढ़ से दण्डचग्गा जिसे हम यहां नटों के नाम से जानते हैं व बपोरी जिसे हम यहां बंजारे कहते हैं. मध्य-प्रदेश से बड़ी संख्या में भील व बैदु समुदाय, बंगाल से तलवार नट व बंशीधर, झारखंड से तुरी समुदाय, उड़ीसा से ओड़ लोग, गुजरात से रैबारी व बहरूपिये, उत्तर प्रदेश से मनिहारी, बजानिया नट, सपेरा, बिहार से गुवारिया, गाड़िया लुहार, हरियाणा व दिल्ली से कंजर- पेरना, भाट व राजस्थान भर के घुमन्तू समुदाय व आदिवासी लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं. इस मेले से घुमन्तू समुदायों के शादी विवाह तय होते हैं.
घुमन्तू समुदाय के उत्थान में काम कर रहे, टोंक के कलन्दर नूर महोम्मद का कहना है कि, "पुष्कर में वे अपनो झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्व प्रसिद्ध 'बारहवाली' पंचायत लगाया करते हैं. बारहवाली पंचायत की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इसमें वो सब लोग पंच बन सकते हैं जो तीन ठिये पर भोजन पकाते है. (तीन ईंटों या तीन पत्थरों को रखकर उन पर खाना बनाने वाले समुदाय. सामान्यतः आदिवासी और घुमन्तू समुदाय ही ऐसे जीवन जीते हैं)
अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर
ये मेला हमारे ग्रामीण आजीविका का बैरोमीटर भी है. ग्रामीण आजीविका का मुख्य आधार खेती किसानी है जो बगैर पशुओं के असंभव हैं. यदि राजस्थान, गुजरात समेत उत्तर भारत में किसान आत्महत्या नहीं करते इसका सबसे बड़ा कारण पशुपालन की स्थिति का अच्छा होना है. यदि किसान की फसल अच्छी नहीं भी हुई तो वे पशुओं से अपनी रोजी रोटी चला पाते हैं. ये पशु उनके पोषण की जरूरतों को भी पूरा करते हैं.
ये पशुचारक समुदाय आये दिन अपने पशुओं को नहीं बेचते. ये केवल पशु मेलों पर ही अपने पशुओं को बेचते हैं. नागौर, बालोतरा और पुष्कर जैसे मेले इनके प्रमुख पशु मेले होते हैं. इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण मार्च के महीने से सभी पशु मेले बन्द हैं. अब तो ये अंतिम उम्मीद भी जाती रही.
हिंदुस्तान में ऊंट पालने का काम सभी जतियां करती हैं किंतु उनके ब्रीडिंग करवाने का काम एकमात्र रायका- रैबारी समुदाय के लोग ही करते हैं. इन ऊंटों और गाय- बैल को साल भर दुहने और विभिन्न काम लेने के कारण जब ये पशु कमजोर हो जाते हैं तो किसान लोग अपने इन पशुओं को लेकर मेले में आते हैं, जहां वे इन पशुचारकों को ये ऊंट व गाय बैल इत्यादि पशु दे देते हैं और बदले में हष्ट पुष्ट पशु लेते हैं, साथ मे कुछ पैसा भी देते हैं. पशुचारक समुदाय इन पशुओं को खुले टोलें में एक वर्ष तक चरायेंगे तो वो पशु वापस वैसा ही बन जायेगा.
राजस्थान में केवल वर्षा के मौसम में घास-फूस या ज्वार-बाजरे की खेती होती है. रेगिस्तान में केवल एक ही फसल हो पाती है वो भी महज इतनी ही कि घर का खाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है. यहां हर व्यक्ति के पास दो-चार बकरी, एक-दो भेड़ और एक-दो ऊंट अवश्य मिलेंगे. ये भेड़, बकरी और ऊंट यहां की परिस्थितियों के अनुरूप है. जो आंकड़े, कैर, जांटी, कीकर और बेरी की झाड़ियों को खाकर अपना गुजारा कर लेते हैं.
भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितना बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में एक से दो लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.
ऊंट को 2014 में राजस्थान का राजकीय पशु का दर्जा देना भी इन पशुचारकों के लिए बड़ा अहितकारी कदम रहा हैं. 2015 में एक कानून बना दिया गया कि राजकीय पशु को राज्य की सीमा से बाहर नहीं ले जा सकते जिसके कारण उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रेदेश व पंजाब के किसान यहां ऊंट खरीदने नहीं आ रहे. ऊंट पालकों के पास ले देकर ये पशु मेले बचे थे वो भी बन्द हो गए.
सिरोही जिले में छोटी डूंगरी के पास रहने वाले पशुचारक प्रकाश रायका के पास 35 ऊंट हैं. वे अन्य टोलें के साथ साल भर अपना ये पशुचारकों का काम करते हैं. अब वे भी पुरखों से सीखे पशुपालन के इस काम को छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनके पास दूसरा कोई उपाय भी नहीं है.
प्रकाश हमें बताते हैं कि, "ऊंटनी का एक बच्चा 18 महीने में होता है. जिसमे अंतिम तीन महीने और बच्चे के जन्म के एक महीने तक ऊंटनी से कोई काम नहीं ले सकते. साथ में ऊंटनी की खुराक भी अलग देनी पड़ती है जिसका खर्चा अलग से. राजस्थान सरकार ने 2016 में एक ऊंटनी के बच्चे को पालने पर तीन किस्तों में 10 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद देने का प्रावधान किया था. किंतु वो भी अब पूरी तरह से बन्द हो गया है."
अकेले मारवाड़ (राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र) में करीब दो लाख ऊंट, 90 लाख से ज्यादा भेड़-बकरियां तथा 60 हज़ार से ज्यादा गधे हैं. ऐसे ही गुजरात के कच्छ क्षेत्र के तैरने वाले ऊंट काफी मशहूर हैं. ऊंट, गधे और भेड़-बकरियों के बिना रेगिस्तान में जीवन की कल्पना करना सम्भव नहीं है.
पशुपालन विभाग का मतलब क्या है जब न तो पशुपालकों के अपने पशुओं के लिए स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था है और न ही चारे-पानी की कोई आपूर्ति. सब कागजों में चलता है. लॉकडाउन में इन पशुओं की आवाजाही को तो रोक दिया किन्तु ये नहीं देखा कि ये अपने पशुओं को चरायेंगे क्या?
मैंने लॉकडाउन के दौरान, जब पशुचारक जातियों के मूवमेंट पर रोक लग गई थी. तब राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह से पूछा था कि आपके पास इन पशुचारक जातियों के लिए क्या व्यवस्था है? वीरेंद्र सिंह का कहना था कि, "हमारे पास इन पशुचारकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इनके पशुओं के लिए कोई चारे पानी की व्यवस्था."
पशुधन के नाम पर पिछले वर्ष (2019) 80 गाय, 61 भैंस ही शामिल की गई जबकि गधा, भेड़- बकरी और ख़च्चर एक भी नही आया. घोड़ों की संख्या 3556 है, इसमें देशी घोड़े नाम मात्र को हैं. ऊंटों की संख्या में भारी गिरावट आई है. जहां 2001 में 15460 ऊंट आए थे, 2019 में वो आंकड़ा महज 3298 पर आकर सिमट गया और जो लोग आए भी वे भी अपने ऊंटों को लेकर वापस लौट गये.
कितने ही ऊंटों ने दम तोड़ दिया और कितने ही ऊंट मरने की स्थिति में हैं. जिन ऊंटों की कीमत 30 से 70 हजार हुआ करती थी, उसे 1500 रुपये में भी कोई खरीदने वाला नही हैं. 2001 में जहां पशुओं की बिक्री से 20- 25 करोड़ उगाहे जाते थे, वो आंकड़ा 2019 में महज 4.21 करोड़ पर सिमट गया, जबकि इन 18 साल में इसे 90- 95 करोड़ होना चाहिए था.
लोक संस्कृति को खो देंगे
ये मेला आज के समय मे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, जब समाज जाति, धर्म में बंटा है, चारों और हिंसा का बोलबाला है. चारागाह सिमट रहे हैं, पर्यावरणीय निम्नीकरण से लेकर, लोक स्वास्थ्य का संकट, कृषि की पैदावार और मिट्टी की उर्वरता में कमी, पानी का कुप्रबंधन मुख्य समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है.
हम ये भूल गए हैं कि ये पशुचारक समुदाय हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहे हैं. इनके बगैर हमारी लोक- संस्कृति अधूरी है. इन्होंने हमारे लोक जीवन को बुना है. इनकी कलाएं, संगीत, कथा- कहानियां और कहावतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं. इनके गीतों में प्रकृति के विभिन्न रंगों का वर्णन मिलता हैं. इनकी कथा कहानियों में यहां के भूगोल से लेकर हमारे इतिहास और परम्परा की गहराइयों का उल्लेख है. इनकी कलाएं हमारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रेखांकित करती हैं.
आज विदेशों में हिंदुस्तान कि पहचान में यहां की लोक संस्कृति को उच्च दर्जा दिया जाता है. इसका मुख्य कारण यही हैं. हमारे यहां लोक जीवन ने जो संस्कृति गढ़ी हैं, हमने उसको जिया है. गोरबन्द, मोरुडा, कुरजां, पापीहा (पपीहा) जैसे सेंकडों गीत हैं. जिनको सुनकर लोग झूमने लगते हैं.
ऐसे ही एक गीत है 'गोरबन्द'. इसका मतलब होता है 'गले का हार' लेकिन ये हार इंसान के लिए नहीं हैं बल्कि ऊंट के लिए है. इस गीत में नायिका कहती है कि-
'लड़ली लूमा झुमा ऐ,
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ
ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
ऐ गायां चरावती गोरबन्द गुंथियों, तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज,
म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो
जब ये ऊंट मेरे पति को सही सलामत वापस ले आएगा तो मैं उसके गले में ये गोरबन्द बांदुगी. गोरबन्द उस ऊंट के लिए है, जिस पर बैठकर नायक सिंध, मुल्तान में व्यापार करने के लिए गया है. नायिका इसमें रेगिस्तान के हिस्सों का वर्णन करती है कि राजसमंद और बीकानेर से इसके लिए ये लड़ियां मंगवाई हैं. जिनको देवरानी ओर जेठानी ने गाय- भैंसों को चराते हुए मनकों में पिरोया है. यहां डूंगर (पहाड़) प्रकर्ति के विभिन्न रंग दिखलाई पड़ते हैं. इस गीत में उस समय की आजीविका, व्यापार ओर उसके मार्गों का वर्णन मिलता है.
जन्मजात अपराधी कानून, 1871 पारित होने और भारत विभाजन (1947) से पहले रेगिस्तान से ऊंटों, गधों और गाय- बैलों के कारवां सिंध, मुल्तान होते हुए अफ्रीका तक जाया करते थे. इस कारवां में ये पशुचारक जातियां और उनके हज़ारों ऊंट, गधे, गाय बैल और भेड़- बकरियां हुआ करते थे. प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफान हबीब ने इस व्यापार को बहुत ही सुंदर तरीके से इतिहास में सहेजा है.
इन गीतों को बनाने और उसे स्थान तक पहुचाने में यही घुमन्तू पशु चरवाहे रहे हैं. इनके लोक वाद्य भी उसी लोकल पारिस्थितिकी से बने होते हैं. इनके लोक वाद्य में आम और आड़ू की लकड़ी, भेड़- बकरी की खाल और नारियल की टोपली, लौ का खोल इत्यादि हैं जो आसानी से उपलब्ध हैं. यदि रेगिस्तान से इन पशुचारकों को हटा देंगे तो बचेगा क्या?
पुष्कर मेले को पशुपालन विभाग, जिला प्रशासन व पर्यटन विभाग मिलकर आयोजित करते है. पर्यटन विभाग के तो दो चर्चित वाक्य भी हैं. 'पधारो म्हारे देश' और 'न जाने क्या दिख जाये' किन्तु पर्यटन विभाग की निरन्तर इन समुदायों की अवहेलना और इवेंट कम्पनियों को टेंडर देने से ये मेले बर्बाद हो रहे हैं.
आखिर पर्यटन विभाग ने पुष्कर मेले के स्थगन का नोटिफिकेशन जारी क्यों नहीं किया? पशु मेलों पर चलने वाले पर्यटन विभाग के पास इन समुदायों के लिए पिछले एक वर्ष से क्या कार्य नीति है? पुष्कर मेले के इवेंट क्यों समाप्त किये गए और आगे उनका क्या रुख है? ये सवाल तो ज्यों के त्यों बरकरार रहेंगे, जब तक वे ये नहीं बताते की पर्यटन विभाग, इवेंट कम्पनियों पर इतना मेहरबान क्यों हैं?
हमने इस विषय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सचिव गायत्री एस राठौड़ से भी बात की क्योंकि विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला इन पशुचारकों और घुमन्तू समुदायों का मेला हैं. गायत्री राठौड़ का कहना था कि "हम इस विषय में सम्बंधित विभाग से बात करेंगे. पुष्कर मेले को पिछले वर्ष की तरहं से नहीं होने देंगे. इन समुदायों की जैसे परम्परा रही हैं. हम उन परम्पराओं को वापस स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे." किन्तु इस बार पुष्कर मेले में केवल स्नान हुआ तो उनको दखल देने की आवश्यकता ही नही हुई."
पुष्कर मेला तो हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहा है. इन्हीं स्मृतियों ने हमें बुना है. यदि ये मेला नही रहेगा तो ये स्मृतियां भी धुंधली पड़ जायेंगी. किसी भी सभ्यता की एक खूबी ये भी रहती है कि उसके पास अपने पुरखों की कितनी धरोहर अभी जिंदा है. यदि हम ऐसे ही उलूल- जुलूल निर्णय करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढियां हमसे शर्मिंदा होंगी.
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